Wednesday, December 7, 2022

कैसे और कब होगी पाकिस्तानी कब्जे से ज़मीन की वापसी?

 देस-परदेश

कश्मीर की पहेली-1

पाकिस्तान के नए सेनाध्यक्ष जनरल सैयद आसिम मुनीर ने पिछले शनिवार को कहा कि हमारी सेना पूरी ताक़त के साथ दुश्मन को जवाब देने के लिए तैयार है. पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष के तौर पर यह सामान्य बयान है, पर यह समझने की जरूरत है कि यह बयान क्यों दिया गया है. उन जटिलताओं को समझना चाहिए, जो जम्मू-कश्मीर विवाद से जुड़ी हैं.

गत 29 नवंबर को नया पद संभालने के बाद जनरल मुनीर पहली बार पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर के दौरे पर आए थे. वहाँ जाकर उन्होंने कहा कि भारतीय नेतृत्व ने गिलगित-बल्तिस्तान और कश्मीर को लेकर हाल में ग़ैर-जिम्मेदाराना बयान दिए हैं, इसलिए मैं साफ़ करना चाहता हूं कि पाकिस्तान की सेना अपने इलाके के एक-एक इंच की रक्षा करने को तैयार है.

रक्षामंत्री का बयान

पहली नजर में यह बात पाकिस्तानी राजनीति के आंतरिक इस्तेमाल के लिए कही गई है. ऐसे बयान वहाँ से आते ही रहते हैं. यह भी माना जा सकता है कि यह बात हाल में रक्षामंत्री राजनाथ सिंह और सेना की नॉर्दर्न कमांड के अध्यक्ष लेफ्टिनेंट जनरल उपेंद्र द्विवेदी के बयानों के जवाब में कही गई है.

उन वक्तव्यों से संदेश गया था कि शायद पाक-अधिकृत कश्मीर को वापस लेने के लिए भारत फौजी कार्रवाई करने का विचार कर रहा है. व्यावहारिक परिस्थितियों को देखते हुए नहीं लगता कि भारत का इरादा सैनिक कार्रवाई करने का है.

यूक्रेन-युद्ध से पैदा हुए घटनाचक्र से भी लगता नहीं कि भारत इस समय युद्ध का जोखिम मोल लेना चाहेगा. वह इस समय जी-20 का अध्यक्ष भी है, इसलिए वैश्विक-शांति को भंग करने की तोहमत भी भारत अपने ऊपर नहीं लेना चाहेगा. पर रक्षामंत्री का बयान भी निराधार नहीं है. उसके पीछे दो कारण नजर आते हैं. एक, डिप्लोमैटिक और दूसरा आंतरिक राजनीति से जुड़ा है.

ताकि सनद रहे

भारत इस बात को रेखांकित करना चाहता है कि कश्मीर विवाद का मतलब है, कश्मीर पर पाकिस्तानी कब्जा. हमें वह ज़मीन वापस चाहिए. यह भी लगता है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में पीओके की वापसी को भी बीजेपी एक मुद्दा बना सकती है. 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद कश्मीर से अनुच्छेद 370 की वापसी हुई थी. इस प्रक्रिया की सहज परिणति है शेष जमीन की वापसी.

गत 27 अक्टूबर को श्रीनगर में शौर्य दिवस के मौके पर रक्षामंत्री राजनाथ ने कहा था कि हमारी यात्रा उत्तर की दिशा में जारी है. हम पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर को भूले नहीं हैं, बल्कि एक दिन उसे वापस हासिल करके रहेंगे. जम्मू और कश्मीर और लद्दाख में सर्वांगीण विकास का लक्ष्य पीओके के हिस्से वाले गिलगित-बल्तिस्तान तक पहुंचने के बाद ही हासिल होगा.

Tuesday, December 6, 2022

राष्ट्रीय-एकता के प्रतीक बन सकते हैं अयोध्या के मंदिर-मस्जिद


अयोध्या के मंदिर-मस्जिद विवाद ने देश को बहुत कुछ सोचने समझने का मौका दिया है और आज हम ठंडे दिमाग से देश की एकता और संस्कृति की बहुलता पर विचार कर सकते हैं। दो साल पहले 2020 में स्वतंत्रता दिवस के ठीक दस दिन पहले अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण शुरू होने के साथ एक नए युग की शुरुआत हुई थी। आशा है कि मंदिर की छत और गुंबद का काम अगस्त 2023 में पूरा हो जाएगा और हाल में श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट ने मंदिर का निर्माण दिसंबर 2023 तक पूरा हो जाने की बात कही है।

संभवतः जनवरी 2024 में मकर संक्रांति के बाद मंदिर में विधिवत दर्शन-पूजन शुरू कर हो जाएंगे। मंदिर के प्रथम तल का निर्माण कार्य पूरा हो जाएगा और सूर्य के उत्तरायण होते ही शुभ मुहूर्त में मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा हो जाएगी। संभावना है कि उसी समय मंदिर से करीब 25 किलोमीटर दूर प्रस्तावित मस्जिद के पहले चरण का निर्माण भी पूरा हो जाएगा।

2019 में सुप्रीम कोर्ट का फैसला जब आया तब एक बात कही जा रही थी कि भारतीय राष्ट्र-राज्य के मंदिर का निर्माण सर्वोपरि है और इसमें सभी धर्मों और समुदायों की भूमिका है। हमें इस देश को सुंदर और सुखद बनाना है। मंदिर आंदोलन के कारण गाड़ी ऐसी जगह फँसी, जहाँ से बाहर निकालने रास्ता सुझाई नहीं देता था। अदालत ने उस जटिल गुत्थी को सुलझाया, जिस काम से वह पहले बचती रही थी। यह फैसला दो कारणों से उल्लेखनीय था। एक तो इसमें सभी जजों ने एकमत से फैसला किया और केवल एक फैसला किया। उसमें कॉमा-फुलस्टॉप का भी फर्क नहीं रखा। यह बात बहुत से लोगों को अच्छी लगी और कुछ लोगों को खराब भी लगी।

सुप्रीम कोर्ट के सामने कई तरह के सवाल थे और बहुत सी ऐसी बातें, जिनपर न्यायिक दृष्टि से विचार करना बेहद मुश्किल काम था। पर उसने एक जटिल समस्या के समाधान का रास्ता निकाला। और अब इस सवाल को हिन्दू-मुस्लिम समस्या के रूप में देखने के बजाय राष्ट्र-निर्माण के नजरिए से देखा जाना चाहिए। सदियों की कड़वाहट को दूर करने की यह कोशिश हमें सही रास्ते पर ले जाए, तो इससे अच्छा कुछ नहीं होगा।  

अदालत ने इस मामले की सुनवाई पूरी होने के बाद सभी पक्षों से एकबार फिर से पूछा था कि आप बताएं कि समाधान क्या हो सकता है। इसके पहले अदालत ने कोशिश की थी कि मध्यस्थता समिति के मार्फत सभी पक्षों को मान्य कोई हल निकल जाए। ऐसा होता, तो और अच्छा होता। पर इसके साथ ही कुछ सवाल भी खड़े हुए। क्या यह राष्ट्र-निर्माण का मंदिर बन पाएगा? क्या यह एक नए युग की शुरुआत है? ये बड़े जटिल प्रश्न हैं।

Sunday, December 4, 2022

कांग्रेस की ‘सेल्फ-गोल’ राजनीति


कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के रावण वाले बयान को लेकर राजनीति गर्म है। इस मामले में जयराम रमेश और पवन खेड़ा ने खड़गे जी के बयान का बचाव करते हुए कहा है कि मोदी जी आप हमारे नेताओं और बुजुर्गों के बारे में बोलते हो, तो सुनने की भी हिम्मत रखिए। आप क्या छुई-मुई बनकर राजनीति करेंगे? आप किसी को कुछ भी बोलते रहें...मसलन इटली की बेटी, जर्सी गाय, 50 करोड़ की गर्लफ्रेंड और शूर्पनखा। आप क्या खास हैं? स्वर्ग से आए हैं? राजनीति में आए हैं, बोलना जानते हैं, तो सुनना भी सीखिए। जयराम रमेश ने भी सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के बारे में की गई मोदी की टिप्पणियों का उल्लेख किया। कांग्रेसी नेताओं की टिप्पणी के पीछे के तर्कों और राजनीतिक-भाषा की गरिमा पर अलग से विचार करने की जरूरत है। जो सवाल खेड़ा और रमेश ने किए हैं, वैसे ही सवाल बीजेपी की तरफ से भी हैं। फिलहाल यहाँ एक व्यावहारिक प्रश्न है। गुजरात के चुनाव में ऐसी बात कहने से क्या कोई फायदा होगा? 2007 के चुनाव की शुरुआत सोनिया गांधी ने मौत का सौदागर से की थी, हासिल क्या हुआ? मोदी के खिलाफ इस किस्म की अपमानजनक टिप्पणियाँ कांग्रेस की पुरानी और फेल रणनीति रही है। इस बार भी शुरुआत मधुसूदन मिस्त्री ने मोदी की औकातबताने से की है। पार्टी का मन मोदी को कोसते हुए भर नहीं रहा है। इससे मोदी ही केंद्रीय विषय बन गए हैं। भले ही यह प्रसिद्धि नकारात्मक है, पर मोदी को गुजरात से उठकर राष्ट्रीय नेता बनने में इस बात का बड़ा योगदान है। 

बदलती रणनीति

टिप्पणियाँ ही रणनीति है, तो फिर उसे पूरी शक्ल दीजिए। दिसंबर, 2017 में ऐसी ही एक टिप्पणी पर मणि शंकर अय्यर को हाथोंहाथ निलंबित कर दिया गया। जिस वक्त मणि शंकर अय्यर की मुअत्तली की खबरें आ रहीं थीं उसी वक्त अमित शाह का ट्वीट भी सायबर-स्पेस में था। उन्होंने एक सूची देकर बताया था कि कांग्रेस मोदी को किस किस्म की इज्जत बख्शती रही है। इनमें से कुछ विशेषण हैं, यमराज, मौत का सौदागर, रावण, गंदी नाली का कीड़ा, मंकी, वायरस, भस्मासुर, गंगू तेली, गून वगैरह। दिसंबर, 2017 में कांग्रेस पार्टी अपनी छवि किसी और दिशा में बना रही थी। अनुभव बताता है कि कांग्रेस का दांव बार-बार उल्टा ही पड़ा है।

उल्टा पड़ा निशाना

आज मोदी जब अपने को चायवालाबताते हैं, तो लगता है कि वे अपना प्रचार कर रहे हैं। याद करें कि किसने उन्हें चायवाला कहा था? 2014 के चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस महा समिति की बैठक में मणि शंकर ने ही मोदी को चाय बेचने का सुझाव दिया था, जो पार्टी पर भारी पड़ा था। बीजेपी ने ‘चाय पर चर्चा’ को राजनीतिक रूप दे दिया। चाय वाले का वह रूपक मौके-बेमौके आज भी कांग्रेस को तकलीफ पहुँचाता है। नरेंद्र मोदी ने भी व्यक्तिगत टिप्पणियों को सुनने और उन्हें अपने पक्ष में करने में महारत हासिल कर ली है। ऐसे कई उदाहरण हैं, जब कांग्रेस ने सीधे तौर पर पीएम मोदी पर हमला किया, लेकिन हर बार उन्होंने सफलतापूर्वक बाजी पलट दी और विजयी हुए। इस समय ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि गुजरात में क्या होने वाला है?  गुजरात में ही नहीं राष्ट्रीय राजनीति को लेकर उसकी रणनीति क्या है?

Saturday, December 3, 2022

केरल के विझिंजम बंदरगाह की परियोजना के कारण बढ़ा सामुदायिक विद्वेष


केरल में बन रहे देश के सबसे बड़े बंदरगाह अडानी पोर्ट को लेकर विवाद पैदा हो गया है। ऐसे विवाद बंदरगाहों, कारखानों, नाभिकीय बिजलीघरों, बाँधों, राजमार्गों और ऐसे ही दूसरे कार्यक्रमों को लेकर होते रहे हैं, पर यह विवाद एक अलग कारण से चर्चित हो रहा है। कारण है इसे लेकर दो प्रकार के आंदोलनों का शुरू होना। एक आंदोलन इसके विरोध में है और दूसरा इसके समर्थन में। दोनों आंदोलनों के पीछे सांप्रदायिक आधार है।

7500 करोड़ रुपये के विझिंजम इंटरनेशनल सीपोर्ट लिमिटेड प्रोजेक्ट जिसे अडानी पोर्ट के नाम से जाना जाता है, गत 16 अगस्त से संकट से जूझ रहा है और विरोध के कारण परियोजना का काम रोक दिया गया है। पिछले हफ्ते शनिवार को बंदरगाह के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन हिंसक हो गया। आंदोलनकारियों ने एक पुलिस स्टेशन पर हमला करके वहां तोडफोड़ की। इससे पहले पुलिस ने उन प्रदर्शनकारियों को गिरफ़्तार किया था, जिन्होंने ग्रेनाइट ला रहे ट्रकों का रास्ता रोका था। इससे नाराज़ प्रदर्शनकारियों ने पुलिस स्टेशन पर हमला कर दिया।

राज्य के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन का कहना है, यह सरकार के खिलाफ़ प्रदर्शन नहीं है, बल्कि राज्य के विकास को रोकने की कोशिश है। उनके मंसूबों को कामयाब नहीं होने दिया जाएगा। दूसरी तरफ इसके विरोधी मानते हैं कि बंदरगाह बनने से न केवल आसपास के, बल्कि तिरुवनंतपुरम से लेकर कोल्लम तक पूरे तट पर मछुआरों की आजीविका को नुकसान पहुंचेगा। इसका सांप्रदायिक रूप इसलिए उभरा क्योंकि तटवर्ती मछुआरे लैटिन कैथलिक चर्च के सदस्य हैं और चर्च उनका नेतृत्व कर रहा है। वे

इस परियोजना के तहत ऐसा निर्माण किया जाएगा, जिससे भारतीय तट पर बड़े मालवाहक जहाज़ आ सकेंगे। अभी छोटे भारतीय जहाज़ों के लिए भी कोलंबो, सिंगापुर या दुबई के बंदरगाह इस्तेमाल करने पड़ते हैं और आयात निर्यात के लिए वहाँ सामग्री का लदान होता है।

केरल सरकार की कंपनी वीआईएसएल के प्रबंध निदेशक के गोपालकृष्णन ने बीबीसी हिंदी को बताया, हम हर 20-फ़ुट के कंटेनर के लिए 80 अमेरिकी डॉलर का भुगतान करते हैं क्योंकि हम भारत में कहीं भी बड़ा जहाज़ (मदर शिप) पार्क नहीं कर सकते। इससे सात दिनों का नुकसान तो होता ही है साथ-साथ बहुत पैसों की भी बरबादी होती है। यह छोटी रकम नहीं है। 2016-17 के आंकड़ों के मुताबिक हम अकेले इस काम के लिए 1,000 करोड़ रुपये का भुगतान करते हैं। इसके अलावा हम माल ढुलाई पर 3,000-4,000 करोड़ रुपये खर्च करते हैं। कोविड के बाद ये सभी शुल्क चार से पांच गुना बढ़ गए हैं। 20-फुट के कंटेनर में (जिसे टीईयू यानी ट्वेंटी इक्विपमेंट यूनिट कहते हैं) लगभग 24 टन माल लदता है। मदर शिप में 10,000 से 15,000 टीईयू तक भेजा जा सकता है।

भारतीय राजनीति की वैचारिक-विसंगतियाँ


केरल में अडानी पोर्ट द्वारा विकसित की जा रही विझिंजम अंतरराष्ट्रीय बंदरगाह परियोजना के खिलाफ लैटिन कैथलिक चर्च के नेतृत्व में स्थानीय मछुआरों का आंदोलन भारतीय राजनीति की एक विसंगति की ओर इशारा कर रहा है। लैटिन कैथलिक चर्च के आंदोलन के विरोध में सीपीएम और बीजेपी कार्यकर्ता एक साथ आ गए हैं। यह एक रोचक परिस्थिति है। ऐसा ही इन दिनों पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाकों में स्थानीय निकाय में देखने को मिल रहा है। पिछले दिनों नंदकुमार इलाके में हुए कोऑपरेटिव चुनाव में सीपीएम और बीजेपी ने मिलकर तृणमूल के प्रत्याशियों को परास्त कर दिया था। यह चुनाव पार्टी आधार पर नहीं था, जिससे सीपीएम को यह कहने का मौका मिला है कि निचले स्तर पर क्या हो रहा है, हम कह नहीं सकते। अलबत्ता यह स्पष्ट है कि निचले स्तर पर वैचारिक टकराव वैसा नहीं है, जैसा ऊँचे स्तर पर है। 

भारत-जोड़ो यात्रा के महाराष्ट्र में प्रवेश के दौरान राहुल गांधी के सावरकर से जुड़े बयान को लेकर जो विवाद खड़ा हुआ है, वह विरोधी दलों की एकता के सिलसिले में एक महत्वपूर्ण तथ्य को रेखांकित कर रहा है। भारतीय जनता पार्टी के विरोध में अनेक राजनीतिक दल एक-दूसरे के करीब आना तो चाहते हैं, पर सबके अपने हित भी हैं, जो उन्हें करीब आने से रोकते हैं। इन अंतर्विरोधों के पीछे ऐतिहासिक परिस्थितियाँ और इन दलों के सामाजिक आधार भी हैं।

सबसे बड़ी बात यह है कि बड़े स्तर ज़मीनी स्तर पर राजनीतिक कार्यकर्ता विचारधारा के नहीं, निजी हितों के आधार पर काम करते हैं। कुछ लोग बेशक विचारधारा को महत्व देते हैं, पर सब पर यह बात लागू नहीं होती है। दल-बदल कानून के कड़े उपबंधों के बावजूद कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और पूर्वांचल के कुछ राज्यों में हुए सत्ता-परिवर्तनों का क्या संदेश है?

राहुल गांधी के वक्तव्य के संदर्भ में शिवसेना के वरिष्ठ नेता संजय राउत ने शुक्रवार 18 नवंबर को कहा कि राहुल गांधी को सावरकर पर टिप्पणी करने की कोई वजह नहीं थी। इससे महाविकास आघाड़ी (एमवीए) में दरार पड़ सकती है, क्योंकि हम वीर सावरकर को आदर्श मानते हैं। इतिहास को कुरेदने के बजाय राहुल को नया इतिहास रचना चाहिए। उनके इस बयान के बाद कांग्रेस के जयराम रमेश के साथ उनकी विमर्श भी हुआ, ताकि इस प्रकरण की क्षतिपूर्ति की जा सके।