Friday, July 8, 2022

आस्था और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रताओं के बीच संतुलन जरूरी है

मीडिया की सजगता या अतिशय सनसनी फैलाने के इरादों के कारण पिछले कई वर्षों से देश में जहर-बुझे बयानों की झड़ी लगी हुई है। नौबत हत्याओं तक आ गई है। हाल में तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा और उसके पहले बीजेपी की प्रवक्ता नूपुर शर्मा के वक्तव्यों के कारण विवाद खड़े हुए हैं। इन बयानों की सदाशयता या आपराधिक भावना पर विचार अदालतों में ही सम्भव है। इनपर जल्द से जल्द विचार होना चाहिए। पर हम चैनलों, गलियों और चौपालों में बैठी अदालतों में फैसले करना चाहते हैं, जो अनुचित है।

सामाजिक बहस ठंडे दिमाग से ही होनी चाहिए, उत्तेजना और तैश में नहीं। दो चार लोगों की वजह से किसी समुदाय को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। फिर भी जब बुनियादी बातों पर चोट लगती है तब समुदाय कुंठित महसूस करते हैं। ऐसा नहीं कि समूचा ईसाई समुदाय एक जैसा है या सारे हिन्दू एक हैं और सारे मुसलमान एक जैसा सोचते हैं। इनके भीतर कई प्रकार की धारणाएं हैं, पर इनके अंतर्विरोधों को जब भड़काया जाता है तब क्रिया और प्रतिक्रिया होने लगती है। अपनी नेतागीरी चमकाने कुछ ठेकेदार भी सामने आते हैं।

पूरी बहस के साथ कुछ मानवीय मूल्य जुड़े हैं, जो आपस में टकराते हैं। महत्वपूर्ण क्या है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या धार्मिक भावनाओं का सम्मान? यह टकराव केवल भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में है। और यह सब कम से कम दो दिशाओं में जा रहा है। इस्लामोफोबिया से शुरू होकर सभ्यताओं के टकराव तक एक धारा जाती है। यानी मध्ययुगीन प्रवृत्तियों का टकराव। दूसरी तरफ धर्मनिरपेक्षता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और धार्मिक भावनाओं के सांविधानिक-सिद्धांत और उनके अंतर्विरोध हैं।

पश्चिमी देशों में जानबूझकर इस बहस को छेड़ा गया है। सितंबर 2005 में डेनमार्क की एक पत्रिका ने जब कार्टूनों के प्रकाशन की घोषणा की थी, तभी समझ में आता था कि यह सोच-समझकर बर्र के छत्ते में हाथ डालने वाला काम है। पर वह बहस अब भी नहीं हो रही, जिसका वह ट्रिगर पॉइंट था। ऐसा ही 2015 में फ्रांस की कार्टून पत्रिका शार्ली एब्दो में प्रकाशित कार्टूनों के कारण हुआ। 1988 में सलमान रुश्दी की किताब सैटनिक वर्सेज को लेकर ऐसी ही नाराजगी पैदा हुई थी, जिसके कारण ईरान के सुप्रीम लीडर आयतुल्ला खुमैनी ने उनकी मौत का फरमान जारी किया था।

क्या यह मध्य युग की वापसी है जब धार्मिक विचारों को लेकर बड़े-बड़े हत्याकांड हो रहे थे? या उस खुली बहस का प्रस्थान-बिंदु है, जो कभी न कभी तो होगी। शार्ली एब्दो’ पर हुए हमले के बाद आतंकवाद की निंदा करने के अलावा कुछ लोगों ने यह सवाल भी उठाया था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा क्या हो? क्या किसी की धार्मिक मान्यताओं को ठेस पहुँचाई जानी चाहिए? फ्री स्पीच के मायने क्या कुछ भी बोलने की स्वतंत्रता है?

Wednesday, July 6, 2022

एक मुसलमान मित्र का गांधी को पत्र


महात्मा गांधी और भारतीय मुसलमानों के रिश्तों और उसकी पृष्ठभूमि को समझने से जुड़ा साहित्य पढ़ते हुए मुझे गांधी जी का एक लेख पढ़ने को मिला, जो उन्होंने 28 अक्तूबर, 1939 को हरिजन में लिखा था। इस लेख का शीर्षक है क्या मैं ईश्वर का दूत हूँ?’ पहले इस लेख को पढ़ें।

गांधी जी ने लिखा, एक मुसलमान मित्र ने मुझे एक लम्बा पत्र लिखा है। वह कुछ काट-छाँटकर नीचे दिया जा रहा है:

आपके सही ढंग से सोचने के रास्ते की मुख्य कठिनाई यह है कि आपने अपने जो सिद्धांत खुद गढ़ लिए हैं, उन्हीं के प्रकाश में आप सदा हरेक चीज को देखते हैं और उन्हीं के अनुसार उनकी व्याख्या करते हैं और इस तरह आपका हृदय इतना कठोर हो गया है कि आप किसी चीज को खुले दिमाग से देख ही नहीं सकते, चाहे वह कितनी ही महत्व की क्यों न हो।

अगर ईश्वर ने आपको अपना दूत नियुक्त नहीं किया है, तो यह दावा नहीं किया जा सकता कि आप जो कुछ कहते हैं या जो शिक्षा देते हैं, वह ईश्वर का वचन है। पैगम्बरों की सीख और ऊँचे आध्यात्मिक महत्व के सिद्धांतों के रूप में सत्य और अहिंसा की सच्चाई का कोई प्रतिवाद नहीं कर सकता। लेकिन उनकी सच्ची समझ और सही अमल तो सिर्फ उसी के बस की बात है, जिसका परमात्मा से सीधा सम्बन्ध हो। महज अपने शरीर की कामनाओं और भूख का दमन करके अपनी आत्मा को थोड़ा निखार लेने वाला कोई व्यक्ति पैगम्बर नहीं हो जाया करता।

आप अपने को जगत का गुरु मानते हैं। आप यह दावा करते हैं कि आपने उस बीमारी को जान लिया है, जिससे संसार पीड़ित है। आप यह भी एलान करते हैं कि आपका पसंद किया हुआ और आपके द्वारा आचरित सत्य, तथा आपके द्वारा प्रतीत और प्रयुक्त अहिंसा ही पीड़ित संसार के सच्चे उपचार हैं। आपकी इन बातों से सत्य के प्रति आपकी उपेक्षा और भ्रम प्रकट होता है। आप यह स्वीकार करते हैं कि आप गलतियाँ करते हैं। आपकी अहिंसा दरअसल छिपी हुई हिंसा है, क्योंकि उसका आधार सच्चा आध्यात्मिक जीवन नहीं है और न ही वह सच्ची ईश्वरीय प्रेरणा का नमूना है।  

दुनिया का आधे से ज्यादा अनाज इंसानों के पेट में क्यों नहीं जाता?


पिछले महीने खबर थी कि यूक्रेन की सेना ने मारियुपोल स्थित भंडार से टनों अनाज जला दिया। ऐसा इसलिए किया, क्योंकि रूसी सेना की बढ़त के कारण मारियुपोल पर से धीरे-धीर यूक्रेन की सेना का कब्जा खत्म हो रहा था। यह अनाज दोनेत्स्क और रूसी सेना के कब्जे में न चला जाए, इसलिए उसे फूँकना उचित समझा गया। इसमें गेहूँ और मक्का दोनों अनाज थे। इसमें कई दिन तक आग लगी रही।

यूक्रेन और रूस के युद्ध के कारण दुनिया के अनेक देशों में अन्न का संकट पैदा हो गया है। मसलन मिस्र का उदाहरण लें, जो पिछले कई वर्षों से अपने इस्तेमाल का 80 फीसदी अनाज रूस और यूक्रेन से खरीदता रहा है। लड़ाई के कारण इन दोनों देशों से अनाज लाने में दिक्कतें हैं। यूक्रेन की गिनती दुनिया के सबसे बड़े अनाज निर्यातक देशों में होती है। यूक्रेन और रूस दुनिया क 30 प्रतिशत गेहूं, 20 प्रतिशत मक्का और सूरजमुखी के बीज के तेल क 75 से 80 प्रतिशत की आपूर्ति करते हैं।

विश्व खाद्य कार्यक्रम, अपनी सेवाओं के लिए 50 प्रतिशत अनाज यूक्रेन से खरीदता है, पर जिन खेतों में ट्रैक्टर चलते थे, उनमें टैंक चल रहे हैं। 2021 में यूक्रेन में 10.6 करोड़ टन अन्न और तिलहन का रिकॉर्ड उत्पादन हुआ था। इसमें 4.21 करोड़ टन मक्का और 3.22 टन गेहूँ था। अब वहाँ की सरकार का कहना है कि इस साल करीब साढ़े छह टन अनाज और तिलहन ही पैदा हो पाएगा। चूंकि ब्लैक सी की रूसी सेना ने नाकेबंदी कर रखी है, इसलिए निर्यात में भी दिक्कतें हैं।

पर्याप्त अन्न है

ऐसे में यह बात मन में आती है कि रूस और यूक्रेन की कमी को पूरा करने के लिए दुनिया के दूसरे इलाकों में अन्न-उत्पादन बढ़ाना चाहिए। विश्व में इतना अनाज है कि सारे इंसानों का पेट भरने के बाद भी वह बचा रहेगा। यूक्रेन और रूस में जितना अन्न उत्पादन होता है, उसका छह गुना या उससे भी ज्यादा दुनिया जानवरों को खिला देती है, या बायोफ्यूल के रूप में फूँक देती है। दुनिया में पैदा होने वाला आधे से ज्यादा अनाज मनुष्यों की भूख मिटाने के काम नहीं आता।

Sunday, July 3, 2022

महाराष्ट्र में संग्राम अभी चालू आहे…


महाराष्ट्र में पिछले एक सप्ताह में जो हुआ, वह राजनीतिक प्रहसन था या त्रासदी इसका फैसला भविष्य में होगा। 20 जून के आसपास शुरू हुई प्रक्रिया की तार्किक परिणति अभी नहीं हुई है। सत्ता परिवर्तन हुआ है और सोमवार के शक्ति परीक्षण में एकनाथ शिंदे सरकार को विजय भी मिलेगी। बावजूद इसके 11 और 12 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट में होने वाली सुनवाई और अदालत के फैसले पर नजर रखनी होगी, क्योंकि सदन के डिप्टी स्पीकर के प्रति अविश्वास प्रस्ताव और 16 विधायकों को सदस्यता के अयोग्य घोषित करने की प्रक्रिया से जुड़े मसलों की कानूनी स्थिति तभी तय हो पाएगी। लोकसभा में 48 सीटों के साथ राजनीतिक दृष्टि से महाराष्ट्र देश में उत्तर प्रदेश के बाद दूसरा सबसे महत्वपूर्ण राज्य है। बीजेपी की दृष्टि से इस राज्य में वापसी बेहद महत्वपूर्ण है। फिलहाल राज्य की सभी प्रमुख पार्टियों की नजरें अक्तूबर में होने वाले बृहन्मुम्बई महानगरपालिका (बीएमसी) के चुनावों पर है। देश का यह सबसे समृद्ध निकाय शिवसेना का आर्थिक शक्ति-स्रोत है। पिछले 25 साल से उसका इसपर निर्बाध वर्चस्व रहा है। बीजेपी की नजरें इस निकाय पर हैं। उसके बाद 2024 के लोकसभा विधानसभा चुनावों पर असली निशाना है।

अब क्या होगा?

राजनीति का दूसरा, यानी नए समीकरणों का दौर अब शुरू होगा। प्रश्न है कि उद्धव ठाकरे, कांग्रेस और राकांपा के साथ क्या बने रहेंगे या अपना अलग अस्तित्व बनाएंगे? या शिंदे ग्रुप के साथ सुलह-समझौता करके बीजेपी वाले खेमे में वापस लौट जाएंगे? राजनीति में असम्भव कुछ नहीं है। शुक्रवार को उद्धव ठाकरे ने बीजेपी को इंगित करते हुए पूछा, एक ‘कथित शिवसैनिक’ की सरकार ही बननी थी, तो ढाई साल पहले क्या खराबी थी? दूसरी तरफ ढाई साल पहले उन्होंने बीजेपी के नेतृत्व को स्वीकार कर लिया होता, तो उनकी ऐसी दुर्दशा नहीं हुई होती, जैसी अब दिखाई पड़ रही है। कांग्रेस और राकांपा के साथ उनका गठबंधन एक मायने में बेमेल था, पर उसके पीछे भी एक आधार था। दूसरी तरफ 55 में से 39 विधायक यों ही तो उनका साथ छोड़कर नहीं गए होंगे। एकनाथ शिंदे को वे आज ‘कथित शिवसैनिक’ बता रहे हैं, पर कुछ समय पहले तक वे उनके सबसे विश्वस्त सहयोगियों में से यों ही तो नहीं रहे होंगे। और जो बगावत आज सामने आई है, वह किसी न किसी स्तर पर धीरे-धरे सुलग रही होगी।

अघाड़ी या पिछाड़ी?

अब महाविकास अघाड़ी (एमवीए) का क्या होगा? यह तिरंगा बना रहेगा या टूटेगा? जबतक सत्ता में थे, तबतक इसके अस्तित्व को बनाए रखना आसान था। वैचारिक मतभेदों को भुलाते हुए सत्ता की अनिवार्यताएं उनके एक मंच पर खड़े रहने को मजबूर कर रही थीं। इसका भविष्य काफी कुछ शिवसेना के स्वास्थ्य पर निर्भर करेगा, पर इतना साफ है कि ढाई साल के इस प्रयोग का सबसे बड़ा फायदा शरद पवार की राकांपा का हुआ। उसने राज्य में अपने खोए जनाधार को वापस पाने में काफी हद तक सफलता भी पाई है। वह मूलतः मराठा पार्टी है और शिवसेना भी मराठा पार्टी है। दोनों की ढाई साल की एकता से जिस ऊर्जा ने जन्म लिया, वह राकांपा के हिस्से में गई और शिवसेना के हिस्से में आया फटा अंगवस्त्र। अघाड़ी के तीनों पक्षों में केवल राकांपा ने ही भविष्य का रोडमैप  तैयार किया है। शिवसेना और कांग्रेस दोनों की दशा खराब है। शिवसेना में टूट नहीं हुई होती, तो कांग्रेस में होती। आज भी कांग्रेस के भीतर असंतोष है।

अपने-अपने हित

हालांकि इस दौरान राकांपा और कांग्रेस दोनों ने शिवसेना के साथ अपनी एकता को प्रकट किया है, पर यह राजनीति है और सबके अपने-अपने एजेंडा हैं, जो एक-दूसरे से टकराते हैं। अघाड़ी सरकार के उप-मुख्यमंत्री और वित्तमंत्री के रूप में शरद पवार के भतीजे अजित पवार ने राकांपा के चुनाव-क्षेत्रों के लिए पर्याप्त संसाधनों की व्यवस्था कर रखी है। शिवसेना को मुख्यमंत्री पद तो मिला, पर उसने राकांपा और कांग्रेस के साथ मिलकर जिस न्यूनतम साझा कार्यक्रम को स्वीकार किया, उसमें डूबकर शिवसेना का हिन्दुत्व पनीला हो गया। हालांकि ऊँचे स्तर पर तीनों पार्टियों के नेता एकता की बात करते रहे, पर जमीनी स्तर पर कार्यकर्ता कुंठित होते रहे। उसका परिणाम है, यह बगावत।

Friday, July 1, 2022

शिंदे को क्या पता था कि वे मुख्यमंत्री बनेंगे?


महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाकर बीजेपी ने एक तीर से कई निशाने लगाए हैं। एक, उद्धव ठाकरे को कमजोर कर दिया। पार्टी उद्धव ठाकरे को पाखंडी साबित करना चाहती है। वह बताना चाहती है कि 2019 में उद्धव ठाकरे केवल मुख्यमंत्री पद हासिल करने को लालायित थे, जिसके लिए उन्होंने चुनाव-पूर्व गठबंधन को तोड़ा और अपने वैचारिक प्रतिस्पर्धियों के साथ समझौता किया।

बीजेपी पर सरकार गिराने का जो कलंक लगा है कि उसने शिवसेना की सरकार गिराई, उसे धोने के लिए उसने शिवसेना का मुख्यमंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री को उनका डिप्टी बनाया है। इस प्रकार वह त्याग की प्रतिमूर्ति भी बनी आई है। फिलहाल उसकी रणनीति है कि बालासाहेब ठाकरे की विरासत का दावा करने की उद्धव ठाकरे की योजनाओं को विफल किया जाए। बालासाहेब ठाकरे ने सरकारी पद हासिल नहीं करने का जो फैसला किया था, उद्धव ठाकरे ने उसे खुद पर लागू नहीं किया। वे न केवल मुख्यमंत्री बने, बल्कि अपने बेटे को मंत्रिपद भी दिया, जिनके पास कोई प्रशासनिक अनुभव नहीं था।

शिंदे को पता था?

आज के इंडियन एक्सप्रेस ने एक खबर छापी है कि बीजेपी नेतृत्व ने शिंदे को मुख्यमंत्री बनाने का निश्चय कर रखा था और इस बात से शिंदे को शुरू में ही अवगत करा दिया गया था। पर गुरुवार की शाम शपथ ग्रहण के समय पैदा हुए भ्रम से लगता है कि देवेंद्र फडणवीस को इस बात की जानकारी नहीं थी। इस वजह से जेपी नड्डा और अमित शाह को उप-मुख्यमंत्री पद को लेकर सफाई देनी पड़ी। बीजेपी फडणवीस को भी सरकार में चाहती है, ताकि सरकार पर उसका नियंत्रण बना रहे।

फडणवीस योग्य प्रशासक हैं। उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। बीजेपी को 2024 के चुनाव के पहले अपने कई मेगा-प्रोजेक्ट पूरे करने हैं। इनमें बुलेट ट्रेन की परियोजना भी है। वे यदि सरकार से बाहर रहते, तो उनके माध्यम से सरकार चलाना उसपर नियंत्रण रखना गैर-सांविधानिक होता। उससे गलत संदेश जाता और बदमज़गी पैदा होती। पर यह भी लगता है कि उन्हें पूरी तस्वीर का पता नहीं था। इस दौरान वे दो बार दिल्ली गए और अमित शाह तथा जेपी नड्डा से उनकी मुलाकात भी हुई, पर शायद उन्हें सारी योजना का पता नहीं था। गुरुवार की शाम उन्होंने ही शिंदे को मुख्यमंत्री बनाए जाने की घोषणा की थी। उन्होंने तब कहा था कि मैं सरकार से बाहर रहूँगा। ऐसा इसीलिए हुआ होगा क्योंकि उन्हें पूरी जानकारी नहीं थी।

उनकी इस घोषणा ने राजनीतिक पंडितों को चौंका दिया था। इसके कुछ देर बाद जो कुछ हुआ, वह ज़्यादा चौंकाने वाला था। चिमगोइयाँ शुरू हो गई कि उनके पर कतरे गए हैं। फडणवीस ने उसी समय अपने एक ट्वीट से स्पष्ट किया कि मैं पार्टी का अनुशासित सिपाही हूँ। सवाल यह भी है कि उन्होंने यह क्यों कहा कि मैं सरकार में शामिल नहीं होऊँगा? क्या इस विषय पर उनका नेतृत्व के साथ संवाद नहीं हुआ था?

पारिवारिक विरासत

काफी पर्यवेक्षक मान रहे हैं कि केवल शिंदे की मदद से शिवसेना की पारिवारिक विरासत को झपटना आसान नहीं होगा। पर भारतीय राजनीति में ऐसे उदाहरण हैं, जब आक्रामक और उत्साही नेताओं ने पारिवारिक विरासत की परवाह नहीं की। 1989 में मुलायम सिंह ने चौधरी चरण सिंह की विरासत के बावजूद अजित सिंह को परास्त किया। उसके पहले 1987 में जयललिता ने एमजी रामचंद्रन की विरासत को जीता।