Tuesday, June 28, 2022

वैश्वीकरण का चोला क्या अब बदलेगा?


पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की 1992 की एक बहुचर्चित टिप्पणी है, इट इज द इकोनॉमी स्टुपिड। यानी सारा खेल अर्थव्यवस्था का है। नब्बे के दशक में जब वैश्वीकरण ने शक्ल लेनी शुरू की, तब इसका केवल आर्थिक पक्ष ही सामने नहीं था। इसके तीन पहलू हैं: आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक। इन तीन वर्गीकरणों में सांस्कृतिक, वैज्ञानिक, तकनीकी और तमाम दूसरे विषय शामिल हैं। एक मायने में वैश्वीकरण का मतलब है मानव-समुदाय का साझा विकास। 1992 में ही फ्रांसिस फुकुयामा की किताब द एंड ऑफ हिस्ट्री भी प्रकाशित हुई थी। इतिहास का अंत एक तरह से शीत-युद्ध की अवधारणा और पश्चिम की विजय की घोषणा थी। सोवियत संघ के पराभव के बाद पूँजीवाद और खासतौर से अमेरिकी प्रभुत्व के आलोचकों और फुकुयामा समर्थकों के बीच बहस छिड़ी थी, जो आज भी जारी है।

वैश्विक सप्लाई-चेन

दुनिया की सप्लाई-चेन चीन के गुआंगदोंग, अमेरिका के ओरेगन, भारत के मुम्बई, दक्षिण अफ्रीका के डरबन, अमीरात के दुबई, फ्रांस के रेन से लेकर चिली के पुंटा एरेनास जैसे शहरों से होकर गुजरने वाले विमानों, ईमेलों, कंटेनर पोतों, रेलगाड़ियों, पाइपलाइनों और ट्रकों पर सवार होकर चलती है। एयरबस, बोइंग, एपल, सैमसंग, माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, ऑरेकल, वीज़ा और मास्टरकार्ड ने अपने बहुराष्ट्रीय ऑपरेशनों की मदद से दुनिया को जोड़ रखा है। एक देश से उठकर कच्चा माल दूसरे देश में जाता है, जहाँ वह प्रोडक्ट के रूप में तैयार होकर फिर दूसरे देशों में जाता है।    

महामारी ने दुनिया की पारस्परिक-निर्भरता की जरूरत के साथ-साथ विश्व-व्यवस्था की  खामियों को भी उभारा। यूक्रेन के युद्ध ने इसे जबर्दस्त धक्का दिया है। कहा जा रहा है कि लागत कम करने की होड़ में ऐसे तानाशाही देशों का विकास हो गया है, जो मानवाधिकारों के विरुद्ध हैं। यानी रूस और चीन। पिछले पाँच वर्षों से वैश्विक-तंत्र में तनाव बढ़ रहा है। अमेरिका और चीन के बीच आयात-निर्यात शुल्कों के टकराव के साथ इसकी शुरुआत हुई। संरा कांफ्रेंस ऑन ट्रेड एंड डेवलपमेंट (अंकटाड) के निवेश तथा उद्यमिता निदेशक जेम्स जैन ने हाल में अपने एक लेख में लिखा कि इस दशक में 2030 आते-आते ग्लोबल वैल्यू चेन के रूपांतरण की सम्भावना है।

रूपांतरण शुरू

यह रूपांतरण नजर आ रहा है। एपल ने कुछ प्रोडक्ट्स का उत्पादन चीन से हटाकर वियतनाम में शुरू कर दिया है। चीनी कम्पनियों ने मोंटेरी, मैक्सिको में एक विशाल औद्योगिक पार्क स्थापित किया है, ताकि अमेरिकी उपभोक्ताओं की माँग करीबी देश से पूरी की जा सके। मई के महीने में सैमसंग, स्टेलैंटिस और ह्यूंडे ने अमेरिका की इलेक्ट्रिक कार फैक्टरियों में 8 अरब डॉलर के निवेश की घोषणा की है। तीन दशक पहले जो बाजार चीन-केंद्रित था, वह दूसरी जगहों की तलाश में है। बहुत से देश आत्मनिर्भरता की नीति अपना रहे हैं।

Monday, June 27, 2022

महाराष्ट्र-घमासान से जुड़े राजनीतिक-अंतर्विरोध

संविधान सभा में डॉ भीमराव आम्बेडकर ने एकबार कहा था-राजनीति जिम्मेदार हो तो खराब से खराब सांविधानिक व्यवस्था भी सही रास्ते पर चलती है, पर यदि राजनीति में खोट हो तो अच्छे से अच्छा संविधान भी गाड़ी को सही रास्ते पर चलाने की गारंटी नहीं दे सकता। महाराष्ट्र का घमासान हमारे राजनीतिक-अंतर्विरोधों को रेखांकित कर रहा है। यह टकराव विधानसभा सचिवालय और राजभवन तक पहुँच चुका है। इसक निपटारा फ्लोर-टेस्ट से सम्भव है, जो न्यायपालिका की देन है। पर वह आसानी से नहीं होगा। अभी मानसिक युद्ध चल रहा है। इसके बाद राज्यपाल और सदन के डिप्टी स्पीकर की भूमिकाएं महत्वपूर्ण होंगी। इस मामले को अदालत में ले जाने की शुरुआत भी हो गई है। एकनाथ शिंदे के पक्ष ने विधानसभा के उपाध्यक्ष के फैसले को चुनौती दी है।  

फैसला जो भी हो, इस परिघटना ने राजनीति की विडंबनाओं को रेखांकित किया है। उद्धव ठाकरे सरकार के मंत्री एकनाथ शिंदे बागी विधायकों के साथ असम के एक पाँच सितारा होटल में डेरा डाले हुए हैं। मामला जिस करवट भी बैठे, पर सच यह है कि मुख्यधारा के मीडिया की नजर असम की पीड़ित जनता पर कम और राजनीति पर ज्यादा है।  

बेशक इन विडंबनाओं के अनेक पहलू हैं, पर 2014 के बाद की राष्ट्रीय राजनीति के दो कारक इसके जिम्मेदार हैं। एक, भारतीय जनता पार्टी का अतिशय सत्ता-प्रेम और दूसरे, उसे रोक पाने या संतुलित करने में विरोधी दलों की विफलता। इस समय सत्ता-समीकरण बेहद असंतुलित है। इसका एक कारण कांग्रेस पार्टी का पराभव है। पर यह कुल मिलाकर यह राष्ट्रीय राजनीति और लोकतांत्रिक संस्थाओं की विफलता है।

पार्टियों का आंतरिक लोकतंत्र भी कसौटी पर है। हैरत है कि महाराष्ट्र के बागियों को गठबंधन के ढाई साल बाद विचारधारा से जुड़ी बातें याद आ रही हैं। दूसरी तरफ शिवसेना के नेतृत्व और उसके विधायकों का ढाई साल लम्बा अबोला भी अविश्वसनीय है। यह कैसा लोकतंत्र है? इस राजनीतिक-व्यवस्था में राज्यपालों और पीठासीन अधिकारियों की भूमिका है और चुनाव सुधारों को लागू करा पाने से जुड़ी विफलताएं हैं। राजनीति में एक तरफ मनी और मसल पावरकी भूमिका बढ़ रही है और दूसरी तरफ धार्मिक-साम्प्रदायिक संकीर्णता विचारधारा का स्थान ले रही है।

कोलकाता से नया हिन्दी दैनिक 'वर्तमान'

आज 27 जून से कोलकाता से एक नए हिन्दी दैनिक वर्तमान पत्रिका का प्रारम्भ हुआ है। बांग्ला वर्तमान राज्य का प्रमुख दैनिक समाचार पत्र है। प्रख्यात पत्रकार और लोकप्रिय राजनीतिक आलोचक बरुण सेनगुप्ता ने पश्चिम बंगाल के कोलकाता से 7 दिसंबर सन 1984 को इसकी शुरुआत की थी। वे वर्तमान अखबार के संस्थापक संपादक थे। अपने तीखे राजनीतिक विश्लेषण और उसकी सरल प्रस्तुति के लिए वे याद किए जाते हैं। संघर्ष की आग में तप-तप निखरता वर्तमान बंगाल में बांग्ला अखबारों में पाठकों के बीच काफी लोकप्रिय है। साप्ताहिक वर्तमान, सुखी गृहकोण और शरीर ओ स्वास्थ्य इस संस्था द्वारा प्रकाशित अनुषंगी प्रकाशन हैं।

विगत 38 वर्षों से पत्रकारिता धर्म का निर्वहन करता आ रहे 'वर्तमान' के प्रकाशकों का कहना है कि पाठकों का हित ही अखबार की प्राथमिकता होगी। हिन्दीभाषी समाज और पाठकों की उन्नति की राह में हमसफर बनने की एक ईमानदार कोशिश अखबार के माध्यम से की जायेगी। 'ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर' के सिद्धांत को आत्मसात करते हुए एक निष्पक्ष अखबार की नींव उस बंगाल की धरती से रखी जाएगी जहां से हिन्दी के पहले अखबार 'उदंत मार्तंड' का प्रकाशन शुरू हुआ  था।

अखबार का यह भी कहना है कि सामाजिक विद्वेष के खिलाफ लड़ाई और सच का साथ हमारी प्राथमिकता होगी। बंगाल के हिन्दीभाषी समाज को एक नए कलेवर और स्वाद के साथ एक संपूर्ण अखबार देने की दिशा में हमारी कोशिश जारी है। वर्तमान पत्रिका पूरे हिन्दुस्तान की बात करेगा। बिना किसी से प्रभावित हुए सबकी बात मजबूती से रखने में कोई कोर कसर नहीं रखी जाएगी।

Sunday, June 26, 2022

धागे से लटकी उद्धव सरकार


महाराष्ट्र में मचा राजनीतिक घमासान अब विधानसभा सचिवालय और राजभवन तक पहुँच चुका है। इस मसले को अब तक फ्लोर-टेस्ट के लिए विधानसभा तक पहुँच जाना चाहिए था, पर अभी मानसिक लड़ाई चल रही है।  लगता नहीं कि महाविकास अघाड़ी सरकार चलेगी, पर फिलहाल वह एकजुट है। यह एकजुटता कब तक चलेगी, यही देखना है। विधानसभा उपाध्यक्ष यदि कुछ सदस्यों के निष्कासन का फैसला करेंगे, तो मामला अदालतों में भी जा सकता है। जिसका मतलब होगा विलम्ब। यह लड़ाई प्रकारांतर से बीजेपी लड़ रही है और दोनों पक्ष फिलहाल कानूनी पेशबंदियाँ कर रहे हैं। महाराष्ट्र के खिसकने का मतलब है राजनीतिक दृष्टि से देश के दूसरे और आर्थिक दृष्टि से पहले नम्बर के राज्य का राकांपा और कांग्रेस के हाथ से निकल जाना। साथ ही शिवसेना के सामने अस्तित्व का संकट है।

हिन्दुत्व का सवाल

शिवसेना के सामने हिन्दुत्व का सवाल भी है। कांग्रेस और राकांपा के साथ जाने पर पार्टी के हिन्दुत्व का धार पहले ही कम हो चुकी थी। इस बगावत ने धर्मसंकट पैदा कर दिया है। वर्तमान उद्वेलन के पीछे चार कारण नजर आते हैं। एक, हिन्दुत्व और विचारधारा के साथ-साथ भारतीय जनता पार्टी से अलगाव और एनसीपी, कांग्रेस से दोस्ती। दो, ठाकरे परिवार का वर्चस्व। 2019 में जब सरकार बन रही थी, तब उद्धव ठाकरे ने कोशिश की थी कि उनके बेटे आदित्य ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाया जाए। तब शरद पवार ने उन्हें समझाया था। तीसरा कारण है बृहन्मुम्बई महानगरपालिका (बीएमसी) का आसन्न चुनाव, जिसमें शिवसेना के अंतर्विरोध सामने आएंगे। इन तीन कारणों की प्रकृति कमोबेश एक जैसी है। इनके अलावा जिस कारण का जिक्र एनसीपी, कांग्रेस और उद्धव ठाकरे भी कर रहे हैं, वह है बीजेपी का ऑपरेशन कमल। यानी कि बीजेपी ने इस उद्वेलन को हवा दी है। कुछ और कारण भी हैं, पर इन चार वजहों की कोई न कोई भूमिका है।  

बीएमसी चुनाव

इस साल अक्तूबर तक राज्य के शहरी निकायों के चुनाव भी होने हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण बृहन्मुम्बई महानगरपालिका (बीएमसी) का चुनाव है, जो देश की सबसे समृद्ध नगर महापालिका है। इस साल इसका बजट 45 हजार 900 करोड़ रुपये से ऊपर का है। इसके हाथ से निकलने का मतलब है शिवसेना की प्राणवायु का रुक जाना।  मुम्बई और राज्य के कुछ क्षेत्रों में शिवसैनिकों के हाथों में सड़क की राजनीति भी है। उद्योगों तथा कारोबारी संस्थानों के श्रमिक संगठनों से जुड़े ये कार्यकर्ता शिवसेना के हिरावल दस्ते का काम करते हैं। इनके दम पर ही संजय राउत बार-बार एकनाथ शिंदे को मुम्बई आने की चुनौती दे रहे हैं। हालांकि बीजेपी प्रत्यक्षतः इस बगावत के पीछे अपना हाथ मानने से इनकार कर रही है, पर पर्यवेक्षक मानते हैं कि शिंदे यदि सफल हुए, तो उसमें काफी हाथ बीजेपी का ही होगा।

Friday, June 24, 2022

तलफ़्फ़ुज़ से जुड़े सवाल


प्रतिष्ठित पत्रकार प्रभात डबराल ने उर्दू (यानी अरबी या फारसी) शब्दों के तलफ़्फ़ुज़ यानी उच्चारण और हिन्दी में उनकी वर्तनी को लेकर फेसबुक पर एक पोस्ट लिखी है, जिसे पहले पढ़ें:

बहुत पुरानी बात है.. सन अस्सी के इर्द-गिर्द की. दिल्ली के बड़े अख़बार में रिपोर्टर था लेकिन तब के एकमात्र टीवी चैनल दूरदर्शन में  हर हफ़्ते एकाध प्रोग्राम कर लेता था. एक विदेशी टीवी न्यूज़ चैनल के दिल्ली ब्यूरो में तीन साल काम कर चुका था इसलिए टीवी की बारीकियों की थोड़ा बहुत समझ रखता था लेकिन हिंदी में उर्दू से आए शब्दों के उच्चारण में हाथ बहुत तंग था.

कोटद्वार से स्कूलिंग और मसूरी से डिग्री करके आया था इसलिए नुक़्ता क्या होता है अपन को पता ही नहीं था. सच कहूँ तो अभी भी नुक़्ता कहाँ लगाना है कहाँ नहीं ये सोच कर पसीना आ जाता है. ख़ासकर ज पर लगने वाला नुक़्ता. हालत ये कि किसी ने  सिखाया कि भाई ये बजार नहीं बाज़ार होता है तो हम बिजली को भी बिज़ली कहने लगे..जरा को ज़रा और ज़र्रा को जर्रा कहने वाले  अभी भी बहुत मिल जाते हैं…

नुक़्ते के इस आतंक के बीच आज आकाशवाणी में काम करने वाले एक (सोशल मीडिया में मिले)मित्र प्रतुल जोशी की इस पोस्ट पर नज़र पड़ी तो लगा शेयर करनी चाहिए…:

ज़बान के रंग, नाचीज़ लखनवी के संग

आप अगर सही तरह से अल्फ़ाज़ को पेश नहीं करते तो यह प्रदर्शित करता है कि आप का भाषा के प्रति ज्ञान अधूरा है। आज मैं हिंदुस्तानी ज़बान के कुछ रोचक तथ्यों की तरफ़ अपने मित्रों का ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा।

1. सही शब्द है यानी, प्रायः लिखा जाता है यानि

2. शब्द है रिवाज। प्रायः लिखा/ बोला जाता है रिवाज़। इस को याद रखने का आसान तरीक़ा है कि शब्द "रियाज़" याद रखा जाए। जहां रिवाज में नुक़्ता नहीं लगता, रियाज़ में लगता है।

.3. उर्दू में दो शब्द नुक़्ता लगाने से बिल्कुल दो भिन्न अर्थों को संप्रेषित करते हैं। यह हैं एजाज़ और एज़ाज़। जहां ऐजाज़ का अर्थ चमत्कार होता है, वहीं ऐज़ाज़ का अर्थ है "सम्मान"।