Monday, June 13, 2022

भस्मासुर साबित होने लगे हैं इमरान खान

जबसे इमरान खान की कुर्सी छिनी है, उन्होंने आंदोलन छेड़ रखा है। पाकिस्तान के सामने तमाम तरह की चुनौतियाँ खड़ी हैं। उनके बीच इमरान खुद बड़ी समस्या बन गए हैं। वे फौरन चुनाव चाहते हैं। उन्हें लगता है कि आज चुनाव हों, तो उन्हें भारी जीत मिलेगी। सच है कि उनकी लोकप्रियता बढ़ी है और भड़काऊ भाषणों से उनके समर्थकों का हौसला बुलंद है। पर, अर्थव्यवस्था लगातार गिर रही है। आंदोलनों की आँधी के कारण उसे सुधारने की कोशिशों को पलीता लग रहा है। अब उन्होंने देश के तीन टुकड़े होने, सेना की तबाही और एटम बम छिनने का शिगूफा छेड़कर जनता को भयभीत कर दिया है।

फौरन चुनाव की माँग

गत 10 अप्रैल को नेशनल असेंबली में अविश्वास प्रस्ताव के बाद वे सत्ता से बाहर हो गए थे। इसके बाद उन्होंने सार्वजनिक भाषणों में बार-बार दावा किया था कि हम 20 लाख पीटीआई कार्यकर्ताओं को इस्लामाबाद लाएंगे और तब तक वहीं रहेंगे, जब तक चुनाव की तारीख़ों की घोषणा नहीं की जाती। फिर 25 मई को देशव्यापी ‘लांग मार्च’ की घोषणा की और ‘पूरे देश’ को इस्लामाबाद पहुंचने का आह्वान किया।

उनकी अपील बेअसर रही और उन्होंने उसे इस घोषणा के साथ मार्च समाप्त कर दिया, कि हम ‘अगले छह दिनों में दोबारा मार्च करेंगे’। अब कह रहे हैं कि हम सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार करेंगे। अब कह रहे हैं कि सरकार मुझपर ग़द्दारी का मुक़दमा बनाकर रास्ते से हटाना चाहती है। 4 जून को ख़ैबर पख़्तूनख़्वाह में एक जलसे में उन्होंने कहा, जब तक ख़ून है वक़्त के यज़ीदों का मुक़ाबला करता रहूँगा। वे अपने भाषणों में धार्मिक प्रतीकों का जमकर इस्तेमाल करते हैं।

तबाह अर्थव्यवस्था

इमरान खान ने आंदोलन के लिए ‘लांग मार्च’ का सहारा लिया है। एक शहर से दूसरे शहर के बीच कारों, बसों और ट्रकों पर बैठे आंदोलनकारियों के काफिले सड़कों पर हैं। एक तरफ देश आर्थिक संकट से घिरा है और दूसरी तरफ आंदोलनों की बाढ़ है। जुलूसों को रोकने के लिए इस्लामाबाद में कंटेनरों के ढेर लगे हैं। इससे सड़कों पर यातायात प्रभावित हुआ है, आए दिन स्कूल बंद होते हैं खाने-पीने की चीजों की किल्लत हो जाती है।

Sunday, June 12, 2022

इस हिंसक-विरोध के पीछे कौन?


पैग़ंबर मोहम्मद के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणी को लेकर शुक्रवार को देश के अलग-अलग शहरों में जिस स्तर पर विरोध-प्रदर्शन हुए हैं, उन्हें लेकर चिंता पैदा होनी चाहिए। उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, मध्य प्रदेश, तेलंगाना, गुजरात, बिहार, झारखंड और महाराष्ट्र के अलावा जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर में विरोध प्रदर्शन हुए हैं। कई जगह इंटरनेट सेवाओं को स्थगित करना पड़ा है। विरोध यदि लोकतांत्रिक तरीके से किया जाए, तो इसमें आपत्ति नहीं है, पर यदि पत्थरबाजी और आगजनी जैसी हिंसक कार्रवाइयों का सहारा लिया जाएगा, तो चिंता होना स्वाभाविक है। इस दौरान सकारात्मक बातें भी हुई हैं। दिल्ली के शाही इमाम ने खुद को जामा मस्जिद के बाहर हुए प्रदर्शन से अलग किया। दूसरी तरफ मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने मुस्लिम मौलानाओं से कहा है कि वे ऐसी टीवी बहसों में शामिल नहीं हों, जिनका उद्देश्य ‘इस्लाम और मुसलमानों’ का अपमान करना हो। सवाल है कि कौन है जो ‘इस्लाम और मुसलमानों’ का अपमान करना चाहता है? पर ऐसी बहसों की जरूरत ही क्या है? वैश्विक-मंच पर यह चुनौतियों से भरा समय है। भारत सरकार पर भी मित्र-देशों के साथ सम्बन्ध बनाए रखने की चुनौती है। सरकार राष्ट्रीय-हितों को देख-समझकर ही कदम उठाती है। इसलिए हमें माहौल को शांत बनाने की कोशिश करनी चाहिए। इन उपद्रवों के कारण मुसलमानों का गुस्सा सामने जरूर आया है, पर उनके आंदोलन का नैतिक-आधार कमजोर हुआ है।

खुल्लम-खुल्ला विद्वेष

समय आ गया है कि मीडिया में इस्तेमाल की जा रही भाषा और अभिव्यक्ति के बारे में पुनर्विचार किया जाए। टीवी की बहसों में जो अनाप-शनाप बातें खुल्लम-खुल्ला बोली जा रही हैं, चिंता उनपर भी होनी चाहिए। इसके पीछे राजनीतिक कारण भी हैं, पर राजनीति के कारण यह विद्वेष नहीं है। हमारे सामाजिक जीवन में यह दरार पहले से मौजूद है, जिसका प्रतिविम्ब हमें राजनीति में देखने को मिल रही है। देश के विभाजन ने इस दरार को और गहरा किया है। अलबत्ता इन जहरीली बातों से ध्रुवीकरण बढ़ेगा। मुसलमानों को कुछ भी नहीं मिलेगा, बल्कि नुकसान होगा। देखना होगा कि हिंसक-रोष अनायास है या इसके पीछे कोई योजना है? भारत सरकार के स्पष्टीकरण और सम्बद्ध दोनों व्यक्तियों के पार्टी से निष्कासन और एफआईआर दर्ज होने के बावजूद इतने बड़े स्तर पर भावनाओं को किसने भड़काया? अभी यह तय होना है कि जिस टिप्पणी को लेकर आंदोलन खड़ा हुआ है, उसमें आपत्ति किस बात पर है। टिप्पणीकार का और उनके साथ बहस करने वाले का लहजा कैसा था वगैरह। पर यह सब कौन तय करेगा? कोई अदालत ही तय कर सकती है। जाँच इस बात की भी होनी चाहिए कि टीवी डिबेट के बाद सोशल मीडिया पर किसने इसे ‘गुस्ताख़-ए-रसूल’ का रंग दिया? किसने इसका अरबी में अनुवाद करके पश्चिम एशिया में सनसनी फैलाई?

बैकलैश का खतरा

क्या किसी को उस ‘बैकलैश’ का अनुमान है, जो इसके बाद सम्भव है?  किसी ने सोचा है कि अरब देशों की कड़वी बातों और देशभर में हुए हिंसक-विरोध की प्रतिक्रिया कैसी होगीकुछ लोगों को लगता है कि इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की फज़ीहत होगी। इस बात से उन्हें खुशी क्यों मिलती है? उनका इसमें क्या फायदा है? देश की बहुसंख्यक जनता की खामोशी को पढ़ने की कोशिश भी कीजिए।  थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं कि भारत सरकार ने अरब देशों के दबाव को मानते हुए जवाब दिया और कार्रवाई की। पर किसलिए? क्योंकि करीब 85 लाख भारतीय पश्चिम एशिया के देशों में काम करते हैं। उनमें बड़ी संख्या मुसलमानों की है। उनके हितों को चोट न लगने पाए। अरब देशों के हित भी हमारे साथ जुड़े हैं। अरब देशों का ऐसा ही रुख जारी रहा, तो उनके खिलाफ भी भारत में माहौल बनेगा। देश की जनता अपने अंदरूनी मामलों में विदेशी-हस्तक्षेप को स्वीकार नहीं करेगी। पेट्रोलियम का कारोबार खत्म होने वाला है। उन्हें पूँजी निवेश के लिए नए बाजार की जरूरत है।

पाकिस्तानी भूमिका

भारत-विरोधी परियोजनाओं के पीछे प्रत्यक्ष या परोक्ष पाकिस्तान का हाथ भी होता है। भारत में कौन लोग हैं, जो इसे अंतरराष्ट्रीय रंग देना चाहते हैं? शाहीनबाग, हिजाब और जहाँगीरपुरी जैसे प्रसंगों के बाद पीएफआई और एसडीपीआई जैसे संगठनों के नाम सामने आए हैं। इस मसले को ही नहीं अपने सभी मसलों को हम देश की उपलब्ध न्याय-प्रणाली के अनुसार ही सुलझाएंगे। पर एक नजर पाकिस्तान पर डालना जरूरी है। इसकी एक वजह ईशनिंदा से जुड़ा कानून है, जो विभाजन से पहले के अंग्रेजी राज की देन है और जिसमें स्वतंत्रता के बाद पाकिस्तान में बदलाव किया गया। पिछले साल शुक्रवार 3 दिसंबर को पाकिस्तान के शहर सियालकोट में उन्मादी भीड़ ने ईशनिंदा के नाम पर श्रीलंका के एक नागरिक की बर्बर तरीके से पीट-पीट कर हत्या कर दी और बाद में उनके शव में आग लगा दी। प्रियांथा कुमारा नाम के श्रीलंकाई नागरिक ईसाई थे और सियालकोट ज़िले में वज़ीराबाद रोड स्थित एक परिधान फैक्ट्री राजको इंडस्ट्रीज़ में मैनेजर के तौर पर पिछले नौ साल से काम कर रहे थे। इस हत्या के बाद पाकिस्तान की न्याय-व्यवस्था ने आनन-फानन सजाएं भी दे दी हैं। इसकी एक वजह दुनिया में हुई बदनामी है।

ईशनिंदा

ईशनिंदा के नाम पर हिंसा ऐसा अपराध है, जिसमें हत्यारों को हीरो बना दिया जाता है। उनपर फूल मालाएं चढ़ाई जाती हैं। उन्हें फाँसी की सजा मिल जाए, तो उनकी कब्र को तीर्थ का रूप दे दिया जाता है। एक नहीं ऐसे अनेक मामले हैं। पाकिस्तान के इस कानून की पृष्ठभूमि में अविभाजित भारत की घटनाएं है। 1920 के दशक में भारत के हिन्दू और मुस्लिम सम्प्रदायों के बीच करीब-करीब ऐसी ही बहसें चल रही थीं, जैसी आज हैं। सन 1929 में लाहौर के प्रकाशक महाशय राजपाल की हत्या इल्मुद्दीन नाम के एक किशोर ने कर दी। इल्मुद्दीन को हत्या के आरोप में फाँसी की सजा हुई थी, पर पाकिस्तान में आज भी उसे गाज़ी इल्मुद्दीन शहीद माना जाता है। उसकी कब्र पर हजारों की भीड़ जमा होती है। खैबर पख्तूनख्वा सरकार के आदेश से स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रम में एक अध्याय गाज़ी इल्मुद्दीन शहीद पर भी है।

धारा 295(ए)

महाशय राजपाल की हत्या के पहले ब्रिटिश सरकार ने 1927 में भारतीय दंड संहिता में धारा 295 (ए) जोड़ दी थी, जिसका उद्देश्य हेट स्पीच और धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने की कोशिशों को रोकना था। अंग्रेज सरकार के कानून में ज्यादा से ज्यादा दो साल की कैद की सजा थी, पर आज के पाकिस्तानी कानून में मौत की सजा है। इसके कारण पाकिस्तानी समाज में कट्टरता बढ़ी है। कोई भी किसी पर भी आरोप मढ़कर उसकी हत्या कर देता है। पाकिस्तान यह भी चाहता है कि ईशनिंदा का जैसा कानून उसके यहाँ है, उसे दुनिया स्वीकार करे। वहाँ ईशनिंदा के कारण हत्या करने वाले को हीरो बना दिया जाता है। जैसे सलमान तासीर के हत्यारे मुमताज़ कादरी को बनाया गया। अदालत ने 2016 में कादरी को फाँसी दे दी, पर जिस दिन उसे दफनाया गया था, उसी दिन उसका स्मारक बनाने के लिए आठ करोड़ रुपये जमा हो गए थे और उसका स्मारक बन गया है। पाकिस्तानी समाज में ऐसा पहली बार नहीं हुआ। पाकिस्तान की अवधारणा के जनक इकबाल और जिन्ना तक ने ऐसी हत्याओं का समर्थन किया था। यह समर्थन महाशय राजपाल की हत्या करने वाले किशोर इल्मुद्दीन के लिए था।

Monday, June 6, 2022

गुज़रे ज़माने के पॉप-संगीत का पुनरागमन ‘अब्बा वॉयेज़’


करीब 41 साल पहले एबीबीए यानी एबा या अब्बा संगीत-मंडली ने अपना आखिरी कंसर्ट मिलकर संचालित किया था। वह भी श्रोताओं के लिए लाइव शो नहीं था, बल्कि स्वीडिश टीवी का एक शो था। अब 27 मई को इस स्वीडिश-मंडली के लंदन में नए शो अब्बा वॉयेज़ ने तहलका मचाया है। यह तहलका इस संगीत-मंडली ने नहीं, बल्कि तकनीकी-कर्णधारों ने मचाया है।

इस शो में वे खुद शामिल नहीं थे, बल्कि वर्क फ्रॉम होम की तर्ज पर वे वर्चुअल रूप में उपस्थित थे। वैसे ही जैसे 1977 में थे। इसमें अब्बा की टीम भौतिक रूप से उपस्थित नहीं थी, बल्कि उसके युवा अब्बातार (आभासी अवतार) उपस्थित थे। उन्होंने 10-पीस बैंड के साथ अब्बा के पुराने अल्बमों को पेश किया।  अब्बा के चारों सदस्य 1982 के बाद पहली बार सार्वजनिक रूप से लंदन में एकसाथ मौजूद थे, परफॉर्मर के रूप में नहीं, दर्शकों के रूप में।

तकनीकी-सफलता

उम्र की सीमाओं को देखते हुए उनकी भौतिक-उपस्थिति सम्भव नहीं थी। फिर भी शो हुआ और उसकी समीक्षाएं बहुत सकारात्मक आईं हैं। इस शो में भी उनके 3,000 उत्साही फैन शामिल थे। इसे पेश करने में 140 एनिमेटरों, चार बॉडी-डबल्सकी भूमिका थी, ताकि यह एकदम वास्तविक शो जैसा नजर आए। इस शो पर करीब साढ़े सत्रह करोड़ डॉलर का खर्चा आया। सवाल है कि कोई बैंड भौतिक रूप से उपस्थित हुए बिना कैसे स्टेज पर वापसी की दावा कर सकता है?

शो देखने के बाद एक अब्बा सितारे ब्योर्न उल्वेस ने कहा, मेरी उम्मीदों से ज्यादा शानदार यह शो रहा। स्वीडन के सम्राट कार्ल 16वें गुस्ताफ और महारानी सिल्विया भी मेहमानों में शामिल थे। इस प्रदर्शन के लिए खासतौर से बनाए गए पंचकोणीय सभागार में करीब तीन हजार दर्शक मौजूद थे। चारों संगीतकार रोशनी के छपाकों के बीच सत्तर के दशक के हेयर-स्टाइल और परिधानों में मंच पर उतरे। दर्शकों ने अपनी सीटों से निकलकर नाचना शुरू कर दिया। मंच पर मौजूद अब्बा-मंडली के सदस्य वास्तविक नहीं थे। उन्हें सावधानी के साथ 77-79 के दौर के रूप में डिजिटली डिजाइन किया गया था। वास्तविक अब्बा, जिनमें से ज्यादातर की उम्र 72 साल या ज्यादा है, स्टैंड्स में मौजूद थे। 

दिसम्बर तक चलेगा शो

90 मिनट के अब्बा-वॉयज़ कार्यक्रम का यह वर्ल्ड-प्रीमियर था। यह शो अब इस साल दिसम्बर तक हफ्ते के सातों दिन चलेगा। इसके बाद भी इसे अप्रेल 2026 तक बढ़ाया जा सकता है। इसके लिए बनाए गए विशेष एरेना को तब तक की अनुमति मिली हुई है। इस जमीन पर बाद में आवासीय-भवन बनने वाले हैं।

स्टेज के दोनों तरफ लगाए गए स्क्रीन पर 30 फुट ऊँचे ये अवतार गाते और झूमते नजर आ रहे थे। शो के डायरेक्टर बेली वॉल्श का कहना है कि यह प्रोजेक्ट होलोग्राम प्रदर्शनों से भी आगे की चीज़ है। इसपर काफी लम्बे अर्से से काम किया जा रहा था। लम्बे अर्से से स्वीडन में असली अब्बा की फिल्मिंग का काम किया गया। इसमें चार बॉडी-डबल्स और 140 एनिमेटरों की मदद ली गई। यह काम जॉर्ज लुकास द्वारा स्थापित प्रसिद्ध विजुअल इफैक्ट्स फर्म इंडस्ट्रियल लाइट एंड मैजिक (जो आईएलएम नाम से प्रसिद्ध है) ने किया। यह फर्म हॉलीवुड ब्लॉकबस्टरों में विशेष दृश्यों को तैयार करने में मदद करती है।

Sunday, June 5, 2022

पर्यावरण-संरक्षण की वैश्विक-चुनौती

हर साल हम 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाते हैं। आज भी मनाएंगे, पर इस साल स्टॉकहोम-घोषणा का 50 वाँ वर्ष होने के कारण यह दिन खास हो गया है। 5 जून 1972 को स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में पहली बार विश्व पर्यावरण-सम्मेलन आयोजित किया गया था, जिसमें 119 देशों ने भाग लिया। उसी सम्मेलन के बरक्स संयुक्त राष्ट्र ने 1972 में ही घोषणा की कि हर साल 5 जून को पर्यावरण दिवस मनाएंगे। स्टॉकहोम-घोषणापत्र से पहले चार साल की तैयारी की गई थी। दुनिया भर के सैकड़ों वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों ने मानव-पर्यावरण पर लगभग बीस हजार पेजों का योगदान दिया था, जिसके आधार पर सम्मेलन में 800 पेज का एक दस्तावेज तैयार किया गया था। एक मायने में यह संयुक्त राष्ट्र प्रणाली के भीतर सबसे व्यापक प्रयोग था।

स्टॉकहोम+50

जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण से जुड़े आज के ज्यादातर कार्यक्रम जैसे संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी), कन्वेंशन टू कॉम्बैट डेजर्टिफिकेशन (यूएनसीसीडी) और कन्वेंशन ऑन बायलॉजिकल डायवर्सिटी (सीबीडी) और संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण-व्यवस्था से जुड़े प्रयास स्टॉकहोम घोषणा की ही उत्पत्ति हैं। पिछले 50 वर्षों पर पुनर्विचार के लिए 2 और 3 जून को स्टॉकहोम+50 का आयोजन स्टॉकहोम, में फिर हुआ। इन दो दिनों में दुनिया के नेताओं ने इस बात पर चर्चा की कि बीते पचास साल कैसे थे, बल्कि इससे ज्यादा इस बात पर चिंतन किया कि अगले पचास साल में धरती को किस तरह बचाया जाएगा। इसे शीर्षक दिया गया-‘स्टॉकहोम प्लस 50, सभी की समृद्धि के लिए एक स्वस्थ ग्रह-हमारी जिम्मेदारी, हमारा अवसर’।

तबाही की ओर

पिछले साल जब स्टॉकहोम प्लस 50 की तैयारियां चल रही थीं, तो संरा पर्यावरण कार्यक्रम की एक रिपोर्ट ने चेतावनी दी कि महामारी के कारण उत्सर्जन में अस्थायी गिरावट के बावजूद दुनिया 2100 तक पूर्व-औद्योगिक स्तरों से कम से कम तीन डिग्री सेल्सियस ज्यादा गर्म होने की राह पर है। यह पेरिस समझौते में 1.5 डिग्री सेल्सियस की चेतावनी से दोगुना है। उस स्तर को बनाए रखने के लिए 2030 तक वैश्विक उत्सर्जन को 45 फीसदी कम करना होगा।’ अप्रैल 2017 में, जलवायु परिवर्तन से जुड़ी एक संस्था-क्लाइमेट सेंट्रल के वैज्ञानिकों ने 1880 के बाद से वैश्विक-तापमान की मासिक-वृद्धि को दर्ज करते हुए एक पत्र जारी किया, जिसमें कहा गया: ‘628 महीनों में एक भी महीना ठंडा नहीं रहा है।’  जो दुनिया पिछले बारह हजार साल की मानव-सभ्यता से अप्रभावित चली आ रही थी, और जिसने मनुष्यों की अमीर बनने में मदद की, वह अचानक तबाही की ओर बढ़ चली है।

वायु-प्रदूषण

पिछले साल विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वायु गुणवत्ता के नए निर्देश जारी किए, जिनमें कहा गया कि जलवायु परिवर्तन के साथ वायु प्रदूषण मानव-स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़े खतरों में से एक है। डब्लूएचओ ने 2005 के बाद पहली बार अपने ‘एयर क्वालिटी गाइडलाइंस’ को बदला है। नए वैश्विक वायु गुणवत्ता दिशानिर्देशों (एक्यूजी) के अनुसार इस बात के प्रमाण मिले हैं कि प्रदूषित वायु की जो समझ पहले थी, उससे भी कम प्रदूषित वायु से मानव-स्वास्थ्य को होने वाले नुकसानों के सबूत मिले हैं। संगठन के अनुसार वायु प्रदूषण से हर साल 70 लाख लोगों की मृत्यु होती है। यह संख्या कोविड-19 से हुई मौतों से ज्यादा है।

Thursday, June 2, 2022

हताश इमरान खान ने कहा, पाकिस्तान के तीन टुकड़े होंगे?


पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने कहा है कि देश के एस्टेब्लिशमेंट यानी सत्ता प्रतिष्ठान यानी सेना ने दुरुस्त फ़ैसले नहीं किए तो फ़ौज तबाह हो जाएगी और 'पाकिस्तान के तीन टुकड़े हो जाएंगे। इमरान खान की यह बात हारे और हताश राजनेता की बात लगती है, पर उन्होंने उस खतरे की ओर इशारा भी किया है, जो पाकिस्तान के सामने है।

पाकिस्तान की मीडिया रेगुलेटरी अथॉरिटी (पीएमआरए) ने इस इंटरव्यू के कुछ हिस्सों को दोबारा प्रसारित करने पर प्रतिबंध लगा दिया है। पीएमआरए की तरफ़ से जारी नोटिफिकेशन में कहा गया है कि इमरान ख़ान ने अपने इंटरव्यू के दौरान कुछ ऐसी बातें कही थीं, जो देश की सुरक्षा, संप्रभुता, स्वतंत्रता और विचारधारा के लिए गंभीर ख़तरा हैं। इससे देश में नफ़रत पैदा हो सकती है और उनका बयान शांति व्यवस्था बनाए रखने में रुकावट की वजह बन सकता है।

हालांकि इमरान खान यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि सेना ने उनका साथ नहीं दिया, जिसके कारण यह खतरा खड़ा हुआ है, पर वे जाने-अनजाने कुछ सच्चाइयों को भी सामने आने का मौका दे रहे हैं। इन विचारों को उन्होंने निजी टीवी चैनल 'बोल' के एंकर समी इब्राहीम से गुफ़्तगू के दौरान किया। उनसे पूछा गया कि अगर मुल्क का एस्टेब्लिशमेंट उनका साथ नहीं देता तो उनका भावी कार्यक्रम क्या होगा।

सेना पर आरोप

जवाब में उनका कहना था कि 'ये असल में पाकिस्तान का मसला है, सेना का मसला है। अगर एस्टेब्लिशमेंट सही फ़ैसले नहीं करेंगे, वे भी तबाह होंगे। फ़ौज सबसे पहले तबाह होगी। उन्होंने कहा कि 'अगर हम डिफॉल्ट (यानी कर्ज चुकाने में विफल) कर जाते हैं, तो सबसे बड़ा इदारा कौन सा है जो मुतास्सिर होगा, पाकिस्तानी फ़ौज।

इमरान ख़ान की इस राय पर उनके राजनीतिक विरोधियों के अलावा सोशल मीडिया पर जबर्दस्त प्रतिक्रिया हुई है। चेयरमैन तहरीक-ए-इंसाफ़ के हामी जहां उनकी बात से इत्तफ़ाक़ कर रहे हैं वहीं बाज़ लोगों का ख़्याल है कि उन्हें 'ऐसी गुफ़्तगू से गुरेज़ करना चाहिए था। प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ ने कहा कि इमरान अब सीमा पार कर रहे हैं। उन्हें देश के टुकड़े होने जैसी बातें नहीं करनी चाहिए।

बयान की आलोचना

पूर्व राष्ट्रपति आसिफ़ अली ज़रदारी ने कहा कि 'कोई भी पाकिस्तानी इस मुल्क के टुकड़े करने की बात नहीं कर सकता, ये ज़बान एक पाकिस्तानी की नहीं बल्कि मोदी की है। इमरान ख़ान दुनिया में इक़तिदार ही सब कुछ नहीं होता, बहादुर बनो और अपने पाँव पर खड़े हो कर सियासत करना अब सीख लो। इस देश के तीन टुकड़े करने की ख़्वाहिश हमारे और हमारी नस्लों के जीते-जी पूरी नहीं हो सकती।

दूसरी तरफ साबिक़ (पूर्व) वज़ीर-ए-इत्तलात फ़वाद चौधरी ने ट्विटर पर अपने पैग़ाम में कहा कि 'इमरान ख़ान ने जायज़ तौर पर उन ख़तरात की निशानदेही की जो मआशी (आर्थिक) तबाही की सूरत में पाकिस्तान को दरपेश होंगे।