Friday, March 11, 2022

राजनीतिक-व्यवहार के सामाजिक-संदेशों को पढ़िए


चुनाव परिणामों से दो निष्कर्ष आसानी से निकाले जा सकते हैं। भारतीय जनता पार्टी के लिए यह असाधारण विजय है, जिसकी उम्मीद उसके बहुत से समर्थकों को नहीं रही होगी। साथ ही कांग्रेस की यह असाधारण पराजय है, जिसकी उम्मीद उसके नेतृत्व ने नहीं की होगी। भारतीय जनता पार्टी को चार राज्यों में मिली असाधारण सफलता इस साल होने वाले गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावों को भी प्रभावित करेगी। उत्तर प्रदेश के परिणाम को मध्यावधि राष्ट्रीय जनादेश माना जा सकता है। पंजाब में भारतीय जनता पार्टी का न तो कोई बड़ा दावा था और किसी ने उससे बड़े प्रदर्शन की अपेक्षा भी नहीं की थी। अब सवाल कांग्रेस के भविष्य का है। उसके शासित राज्यों की सूची में एक राज्य और कम हुआ। इन परिणामों में भाजपा-विरोधी राजनीति या महागठबंधन के सूत्रधारों के विचार के लिए कुछ सूत्र भी हैं। 

उत्तर प्रदेश का ध्रुवीकरण

हालांकि पार्टी को चार राज्यों में सफलता मिली है, पर उत्तर प्रदेश की अकेली सफलता इन सब पर भारी है। देश का सबसे बड़ा राज्य होने के कारण इस राज्य का महत्व है। माना जाता है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है। उत्तर प्रदेश से लोकसभा की कुल 80 सीटें हैं, जो कई राज्यों की कुल सीटों से भी ज्यादा बैठती हैं। इसी वजह से भाजपा-विरोधी राजनीति ने इसबार पूरी तरह कमर कस रखी थी। उसकी विफलता, बीजेपी की सफलता है।

भारतीय और विदेशी-मीडिया और विदेशी-विश्वविद्यालयों से जुड़े अध्येताओं का एक बड़ा तबका महीनों पहले से घोषणा कर रहा था, अबकी बार अखिलेश सरकार। अब लगता है कि यह विश्लेषण नहीं, मनोकामना थी। बेशक जमीन पर तमाम परिस्थितियाँ ऐसी थीं, जिनसे एंटी-इनकम्बैंसी सिद्ध हो सकती है, पर भारतीय राजनीति का यह दौर कुछ और भी बता रहा है। आप इसे साम्प्रदायिकता कहें, फासिज्म, हिन्दू-राष्ट्रवाद या सांस्कृतिक-भावनाएं, पिछले 75 वर्ष की राजनीतिक-दिशा पर गहराई से विचार करने की जरूरत है। केवल हिन्दू-राष्ट्रवादी दृष्टिकोण को ही नहीं मुस्लिम-दृष्टिकोण और कथित प्रगतिशील-वामपंथी दृष्टिकोण पर नजर डालने की जरूरत है।

इस चुनाव के ठीक पहले कर्नाटक के हिजाब-विवाद के पीछे भारतीय जनता पार्टी की रणनीति सम्भव है, पर जिस तरह से देश के प्रगतिशील-वर्ग ने हिजाब का समर्थन किया, उससे उसके अंतर्विरोध सामने आए। प्रगतिशीलता यदि हिन्दू और मुस्लिम समाज के कोर में नहीं होगी, तब उसका कोई मतलब नहीं है।

इन परिणामों के राजनीतिक संदेशों क पढ़ने के लिए मतदान के रुझान, वोट प्रतिशत और अलग-अलग चुनाव-क्षेत्रों की प्रवृत्तियों का विश्लेषण करना होगा। खासतौर से उत्तर प्रदेश में, जहाँ जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से जुड़े कुछ जटिल सवालों का जवाब इस चुनाव में मिला है। इसके लिए हमें चुनाव के बाद विश्लेषणों के लिए समय देना होगा।

Monday, March 7, 2022

यूक्रेन की लड़ाई से पैदा हुई पेचीदगियाँ


यूक्रेन की लड़ाई ने दुनिया के सामने कुछ ऐसी पेचीदगियों को पैदा किया है, जिन्हें सुलझाना आसान नहीं होगा। नब्बे के दशक में सोवियत संघ के विघटन के साथ शीतयुद्ध की समाप्ति हुई थी। उसके साथ ही वैश्वीकरण की शुरुआत भी हुई थी। दूसरे शब्दों में वैश्विक-अर्थव्यवस्था का एकीकरण। विश्व-व्यापार संगठन बना और वैश्विक-पूँजी के आवागमन के रास्ते खुले। राष्ट्रवाद की सीमित-संकल्पना के स्थान पर विश्व-बंधुत्व के दरवाजे खुले थे। यूक्रेन की लड़ाई ने इन दोनों परिघटनाओं को चुनौती दी है। इस लड़ाई के पीछे दो पक्षों के सामरिक हित ही नहीं हैं, बल्कि वैश्विक-राजनीति के कुछ अनसुलझे प्रश्न भी हैं। इन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है संयुक्त राष्ट्र की भूमिका। क्या यह संस्था उपयोगी रह गई है?

चक्रव्यूह में रूस

रूस ने लड़ाई शुरू कर दी है, पर क्या वह इस लड़ाई को खत्म कर पाएगा? खत्म होगी, तो किस मोड़ पर होगी?  फिलहाल वह किसी निर्णायक मोड़ पर पहुँचती नजर नहीं आती है। यह भी स्पष्ट नहीं है कि रूस ने किस इरादे से कार्रवाई शुरू की है। क्या वह पूरे यूक्रेन पर कब्जा चाहता है और राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की को हटाकर अपने किसी समर्थक को बैठाना चाहता है? क्या यूक्रेनी जनता ऐसा होने देगी? क्या अमेरिका और नेटो अपने कदम वापस खींचकर यूक्रेन को तटस्थ देश बनाने पर राजी हो जाएंगे? ऐसा संभव है, तो वे अभी तक माने क्यों नहीं हैं?

रूस भी चक्रव्यूह में फँसता नजर आ रहा है। अमेरिका ने हाइब्रिड वॉर और शहरी छापामारी का काफी इंतजाम यूक्रेन में कर दिया है। दूसरी तरफ संयुक्त राष्ट्र और दूसरे मंचों पर पश्चिमी देशों ने रूस पर दबाव बनाना शुरू कर दिया है। वैश्विक-व्यवस्थाएं अभी पश्चिमी प्रभाव में हैं। हाँ रूस यदि अपने इस अभियान में आंशिक रूप से भी सफल हुआ, तो मान लीजिए कि अमेरिका का सूर्यास्त शुरू हो चुका है। फिलहाल ऐसा संभव लगता नहीं, पर बदलाव के संकेतों को आप पढ़ सकते हैं।

एटमी खतरा

यूक्रेन के ज़ापोरिज्जिया परमाणु ऊर्जा संयंत्र में शुक्रवार तड़के रूसी हमले के कारण आग लग गई। अब यह बंद है और रूसी कब्जे में है। इस घटना के खतरनाक निहितार्थ हैं। हालांकि आग बुझा ली गई है, पर इससे संभावित खतरों पर रोशनी पड़ती है। यूक्रेन में 15 नाभिकीय संयंत्र हैं। यह दुनिया के उन देशों में शामिल हैं, जो आधी से ज्यादा बिजली के लिए नाभिकीय ऊर्जा पर निर्भर हैं। जरा सी चूक से पूरे यूरोप पर रेडिएशन का खतरा मंडरा रहा है।

यूक्रेन जब सोवियत संघ का हिस्सा था, तब उसके पास नाभिकीय अस्त्र भी थे। सोवियत संघ के ज्यादातर नाभिकीय अस्त्र यूक्रेन में थे। फेडरेशन ऑफ अमेरिकन साइंटिस्ट के अनुसार उस समय यूक्रेन के पास 3000 टैक्टिकल यानी छोटे परमाणु हथियार मौजूद थे। इनके अलावा उसके पास 2000 स्ट्रैटेजिक यानी बड़े एटमी हथियार थे, जिनसे शहर ही नहीं, छोटे-मोटे देशों का सफाया हो सकता है।

दिसंबर 1994 में बुडापेस्ट, हंगरी में तीन समझौतों पर हस्ताक्षर हुए थे, जिनके तहत यूक्रेन, बेलारूस और कजाकिस्तान ने अपने नाभिकीय हथियारों को इस भरोसे पर त्यागा था कि जरूरत पड़ने पर उनकी रक्षा की जाएगी। यह आश्वासन, रूस, अमेरिका और ब्रिटेन ने दिया था। फ्रांस और चीन ने एक अलग दस्तावेज के मार्फत इसका समर्थन किया था।

आज यदि यूक्रेन के पास नाभिकीय-अस्त्र होते तो क्या रूस उसपर इतना बड़ा हमला कर सकता था? यूक्रेन पर हुए हमले ने नाभिकीय-युद्ध को रोकने की वैश्विक-नीतियों पर सवाल खड़े किए हैं। जो देश नाभिकीय-अस्त्र हासिल करने की परिधि पर हैं या हासिल कर चुके हैं और उसे घोषित किया नहीं है, उनके पास अब यूक्रेन का उदाहरण है। दुनिया ईरान को समझा रही थी, पर क्या उसे समझाना आसान होगा?

Sunday, March 6, 2022

दुनिया चुकाएगी युद्ध की भारी कीमत


यूक्रेन के ज़ापोरिज्जिया परमाणु ऊर्जा संयंत्र में शुक्रवार तड़के रूसी हमले के कारण आग लग गई। अब यह बंद है और रूसी कब्जे में है। हालांकि आग बुझा ली गई है, पर इससे संभावित खतरों पर रोशनी पड़ती है। यूक्रेन दुनिया के उन देशों में शामिल हैं, जो आधी से ज्यादा बिजली के लिए नाभिकीय ऊर्जा पर निर्भर हैं। जरा सी चूक से पूरे यूरोप पर रेडिएशन का खतरा मंडरा रहा है। रूस गारंटी चाहता है कि यूक्रेन, नाटो के पाले में नहीं जाएगा। वस्तुतः उसकी यह लड़ाई यूक्रेन के साथ नहीं, सीधे अमेरिका के साथ है। पर उसके सामने इस लड़ाई की फौजी और डिप्लोमैटिक दोनों तरह की कीमत चुकाने के जोखिम भी हैं। इस हमले से केवल विश्व-शांति को ठेस ही नहीं लगी है, बल्कि दूसरे सवाल भी खड़े हुए हैं, जिनके दूरगामी असर होंगे। पहला असर आर्थिक है। पेट्रोलियम की कीमतें 120 डॉलर प्रति बैरल को पार कर गई हैं। अंदेशा है कि भारत में पेट्रोल की कीमतें 12 से 15 रुपये की बीच बढ़ेंगी। दूसरी उपभोक्ता सामग्री की कीमतें भी बढ़ेंगी। रूस पर आर्थिक-बंदिशों का असर भी हमपर पड़ेगा। दुनिया के शक्ति-संतुलन में बुनियादी बदलाव होंगे, जिनसे हम भी प्रभावित होंगे।

भारत पर दबाव

आर्थिक परेशानियों के अलावा भारत के सामने विदेश-नीति को स्वतंत्र और दबाव-मुक्त बनाए रखने और यूक्रेन में फँसे भारतीय नागरिकों को बाहर निकालने की चुनौतियाँ हैं। काफी छात्रों को निकाला जा चुका है और बाकी को अगले कुछ दिन में निकाल लिया जाएगा। यह मसला विदेश-नीति से ज्यादा स्थानीय राजनीति का विषय है। यह समस्या तब खड़ी हुई है, जब उत्तर प्रदेश के चुनाव अंतिम चरण में थे। ऐसे वीडियो वायरल हुए, जिनसे सरकार की अक्षमता उजागर हो। भारत ने संरा में हुए मतदानों से अलग रहकर तटस्थ बने रहने की कोशिश जरूर की है, पर इसे ज्यादा समय तक चलाने में दिक्कत होगी। इसका पहला संकेत गुरुवार को हुई क्वॉड देशों की वर्चुअल बैठक में मिला। इसमें जो बाइडन ने यूरोप में सुरक्षा और यूक्रेन युद्ध का मुद्दा उठाया। बैठक के बाद एक संयुक्त बयान भी जारी किया गया, लेकिन भारत के पीएमओ ने अलग से भी एक बयान जारी किया, जिसमें कहा गया कि क्वाड को अपने उद्देश्यों पर ही केंद्रित रहना चाहिए।

चीन-फैक्टर

भारत ने रूसी हमले की निंदा नहीं की है, पर संयुक्त राष्ट्र में भारत के राजदूत टीएस तिरुमूर्ति के बयान को ध्यान से पढ़ें। उन्होंने कहा है कि संरा चार्टर, अंतरराष्ट्रीय कानूनों और राष्ट्रीय सम्प्रभुता का सम्मान होना चाहिए। ये तीनों बातें रूसी कार्रवाई की ओर इशारा कर रही हैं। रूस और चीन का साझा यदि दीर्घकालीन है, तो भारतीय दृष्टिकोण बदलेगा। भारत और चीन दीर्घकालीन प्रतिस्पर्धी हैं। बदलते वैश्विक-परिप्रेक्ष्य में निर्भर यह भी करेगा कि रूस अपने उद्देश्यों में किस हद तक सफल होता है। हाल में अमेरिका के साथ भारत के जो सामरिक रिश्ते बने हैं, वे टूट नहीं जाएंगे। इन सब बातों को हमें दूरगामी पहलुओं से सोचना चाहिए। एक संभावना यह भी व्यक्त की जा रही है कि यूरोप में तनाव को देखते हुए अमेरिका शायद चीन के प्रति अपने रुख को नरम करे। शायद इसी वजह से अमेरिका क्वॉड को यूक्रेन से जोड़ना चाहता है। इन शायद और किन्तु-परन्तुओं का जवाब कुछ देर से मिलेगा।  

रूसी-कूच की गति धीमी

यूक्रेन की स्थिति का अनुमान लगाना आसान भी नहीं है। पश्चिमी और रूसी मीडिया की सूचनाएं एक-दूसरे की विरोधी हैं। अलबत्ता लगता है कि रूसी सेना का कूच धीमा पड़ा है। पूर्वोत्तर से सैनिक ट्रकों का करीब 64 किलोमीटर लम्बा काफिला राजधानी कीव की तरफ बढ़ता देखा गया है, पर छह दिन में वह गंतव्य पर पहुँच नहीं पाया है। इस क़ाफ़िले की सैटेलाइट से ली गई तस्वीरें 28 फ़रवरी को सामने आई थीं। इसके धीमे पड़ने की वजह यह है कि रूसी सेना ने इन ट्रकों-टैंकों और बख्तरबंद गाड़ियों के लिए ईंधन, रसद, स्पेयर पार्ट्स और भोजन-पानी की जो व्यवस्था की है, वह चरमरा रही है। ब्रेकडाउन समस्या बन रहा है। यूक्रेन के नागरिकों ने भी हथियार हासिल कर लिए हैं, जो प्रतिरोध कर रहे हैं। पश्चिमी देशों के भाड़े या ठेके के सैनिकों ने भी मोर्चा संभाल रखा है। अमेरिका को पता था कि रूस किसी दिन हमला करेगा। अफगानिस्तान के अनुभव के बाद अमेरिका ने यूक्रेन में इस काउंटर-रणनीति को इस्तेमाल किया है। अमेरिका के रिटायर्ड फौजी अधिकारियों की कम्पनी ब्लैकवॉटर या एकेडमी नाम से काम करती है। खबरें है कि ब्लैकवॉटर के सैनिक यूक्रेन के नागरिकों को ट्रेनिंग दे रहे हैं। अमेरिका ने बड़ी संख्या में स्टिंगर, जैवलिन और दूसरे किस्म मिसाइलें और छोटे रॉकेट इन्हें उपलब्ध कराए हैं, जिनसे विमानों और टैंकों को निशाना बनाया जा सकता है। शहरी इमारतों से आगे बढ़ते टैंकों को निशाना बनाया जा रहा है।

Thursday, March 3, 2022

यूक्रेन में इतने बड़े जोखिम से क्या मिलेगा रूस को?


यूक्रेन में लड़ाई को एक हफ्ते से ज्यादा समय हो गया है। रूसी सेनाएं राजधानी कीव और खारकीव जैसे शहरों तक पहुँच चुकी हैं। पूर्व के डोनबास इलाके पर उनका पहले से कब्जा है। बावजूद इसके उसकी सफलता को लेकर कुछ सवाल खड़े हुए हैं। रूसी सेना का कूच धीमा पड़ रहा है। इन सवालों के साथ मीडिया की भूमिका भी उजागर हो रही है। पश्चिम और रूस समर्थक मीडिया की सूचनाएं एक-दूसरे से मेल नहीं खा रही हैं।

2015 में जब रूस ने सीरिया के युद्ध में प्रवेश किया, तब तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा कि रूस अब यहाँ दलदल में फँस कर रह जाएगा। पर ऐसा हुआ नहीं, बल्कि रूस ने राष्ट्रपति बशर अल-असद को बचा लिया। इससे रूस का रसूख बढ़ा। क्या इसबार यूक्रेन में भी वह वही करके दिखाएगा? पर्यवेक्षक मानते हैं कि रूस यदि सफल हुआ, तो यूरोप में ही नहीं दुनिया में राजनीति का एक नया दौर शुरू होगा।

अमेरिकी जाल

इस लड़ाई में रूस बड़े जोखिम उठा रहा है और अमेरिका उसे जाल में फँसाने की कोशिश कर रहा है। यूक्रेन के भीतर आकर बाहर निकलने का रास्ता उसे नहीं मिलेगा। लड़ाई की परिणति रूसी सफलता में होगी या विफलता में यह बात लड़ाई खत्म करने के लिए होने वाले समझौते से पता लगेगी। रूस यदि अपनी बात मनवाने में सफल रहा, तो आने वाला समय उसके प्रभाव-क्षेत्र के विस्तार का होगा।

सफलता या विफलता के पैमाने भी स्पष्ट नहीं हैं। अलबत्ता कुछ सवालों के जवाबों से बात साफ हो सकती है। पहला सवाल है कि रूस चाहता क्या है? किस लक्ष्य को लेकर उसने सेना भेजी है? पहले लगता था कि उसका इरादा यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की को हटाकर उनकी जगह अपने किसी आदमी को बैठाना है। ऐसा होता तो वह ज़ेलेंस्की की सरकार से बेलारूस में बातचीत क्यों करता? आज भी वहाँ बात हो रही है। जिस सरकार को हटाना ही है, उससे बातचीत क्यों?

Tuesday, March 1, 2022

‘इंडो-चायना’ कहाँ हैं?

इंडो-चायना या हिन्द-चीन प्रायद्वीप दक्षिण पूर्व एशिया का एक उप क्षेत्र है। यह इलाक़ा चीन के दक्षिण-पश्चिम और भारत के पूर्व में पड़ता है। इसके अंतर्गत कम्बोडिया, लाओस और वियतनाम को रखा जाता है, पर वृहत् अर्थ में म्यांमार, थाईलैंड, मलय प्रायद्वीप और सिंगापुर को भी इसमें शामिल किया जा सकता है। यह नाम जहाँ भौगोलिक उपस्थिति को बताता है, वहीं इस इलाके की सांस्कृतिक संरचना को भी दर्शाता है। अतीत में इस नाम का ज्यादातर इस्तेमाल इस इलाके के फ्रांसीसी उपनिवेश इंडो-चाइना (वियतनाम, कम्बोडिया और लाओस) के लिए हुआ। भारत और चीन की संस्कृतियों के प्रभाव के कारण इस इलाके का नाम हिन्द-चीन है। इस नाम का श्रेय डेनिश-फ्रेंच भूगोलवेत्ता कोनराड माल्ट-ब्रन को दिया जाता है, जिन्होंने सन 1804 में इस इलाके को इंडो-चिनॉय कहा। उनके बाद 1808 में स्कॉटिश भाषा विज्ञानी जॉन लेडेन ने इस इलाके को इंडो-चायनीस कहा।  

इस इलाके में बड़ी संख्या में चीन से आए लोग रहते हैं, पर सांस्कृतिक रूप से भारत का यहाँ जबर्दस्त प्रभाव है। प्राचीनतम संपर्क के प्रमाण म्यांमार की पहली सदी की प्‍यू बस्तियों के उत्खनन में देखे जा सकते हैं। प्‍यू वास्तुकला, सिक्कों, हिंदू देवी-देवताओं और बुद्ध की मूर्तियों और पुरालेख में देखे जा सकते हैं। अंगकोरवाट एवं ता प्रोह्म जैसे कंबोडिया के विख्यात मंदिरों के अलावा मध्‍य थाईलैंड का द्वारावती साम्राज्य छठी सदी से लेकर 13 वीं सदी फला-फूला।  

भारत का सबसे पुराना बैंक?

अठारहवीं सदी के अंतिम दशक में देश के पहले दो बैंक खुले थे। इनके नाम थे जनरल बैंक ऑफ इंडिया, जो 1786 में खुला और दूसरा बैंक था बैंक ऑफ हिन्दुस्तान जो 1790 में शुरू हुआ। दोनों बैंक बंद हो गए। देश के सक्रिय बैंकों में सबसे पुराना बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया है, जो जून 1806 में बैंक ऑफ कैलकटा के नाम से शुरू हुआ। इसका नाम बाद में बैंक ऑफ बंगाल हो गया। उस वक्त देश में इसके अलावा दो प्रेसीडेंसी बैंक और खुले जिनके नाम थे बैंक ऑफ बॉम्बे और बैंक ऑफ मद्रास। सन 1921 में तीनों बैंकों को मिलाकर इम्पीरियल बैंक ऑफ इंडिया बनाया गया। देश के स्वतंत्र होने पर इसका नाम हुआ स्टेट बैंक ऑफ इंडिया।

राजस्थान पत्रिका के नॉलेज कॉर्नर में प्रकाशित