Thursday, August 8, 2019

एक विलक्षण राजनेता की असमय विदाई


सौम्य, सुशील, सुसंस्कृत, संतुलित और भारतीय संस्कृति की साक्षात प्रतिमूर्ति. सुषमा स्वराज की गणना देश के सार्वकालिक प्रखरतम वक्ताओं और सबसे सुलझे राजनेताओं में और श्रेष्ठतम पार्लियामेंटेरियन के रूप में होगी. जैसे अटल बिहारी वाजपेयी के भाषणों को लोग याद करते हैं, वैसे ही उनके भाषण लोगों को रटे पड़े हैं. संसद में जब वे बोलतीं, तब उनके विरोधी भी ध्यान देकर उन्हें सुनते थे. सन 2015 में संयुक्त राष्ट्र महासभा का उनका भाषण हमेशा याद रखा जाएगा, जिसमें उन्होंने पाकिस्तान के आतंकी प्रतिष्ठान की धज्जियाँ उड़ा दी थीं.
सन 2014 में मोदी सरकार में जब वे शामिल हुई, तब तमाम कयास और अटकलें थीं कि यह उनकी पारी का अंत है. पर उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा को एक नया आयाम दिया. विदेशमंत्री पद को अलग पहचान दी. वे देश की पहली ऐसी विदेशमंत्री हैं, जिन्होंने प्रवासी भारतवंशियों की छोटी-छोटी समस्याओं का समाधान किया. एक जमाने में देश का पासपोर्ट लेना बेहद मुश्किल काम होता था. आज यह काम बहुत आसानी से होता है. इसका श्रेय उन्हें जाता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के महत्वपूर्ण दौरों के पहले वे तमाम देशों की यात्राएं करके भारत के पक्ष में जमीन तैयार करती रहीं.

Tuesday, August 6, 2019

पहली चुनौती है कश्मीर में हालात सामान्य बनाने की


भारतीय राष्ट्र राज्य के लिए इतना बड़ा फैसला पिछले कई दशकों में नहीं हुआ है। सरकार ने बड़ा जोखिम उठाया है। इसके वास्तविक निहितार्थ सामने आने में समय लगेगा। फिलहाल लगता है कि सरकार ने प्रशासनिक और सैनिक स्तर पर इतनी पक्की व्यवस्थाएं कर रखी हैं कि सब कुछ काबू में रहेगा। अलबत्ता तीन बातों का इंतजार करना होगा। सरकार के इस फैसले को अदालत में चुनौती दी जाएगी। हालांकि सरकार ने सांविधानिक व्यवस्थाओं के अंतर्गत ही फैसला किया है, पर उसे अभी न्यायिक समीक्षा को भी पार करना होगा। खासतौर से इस बात की व्याख्या अदालत से ही होगी कि केंद्र को राज्यों के पुनर्गठन का अधिकार है या नहीं। इस फैसले के राजनीतिक निहितार्थों का इंतजार भी करना होगा। और तीसरे राज्य की व्यवस्था को सामान्य बनाना होगा। घाटी के नागरिकों की पहली प्रतिक्रिया का अनुमान सबको है, पर बहुत सी बातें अब भी स्पष्ट नहीं हैं। इन तीन बातों के अलावा अंतरराष्ट्रीय जनमत को अपने नजरिए से परिचित कराने की चुनौती है। सबसे ज्यादा पाकिस्तानी लश्करों की गतिविधियों पर नजर रखने की जरूरत है।

Monday, August 5, 2019

‘तीन तलाक’ पर मुस्लिम समाज भी विचार करे


तीन तलाक को अपराध की संज्ञा देने वाला विधेयक अब कानून बन चुका है। इस कानून के दो पहलू हैं. एक है इसका सामाजिक प्रभाव और दूसरा है इसपर होने वाली राजनीति. मुस्लिम समाज इस कानून को किस रूप में देखता है?ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इसका विरोध करते हुए कहा कि हम इसे अदालत में चुनौती देंगे. साथ ही उसने विरोधी दलों के रवैये की निंदा की है. बोर्ड ने ट्वीट करते हुए कहा कि हम कांग्रेस, जनता दल यूनाइटेड, मायावती की बहुजन समाज पार्टी, एआईएडीएमके, तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस), वाईएसआर कांग्रेस की कड़ी निंदा करते हैं.
बोर्ड इस मामले को राजनीतिक नजरिए से देखता है और परोक्ष रूप से पार्टियों को ‘वोट’ खोने की चेतावनी दे रहा है. यह संगठन इस सवाल पर मुसलमानों के बीच बहस को चलाने के बजाय इसे राजनीतिक रूप से गरमाने की कोशिश करेगा. इस सिलसिले में पश्चिम बंगाल के मंत्री और जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष सिद्दिकुल्ला चौधरी ने कहा कि यह कानून इस्लाम पर हमला है. हम इस कानून को स्वीकार नहीं करेंगे. यह बात उन्होंने व्यक्तिगत रूप से कही जरूर है, पर इससे बंगाल की राजनीति पर भी असर पड़ेगा.

Sunday, August 4, 2019

राजनीति इतनी दागी क्यों?


उन्नाव दुष्कर्म कांड ने देश की पुलिस और न्याय-व्यवस्था के साथ-साथ  राजनीति की दयनीय स्थिति को भी उजागर किया है। भारतीय जनता पार्टी ने विधायक कुलदीप सिंह सेंगर को बर्खास्त करने में काफी देर की। रायबरेली में दुर्घटना नहीं हुई होती तो शायद यह कार्रवाई भी नहीं हुई होती। सेंगर ने राजनीति की शुरुआत कांग्रेस से की, फिर सपा में गए। पत्नी को बसपा में भेजा, खुद बीजेपी में आए। उनके निकट सम्बंधी सभी पार्टियों में हैं। खुद चुनाव जीतते हैं, बल्कि जिसपर हाथ रख देते हैं, वह भी जीतता है। राजनीति के सामंती स्वरूप की बेहतरीन मिसाल।
उन्नाव ही नहीं देश के सभी इलाकों की यही कहानी है। चुनावों में जीतकर आने वाले सांसदों में करोड़पति और आपराधिक मामलों से घिरे सदस्यों की संख्या लगातार बढ़ी है। चुनावों पर नजर रखने वाली शोध संस्था ‘एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म’ (एडीआर) ने सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव परिणाम के बाद जो रिपोर्ट जारी की, उसके अनुसार आपराधिक मामलों में फँसे सांसदों की संख्या दस साल में 44 प्रतिशत बढ़ी है। इसबार चुन कर आए 542 में 233 सांसदों के खिलाफ आपराधिक मुकदमे लंबित है। इनमें से 159 के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले हैं। राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय 25 राजनीतिक दलों में से छह दलों के शत प्रतिशत सदस्यों के खिलाफ आपराधिक मामले हैं। करोड़पति सांसदों की संख्या 2009 में 58 प्रतिशत थी जो 2019 में 88 प्रतिशत हो गई।

डिजिटल इंडिया के पास है बेरोजगारी का समाधान


अस्सी और नब्बे के दशक में जब देश में कम्प्यूटराइजेशन की शुरुआत हो रही थी, सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में श्रमिकों की गेट मीटिंगें इस चिंता को लेकर होने लगी थीं कि कम्प्यूटर हमारी रोजी-रोटी छीन लेगा। ऑटोमेशन को गलत रास्ता बताया गया और कहा गया कि इसे किसी भी कीमत पर होने नहीं देंगे। बहरहाल उसी दौर में सॉफ्टवेयर क्रांति हुई और तकरीबन हर क्षेत्र में आईटी-इनेबल्ड तकनीक ने प्रवेश किया। सेवाओं में सुधार हुआ और रोजगार के नए दरवाजे खुले। तकरीबन उसी दौर में देश के वस्त्रोद्योग पर संकट आया और एक के बाद एक टेक्सटाइल मिलें बंद होने लगीं।
देश में रोजगार का बड़ा जरिया था वस्त्रोद्योग। कपड़ा मिलों के बंद होने का कारण कम्प्यूटराइजेशन नहीं था। कारण दूसरे थे। कपड़ा मिलों के स्वामियों ने समय के साथ अपने कारखानों का आधुनिकीकरण नहीं किया। ट्रेड यूनियनों ने ऐसी माँगें रखीं, जिन्हें स्वीकार करने में दिक्कतें थीं, राजनीतिक दल कारोबारियों से चंदे लेने में व्यस्त थे और सरकारें उद्योगों को लेकर उदासीन थीं। जैसे ही कोई उद्योग संकट में आता तो उसका राष्ट्रीयकरण कर दिया जाता। औद्योगिक बीमारी ने करोड़ों रोजगारों की हत्या कर दी।
हाल में हमने बैंक राष्ट्रीयकरण की पचासवीं जयंती मनाई। माना जाता है कि राष्ट्रीयकरण के कारण बैंक गाँव-गाँव तक पहुँचे, पर उचित विनियमन के अभाव में लाखों करोड़ रुपये के कर्ज बट्टेखाते में चले गए। तमाम विरोधों के बावजूद सार्वजनिक बैंकों और जीवन बीमा निगम में तकनीकी बदलाव हुआ, भले ही देर से हुआ। आम नागरिकों को ज्यादा बड़ा बदलाव रेल आरक्षण में देखने को मिला, जिसकी वजह से कई तरह की सेवाएं और सुविधाएं बढ़ीं। आज आप बाराबंकी में रहते हुए भी चेन्नई से बेंगलुरु की ट्रेन का आरक्षण करा सकते हैं, जो कुछ दशक पहले सम्भव नहीं था।
नवम्बर 2016 में जब नोटबंदी की घोषणा हुई थी, तब तमाम बातों के अलावा यह भी कहा गया था कि इस कदम के कारण अर्थव्यवस्था के डिजिटाइज़ेशन की प्रक्रिया बढ़ेगी। यह बढ़ी भी। पर यह सवाल अब भी उठता है कि यह डिजिटाइटेशन रोजगारों को खा रहा है या बढ़ा रहा है?