Thursday, May 30, 2019

नई सरकार के सामने चुनौतियाँ कम, उम्मीदें ज्यादा

नरेन्द्र मोदी की नई सरकार के सामने कई मायनों में पिछले कार्यकाल के मुकाबले चुनौतियाँ कम हैं, पर उससे उम्मीदें कहीं ज्यादा हैं. राजनीतिक नजरिए से सरकार ने जो जीत हासिल की है, उसके कारण उसके विरोधी फिलहाल न केवल कमजोर पड़ेंगे, बल्कि उनमें बिखराव की प्रक्रिया शुरू होगी. कई राज्यों में विरोधी राजनीति, खासतौर से कांग्रेस पार्टी के भीतर असंतोष के स्वर सुनाई पड़ने लगे हैं. दूसरी तरफ उसे जनता ने जो भारी समर्थन दिया है, उसके कारण उसपर जिम्मेदारियों का बोझ बढ़ गया है.

अगले कुछ महीनों में महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और दिल्ली विधानसभाओं के चुनाव होने वाले हैं. इन सभी राज्यों में बीजेपी और गठबंधन एनडीए की स्थिति बेहतर है. जम्मू-कश्मीर में भी विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. इन चुनावों का शेष देश की राजनीति के लिहाज से महत्व है. वहाँ घाटी और जम्मू क्षेत्र की राजनीति के अलग रंग हैं, जो राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करते हैं.

नई सरकार के राजनीतिक-आर्थिक कदमों का पता अगले हफ्ते के बाद लगेगा, जब मंत्रालयों की स्थिति स्पष्ट हो चुकी होगी, पर विदेश-नीति के मोर्चे को संकेत शपथ-ग्रहण के पहले से ही मिलने लगे हैं. मोदी सरकार की वापसी में सबसे बड़ी भूमिका राष्ट्रवाद की है. पुलवामा कांड ने नागरिकों के काफी बड़े वर्ग को नाराज कर दिया है. नई सरकार के शपथ-ग्रहण के साथ ही यह बात स्पष्ट हो रही है कि मोदी सरकार, पाकिस्तान के साथ रिश्तों को लेकर बेहद संजीदा है.

शपथ-ग्रहण समारोह में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को निमंत्रण न देकर भारत ने एक बात स्पष्ट कर दी है कि वह इसबार उसका रुख कठोर है. लगता है कि भारत का रुख अब आक्रामक रहेगा. सब सामान्य रहा, तो 13-14 जून को दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों की मुलाकात किर्गिस्तान की राजधानी बिश्केक में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक में होगी. उसके आगे की राह शायद वहाँ से तय होगी.

भारत की दिलचस्पी चीन के साथ बातचीत को आगे बढ़ाने की जरूर है. सरकार बनने के पहले ही खबरें हैं कि प्रधानमंत्री मोदी ने चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग के साथ वाराणसी में वैसा हा एक अनौपचारिक शिखर सम्मेलन आयोजित करने का फैसला किया है, जैसा पिछले साल चीन के वुहान में हुआ था. अमेरिका और चीन के रिश्तों में तेजी से आते बदलाव के संदर्भ में इस मुलाकात का बड़ा महत्व है.

Wednesday, May 29, 2019

'रणछोड़दास' न बनें राहुल

कांग्रेस अपने नेतृत्व-संकट से बाहर निकल भी आए, तब भी संकट बना रहेगा। संकट नेतृत्व का नहीं पार्टी की साख का है। राहुल गांधी के इस्तीफे की चर्चा के कारण पार्टी कार्यकर्ता का ध्यान असली सवालों से हट जाएगा। राहुल ने फिलहाल पद पर बने रहना मंजूर कर लिया है, पर वे चाहते हैं कि उनके विकल्प की तलाश जारी रहे। उनका विकल्प क्या होगा? विकल्प तब खोजा जा सकता है, जब पार्टी में विकल्प खोजने की कोई संरचनात्मक व्यवस्था हो। अब उनका अध्यक्ष बने रहना ही सबसे बड़ा विकल्प है।
पार्टी को अब अपनी राजनीति को उसकी तार्किक परिणति तक पहुँचाना चाहिए। राहुल गांधी चाहते हैं कि पार्टी का नेतृत्व लोकतांत्रिक तरीके से तय हो, तो उन्हें लम्बा समय देकर पार्टी की आंतरिक संरचना को बदलना होगा। उसे वे ही बदल सकते हैं। व्यावहारिक सत्य यह है कि पार्टी की कार्यसमिति भी मनोनीत होती है। वे अच्छी तरह जानते हैं कि लोकतांत्रिक संरचना इतनी आसान नहीं है। पर यदि वे इसे बदलने में सफल हुए तो भारतीय राजनीति में उनका अपूर्व योगदान होगा। सच यह भी है कि उनके अध्यक्ष बनने के बाद पार्टी का आत्मविश्वास बढ़ा है। चुनावी सफलताएं भी मिली हैं। इसलिए यह कहना गलत है कि वे पूरी तरह विफल हुए हैं।
संसद में किन सवालों को उठाया गया और बहस में किसने क्या कहाये बातें आज की राजनीति में अप्रासंगिक होती जा रहीं हैं। पर राहुल गांधी के बयानों से लगता है कि वे संजीदा राजनीति में दिलचस्पी रखते हैंइसलिए देखना होगा कि उनकी संजीदा राजनीति’ क्या शक्ल लेगी। सन 2017 के गुजरात विधानसभा के चुनाव के दौरान उन्होंने इस बात को कई बार कहा कि हम अनर्गल बातों के खिलाफ हैं। संयोग से उन्हीं दिनों मणिशंकर अय्यर वाला प्रसंग हुआ और राहुल ने उन्हें मुअत्तल कर दिया। यानी वे साफ-सुथरी राजनीति के पक्षधर है। इस बात को उन्हें अब स्थापित करना चाहिए।

Sunday, May 26, 2019

क्या यह इस्लामोफोबिया है?

लोकसभा चुनाव में बीजेपी की जीत को लेकर वैश्विक मीडिया में कहा जा रहा है कि यह ‘हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी’ की जीत है। खासतौर से मुस्लिम देशों के मीडिया में चिंताएं भी व्यक्त की गई हैं। इतना ही नहीं मोदी की इस जीत को पश्चिमी देशों में प्रचलित ‘इस्लामोफोबिया’ यानी मुसलमानों से नफरत की अभिव्यक्ति के रूप में देखा जा रहा है। भारत के विश्लेषक नहीं समझ पा रहे हैं कि इसे साम्प्रदायिकता कहा जाए, राष्ट्रवाद, देश-भक्ति या वहाबी इस्लाम के विरोध में हिंदू-प्रतिक्रिया या कुछ और? यह पुलवामा और बालाकोट के कारण है या कश्मीर में चल रहे घटनाक्रम पर देश के नागरिकों की लोकतांत्रिक टिप्पणी है?

क्या हम इन सवालों से मुँह मोड़ सकते हैं? वोटरों ने इन्हें महत्वपूर्ण माना है। उसे साम्प्रदायिकता का नाम देने से बात खत्म नहीं होगी। मान लिया कि बीजेपी की कोशिश वोटरों को भरमा कर वोट लेने तक सीमित है, पर भरमाया किसी उस बात पर ही जा सकता है, जिसके पीछे कोई आधार हो। वोटर को जरूर कुछ बातें परेशान करती हैं, तभी वह इतना खुलकर सामने आया है। सच है कि दुनियाभर में चरम राष्ट्रवाद की हवाएं बहने लगी है। पर क्यों? यह क्रिया की प्रतिक्रिया भी है। दुनिया को समझदार बनाने की कोशिशें करनी होंगी। आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, पर दुनिया में धर्म के नाम पर जितनी खूँरेजी हुई है, वह सामान्य नहीं है।

समझदारी के उदाहरण भी हमारे सामने हैं। गत 15 मार्च को न्यूज़ीलैंड के क्राइस्टचर्च शहर की दो मस्जिदों में हुए हत्याकांड ने दो तरह के संदेश एकसाथ दुनिया को दिए। इस घटना ने गोरे आतंकवाद के नए खतरे की ओर दुनिया का ध्यान खींचा था, वहीं न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जैसिंडा अर्डर्न ने जिस तरह से अपने देश की मुस्लिम आबादी को भरोसा दिलाया, उसकी दुनियाभर में तारीफ हुई। यकीनन मुम्बई हमले के बाद पाकिस्तान सरकार ने लश्करे तैयबा के खिलाफ कार्रवाई की होती, तो भारत के लोगों के मन में इतनी कुंठा नहीं होती।

बीजेपी के फुटप्रिंट का विस्तार हुआ


सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव परिणामों को देश के नक्शे में देखें तो पाएंगे कि अब देश के हरेक इलाके में बीजेपी की उपस्थिति है। दक्षिण के आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल ऐसे राज्य हैं ,जहाँ से बीजेपी का कोई प्रत्याशी नहीं जीता, पर कर्नाटक की 28 में से 25 सीटें जीतकर पार्टी ने उसकी भरपाई कर दी है। बीजेपी का फुटप्रिंट पूरे देश के नक्शे पर हैं। केवल उपस्थिति की बात ही नहीं है, वोट प्रतिशत भी पार्टी के विस्तार की कहानी कह रहा है। भारतीय जनता पार्टी का वोट प्रतिशत 31 से बढ़कर 37.5 हो गया है। वहीं एनडीए का वोट प्रतिशत 38.70 से बढ़कर 45.51 प्रतिशत हो गया है। इसके मुकाबले यूपीए का वोट प्रतिशत 27.09 प्रतिशत है। यदि एनडीए और यूपीए दो बड़े राष्ट्रीय मोर्चों के रूप में उभरें, तो सम्भव है कि क्षेत्रीय क्षत्रपों की भूमिका कम हो।
चुनाव परिणाम आने के पहले कहा जा रहा था कि इसबार सरकार के गठन में क्षेत्रीय क्षत्रप महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। फिलहाल ऐसा नहीं होने वाला। चूंकि क्षेत्रीय दलों की ताकत घटी है, इसलिए एक अनुमान लगाया जा सकता है कि भविष्य में देश में द्विदलीय राजनीति का उभार हो सकता है। सीट की संख्याओं को देखते हुए यह बात सही नहीं लगती। फिलहाल जो परिस्थिति है वह एकदलीय कांग्रेसी व्यवस्था की याद दिला रही है, जो 1967 के पूर्व देश में थी। क्षेत्रीय मुद्दे इसबार ज्यादा प्रभावी नहीं थे। तमिलनाडु में डीएमके का उभार दो कारणों से हुआ। एक तो जयललिता के निधन के बाद से अद्रमुक अनाथ पार्टी है, दूसरे तमिलनाडु में बैटिंग रोटेट करने का चलन भी है। इसबार बारी डीएमके की थी। 
बारह राज्यों में बीजेपी को 50 फीसदी या उससे ज्यादा वोट मिले हैं। इनमें महाराष्ट्र और बिहार को तेरहवें और चौदहवें राज्य के रूप में जोड़ा जा सकता है जहाँ एनडीए के गठबंधन को 50 फीसदी से ज्यादा वोट मिले हैं। गुजरात (62.2), हिमाचल प्रदेश (69.1) और उत्तराखंड (61) में 60 फीसदी से भी ज्यादा। हरियाणा (58), मध्य प्रदेश (58) और राजस्थान (58.5) और दिल्ली (56.6) में 60 से कुछ कम। ये परिणाम सन 2015 में दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत की याद दिला रहे हैं। 
बीजेपी की सीटें तो बढ़ी ही हैं, सामाजिक आधार भी बढ़ा है। इसमें बड़ी भूमिका बंगाल और ओडिशा के वोटर की भी है। बंगाल में बीजेपी ने पिछली बार के 17 फीसदी के वोटों को बढ़ाकर करीब 40.3 फीसदी कर लिया है। यह तृणमूल के 43.3 फीसदी के एकदम करीब है। वहीं मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के वोटों में 20 फीसदी की गिरावट आई है। तृणमूल कांग्रेस के वोट बढ़े हैं, पर सीटें घटी हैं। इसकी वजह है वाममोर्चे और कांग्रेस का पराभव। बंगाल में मुकाबले सीधे हो गए हैं। यह बात वहाँ की भावी राजनीति में महत्वपूर्ण होगी। राष्ट्रीय स्तर पर वाममोर्चा को सीटों और वोट प्रतिशत के लिहाज से सबसे बड़ा धक्का लगा है। वाम मोर्चे के वोट पिछले चुनाव में 4.55 फीसदी थे, जिनमें इसबार सीधे-सीधे दो फीसदी की गिरावट आई है। इसबार उसे केवल 2.55 फीसदी वोट ही मिले हैं। यूपीए का वोट प्रतिशत जो पिछले चुनाव में 26.3 फीसदी था, इसबार बढ़कर 27.09 हो गया है। डीएमके और टीआरएस जैसे दलों की बात छोड़ दें, तो क्षेत्रीय दलों के वोट में कमी आई है।

Saturday, May 25, 2019

राजनीतिक भँवर में फँसी कांग्रेस


चुनाव परिणाम आने के बाद इतिहास लेखक राम गुहा ने ट्वीट किया कि हैरत की बात है कि राहुल गांधी ने पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा नहीं दिया है। पार्टी को अब नया नेता चुनना चाहिए। परिणाम आने के पहले योगेन्द्र यादव ने कहीं कहा कि कांग्रेस को मर जाना चाहिए। इस चुनाव में यदि कांग्रेस आइडिया ऑफ इंडिया को बचाने के लिए बीजेपी को रोकने में असफल रहती है, तो मान लेना चाहिए कि इस पार्टी का इतिहास में कोई सकारात्मक रोल नहीं रहा है। आज कांग्रेस वैकल्पिक राजनीति को बनाने में एक मात्र सबसे बड़ी बाधा है।
इस किस्म के ट्वीटों और बयानों का क्रम शुरू हो गया है। पर ये बातें व्यावहारिक राजनीति से बाहर बैठे लोगों की हैं। वे कांग्रेस के यथार्थ से परिचित नहीं हैं। बहरहाल यह विचार करने की बात जरूर है कि पाँच साल की मेहनत और बहु-प्रतीक्षित नेतृत्व परिवर्तन के बाद भी पार्टी देशभर में केवल 52 सीटें हासिल कर पाई। इस विफलता या इसके विपरीत बीजेपी की सफलता पर गम्भीरता से विचार करने की जरूरत है।
मेहनत बेकार
कांग्रेस को इसबार सन 2014 के लोकसभा परिणामों की तुलना में केवल आठ सीटें ज्यादा मिली हैं। ये आठ सीटें केरल और तमिलनाडु में हासिल 15 अतिरिक्त सीटों के बावजूद हैं। कहा जा सकता है कि दक्षिण के इन दो राज्यों में उसने अपनी पैठ बनाई है, पर एक सच यह भी है कि कर्नाटक में उसने आठ सीटें गँवा दी हैं, इसलिए दक्षिण में उसकी प्राप्ति कुल जमा सात सीटों की है। अंडमान निकोबार, लक्षद्वीप और पुदुच्चेरी में एक-एक सीट और हासिल की है, यानी कि पार्टी को उत्तर भारत में पहले के मुकाबले नुकसान ही हुआ है। देश के 19 राज्यों और केन्द्र शासित क्षेत्रों से उसका प्रतिनिधित्व ही नहीं है।