Sunday, October 11, 2015

'चुनाव ही चुनाव' का शोर भी ठीक नहीं

हम बेतहाशा चुनावबाजी के शिकार हैं। लगातार चुनाव के जुमले हम पर हावी हैं। इसे पूरी तरह दोषी न भी माने, पर राजनीति ने भी हमारे सामाजिक जीवन में जहर घोला है। दादरी कांड पर पहले तो नरेंद्र मोदी खामोश रहे, फिर बोले कि राजनेताओं के भाषणों पर ध्यान न दें। उनका मतलब क्या है पता नहीं, पर इतना जाहिर है कि चुनावी दौर के भाषणों के पीछे संजीदगी नहीं होती। केवल फायदा उठाने की इच्छा होती है। इस संजीदगी को खत्म करने में मोदी-पार्टी की बड़ी भूमिका है। पर ऐसा नहीं कि दूसरी पार्टियाँ सामाजिक अंतर्विरोधों का फायदा न उठाती हों। सामाजिक जीवन में जहर घोलने में इस चुनावबाजी की भी भूमिका है। भूमिका न भी हो तब भी सामाजिक शिक्षण विहीन राजनीति का इतना विस्तार क्या ठीक है?

Friday, October 9, 2015

पुरस्कार वापसी और उससे जुड़ी राजनीति

तीन लेखकों की पुरस्कार-वापसी के बाद स्वाभाविक रूप से कुछ बुनियादी सवाल उठे हैं. क्या इन लेखकों की अपील सरकार तक पहुँचेगी? क्या उनके पाठकों तक इस बात का कोई संदेश जाएगा? एक सवाल उन लेखकों के सामने भी है जो अतीत में सम्मानित हो चुके हैं या होने वाले है. क्या उन्हें भी सम्मान लौटाने चाहिए? नहीं लौटाएंगे तो क्या मोदी सरकार के समर्थक माने जाएंगे? पुरस्कार वापसी ने इस मसले को महत्वपूर्ण बना दिया है. लगातार बिगड़ते सामाजिक माहौल की तरफ किसी ने तो निगाह डाली. किसी ने विरोध व्यक्त करने की हिम्मत की. दुर्भाग्य है कि इस दौरान गुलाम अली के कार्यक्रम के खिलाफ शिवसेना ने हंगामा खड़ा कर रखा है. इस तरह की बातों का विरोध होना ही चाहिए. डर यह भी है कि यह इनाम वापसी संकीर्ण राजनीति का हिस्सा बनकर न रह जाए, क्योंकि इसे उसी राजनीतिक कसौटी पर रखा जा रहा है जिसने ऐसे हालात पैदा किए हैं.

Tuesday, October 6, 2015

गोबध पर गांधी की राय

25 जुलाई 1947 की प्रार्थना सभा में महात्मा गांधी ने गोबध को लेकर कुछ बातें कहीं थीं। उनकी सलाह थी कि जबरन कोई कानून किसी पर थोपा नहीं जा सकता। कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ गांधी, गांधी हेरिटेज पोर्टल से लेकर 'दि वायर' ऑनलाइन पत्रिका ने उनके इस भाषण का तर्जुमा अंग्रेजी में छापा। यह वक्तव्य मूल रूप में हिन्दी में है। इसे हिन्दी में ही पढ़ना ज्यादा उपयोगी होगा। सबसे नीचे वह लिंक भी दिया है जहाँ इसे आप सीधे पढ़ सकते हैं। 


उवैसी करेंगे क्या भाजपा की मुश्किल आसान

डाक्टर मुज़फ़्फ़र हुसैन ग़ज़ाली उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार हैं। वे जीवन से जुड़े तमाम जरूरी सवालों पर लिखते हैं। केवल राजनीति पर नहीं। उनका यह लेख तकरीबन एक हफ्ता पुराना हो गया है। बावजूद इसके प्रासंगिक है। उनका लेख पूरी तरह उर्दू का लिप्यांतरण है, अनुवाद नहीं। मैं भविष्य में भी उनके लेख अपने ब्लॉग में लगाता रहूँगा। 

दो माह क़बल बिहार चुनाव के मुताल्लिक़ बी जे पी के अंदरूनी ज़राए ने कहा था देखते जाईए क्या-क्या होता है यहां बहुत सी कुंजियाँ हैं जिनका इस्तिमाल किया जाना बाक़ी है । माँझी का नाम ज़हन में आया और बात आई गई हो गई। इस वक़्त तक उवैसी की जानिब से बिहार जाने की कोई बात सामने नहीं आई थी। पिछले कुछ दिनों में सियासतदानों के इधर से उधर होने और पाला बदलने की ख़बरों ने इस वाक़िया की याद ताज़ा कर दी। बिहार इलैक्शन में असद उद्दीन उवैसी के उतरने के ऐलान के साथ ही इस का मतलब भी समझ आने लगा। 

Sunday, October 4, 2015

कालेधन के प्राण कहाँ बसते हैं?

कर अपवंचना रोकने या काले धन को सामने लाने की मुहिम केवल भारत की मुहिम नहीं है, बल्कि वैश्विक अभियान है। इसका उद्देश्य कराधान को सुनिश्चित और प्रभावी बनाना है। भारत सरकार ने देश में काला धन कानून लागू करने के पहले जो अनुपालन खिड़की छोड़ी थी उसका उत्साहवर्धक परिणाम सामने नहीं आया है। चूंकि इस योजना में माफी की व्यवस्था नहीं थी इसलिए बहुत अच्छे परिणामों की आशा भी नहीं थी। कुल मिलाकर 638 लोगों ने 3,770 करोड़ रुपए (58 करोड़ डॉलर) विदेशी संपत्ति की घोषणा की। यह राशि अनुमान से काफी कम है। हालांकि विदेश में जमा काले धन के बारे में कोई आधिकारिक अनुमान नहीं है, लेकिन गैर-सरकारी अनुमान है कि यह राशि 466 अरब डॉलर से लेकर 1,400 अरब डॉलर तक हो सकती है। 

इस योजना के परिणामों को देखने से लगता है कि काले धन को सामने लाने की चालू कोशिशें ज्यादा सफल होने वाली नहीं हैं। इसके लिए कोई ज्यादा व्यावहारिक नीति अपनानी होगी। इस बार की योजना सन 1997 की माफी योजना जैसी नहीं थी, जिसमें जुर्माने और आपराधिक कार्रवाई से लोगों को मुक्त कर दिया गया था। उस योजना में सरकार को 10,000 करोड़ रुपए की प्राप्ति हुई थी। पर उसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया था कि भविष्य में माफी की कोई योजना शुरू नहीं की जाएगी। इसबार की योजना में जुर्माने की व्यवस्था भी थी। पश्चिमी देशों में इस प्रकार की योजनाओं का चलन हैं, जिनमें राजस्व बढ़ाने के तरीके शामिल होते हैं साथ ही ऐसी व्यवस्था होती है, जिससे अपनी आय स्वतः घोषित करने की प्रवृत्ति बढ़े।