Saturday, April 19, 2014

आप और आईपीएल


हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून
आज के अखबारों में दो लेखों ने मेरा ध्यान खींचा है। इनमें पहला है अमित बरुआ का जिन्होंने आम आदमी पार्टी की सम्भावनाओं पर लिखा है। लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी कितनी सफल होगी इसपर इस किस्म की राजनीति का भविष्य निर्भर करेगा। अमित बरुआ मूलतः आप के पक्ष में हैं और उसे कांग्रेस, भाजपा की राजनीति के विकल्प के रूप में देखते हैं।  पर उनका कहना है कि इस चुनाव के बाद ही इस राजनीति की दशा-दिशा साफ होगी। उनके लेख का अंत इस प्रकार हैः-

While the Lok Sabha poll will definitely test AAP’s mettle, many pundits believe that the party has spread itself too thin and expanded much too quickly for its own good.
These pundits are of the view that the party might have had a better chance had it concentrated on fewer seats, but the die has been cast.
The people, however, will have the final say. And they have had a history of proving the pundits wrong.
पूरा लेख पढ़ें यहाँ 

आज हिंदुस्तान में प्रकाशित राम गुहा का आईपीएल क्रिकेट पर लेख पठनीय है। खेल की सामाजिक भूमिका को समझने के लिहाज से यह अच्छा लेख है।

चुनाव से जुड़े ओपीनियन पोल की बारीकियों पर ईपी़ब्ल्यू में प्रकाशित यह लेख अच्छा है। दिलचस्पी हो तो पढ़ें
http://www.epw.in/election-specials/status-opinion-polls.html

Friday, April 18, 2014

देवी का स्वागत

कोलकाता के दैनिक टेलीग्राफ ने आज पहले सफे पर एक रोचक तस्वीर छापी है, जिसमें जयललिता के हैलिकॉप्टर का इंतज़ार करते उनके समर्थक नज़र आ रहे हैं। सबसे आगे हैं उनकी सरकार के मंत्री। रोचक है वह विवरण जो तस्वीर के साथ दिया गया है। लोग हैलिकॉप्टर के जमीन पर उतरते ही साष्टांग दंडवत करते हैं। अपने नेता को लगभग भगवान की तरह पूजने वाला समाज आधुनिक लोकतंत्र को किस प्रकार अपने जीवन में उतारतो होगा, यह बात आसानी से समझ में आती है।

एक रोचक खबर आज के अमर उजाला में गढ़वाल के उस गाँव के बारे में है जहाँ लोकसभा के पन्द्रह चुनावों में कभी कोई प्रत्याशी वोट माँगने नहीं आया। इस गाँव तक पहुँचना काफी मुश्किल काम है। 

Tuesday, April 15, 2014

सोनिया के आखिरी तीर

 मंगलवार, 15 अप्रैल, 2014 को 13:02 IST तक के समाचार
सोनिया गांधी
सोमवार की रात देश के कई सारे महत्वपूर्ण चैनलों से प्रसारित कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की वीडियो अपील को सामान्य चुनाव प्रचार से अलग करके देखा जाना चाहिए.
चुनाव के चार चरण पूरे होने और 110 सीटों यानी लगभग 20 फीसदी का फैसला ईवीएम में बंद हो जाने के बाद यह अपील सामने खड़ी पराजय को टालने की कोशिश में आखि़री आवाज़ जैसी लगती है.
यह अपील केवल इस बात पर केंद्रित नहीं थी कि कांग्रेस को जिताओ, बल्कि इस बात पर थी कि भारतीय जनता पार्टी या दूसरे शब्दों में नरेंद्र मोदी को आने से रोको. हालांकि उन्होंने मोदी या भाजपा का नाम नहीं लिया, पर समझा जा सकता है कि निशाने पर कौन था.
उन्होंने कहा, उनके पास नफ़रत, लालच और निरंकुश सत्ता की भूख का अंधेरा है. उनकी क्लिक करेंविभाजनकारीऔर निरंकुश विचारधारा हमारी भारतीयता और हिंदुस्तानियत को पतन की ओर ले जाएगी. 'हम इस चुनाव में एक ऐसे भारत के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें सत्ता कुछ चंद लोगों की नहीं हो बल्कि जिस पर सबका बराबर अधिकार हो.'

Sunday, April 13, 2014

चुनाव आयोग के नख-दंत और तीखे होने चाहिए

इन पंक्तियों के छपने तक चुनाव के चार दौर पूरे हो चुके हैं. कुल 110 यानी बीस फीसदी से ज्यदा सीटों का फैसला देश का वोटर कर चुका है. इस बार के चुनाव को देश के लिए युगांतरकारी माना जा रहा है. इस उम्मीद से कि इस बार युवा वोटरों की काफी बड़ी तादाद है. माना जा रहा है कि देश की बेशर्म राजनीति को जनता कुछ करारे तमाचे लगाना चाहती है. बावजूद इस उम्मीद के मतदान के दो-एक रोज पहले से कुछ ऐसी प्रवृत्तियों ने सिर उठाया है जो शर्मसार करती हैं. राजनीतिक दल सामाजिक ध्रुवीकरण के अभियान में जुट गए हैं. खासतौर से पश्चिमी उत्तर प्रदेश से कुछ ऐसे वक्तव्य आए हैं जो कत्तई घटिया और फूहड़ हैं. अनावश्यक रूप से देश की सेना को भी इसमें घसीट लिया गया.

Friday, April 11, 2014

चुनाव सुधारों को भी तो मुद्दा बनाएं

तृणमूल कांग्रेस ने अपने राष्ट्रीय चुनाव घोषणापत्र में चुनाव और प्रशासनिक सुधार को महत्वपूर्ण मसला बनाया है. इस घोषणापत्र में पार्टियों के धन संचय को लेकर कुछ कड़ी बातें भी कही गईं हैं. कहना मुश्किल है कि तृणमूल कांग्रेस इस मसले पर कितनी संजीदा है, पर उसने औपचारिक रूप से ही सही इसे चुनाव का सवाल बनाया है. अभी तक का अनुभव है कि देश के राजनीतिक दल और सरकारें चुनाव सुधारों का या तो विरोध करते हैं या उन्हें लागू करने में देर लगाते हैं. सरकार ने जितनी आसानी से चुनाव खर्च की सीमा बढ़ाने का सुझाव मान लिया, उतनी आसानी से पार्टियों के धन-संग्रह के नियमन से जुड़े सुझावों को भी मान लेना चाहिए. खर्च की सीमा बढ़ाने के इस फैसले के पीछे भी पाखंड नजर आता है. हर पार्टी चाहती है कि खर्च की सीमा बढ़ाई जाए, जबकि अभी तक अधिकतर प्रत्याशी खर्च का विवरण देते वक्त सीमा के आधे के आसपास का खर्च ही दिखाते हैं. जब खर्च करते ही नहीं तो सीमा बढ़ाना क्यों चाहते हैं?