Wednesday, January 9, 2013

नियंत्रण रेखा पर हिंसा का निहितार्थ

                        
जम्मू-कश्मीर के मेंढर इलाके में नियंत्रण रेखा पर पिछले कुछ दिनों की घटनाओं से लगता है कि भारत-पाक सम्बन्धों में सुधार की प्रक्रिया को धक्का लगेगा। यह धक्का सायास है या अनायास है, इसे समझने की ज़रूरत है। साथ ही यह समझने की ज़रूरत है कि इसके पीछे कोई योजना है तो वह किसकी है। टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार इसमें लश्करे तैयबा और पाक सेना की मिली-भगत है। सन 1999 में भारतीय सेना के कैप्टेन सौरभ कालिया को यंत्रणा देकर मारने और हत्या के बाद उनके शरीर को  मामला हाल में भारतीय अदालतों में भी गया है। करगिल युद्ध के दौरान सौरभ कालिया पेट्रोलिंग ड्यूटी पर थे। उस समय पाकिस्तानी सेना ने कालिया का अपहरण कर लिया। तीन हफ्ते तक इनके साथ अमानवीय व्यवहार चलता रहा। इनकी आंखें निकाल ली गई, इन पर यातनाएं हुई, इनके शरीर में सिगरेट से दागा गया, इसके बाद  इनका शव भारत सरकार को लौटा दिया गया। इसे लेकर भारत में जबर्दस्त रोष व्यक्त किया गया था।

Tuesday, January 8, 2013

दामिनी का नाम और मीडिया का दायित्व

People walk near a sand sculpture with the words "We Want Justice" created by Indian sand artist Sudarshan Patnaik, in solidarity with a gang rape victim who was assaulted in New Delhi, on a beach in the eastern Indian state of Odisha
पिछले रविवार को लंदन के मिरर अखबार ने दिल्ली के गैंगरेप पीड़ित लड़की के पिता की अनुमति से उसका नाम ज़ाहिर कर दिया। इसके बाद भारत के कुछ अखबारों ने उसका नाम छापा, पर यह सवाल विचार का विषय है कि ज़िम्मेदार मीडिया को क्या करना चाहिए। इस बीच उस लड़की के पिता का यह वक्तव्य आया कि मैने नाम ज़ाहिर करने की बात नहीं कही थी, सिर्फ इतना कहा था कि यदि सरकार उसके नाम पर कानून बनाना चाहती है तो हमें अच्छा लगेगा। मंगलवार के टाइम्स ऑफ इंडिया में  पिता के हवाले से समाचार प्रकाशित हुआ है कि नाम ज़ाहिर करने पर हमें आपत्ति नहीं है। पर क्या इतने मात्र से नाम ज़ाहिर कर देना चाहिए। 6 जनवरी के हिन्दू में उसके सम्पादक सिद्धार्थ वरदराजन का वक्तव्य छपा है, चूंकि पिता की सहमति लिखित नहीं है, इसलिए हम अभी उसका नाम ज़ाहिर नहीं कर रहे हैं। नीचे पढ़ें उनका पूरा वक्तव्यः-

Naming Delhi rape victim: a note to readers

As some of you may know, a foreign newspaper has published the name of the 23-year-old rape victim, apparently with the approval of her father. Section 228A of the Indian Penal Code, which prohibits publication of the name of a deceased rape victim without the permission of her next of kin, lays down a specific procedure by which this permission is to be accorded: it must be given in writing to a welfare organisation or institution recognised by the Central or State governments. To the best of my knowledge, this procedure, which was introduced into law as an added layer of protection for the victim and her family, has not yet been followed. We respect the father's wish to go public, if that is indeed what he wants, but unless he states the same in writing in the manner prescribed by statute, The Hindu will continue witholding the name of the victim.
Siddharth Varadarajan, Editor
पर क्या यह पत्रकारीय मर्यादाओं के खिलाफ है? हाल में लंदन के गार्डियन में एमर ओ टूल ने भी दिल्ली गैंग रेप को लेकर विचार प्रकट किए हैं। और बीबीसी ने भी गैग रेप पर आलेख पर प्रकाशित किए हैं। इन आलेखों  में भारत की बलात्कार संस्कृति को लेकर टिप्पणियाँ  मर्यादाओं पर विमर्श से जुड़ी वैबसाइट लिबरल कांस्पिरेसी ने Why a Guardian piece on Delhi gang-rape misleads on rape culture शीर्षक से भारतीय विसंगतियों और पश्चिमी समझ के अंतर की ओर इशारा किया है। दिल्ली गैंग रेप के बाद मीडिया की कवरेज पर ध्यान दें तो नज़र आता है कि बलात्कार के सवाल से ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल कानून-व्यवस्था और सरकार के प्रति आक्रोश को लेकर खड़े हुए। आशाराम बापू और राष्ट्रीय स्वयंसेवकसंघ के मोहन भागवत के बयानों से परम्परागत पुरुष-दृष्टिकोण सामने आया है। इस पर भी मीडिया में चर्चा नहीं हुई। 

बलात्कार-पीड़ित लड़की का नाम सामने न लाने के पीछे कानून की भावना क्या है? यही कि उसकी या उसके परिवार की बदनामी न हो। उन्हें समाज के सामने जाने में दिक्कत न हो। प्रायः बलात्कार की शिकार लड़की को कई प्रकार की मानसिक वेदनाओं का शिकार होना पड़ता है। पर इस मामले में समाज उसकी बहादुरी को लेकर उसका सम्मान करना चाहता है? क्या कानून की भावना समाज को उसका परिचय देने से रोकती है? इसका निर्णय शायद कोई अदालत करे। एक बात यह भी है कि तमाम प्रश्नों पर टीवी की लाइव कवरेज ने अनेक राजनीतिक, सामाजिक संस्थाओं को हास्यास्पद बना दिया है। इंटरनेट पर जिस तरह की शब्दावली का प्रयोग हो रहा है, वह मीडिया की भाषा नहीं थी। पर यह सामाजिक विमर्श है। इसकी विसंगतियों पर विचार होना चाहिए। 
Indian women offer prayers for a gang rape victim at Mahatma Gandhi memorial in New Delhi, Jan. 2, 2013.

Read more: http://world.time.com/2013/01/07/indias-gang-rape-case-as-accused-go-to-court-unease-settles-over-delhi/#ixzz2HOSFH44r

Monday, January 7, 2013

तुम्हारा नाम क्या था दामिनी?

हिन्दू में केशव का कार्टून

लंदन के डेली मिरर ने दिल्ली गैंग रेप की पीड़ित लड़की का नाम और पहचान उजागर कर दी। उसके पिता चाहते हैं कि नाम उजागर हो। कानून का जो उद्देश्य है मामला उससे आगे चला गया है। सारा देश उस लड़की को उसकी बहादुरी के लिए याद रखना चाहता है। यदि उसे याद रखना है तो उसका नाम क्यों न बताया जाए। उसका दर्जा शहीदों में है। बहरहाल रेप पर चर्चा कम होती जाएगी, पर उससे जुड़े मसले खत्म नहीं होंगे। 

दिल्ली पुलिस ने शुक्रवार की रात ज़ी न्यूज़ चैनल के खिलाफ एक मामला दर्ज किया, जिसमें आरोप है कि दिल्ली गैंगरेप के बाबत कुछ ऐसी जानकारियाँ सामने लाई गईं हैं, जिनसे पीड़िता की पहचान ज़हिर होती है। इसके पहले एक अंग्रेजी दैनिक के खिलाफ पिछले हफ्ते ऐसा ही मामला दर्ज किया गया था। भारतीय दंड संहिता की धारा 228-ए के तहत समाचार पत्र के संपादक, प्रकाशक, मुद्रक, दो संवाददाताओं और संबंधित छायाकारों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया है। सम्भव है ऐसे ही कुछ मामले और दर्ज किए गए हों। या आने वाले समय में दर्ज हों। बलात्कार की शिकार हुई लड़की के मित्र ने ज़ी न्यूज़ को इंटरव्यू दिया है जिसमें उसने उस दिन की घटना और उसके बाद पुलिस की प्रतिक्रिया और आम जनता की उदासीनता का विवरण दिया है। उस विवरण पर जाएं तो अनेक सवाल खड़े होते हैं। पर उससे पहले सवाल यह है कि जिस लड़की को लेकर देश के काफी बड़े हिस्से में रोष पैदा हुआ है, उसका नाम उजागर होगा तो क्या वह बदनाम हो जाएगी? उसकी बहादुरी की तारीफ करने के लिए उसका नाम पूरे देश को पता लगना चाहिए या कलंक की छाया से बचाने के लिए उसे गुमनामी में रहने दिया जाए? कुछ लोगों ने उसे अशोक पुरस्कार से सम्मानित करने का सुझाव दिया है। पर यह पुरस्कार किसे दिया जाए? पुरस्कार देना क्या उसकी पहचान बताना नहीं होगा

Sunday, January 6, 2013

अफगानिस्तान में तुर्की की पहल और भारत

 हामिद करज़ाई और तुर्की के राष्ट्रपति  अब्दुल्ला ग़ुल
और 
आसिफ अली ज़रदारी,

अमेरिकी सेना अफगानिस्तान से हटने के पहले भावी योजना में तुर्की को महत्वपूर्ण भूमिका देती नज़र आती है। इस योजना में कुछ पूर्व तालिबान नेता भी शामिल हैं, जिन्हें पाकिस्तान की जेलों से रिहा किया गया है। मोटे तौर पर इस प्रक्रिया में कोई असामान्य बात नहीं लगती, पर इसके पीछे भारत के महत्व को कम करने की कोशिश ज़रूर नज़र आएगी। सन 2012 में जून के पहले हफ्ते भारत-पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संदर्भ में दो महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं। पहली थी अमेरिका के रक्षामंत्री लियन पेनेटा का अफगानिस्तान और भारत का दौरा। और दूसरी थी शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की पेइचिंग में हुई बैठक। पेनेटा की भारत यात्रा के पीछे इस वक्त कोई बड़ा कार्यक्रम नहीं था, सिर्फ अमेरिका की नीति में एशिया को लेकर बन रहे ताज़ा मंसूबों से भारत सरकार को वाकिफ कराना था। इन मंसूबों के अनुसार भारत को आने वाले वक्त में न सिर्फ अफगानिस्तान में बड़ी भूमिका निभानी है, बल्कि हिन्द महासागर से लेकर चीन सागर होते हुए प्रशांत महासागर तक अमेरिकी सुरक्षा के प्रयत्नों में शामिल होना है। अमेरिका की यह सुरक्षा नीति चीन के लिए परेशानी का कारण बन रही है। वह नहीं चाहता कि भारत इतना खुलेआम अमेरिका के खेमे में शामिल हो जाए।

अमेरिकी रक्षामंत्री ने अफगानिस्तान में चल रही तालिबानी गतिविधियों को लेकर अपनी झुँझलाहट भी व्यक्त की और कहा कि उत्तरी वजीरिस्तान में हक्कानी नेटवर्क पर लगाम लगाने में पाकिस्तान लगातार विफल हो रहा है। पेनेटा ने कहा कि हमारे सब्र की सीमा खत्म हो रही है। पाकिस्तान को लेकर अमेरिका के कड़वे बयान अब नई बात नहीं रहे। जैसे-जैसे अमेरिका और नेटो सेनाओं की वापसी की समय सीमा नज़दीक आ रही है अमेरिकी व्यग्रता बढ़ती जा रही है। उधर शंघाई सहयोग संगठन की बैठक का एजेंडा कुछ और था, पर भीतर-भीतर उन परिस्थितियों को लेकर विचार-विमर्श भी था जब अफगानिस्तान से अमेरिका हटेगा तब क्या होगा। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि एससीओ का गठन 2001 में हुआ था, जिस साल अमेरिका ने अफगानिस्तान में तालिबान विरोधी युद्ध शुरू किया था। इस संगठन में चीन और रूस के अलावा ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान, कजाकिस्तान और किर्गीजिस्तान सदस्य देश हैं। मूल रूप से यह मध्य एशिया के देशों का आर्थिक सहयोग संगठन है, पर आने वाले समय में इसका सामरिक महत्व भी उजागर हो सकता है। इस संगठन में भारत, पाकिस्तान और ईरान पर्यवेक्षक हैं।

हालांकि अफगानिस्तान एससीओ का न तो सदस्य है और न पर्यवेक्षक, पर इस बार उसे विशेष रूप से आमंत्रित किया गया और उम्मीद है कि जल्द ही उसे पर्यवेक्षक का दर्जा मिल जाएगा। पाकिस्तान इस संगठन का पूर्णकालिक सदस्य बनना चाहता है। अफगानिस्तान और मध्य एशिया के देशों में पाकिस्तान की महत्वपूर्ण भूमिका है। इस लिहाज से भारत और ईरान की भूमिका भी है। तुर्की की भी इस इलाके में खासी दिलचस्पी है। खासतौर से कैस्पियन सागर से आने वाली तेल और गैस पाइप लाइनों के कारण यह इलाका आने वाले समय में महत्वपूर्ण होगा। चीन के पश्चिमी प्रांत इस इलाके से जुड़े हैं, पर वहाँ इस्लामी आतंकवाद का प्रभाव भी है। चीन का आरोप है कि पाकिस्तान में चल रहे ट्रेनिंग कैम्पों में आतंकवादियों को ट्रेनिंग दी जाती है। पाकिस्तान ने चीन के लिए गिलगित और बल्तिस्तान के दरवाजे खोल दिए हैं। वह चाहता है कि चीन की अफगानिस्तान में बड़ी भूमिका हो। ऐसा वह इसलिए भी चाहता है कि भारत को इस इलाके में ज्यादा सक्रिय होने का मौका न मिले।

पिछले साल दिल्ली आए अमेरिकी रक्षामंत्री पेनेटा ने कहा था कि पिछले दस साल में भारत ने अफगानिस्तान में सक्रिय भूमिका नहीं निभाई, पर हम चाहते है कि भारत यहाँ सक्रिय हो। यह बात पाकिस्तान में पसंद नहीं की जाएगा, पर सच यह है कि भारत और अफगानिस्तान के रिश्ते सैकड़ों साल पुराने हैं। भारत वहाँ तकरीबन 2 अरब डॉलर का निवेश करके सड़कें, अस्पताल और स्कूल बनवा रहा है। इसके अलावा अफगान सेना और पुलिस की ट्रेनिंग में भी भारत अपनी सेवा दे रहा है। अमेरिका इसे और बढ़ाना चाहता है। सवाल है क्या भविष्य में भारत इस इलाके में अमेरिकी हितों की रक्षा का काम करेगा? इसकी उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि भारत को अंततः अपने हितों के लिए ही काम करना है। चीन और रूस भारत के सहयोगी देश हैं। पर अंतरराष्ट्रीय राजनीति में दोस्त और दुश्मन बदलते रहते हैं।

पिछले साल 20-21 मई को अमेरिका के शिकागो शहर में हुए नेटो के शिखर सम्मेलन में अफगानिस्तान में 2015 के बाद की स्थितियों की समीक्षा की गई। यूरोप में आर्थिक संकट के कारण फ्रांस और जर्मनी भी जल्द से जल्द हट जाना चाहते हैं, पर उसके पहले वे ऐसी व्यवस्था कायम कर देना चाहते हैं जो तालिबान से लड़ सके। पाकिस्तान के वजीरिस्तान इलाके में तालिबान का हक्कानी नेटवर्क सक्रिय है। पाकिस्तानी सेना इसे परास्त करने में विफल रही है। अमेरिका की मान्यता है कि पाक सेना जान-बूझकर तालिबान को परास्त करना नहीं चाहती। अमेरिका की वापसी के बाद पाकिस्तान अपने प्रभाव को उसी तरह वापस लाना चाहता है जैसा 2001 से पहले था। पाकिस्तान में एक तबका ऐसा है जिसे लगता है कि अंततः अफगान कबीलों के हाथों में ताकत आएगी। अमेरिका ने वजारिस्तान में अल कायदा नेटवर्क को तकरीबन समाप्त कर दिया है। इसी 4 जून को सीआईए के एक ड्रोन हमले में अल कायदा का नम्बर दो अबू याह्या अल लीबी मारा गया। पाकिस्तानी सेना के विरोध के बावजूद अमेरिका के ड्रोन हमले जारी हैं। उधर सन 2011 में एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन की हत्या के बाद से दोनों देशों के रिश्तों में आई तल्खी कम हो रही है।

पाकिस्तानी सेना और सरकार दोनों अमेरिका से रिश्ते बनाए रखना चाहते हैं, पर वहाँ की जनता आमतौर पर अमेरिका-विरोधी है। उत्तरी वजीरिस्तान में अमेरिकी कर्रवाई से जनता नाराज़ है। मुख्यधारा के राजनेता भी कट्टरपंथियों से दबते हैं। पर पाकिस्तान की मजबूरी है अमेरिका से रिश्ते बनाए रखना। देश की आर्थिक स्थिति पूरी तरह अमेरिकी रहमो-करम पर है। इसी कारण सन 2001 में अमेरिकी फौजी कारवाई शुरू होने के बाद से पाकिस्तान नेटो सेनाओं की कुमुक के लिए रास्ता देता रहा है। शुरू में यह रास्ता मुफ्त में था, बाद में 250 डॉलर एक ट्रक का लेने लगा। 2011 के नवंबर में नेटो सेना के हैलिकॉप्टरों ने कबायली इलाके मोहमंद एजेंसी में पाकिस्तानी फौजी चौकियों पर हमला किया था, जिसमें 24 सैनिक मारे गए थे। उसके बाद पाकिस्तान ने सप्लाई पर रोक लगा दी थी। मई 2012 में शिकागो के नेटो सम्मेलन में राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी खुद गए थे। बहरहाल नेटो की रसद सप्लाई फिर से शुरू हो गई।

अब इधऱ वॉशिंगटन और इंग्लैंड की कोशिशों से तुर्की को बीच में लाया गया है। तुर्की नेटो देश है और पाकिस्तान के लिए अपेक्षाकृत मुफीद होगा। तुर्की ने पाकिस्तान की जेलों से रिहा हुए पुराने तालिबानियों की अफगान शासकों से बातचीत कराने की पेशकश भी की है। पर इस बातचीत में भारत को शामिल करने का विचार नहीं है। दिसम्बर 2012 में अंकारा में आसिफ अली ज़रदारी, हामिद करज़ाई और तुर्की के राष्ट्रपति  अब्दुल्ला ग़ुल की त्रिपक्षीय वार्ता हुई थी। इसके दौरान एक प्रस्ताव सामने आया कि तालिबान का एक दफ्तर तुर्की में खोला जाए। हाल में तुर्की की राजनीति में इस्लामी तत्व प्रभावशाली हुए हैं। मिस्र के इस्लामिक ब्रदरहुड को मदद देने में तुर्की का हाथ भी है। इका उद्देश्य मध्यमार्गी इस्लामी समूहों को आगे लाने का है, तो यह उपयोगी भी हो सकता है। अफगानिस्तान के भीतर भी तुर्की से परहेज़ रखने वाले अनेक समूह हैं। खासतौर से उज़्बेक और हाज़रा समुदाय।

तुर्की का इस मामले में प्रवेश अनायास नहीं है। सन 2010 में तुर्की की पहल पर अंकारा में हुई एक बैठक में अफगानिस्तान के भविष्य पर विचार हुआ था। पाकिस्तान का करीबी मित्र होने का फर्ज निभाते हुए तुर्की ने भारत को अंकारा में निमंत्रित ही नहीं किया था। पर उसके बाद नवम्बर 2011 में विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा "एशिया के केंद्र में सुरक्षा और सहयोग" विषय पर अफगानिस्तान के संबंध में इस्ताम्बुल सम्मेलन में शामिल हुए थे। इस प्रतिनिधिमंडल में प्रधानमंत्री के विशेष दूत एस.के. लांबा और विदेश सचिव रंजन मथाई शामिल थे।
सम्मेलन में अपने राष्ट्रपति करजई ने भारत और अफगानिस्तान के बीच अक्टूबर 2011 में हस्ताक्षरित सामरिक भागीदारी समझौते का उल्लेख करते हुए अफगानिस्तान में भारत की भूमिका की सराहना की। उन्होंने भारत को एक महान मित्र और इस क्षेत्र में एक प्रमुख खिलाड़ी बताया। सम्मेलन की घोषणा में, आतंकवादियों के सुरक्षित पनाह स्‍थलों को समाप्त करने की आवश्यकता का उल्लेख करते हुए, आतंकवाद के संबंध में भारत और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के अन्य सदस्यों की चिंताओं तथा अफगानिस्तान की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करते हुए उसके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का आग्रह स्पष्ट रूप से प्रदर्शित होता है। अफगानिस्तान में शांति और मेल-मिलाप की आवश्यकता के संबंध में यह दस्तावेज, रेड लाइन अर्थात हिंसा से बचने, आतंकवादी समूहों से संबंध विच्छेद करने, अफगानिस्तान के संविधान का सम्मान करने तथा क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग की संरचना में एशिया के मध्य, दक्षिण और अन्य भागों को जोड़ते हुए व्यापार, पारगमन, ऊर्जा, आर्थिक परियोजनाओं और निवेश का एक नेटवर्क बनाने की आवश्यकता के प्रति समझ-बूझ के महत्व पर बल देता है।

पाकिस्तान की कोशिश है कि तालिबान के मध्यमार्गी समूहों को वैधानिकता मिले ताकि वे अफगानिस्तान की राजनीति में सक्रिय हो सकें। इसके लिए तालिबान का एक दफ्तर किसी देश में खोलने की कोशिश हो रही है। यह दफ्तर सऊदी अरब में खोलने का विचार था, पर सऊदी अरब कट्टरपंथ और आतंकी गतिविधियों के प्रति सख्त रुख अख्तियार कर रहा है। इसलिए तुर्की बेहतर जगह लगती है। पाकिस्तानी सेना भी तुर्की के प्रति श्रद्धा का भाव रखती है। तुर्की पूरे इस्लामी देशों में सबसे आधुनिक है। और वह स्वयं को सफल इस्लामी लोकतंत्र साबित करना चाहता है। तुर्की और भारत के रिश्ते भी अच्छे हैं। ये रिश्ते आर्थिक हैं और आने वाले समय में तुर्की मध्य एशिया से दक्षिण एशिया को थल मार्ग से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। पर सन 2011 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में तुर्की के प्रधानमंत्री द्वारा जम्मू और कश्मीर का उल्लेख किए जाने पर भारत ने चिंता व्यक्त की थी, जिसमें यह स्पष्ट कहा गया था कि यह भारत और पाकिस्तान के बीच एक द्विपक्षीय मामला है तथा ऐसे सभी द्विपक्षीय मसलों से निपटने के लिए इन दोनों देशों के बीच उचित तंत्र हैं। हालांकि तुर्की ने इस बात को स्वीकार किया था, और स्पष्ट किया था कि उसके प्रधानमंत्री का आशय कश्मीर मुद्दे को उठाना नहीं था अपितु वह इस समय जारी भारत पाकिस्तान वार्ता के संबंध में पुराने विवादों का उल्लेख मात्र करना चाहते थे। उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि तुर्की का सत्ताधारी दल अर्थात जस्टिस एंड डिवलपमेंट पार्टी (एके पार्टी) ने भारत के साथ सामरिक संबंधों के निर्माण और उन्हें मजबूत बनाने का सामरिक निर्णय लिया है। अफगानिस्तान में बदलते हालात का जायज़ा लेने में तुर्की हमारा मददगार हो सकता है इसलिए भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन फरवरी में तुर्की जाएंगे। इस बात पर लगातार नज़र रखने की ज़रूरत है कि अमेरिकी सेना हटने के बाद अफगानिस्तान में भारत-विरोधी गतिविधियाँ सिर उठाने न पाएं। 

Saturday, January 5, 2013

आपकी उदासीनता??!!!?


     

सड़क पर फैला खून...
तैरकर या लांघकर निकल जाते हैं लोग
चुपचाप, बिना रुके...
कहां भीगता है कोई इस शहर में
-विजय किशोर 'मानव'


दिल्ली में बलात्कार का शिकार हुई लड़की के मित्र ने ज़ी न्यूज़ को इंटरव्यू में उस दिन की घटना और उसके बाद पुलिस की प्रतिक्रिया और आम जनता की उदासीनता का जो विवरण दिया है वह एक भयावह माहौल की ओर संकेत करता है। टीवी चैनल को दिए साक्षात्कार में पीड़ित लड़की के मित्र ने पूरी घटना का सिलसिलेवार ब्योरा दिया है। लड़के का कहना था कि पीड़ित ने 100 नंबर पर पुलिस कंट्रोल रूम को फोन करने की कोशिश की थी, लेकिन अभियुक्तों ने उसका मोबाइल फोन छीन लिया। उनकी दोस्त के शरीर से बहुत ज्यादा खून बह रहा था। जब उसे और पीड़ित लड़की को नग्न अवस्था में बस से फेंक दिया गया तो उन्होंने राह पर आते-जाते लोगों को रोकने की कोशिश की लेकिन 20-25 मिनट तक कोई नहीं रुका। करीब 45 मिनट बाद पुलिस की पीसीआर वैन्स घटनास्थल पर पहुंची लेकिन आपस में अधिकार क्षेत्र तय करने में उन्हें समय लगा। वह बार-बार कोई कपड़ा दिए जाने की गुहार लगाता रहा लेकिन किसी ने उसकी बात न सुनी और काफी देर बाद एक बेडशीट फाड़ कर दी गई जिससे उसने पहले अपनी मित्र को ढँका। शायद उन्हें डर था कि वे रुकेंगे तो पुलिस के चक्कर में फंस जाएंगे। अस्पताल पहुंचने पर भी ठीक से मदद नहीं मिली। वहां भी किसी ने तन ढकना जरूरी नहीं समझा। युवक के अनुसार, वह वारदात की रात से ही स्ट्रेचर पर था। 16 से 20 दिसंबर तक वह थाने में ही रहा। इस दौरान पुलिस ने उसका उपचार भी नहीं करवाया। 

क्या यह आम नागरिक की बेरुखी थी? या व्यवस्था से लगने वाला डर? 
दुष्यंत कुमार की इन पंक्तियों में शायद यही बात हैः-

इस शहर में वो कोई बारात हो या वारदात
अब किसी भी बात पर
खुलती नहीं हैं खिड़कियाँ 

सरकारी व्यवस्था की उदासीनता को कोस कर क्या होगा, जब सामान्य व्यक्ति भी उतना ही उदासीन है। सरकार किसकी है? आपकी ही तो है? 


कोई नहीं आया मदद के लिए बीबीसी समाचार
ज़ी न्यूज़ पर इंटरव्यू