Friday, September 28, 2012

चुनावी नगाड़े और महाराष्ट्र का शोर

ऐसा लगता है कि एनसीपी के ताज़ा विवाद में अजित पवार नुकसान उठाने जा रहे हैं। शरद पवार का कहना है कि यह विवाद सुलझ गया है। यानी अजित पवार का इस्तीफा मंज़ूर और बाकी मंत्रियों का इस्तीफा नामंज़ूर। आज शुक्रवार को मुम्बई में एनसीपी विधायकों की बैठक हो रही है, जिसमें स्थिति और साफ होगी।
नेपथ्य में चुनाव के नगाड़े बजने लगे हैं। तृणमूल कांग्रेस की विदाई के बाद एनसीपी के विवाद के शोर में नितिन गडकरी का संदेश भी शामिल हो गया है कि जल्द ही चुनाव के लिए तैयार हो जाइए। बीजेपी ने एफडीआई को मुद्दा बनाने का फैसला किया है। पिछले महीने कोल ब्लॉक पर बलिहारी पार्टी को यह मुद्दा यूपीए ने खुद आगे बढ़कर दे दिया है। पर व्यापक फलक पर असमंजस है। बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी और राष्ट्रीय परिषद की बैठकों के समांतर यूपीए समन्वय समिति की पहली बैठक गुरुवार को हुई। यह समन्वय समिति दो महीने पहले जुलाई के अंतिम सप्ताह में कांग्रेस और एनसीपी के बीच विवाद को निपटाने का कारण बनी थी। संयोग है कि उसकी पहली बैठक के लिए एक और विवाद खड़ा हो गया है। अब एनसीपी के टूटने का खतरा है और महाराष्ट्र में नए समीकरण बन रहे हैं। वास्तव में चुनाव करीब हैं।

Monday, September 24, 2012

आर्थिक नहीं, संकट राजनीतिक है

बारहवीं योजना के दस्तावेज़ में से क्रोनी कैपीटलिज़्म शब्द हटाया जा रहा है। इसका ज़िक्र भारतीय आर्थिक व्यवस्था और हाल के घोटालों के संदर्भ में हुआ था। इस पर कुछ मंत्रियों का कहना था कि इस शब्द का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए, क्योंकि इससे क्रोनी कैपीटलिज़्म का भारतीय व्यवस्था में चलन साबित होगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कई बार क्रोनी कैपीटलिज़्म के खतरों की ओर आगाह कर चुके हैं। इसी 12 सितम्बर को उन्होंने हाइवे प्रोजेक्ट्स में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप को लेकर क्रोनी कैपीटलिज़्म के खतरों की ओर चेताया था। मनमोहन सिंह सन 2007 में इस प्रवृत्ति के खतरों की ओर चेता चुके हैं। आप कहेंगे वे खुद प्रधानमंत्री हैं और खुद सवाल उठा रहे हैं। पर सच यह है कि मनमोहन सिंह ने भारतीय पूँजी और राजनीति के रिश्तों पर कई बार ऐसी टिप्पणियाँ की हैं। हालांकि उदारीकरण का ठीकरा मनमोहन सिंह के सिर पर फूटता है, पर यह काजल की कोठरी है और इसमें बगैर दाग वाली कमीज़ किसी ने नहीं पहनी है। बहरहाल क्या हम योजना आयोग के दस्तावेज़ से यह शब्द हटाकर व्यवस्था को पारदर्शी बना सकते हैं? पिछले कुछ दिनों में यह बात बार-बार सामने आ रही है कि उदारीकरण का मतलब संसाधनों का कुछ परिवारों के नाम स्थानांतरण नहीं है। हमारा आर्थिक विकास रोज़गार पैदा करने में विफल रहा है। पर क्या ममता बनर्जी, मुलायम सिंह, मायावती और बीजेपी व्यव्स्था को पारदर्शी बनाना चाहते हैं? क्या उनके विरोध के पीछे कोई आदर्श है? या यह सब ढोंग है? 

प्रधानमंत्री का कहना है कि पैसा पेड़ों में नहीं उगता। क्या ममता, मुलायम और मायावती समेत लगभग सारे दलों को लगता है कि उगता है? आज बंगाल सरकार 23,000 करोड़ रुपए के जिस कर्ज़ को माफ कराना चाहती है, वह रुपया भी पेड़ों नहीं उगा था, पर वाम मोर्चा सरकार ने रुपया लाने के तरीकों के बारे में नहीं सोचा। कांग्रेस को छोड़ लगभग हर पार्टी ने मनमोहन सिंह सरकार के आर्थिक सुधारों का विरोध किया है। कांग्रेस के भीतर भी मनमोहन सिंह समर्थक लगभग न के बराबर हैं। हाल में समाजवादी पार्टी के नेता मोहन सिंह ने कोयला मामले के संदर्भ में कहा था कि पार्टी के भीतर ही बहुत से लोग चाहते हैं कि मनमोहन सिंह हटें। आर्थिक सुधारों को लेकर सोनिया गांधी ने जनता के बीच जाकर कभी कुछ नहीं कहा। बल्कि उन्होंने राष्ट्रीय सलाहकार परिषद बनाई, जिसकी अधिकतर सलाहों से सरकार सहमत नहीं रही। पार्टी के आर्थिक और राजनीतिक विचारों में तालमेल नज़र नहीं आता। सवाल दो हैं। पहला यह कि सरकार को अचानक आर्थिक सुधारों की याद क्यों आई? और क्या वह मध्यावधि चुनाव के लिए तैयार है? इन सब सवालों के साथ एक सवाल यह भी है कि क्या बीजेपी अपने ‘इंडिया शाइनिंग’ को भुलाकर जिस लोकलुभावन राजनीति के रास्ते पर जा रही है, क्या उसमें पैसा पेड़ों पर उगता है?

Sunday, September 23, 2012

आनन्द बाज़ार का एबेला


शायद यह टाइम्स ऑफ इंडिया के बांग्ला बाज़ार में प्रवेश की पेशबंदी है या नए पाठकों की तलाश। आनन्द बाज़ार पत्रिका ने एबेला नाम से नया दैनिक पत्र शुरू किया है, जिसका लक्ष्य युवा पाठक हैं। यह पूरी तरह टेब्लॉयड है। रूप और आकार दोनों में। हिन्दी में जागरण के आई नेक्स्ट, अमर उजाला के कॉम्पैक्ट, भास्कर के डीबी भास्कर और हिन्दुस्तान के युवा की तरह। पर इन सबके मुकाबले बेहतर नियोजित।

बेनेट कोलमैन का इरादा इस साल के अंत तक बांग्ला अखबार शुरू करने का है। किसी ज़माने में कोलकाता से नवभारत टाइम्स भी निकलता था। पर टाइम्स ग्रुप हिन्दी के बजाय बांग्ला में जाना चाहता है। टाइम्स हाउस का बांग्ला अखबार कैसा होगा, वह किस वर्ग को टार्गेट करेगा और कब आएगा इस पर कयास हीं हैं। बीसीसीएल के चीफ मार्केटिंग राहुल कंसल को उद्धृत करते हुए जो खबरें आई हैं उनके अनुसार टाइम्स हाउस इस अखबार की सम्भावनाओं को समझ रहा है। पहले अनुमान था कि यह 15 अगस्त तक आ जाएगा और इसका नाम समय होगा। बहरहाल उससे पहले एबेला आ गया है।

Saturday, September 22, 2012

रास्ता कहाँ है?


Friday, September 21, 2012

जी कस्तूरी का निधन


'हिन्दू' अपने किस्म का अनोखा अखबार है और मेरे विचार से दुनिया के सर्वश्रेष्ठ अखबारों में एक है। कोई अखबार अच्छा या खराब अपने मालिकों के कारण होता है। इंडियन एक्सप्रेस के रामनाथ गोयनका, आनन्द बाज़ार पत्रिका के सरकार परिवार, टाइम्स हाउस के साहू जैन और उससे पहले डालमिया परिवार, मलयालम मनोरमा के केसी मैमन मैपिल्लै का परिवार और हिन्दुस्तान टाइम्स के बिड़ला परिवार की भूमिका मीडिया के कारोबार के अलावा पत्रकारिता को उच्चतर मूल्यों से जोड़ने में रही है। पर हिन्दू के मालिकों में कुछ अलग बात रही। जी कस्तूरी पत्रकारिता के पुराने ढब में ढले थे, जिसमें अपने व्यक्तित्व को पीछे रखा जाता है। उनके निधन से भारतीय पत्रकारिता ने बहुत कुछ खो दिया है। बेशक कारोबारी बयार ने हिन्दू को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया है, पर देश में कोई अखबार इस आँधी में बचा है तो वह हिन्दू है। और इसका श्रेय जी कस्तूरी को जाता है।