Thursday, October 14, 2010

डीडी अपनी ताकत को क्यों नहीं पहचानता?


इस पखवाड़े किसी न किसी वजह से दूरदर्शन, जिसे अब डीडी के नाम से बेहतर पहचाना जाता है, खबरों में रहा। कॉमनवैल्थ गेम्स के कारण उसे देखने वालों की संख्या बढ़ी, विज्ञापन बढ़ा। छोटी-मोटी खराबियों पर ध्यान न दें तो तकनीकी दृष्टि से प्रसारण ठीक था। डीडी के स्पोर्ट्स चैनल ने हाई डेफिनिशन प्रसारण शुरू करके तकनीकी बढ़त ले ली है। डीडी के पास अपना डीटीएच है। तमाम भारतीय भाषाओं के चैनल हैं। तकनीक, नेटवर्क और साधनों के लिहाज से डीडी के मुकाबले कोई चैनल नहीं है, पर दर्शक उसके पास जाना नहीं चाहता।

प्रतिमा पुरी
प्रसार भारती बन जाने के बावजूद डीडी पर सरकारी मीडिया होने की पट्टी चिपकी है। उसकी काम करने की शैली उसके स्वायत्त हो जाने के बाद शायद बिगड़ी ही है। करीब डेढ़ दशक पहले जब देश में निजी टीवी स्टेशनों की शुरुआत हो रही थी, तब एक उम्मीद बँधी थी कि अब सूचना के अनेक स्रोत होने पर सही तस्वीर सामने आ सकेगी। पर ऐसा नहीं हो सका। न्यूज़ चैनल के नाम पर जिन्हें लाइसेंस दिए गए, वे बाज़ीगर और मदारी बन गए। यह एक प्रकार का धोखा था। जिसे धोखा दिया गया वही जागरूक होता तो धोखा कौन दे पाता। भारतीय मीडिया की दो समानांतर धाराएं साफ देखी जा सकती हैं। एक है डीडी मार्का सरकारी धारा। इसमें तकनीक और आधार ढाँचा बनाने पर ज़ोर है। दूसरे हैं निजी चैनल जिनमें विज्ञापन से कमाई करने की होड़ है। कंटेंट यानी सामग्री की उपेक्षा दोनों जगह है।

भारत को राष्ट्रीय स्तर पर जब गहरे, खुले और लम्बे विचार-विमर्श की ज़रूरत है, तभी उसकी विमर्शकारी संस्थाएं कमज़ोर होती जा रहीं हैं। चौपाल, चौराहों और कॉफी हाउसों की संस्कृति खत्म हो रही है। इस विमर्श की जगह वर्चुअल-विमर्श ने ले ली है। यह वर्चुअल-विमर्श ट्विटर और फेसबुक में पहुँच गया है। यहाँ वह सरलीकरण और जल्दबाज़ी का शिकार है। अक्सर अधकचरे तथ्यों पर अधकचरे निष्कर्ष निकल कर सामने आ रहे हैं। एकाध गम्भीर ब्लॉग को छोड़ दें तो नेट का विमर्श अराजक है। टीवी का विमर्श एक फॉर्मूले से बँध गया है तो उससे बाहर निकल कर नहीं आ रहा। यों भी टीवी की दिलचस्पी इसमें नहीं है। वह सूचनाओं को तोड़-मरोड़ कर पेश करने को ही कौशल मानता है। उसके कंटेंट की योजना पत्रकार नहीं बनाते। मार्केटिंग-मैनेजर बनाते हैं। उनकी दिलचस्पी समाज के व्यापक हित में न होकर संस्था के व्यावसायिक हित तक सीमित है। ऐसी तमाम वजहों से विमर्शकार एक-दूसरे से दूर हो गए हैं।

दूरदर्शन यानी डीडी ऐसा मंच हो सकता है, जो गम्भीर विमर्श को बढ़ा सके और उन जानकारियों को दे, जिनसे प्राइवेट चैनल भागते हैं। वह संज़ीदा दर्शकों का वैकल्पिक मार्केट खड़ा कर सकता है। उसके दबाव में प्राइवेट चैनल भी अपने को बदलने की कोशिश करेंगे। ऐसा करने के लिए उसके पास वैचारिक अवधारणा होनी चाहिए। पर डीडी तो सरकारी अफसरों के मार्फत काम करता है। देश की अर्थव्यवस्था, राजनीति, संस्कृति, समाज, पर्यावरण, विज्ञान, तकनीक यहाँ तक कि बाज़ार के बारे में सोच-विचार का कोई मंच तो होना चाहिए। एक दौर था जब अखबारों की बहस संसद में और संसद की अनुगूँज अखबारों में होती थी। अब तो कोई गूँज ही नहीं है। भयानक शोर के बीच वैचारिक सन्नाटा। बुद्धिजीवी मज़ाक का विषय बन गए हैं। आज़ादी के बाद के शुरुआती वर्षों में आकाशवाणी ने देश के श्रेष्ठ लेखकों, संगीतकारों और कलाकारों को सहारा दिया था। दूरदर्शन (डीडी-पूर्व) के शुरुआती सीरियल किस माने में कमज़ोर थे?
पिछले कुछ साल में लोकसभा टीवी ने गम्भीर विमर्श का एक रास्ता दिखाया है। इस चैनल का दर्शक संख्या में कम है, पर सामग्री के लिहाज से इसकी एक दिशा है। लोकसभा चैनल सिर्फ संसदीय कार्यवाही के प्रसारण तक सीमित नहीं रहना चाहिए। उसे पब्लिक स्फीयर की रचना करनी चाहिए, जो पूरे देश को वैचारिक दिशा दे। यह काम दूरदर्शन को करना चाहिए। उसने नहीं करना चाहा। वह तो प्राइवेट चैनलों की अपराध कथाओं की नकल करता है। डीडी के पास देश का सबसे अच्छा नेटवर्क है। देश के नेता मीडिया से जिस पॉज़ीटिव कवरेज़ का अनुरोध करते हैं, उसे डीडी में क्यों नहीं करके दिखाते?  उसे प्राइवेट चैनलों का पिछलग्गू क्यों बनना चाहिए? उसका स्पोर्ट्स चैनल प्राइवेट स्पोर्ट्स चैनलों से टक्कर नहीं लेना चाहता। यह मुश्किल काम नहीं है। डीडी के पास इतने चैनल हैं कि वह क़ॉमनवैल्थ गेम्स को उसके समूचे रंग के साथ कवर कर सकता था। उनके पास सफलता का फॉर्मूला सिर्फ इतना है कि ईएसपीएन से एंकर लाकर बैठा दो।  

टीवी, नेट, अखबार या किसी भी मीडिया को सिर्फ तेल-फुलेल, रंग-रोगन की ज़रूरत नहीं है। उसे संज़ीदा सामग्री की ज़रूरत है। इस तथ्य की उपेक्षा ज्यादातर मीडिया ने की है। हमने घटियापन इसलिए अपनाया क्योंकि गुणवत्ता की राह में मेंहनत लगती है। हमें मुफ्त की सफलता चाहिए। सफलता का रास्ता अनिवार्य रूप से घटियापन की दरकार करता तो पश्चिमी मीडिया भी ऐसा ही होता। डिसकवरी, साइंस, हिस्ट्री और जियोग्रैफी के चैनल भी व्यावसायिक रूप से सफल हैं। हमने उस प्रोफेशनलिज्म को अपनाने की कोशिश क्यों नहीं की? कम से कम  डीडी तो यह कर ही सकता था। 

Wednesday, October 13, 2010

आयशा की नाक लगी

आपको याद है अफगानिस्तान की आयशा का नाम जिसका चेहरा टाइम के कवर पर छपा था। उसके नाक-कान तालिबान कमांडर की अनुमति से काट लिए गए थे। आयशा की उसके पिता ने कर्ज़ अदायगी के रूप में एक पुरुष से शादी  कर दी थी। ससुराल में दुर्व्यवहार होने पर वह भाग खड़ी हुई। इसपर उसे पकड़ कर लाया गया और नाक-कान काट लिए गए। 

टाइम की खबर के बाद आयशा को अमेरिका लाया गया। यहाँ उसकी नाक फिर से लगा दी गई है। यह नाक नकली है। बाद में उसकी नाक की हड्डी के टिश्यूज़ का इस्तेमाल करके स्थायी नाक की व्यवस्था भी की जाएगी।


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बीबीसी की खबर

Thursday, October 7, 2010

मीडिया की भी परीक्षा का मौका है

एशियाड 1982 के मार्च पास्ट में टीमें हिन्दी के अकारादिक्रम से आईं थी। कॉमनवैल्थ गेम्स में ऐसा नहीं हुआ। इसकी एकमात्र वज़ह यह होगी कि गेम्स की नियमावली में साफ लिखा गया है कि टीमें अंग्रेज़ी के अक्षरक्रम से मैदान में आएंगी। पर टीमों के आगे नाम पट्टिका में अंग्रेजी के साथ हिन्दी में भी नाम लगाए जा सकते थे। स्टेडियम में घोषणाएं हिन्दी में की जा सकतीं थीं। दूरदर्शन इसका एकमात्र टीवी प्रसारक था। वहाँ दो एंकरों में से एक हिन्दी में हो सकता था। नाम का परिचय हिन्दी में भी हो सकता है। यह बात सिर्फ यह ध्यान दिलाने के लिए है कि हिन्दी भारत की राजभाषा है और अंग्रेजी काम-चलाने के लिए उसके साथ चल रही है।

व्यावहारिक बात यह है कि सिर्फ हिन्दी से काम नहीं चलता। चूंकि इसका प्रसारण कॉमनवैल्थ देशों में हो रहा था, इसलिए अंग्रेजी वाली बात समझ में आती है, पर स्टेडियम में उपस्थित और टीवी पर प्रसारण देख रही जनता का काफी बड़ा वर्ग हिन्दी जानता था। उस जनता का हिन्दी प्रेम अच्छा होता तो शायद ऐसा नहीं होता, पर राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के हिन्दी में दो शब्द बोलने पर खुशी की लहर कुछ लोगों ने महसूस की होगी। बीजिंग ओलम्पिक के मार्च पास्ट में टीमों की नाम पट्टिकाओं पर अंग्रेजी के साथ चीनी में भी लिखा था। वहाँ चूंकि अंग्रेजी जानने वाले होते ही नहीं इसलिए ओलिम्पिक के पहले तमाम तरह के लोगों को अंग्रेजी सिखाई गई। हमारे यहाँ भी कॉमनवैल्थ गेम्स के पहले दिल्ली के रेलवे स्टेशन के कुलियों को अंग्रेजी सिखाई गई।

कॉमनवैल्थ गेम्स का उद्घाटन समारोह प्रभावशाली था। कम से कम मीडिया ने उसे प्रभावशाली बताया है। यों मीडिया-कवरेज पर जाएं तो अक्सर भ्रम पैदा होता है कि सही क्या है और ग़लत क्या है। गेम्स की जबर्दस्त फ़ज़ीहत के बाद उद्घाटन समारोह को देखते ही मीडिया दंग रह गया। हमारे लोक-संगीत और लोक संस्कृति में इतना दम है कि उसे ढंग से पेश कर दिया जाय तो दंग रह जाना पड़ता है। देश को शोकेस करने के लिए रेलगाड़ी के माध्यम से जो भारत-यात्रा पेश की गई वह रोचक थी। अलबत्ता उसे और वास्तविक बनाया जा सकता था।

हमारा लोकतंत्र सिर्फ नेताओं के भाषणों तक सीमित नहीं है। पंचायत राज, आरटीआई, चुनाव प्रणाली, जनगणना और मीडिया को अच्छे ढंग से शोकेस किया जा सकता था। सॉफ्टवेयर, सर्विस सेक्टर और शिक्षा हमारी एक और उपलब्धि है। लोक-संगीत और लोक-संस्कृति के साथ-साथ हमें आधुनिक भारत को शोकेस करने की ज़रूरत है। इस समारोह की रौनक एयरोस्टैट से बढ़ी, पर यह हमारी इंजीनियरी का कमाल नहीं था। एआर रहमान का गीत न तो उनका और न आधुनिक भारत का श्रेष्ठ लोकप्रिय संगीत था। बेहद औसत दर्जे का और बेमेल गीत साबित हुआ। उसे लम्बा खींचने के लिए जय हो का इस्तेमाल करना पड़ा। एक अखबार ने बॉलीवुड की अपर्याप्त अनुपस्थिति की ओर भी इशारा किया है। वास्तव में बॉलीवुड की इसके मुकाबले कई गुना बेहतर उपस्थिति 2006 के मेलबर्न कॉमनवैल्थ गेम्स में थी।  

कॉमनवैल्थ गेम्स की एक विशेषता उसे दूसरे खेलों से अलग करती है। इसमें देशों के अलावा कुछ ऐसे इलाकों की टीमें हिस्सा लेतीं हैं, जो स्वतंत्र देश नहीं हैं। वेल्स, नॉर्दर्न आयरलैंड, स्कॉटलैंड, तुवालू, वनुआतू, जर्सी, सेंट किट्स, नाउरू, किरिबाती, सेशेल्स, नोरफॉल्क या आइल ऑफ मैन को अपनी रोचक पहचान के साथ भाग लेने का मौका इसी समारोह में मिलता है। उद्घाटन समारोह में भारतीय टीम के बाद किसी टीम का स्वागत गर्मजोशी से हुआ तो वह पाकिस्तान थी। एकबार गुज़र जाने के बाद कैमरे ने दुबारा इस टीम की प्रतिक्रिया पर नज़रे-इनायत नहीं की। कवरेज की क्वालिटी अच्छी थी, दूरदर्शन पर विज्ञापनों की श्रृंखला इतनी लम्बी चलती है कि ऊब होती है। संयोग से बिग बॉस के दरवाजे उसी वक्त खुल रहे थे, इसलिए काफी दर्शक उधर निकल गए। बहरहाल दूरदर्शन को अपने पैर ज़माने का एक मौका इन खेलों के मार्फत मिला है।

जितनी निगेटिव पब्लिसिटी इन गेम्स को मिली है शायद ही किसी दूसरे गेम्स को मिली होगी। खेल गाँव से और स्टेडियमों से अब पॉज़ीटिव खबरें आ रहीं हैं। इससे मीडिया का बचकानापन भी ज़ाहिर होता है। पल-पल में रंग बदलना अधकचरेपन की निशानी है। उद्घाटन समारोह या समापन समारोह का महत्व औपचारिक है। गेम्स की सफलता या विफलता का पैमाना खेल का स्तर और प्रतियोगिताओं के संचालन में है। मीडिया को खेल की गुणवत्ता का आकलन करना चाहिए। इन खेलों में भारतीय टीम को बड़ी संख्या में मेडल मिलने की उम्मीद है। इसकी वजह एक तो अच्छे खिलाड़ियों की अनुपस्थिति है दूसरे कुश्ती और बॉक्सिंग जैसे खेलों में बेहतर तैयारी है।

कुश्ती देसी खेल है। कॉमनवैल्थ खेलों में कुश्ती के लिहाज़ से हमारा सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 1970 के एडिनबरा गेम्स में रहा जहाँ हमारी टीम ने 12 मेडल जीते। इनमें से 9 मेडल कुश्ती में थे। इन 9 में 5 स्वर्ण, 3 रजत और 1 कांस्य पदक था। इस बार हम अकेले कुश्ती में 21 पदक जीतने की आशा रखते हैं। इतने न भी मिलें तब भी जो जीतेंगे वे अब तक के सबसे ज्यादा होंगे। हम नेटबॉल, रग्बी सेवंस और लॉन बॉल में भी पदक जीतने की होड़ में हैं। पर शायद सबसे बड़ी प्रतिष्ठा हॉकी से जुड़ी है। इस साल मार्च में दिल्ली में हुई विश्व कप हॉकी प्रतियोगिता में हमारा प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। यों भी हॉकी की हमारे देश में वैसी ही फज़ीहत हो रही है जैसी कॉमनवैल्थ गेम्स की हुई है। यह हमारी संगठन क्षमता की विफलता को भी ज़ाहिर करता है।

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तुरत-फुरत फैसले करता है। जल्द नाराज़ होता है और फौरन खुश होता है। तारीफ और आलोचना के लिए अतिवादी शब्दावली का इस्तेमाल करता है। बजाय इसके ठंडे मिजाज़ और गहरे विश्लेषण की ज़रूरत है। अनुभवहीनता या आपसी प्रतियोगिता की लपेट में मीडिया गलतियाँ करता है। पब्लिक स्क्रूटिनी का यह सर्वश्रेष्ठ फोरम अनायास ही पब्लिक स्क्रूटिनी का सबसे महत्वपूर्ण विषय नहीं बना है। उसे ध्यान देना चाहिए कि हमने अपनी व्यवस्था और देश को ही शोकेस नहीं किया है मीडिया को भी शोकेस किया है। कॉमनवैल्थ गेम्स के दौरान हमारी सुरक्षा व्यवस्था, प्रशासनिक क्षमता, खेल आयोजन में कुशलता, खेलों में दक्षता के साथ, मीडिया कवरेज से लेकर मेहमानवाज़ी तक तमाम बातों की परीक्षा होगी। ऐसे मौके छवि को बनाने या बिगाड़ने के लिए मिलते हैं।  


समाचार फॉर मीडिया डॉट कॉम में प्रकाशित

Friday, October 1, 2010

अयोध्या फैसले पर अखबारों की राय







फैसले के बाद

अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय का बहुप्रतीक्षित फैसला आ गया और कहीं कुछ अप्रिय नहीं घटित हुआ। यह देश की जनता के संयम की जीत है और इसके लिए उसे बधाई मिलनी चाहिए, लेकिन संयम का यह प्रदर्शन भविष्य में भी होना चाहिए-न केवल अयोध्या विवाद के संदर्भ में, बल्कि अन्यमामलों में भी। वस्तुत: यही वह उपाय है जो भारत को सबल बनाएगा। चूंकि उच्च न्यायालय के फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती देने की घोषणा कर दी गई है और यह अपेक्षा के अनुरूप भी है इसलिए अब निगाहें शीर्ष अदालत पर होंगी। बावजूद इसके उच्च न्यायालय के फैसले की अपने-अपने हिसाब से व्याख्या होना स्वाभाविक है और वह होगी भी-इसलिए और भी अधिक, क्योंकि फैसले के बिंदु ही ऐसे हैं। उदाहरणस्वरूप यह बिंदु कि जब गिराया गया ढांचा मंदिर के स्थान पर बना था तो फिर एक तिहाई हिस्सा मुस्लिम संगठनों को देने का क्या आधार है, लेकिन यह ध्यान रहे कि इस बिंदु पर तीनों न्यायाधीश एकमत नहीं। हां, जिस एक बिंदु पर वे एकमत हैं वह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि जहां रामलला की मूर्तियां स्थापित हैं वह राम जन्म स्थान है। तीनों न्यायाधीशों के इस एक बिंदु पर एकमत होने से जहां हिंदू संगठनों का दावा सशक्त हुआ है वहीं मुस्लिम संगठनों को भी उच्चतम न्यायालय जाकर अपनी बात कहने का एक आधार मिला है, लेकिन जब तक अंतिम निर्णय नहीं आ जाता तब तक ऐसे किसी निष्कर्ष पर पहुंचने का कोई मतलब नहीं कि इस पक्ष की जीत अथवा उस पक्ष की हार हुई। ऐसे किसी निष्कर्ष पर न पहुंचने का एक प्रमुख कारण यह है कि उच्च न्यायालय का फैसला अंतिम नहीं है। यह भविष्य के गर्भ में है कि उच्च न्यायालय के फैसले पर उच्चतम न्यायालय का क्या निर्णय होगा, लेकिन यह अपेक्षा अवश्य की जाती है कि इस मसले पर अब वैसी देर न हो जैसी उच्च न्यायालय के स्तर पर हुई। एक अपेक्षा राजनीतिक दलों से भी है कि वे वैसी परिस्थितियां पैदा करने से बचें जैसी उच्च न्यायालय के फैसले को लेकर की गईं। यह ठीक नहीं होगा कि जब उच्चतम न्यायालय के निर्णय की बारी आए तो देश इसी तरह अनिष्ट की आशंका से घिर जाए। ऐसे परिदृश्य से बचने के प्रयास अभी से होने चाहिए और इसका एक बेहतर तरीका है-नए सिरे से आपसी सहमति से विवाद का हल निकालने की कोशिश। इसमें संदेह नहीं कि उच्च न्यायालय के फैसले के बाद विवादित स्थल पर भव्य राम मंदिर निर्माण के आकांक्षी हिंदू संगठनों को बल मिला है, लेकिन यह सही समय है जब दोनों पक्ष ऐसा माहौल बनाने की कोशिश करें जिससे विवाद का हल सुलह-समझौते से निकल आए। चंद दिन पहले तक ऐसी राह नहीं नजर आ रही थी, लेकिन बदली परिस्थितियों में उसे आसानी से खोजा जा सकता है। इसके लिए दोनों ही पक्षों को सक्रियता दिखानी होगी, क्योंकि ताली एक हाथ से नहीं बज सकती। यदि हमारे राजनेता और धर्माचार्य अयोध्या विवाद का समाधान जीत-हार के पलड़े में जाए बगैर करना चाहते हैं तो उन्हें इसके लिए पूरा जोर लगा देना चाहिए कि अयोध्या मसले का समाधान दोनों पक्षों की सहमति से निकल आए। ऐसा समाधान राष्ट्र में शांति-सद्भाव सुनिश्चित करने में कहीं अधिक सहायक होगा।

Thursday, September 30, 2010

कश्मीर का ताज़ा हाल

पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर के जनमत संग्रह का मुद्दा उठाया है। इसपर भारत के विदेशमंत्री ने जवाब दिया है कि अब तक कई बार हो चुके चुनाव ही जनमत संग्रह की निशानी हैं। यह साफ है कि कश्मीर के मौजूदा माहौल को भड़काने में पाकिस्तान का हाथ है। करगिल की लड़ाई भड़काने वाले परवेज़ मुशर्रफ को बाद में समझ में आ गया था कि यह काम खतरनाक है। अब पाकिस्तानी सेना के जनरल कयानी इसे भड़काना चाहते हैं।

पाकिस्तान को यह भी समझ में आ रहा है कि उसे अमेरिका से वैसा सहयोग नहीं मिलेगा जैसा मिलता रहा है। इसलिए चीन का नया कार्ड खेला है। चीन को भी पाकिस्तान की उसी तरह ज़रूरत है जैसे अमेरिका को है। भारत को इन दोनों का सामना अपने राजनैतिक संकल्प से करना होगा। उसके पहले कश्मीर में हालात को सामान्य करना भी ज़रूरी है।


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