Sunday, September 12, 2010

बाढ़ लाइव, सूखा लाइव

पानी में खड़े होकर पीटीसी
शनिवार के इंडियन एक्सप्रेस में दिल्ली की बाढ़ को कवर करने की होड़ में लगे चैनलों पर अच्छी खबर है। जिस तरह पीपली लाइव में मधुमक्खियों की तरह टीवी की टीमें भाग रहीं थीं, तकरीबन उसी अंदाज़ में दिल्ली के बाढ़ वाले इलाके पर चैनल-वीरों ने हमला बोल दिया। कोई पानी में घुसा है, कोई नाव लेकर निकला है। किसी ने मंदिर के बैकड्रॉप को पकड़ा तो किसी ने पेड़ को। पानी और भगवान को छोड़ हर चीज़ की बाइट ले ली। 


अखबारों को अब एक नई बीट बनानी चाहिए। चैनल बीट। इसमें रिपोर्टर का काम सिर्फ यह होना चाहिए कि आज दिन भर में किस चैनल ने क्या किया। आप देखिएगा हर रोज उसमें रोचक खबरें होगी। 


चैनलों की दिलचस्पी बाढ़ की वजह से होती तो अच्छी बात थी। आखिर जनता की परेशानियों की फिक्र करना अच्छा है। पर इस फिक्र की दो वजहें थीं। एक यह बाढ़ दिल्ली में थी। वहाँ तक जाना आसान था। दिल्ली में टीवी देखने वाले भी ज्यादा हैं। मुम्बई वाले अपनी बाढ़ को लेकर इतनी अच्छी कवरेज करा सकते हैं, तो दिल्ली पीछे क्यों रहे? हाल में हरियाणा और पंजाब की बाढ़ को इतने जबर्दस्त ढंग से कवर नहीं किया गया। बिहार में कोसी की बाढ़ पर तो मीडिया का ध्पयान तब गया, जब बाढ़ उतर रही थी। 


बाढ़ हो या सूखा, बात सनसनीखेज न हो तो हमारी कवरेज से क्या फायदा? इसलिए इंटरेस्टिंग बनाने में ही हमारा कौशल है। सो हर रिपोर्टर जुट गया नया एंगिल तलाशने में। टीवी की न्यूज़ में रिपोर्टर को यों तो करना कुछ नहीं होता। काम तो कैमरामैन को करना होता है। रिपोर्टर का आकर्षण है पीटीसी। यानी पीस टु कैमरा। यह पीटीसी जितनी रोचक हो जाए कवरेज उतनी ही सफल है। 


कोई छत से लटक कर पीटीसी कर रहा है तो कोई गाय का सींग पकड़ कर। गनीमत है किसी ने गले तक पानी में डूबकर पीटीसी नहीं दिया। पीटीसी मे रिपोर्टर सारे तनाव अपने उपर लेकर ऐसा जाहिर करता है जैसे इस बाढ़ का पूरी जिम्मा उसका था। काम पूरा होते ही वह ऐसे खिसक लेता है जैसे नत्था के गायब होते ही पीपली से सारी टीमे निकल गईं थीं। 

Saturday, September 11, 2010

पुरुलिया बनाम अमेठी-रायबरेली

राहुल गांधी इन दिनों आक्रामक मुद्रा में देश का दौरा कर रहे हैं और गरीबों, दलितों और जनजातियों के पक्ष में बोल रहे हैं। जवाब में सीपीएम के मुखपत्र पीपुल्स डेमोक्रेसी ने यूपीए सरकार की धज्जियाँ उड़ाई हैं। इसमें रोचक है बंगाल के गरीब इलाके और अमेठी-रायबरेली की तुलना। पीपुल्स डेमोक्रेसी ने कुछ आँकड़े पेश किए हैं, जो इस प्रकार हैः-





पुरुलिया
अमेठी-रायबरेली
गरीबी रेखा के नीचे आबादी                          31%
54%
जिन परिवारों को बिजली प्राप्त है                     29%  
14%
प्रति व्यक्ति व्यय                                  461 रु
385 रु
बच्चों का वैक्सीनेशन                               84%                                               
16%
नवजात-शिशु मृत्यु दर                        प्रति 1000 में 46    
प्रति 1000 में 83    
पाँच साल से कम के शिशुओं की मृत्यु           प्रति 1000 में 89    
प्रति 1000 में 160    

यह जानकारी भी उपयोगी होगी कि राहुल गाँधी के परदादा जवाहर लाल नेहरू, दादा फीरोज़ गाँधी, दादी इंदिरा गाँधी, अंकल अरुण नेहरू, पिता राजीव गाँधी, चाचा संजय गाँधी और माँ सोनिया गाँधी उनके पहले अमेठी और रायबरेली से चुने जाते रहे हैं। 

सीपीएम को तड़पन तब हुई जब राहुल ने कहीं कहा, "Just as there are two Indias, one for the rich and the other for the poor, there are two [West] Bengals, one that glitters and is of the Communist Party of India (Marxist) and the other our Bengal, that of the poor and the backward."



Thursday, September 9, 2010

चीन से दोस्ती

भारत और चीन के रिश्ते हजारों साल पुराने हैं, पर उतने अच्छे नहीं हैं, जितने हो सकते थे। आजादी के बाद भारत का लोकतांत्रिक अनुभव अच्छा नहीं रहा। व्यवस्था पर स्वार्थी लोग हावी हो गए। इससे पूरे सिस्टम की कमज़ोर छवि बनी। पर यह होना ही था। जब तक हमारे सारे अंतर्विरोध सामने नहीं आएंगे तब तक उनका उपचार कैसे होगा। 


चीन के बरक्स तिब्बत के मसले पर हमने शुरू से गलत नीति अपनाई। तिब्बत किसी लिहाज से चीन देश नहीं है।  चीन आज कश्मीर को विवादित क्षेत्र मानता है, क्योंकि पाकिस्तानी तर्क उसे विवादित मानता है। पर तिब्बत के मामले में सिर्फ तकनीकी आधार पर उसने कब्जा कर लिया और सारी दुनिया देखती रह गई। तिब्बत के पास अपनी सेना होती तो क्या वह आज चीन के अधीन होता। अंतरराष्ट्रीय समुदाय ज्यादा से ज्यादा उसे विवादित क्षेत्र मानता जैसा पाकिस्तानी हमलावरों के कारण कश्मीर बना दिया गया है। 


भारत को चीन से दोस्ती रखनी चाहिए। यह हमारे और चीन दोनों के हित में है, पर यह भी ध्यान रखना चाहिए कि सामरिक कारणों से हमारा प्रतिस्पर्धी है। वह पाकिस्तान का सबसे अच्छा दोस्त है। और हमेशा रहेगा। तमाम देश खुफिया काम करते हैं। चीन के सारे काम खुफिया होते हैं। उसने और उत्तरी कोरिया ने पाकिस्तान के एटमी और मिसाइल प्रोग्राम में मदद की है। यह भारत-विरोधी काम है। भारत जैसे विशाल देश के समाज में अंतर्विरोध भी चीनी विशेषज्ञों ने खोज लिए हैं। यह भी पाकिस्तानी समझ है। चीन की भारत-नीति में पाकिस्तानी तत्व हमेशा मिलेगा। 

हिन्दुस्तान में प्रकाशित मेरा लेख पढ़ने के लिए कतरन पर क्लिक करें

Tuesday, September 7, 2010

खेल के नाम पर धोखाधड़ी

एक के बाद एक खिलाड़ियों के नाम डोप टेस्ट में सामने आ रहे हैं। इतनी बड़ी संख्या मे भारतीय खिलाड़ी पहली बार डोप टेस्ट में फँसे हैं। इसकी एक वजह नेशनल एंटी डोपिंग एजेंसी की चौकसी भी है। पर खिलाड़ियों को क्या हो गया? वे क्यों इस जाल में फँसे?

दिल्ली के कॉमनवैल्थ खेल पहले से ही फज़ीहत में थे। ऊपर से ऐसा हो गया। इसकी तमाम वजहों में से एक वजह वह पौष्टिक आहार है, जो पुराने मानकों पर बना है। पिछले साल दिसम्बर के बाद मानक बदले हैं। खिलाड़ियों को मिलने वाले आहार को उसी हिसाब से बदल जाना चाहिए। खिलाड़ियों को भी पता होना चाहिए कि कौन से तत्वों पर रोक लगाई गई है। अभी ये नाडा के टेस्ट हैं। कल को कॉमनवैल्थ खेलों के टेस्ट होंगे तब न जाने खिलाड़ी पकड़ में आएंगे।

खेल के नाम पर दूसरा कलंक है क्रिकेट की स्पॉट या मैच फिक्सिंग। इसमें पाकिस्तानी खिलाड़ी फँसे हैं। एक पाकिस्तानी खिलाड़ी ने दावा किया कि पूरी टीम फिक्सिंग में शामिल है। यासिर हमीद ने हालांकि अपने इस बयान को बाद में वापिस ले लिया, पर बात संगीन है। शुरू में तो पाकिस्तानी सरकार और पाकिस्तानी बोर्ड अपने खिलाड़ियों का समर्थन कर रहा था, पर लगता है उन्हें गम्भीरता समझ में आ गई है। हालांकि अभी इस मामले में भारतीय नाम सामने नहीं आए हैं, पर कोई गारंटी नहीं कि कल को नहीं आएंगे।

बेन जॉनसन जैसे खिलाड़ी को अपना सम्मान खोना पड़ा
पैसे के लिए जिस कदर व्यक्ति अपने को गिरा रहा है उससे निराशा पैदा होती है। अजब पागलपन पैदा हो गया है। क्या हमारी समझ विकृत है? क्या यह नई उपभोक्तावादी संस्कृति की देन है? जिन खिलाड़ियों को लोग अपना रोल मॉडल बना रहे थे, वे इतने घटिया लोग हैं। यह क्यों है? क्या किसी के पास जवाब है?


2010 के लिए वाडा द्वारा प्रतिबंधित दवाओं की सूची 

कहाँ गया हमारा सामाजिक संवाद



नया दौर सन 1957 की हिन्दी फिल्म है। उसमें औद्योगिक बदलाव और सामाजिक परिस्थितियों का सवाल उठा था। फिल्म का नायक शंकर(दिलीप कुमार) मोटर गाड़ी के मुकाबले अपने तांगे को दौड़ाने की चुनौती स्वीकार करता है। उसकी मदद में आता है अखबार का रिपोर्टर शहरी बाबू जॉनी वॉकर। आजादी के करीब एक दशक पहले और डेढ़-दो दशक बाद तक खासतौर से पचास के पूरे दशक में हमारे वृहत् सामाजिक-सरोकारों को शक्ल लेने का मौका मिला। अभिनेताओं, संगीतकारों, लेखकों, कवियों और शायरों की जमात ने पूरे देश को सराबोर कर दिया। हिन्दी फिल्मी गीतों ने जैसा असर भारतीय समाज पर डाला उसकी दुनिया में मिसाल नहीं मिलेगी। यह सोशल डिसकोर्स या सामाजिक-विमर्श जारी था। उसमें तमाम संदेश छिपे थे। पर इसमें गुणात्मक अंतर आया है। यह अंतर है संदेशवाहक की बदली भूमिका का। सिनेमा, रेडियो और अखबार हमारा शुरूआती मास-मीडिया था। तीनों में एक खास तरह का जोशो-ज़ुनून था। सरकारी होने के बावज़ूद हमारे रेडियो का भी खास अंदाज़ था। कम से कम वह सही वक्त बताता था, शुद्ध खबरें और अच्छे लेखकों, संगीतकारों और कलाकारों को अभिव्यक्ति का मौका देता था।

नब्बे के दशक तक भारतीय मीडिया के सामाजिक सरोकार उतने भटके हुए नहीं थे, जितने आज लगते हैं। सत्तर के दशक में देश ने बांग्लादेश की लड़ाई के अलावा भ्रष्टाचार के खिलाफ गुजरात और बिहार-आंदोलन, नक्सली आंदोलन, जेपी-आंदोलन, इमर्जेंसी और उसके बाद संवैधानिक सुधार के आंदोलन देखे। अस्सी का दशक जबर्दस्त खूंरेज़ी और संकीर्णता लेकर आया। खालिस्तानी आंदोलन और उसके दमन ने मीडिया को साँसत में डाल दिया। एक ओर आतंकी धमकी दूसरी ओर राज-व्यवस्था का दबाव। फिर मंडल और कमंडल आए। इसने हालांकि हमारी सामाजिक बुनियाद पर असर डाला, पर सार्वजनिक विमर्श का स्तर कमज़ोर हो गया।

टेलीविज़न सत्तर के दशक में ही आ चुका था, पर नब्बे के दशक में दूरदर्शन में कुछ बाहरी कार्यक्रम शुरू होने से ताज़गी का झोंका आया। इसके बाद निजी चैनलों की क्रांति शुरू हुई, जो अभी जारी है। पर इस क्रांति ने बजाय सामाजिक-विमर्श को कोई नई दिशा देने के दर्शक के सामने कपोल-कल्पनाओं, सनसनी और अंधी मौज-मस्ती की थालियां सजा दीं। इसकी सबसे बड़ी वजह वह उपभोक्ता बाज़ार था, जिसके विज्ञापनों की बौछार होने वाली थी। 1995 में एक साथ दो भारत सुंदरियाँ मिस वर्ल्ड और मिस युनीवर्स बनाई गईं। यह सिर्फ संयोग नहीं था। टीवी के सोप ऑपेरा में हम लोग और बुनियाद के सीधे-सच्चे पात्रों की जगह लिपे-पुते मॉडल अभिनय करने के लिए मैदान में कूद पड़े। उनके मसले बदल गए। पहली बार चैनलों ने खबरें पढ़ने के लिए पत्रकारों की जगह मॉडलों को बैठाया। ऐसा दुनिया में कहीं और हुआ, मुझे पता नहीं।

देश के मीडिया से राष्ट्रीय महत्व के मसले इसके पहले इमर्जेंसी के दौर में गायब हुए थे। उन दिनों फिल्म और खेल की सामग्री अखबारों में बढ़ गई थी। राजनैतिक गतिविधियों को रिपोर्ट करने में जोखिम था, बल्कि अनुमति नहीं थी। अब तो वह बात नहीं है। इस वक्त प्राथमिकता बदली हुई है। हाल में पीपली लाइव और उसके कुछ पहले रणने विचार-विमर्श का मौका दिया है। इस बार एक मीडिया ने दूसरे मीडिया की खबर ली है। टीवी भी चाहे तो सिनेमा की वास्तविकता को दिखा सकता है, पर वह दिखाना नहीं चाहेगा। टीवी या अखबारों में बॉलीवुड की कवरेज प्रचारात्मक होती है, विश्लेषणात्मक नहीं। इस वक्त अखबार, टीवी और सिनेमा तीनों से एक साथ सामाजिक-विमर्श गायब हुआ है। वह इंटरनेट के रास्ते सिर उठा रहा है, पर इंटरनेट की व्याप्ति अभी सीमित है।

हमारे सिनेमा ने अछूत कन्या, दो बीघा ज़मान, प्यासा, आवारा, श्री 420, जागते रहो, मदर इंडिया, नीचा नगर, गरम कोट, सुजाता, इंसान जाग उठा, पड़ोसी और दो आँखें बारह हाथ जैसी तमाम फिल्में दीं और सब सफल हुईं। यह सूची सत्यकाम और गर्म हवा तक आती है। सत्तर के दशक में श्याम बेनेगल की अंकुर और निशांत ने सिनेमा को नया आयाम दिया। गोविन्द निहलानी ने आक्रोश, पार्टी, अर्ध सत्य, तमस और हजार चौरासी की माँ, प्रकाश झा ने दामुल, मृत्युदंड, गंगाजल, अपहरण और अब राजनीति बनाई। एक ज़माने तक फिल्मों में पत्रकार और नेता बड़े आदर्शवादी और प्रायः लड़ाई जीतने वाले होते थे। धीरे-धीरे फिल्मों के आदर्शवादी पत्रकार पात्र संकट में आने लगे या फिर व्यवस्था का हिस्सा बन गए। रमेश शर्मा और गुलज़ार की न्यू डेल्ही टाइम्स ऐसी ही फिल्म थी। कुंदन शाह की जाने भी दो यारो के पत्रकार धंधेबाज़ हैं। पेज थ्री में कोंकणा सेन शर्मा इस कारोबार के द्वंद में फँसी रह जाती है।

मीडिया के अंतर्विरोधों को बेहतर शोध और रचनात्मक प्रतिभा के मार्फत सामाजिक विमर्श का माध्यम बनाया जा सकता है। जनता जानना चाहती है। पत्रकार, नेता और अभिनेता जिस ज़मीन पर खड़े हैं वह काल्पनिक नहीं है। उसके सच और उसके अंतर्विरोध सामने आने चाहिए। यह आत्मविश्लेषण मीडिया को ही करना है। आश्चर्यजनक यह है कि टेलीविजन और अखबार इन विषयों को अपनी कवरेज का विषय नहीं बनाते। ऐसा भी नहीं कि उसमें शामिल लोग इस पर चर्चा करना न चाहते हों। मीडिया के जिन लोगों से मेरी बात होती है, उनमें से ज्यादातर अपने आप से संतुष्ट नहीं होते। वे ज्यादा से ज्यादा यह बताने का प्रयास करते हैं कि अभी शुरुआत है। हम अपने पैर जमा रहे हैं। ये बातें जल्द खत्म हो जाएंगी। टीवी के मामले में यह बात समझ में आती है। यह मीडिया अपेक्षाकृत नया है। उसने अपनी औपचारिक या अनौपचारिक आचार संहिता तैयार नहीं की है। पर प्रिंट मीडिया को तो अपना स्पेस नहीं छोड़ना चाहिए। यह सोचना गलत है कि जनता गहरे मसलों को पढ़ना नहीं चाहती। दरअसल हमें ज्यादा मेहनत करने की ज़रूरत है। 

मीडिया में कंटेंट यानी सामग्री की उपेक्षा को लेकर चिंता व्यक्त करने वालों में ज्यादातर लोग पत्रकार या लेखक हैं। कारोबारी लोगों की चिंता के कारण वही नहीं होते जो लेखक-पत्रकार और पाठक के होते हैं। पर कारोबारी समझ को ही कंटेंट की महत्ता समझनी चाहिए। इस वक्त जो भी सफल अखबार हैं, वे कंटेंट में ही सफल हैं। और कंटेंट निरंतर सुधरना चाहिए। अखबारों का इनवेस्टमेंट कवरेज में सुधार पर बढ़ना चाहिए। हिन्दी अखबारों को तमाम नए विषयों के विशेषज्ञों की पत्रकार के रूप में ज़रूरत है। अखबार अपने बिजनेस के लिए बड़े वेतन पर एमबीए लाना चाहते हैं। पर पत्रकारों को सस्ते में निपटाना चाहते हैं। खासतौर से भाषायी पत्रकारों के साथ ऐसा ही हो रहा है।
भारतीय भाषा के पत्रकारों के ऊपर सामाजिक-विमर्श को आगे ले जाने की ज़िम्मेदारी है। भारतीय भाषाओं के पाठक ही संख्या में बढ़ रहे हैं। अखबार सिर्फ खबर नहीं देता। वह अपने पाठक से संवाद करता है। उसे शिक्षित करता है, दिशा देता है। नए पत्रकार को उसके सामाजिक संदर्भों की जानकारी देना उसके संस्थान का काम है। मुझे नहीं लगता कि ऐसा कोई विचार आज अखबारों की विस्तार-योजना में शामिल है। इसकी एक वजह है कारोबारी समझ। मेरे विचार से अखबारों का कारोबार देखने वालों को भी पत्रकारिता के वैल्यू सिस्टम की ट्रेनिंग दी जानी चाहिए। पत्रकारों की ट्रेनिंग में सामाजिक जिम्मेदारी का भाव खत्म हो गया है। अखबार को प्रोडक्ट कहना ही इस जिम्मेदारी का गला दबोचना है।    


समाचार फॉर मीडिया डॉट कॉम में प्रकाशित