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Saturday, July 13, 2019

राहुल की चिट्ठी के अंतर्विरोध


राहुल गांधी के जिस इस्तीफे पर एक महीने से अटकलें चल रही थीं, वह वास्तविक बन गया है। पहला सवाल यही है कि उसे इतनी देर तक छिपाने की जरूरत क्या थी? पार्टी ने इस बात को छिपाया जबकि वह एक महीने से ज्यादा समय से यह बात हवा में है। राहुल गांधी ने चार पेज का जो पत्र लिखा है उसे गौर से पढ़ें, तो उसकी ध्वनि है कि में इस्तीफा तो दे रहा हूँ, पर गलती न तो मेरी है और न मेरी पार्टी की। व्यवस्था ही खराब है। दोष आँगन का है नाचने वाले का नहीं। 

उन्होंने पत्र की शुरुआत में ही स्पष्ट कर दिया कि ‘कांग्रेस प्रमुख के तौर पर 2019 के लोकसभा चुनाव में हार की ज़िम्मेदारी मेरी है। भविष्य में पार्टी के विस्तार के लिए जवाबदेही काफ़ी अहम है। यही कारण है कि मैंने कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दिया है। पार्टी को फिर से बनाने के लिए कड़े फ़ैसले की ज़रूरत है। 2019 में हार के लिए कई लोगों की जवाबदेही तय करने की ज़रूरत है। यह अन्याय होगा कि मैं दूसरों की जवाबदेही तय करूं और अपनी जवाबदेही की उपेक्षा करूं।’

इसके बाद पत्र का काफी बड़ा हिस्सा इस बात को समर्पित है कि हार के पीछे उनकी जिम्मेदारी नहीं है। उन्होंने बीजेपी की विचारधारा को पहला निशाना बनाया है। उन्होंने लिखा है, ‘हमें कुछ कड़े फैसले करने होंगे और चुनाव में हार के लिए कुछ लोगों को जिम्मेदार ठहराना होगा। सत्ता के अपने मोह को छोड़े बिना और एक गहरी विचारधारा की लड़ाई लड़े बिना हम अपने विरोधियों को नहीं हरा सकते।’

Tuesday, June 30, 2020

चीन का सिरदर्द हांगकांग


China Threatens to Retaliate If U.S. Enacts Hong Kong Bill - Bloombergऔपचारिक रूप से हांगकांग अब चीन का हिस्सा है, पर एक संधि के कारण उसकी प्रशासनिक व्यवस्था अलग है, जो सन 2047 तक रहेगी। पिछले कुछ समय से हांगकांग में चल रहे आंदोलनों ने चीन की नाक में दम कर दिया है। उधर अमेरिकी सीनेट ने 25 जून 2020 को हांगकांग की सम्प्रभुता की रक्षा के लिए दो प्रस्तावों को पास किया है, जिससे और कुछ हो या न हो, हांगकांग की स्वतंत्र अर्थव्यवस्था को धक्का लगेगा।
चीन के नए सुरक्षा कानून के विरोध में अमेरिका ने यह कदम उठाया है। इस प्रस्ताव में उन बैंकों पर भी प्रतिबंध लगाने की बात है जो हांगकांग की स्वायत्तता के खिलाफ चीन का समर्थन करने वालों के साथ कारोबार करते हैं। ऐसे बैंकों को अमेरिकी देशों से अलग-थलग करने और अमेरिकी डॉलर में लेनदेन की सीमा तय करने का प्रस्ताव है।
हांगकांग ऑटोनॉमी एक्ट नाम से एक प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किया गया, जिसका उद्देश्य उन व्यक्तियों और संस्थाओं पर पाबंदियाँ लगाना है, जो हांगकांग की स्वायत्तता को नष्ट करने की दिशा में चीनी प्रयासों के मददगार हैं। कानून बनाने के लिए अभी इसे हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स से पास कराना होगा और फिर इस पर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के हस्ताक्षर होंगे।

Saturday, April 6, 2019

कांग्रेस फिर ‘सामाजिक कल्याणवाद’ पर वापस

इस बात को शुरू में ही कहना उचित होगा कि भारत में चुनाव घोषणापत्र भ्रामक हैं। जिस देश में चुनाव जीतने के सैकड़ों क्षुद्र हथकंडे इस्तेमाल में आते हों, वहाँ विचारधारा, दर्शन और आर्थिक-सामाजिक अवधारणाएं पाखंड लगती हैं। फिर भी इन घोषणापत्रों का राजनीतिक महत्व है, क्योंकि न केवल चुनाव प्रचार के दौरान, बल्कि चुनाव के बाद भी पार्टियों के कार्य और व्यवहार के बारे में इन घोषणापत्रों के आधार पर सवाल किए जा सकते हैं। उन्हें वायदों की याद दिलाई जा सकती है और लोकमंच पर विमर्श के प्रस्थान-बिन्दु तैयार किए जा सकते हैं।
कांग्रेस के इसबार के घोषणापत्र पर सरसरी निगाह डालने से साफ ज़ाहिर होता है कि पार्टी अपने सामाजिक कल्याणवाद पर वापस आ रही है। बीजेपी के आक्रामक छद्म राष्ट्रवाद के जवाब में कांग्रेस ने अपनी रणनीति को सामाजिक कल्याण और सम्पदा के वितरण पर केन्द्रित किया है। एक अरसे से कहा जा रहा था कि पार्टी को अपने राजनीतिक कार्यक्रम के साथ सामने आना चाहिए। केवल गैर-बीजेपीवाद कोई रणनीति नहीं हो सकती। वह नकारात्मक राजनीति है। अच्छी बात यह है कि कांग्रेस अब अपनी विचारधारा को एक दायरे में बाँधकर पूरी ताकत के साथ मैदान में उतरी है।

Monday, December 27, 2021

क्रूर वर्ष, जो उम्मीदें भी छोड़ गया


इक्कीसवीं सदी का इक्कीसवाँ साल पिछले सौ वर्षों का सबसे क्रूर वर्ष साबित हुआ। महामारी ने जैसा भयानक रूप इस साल दिखाया, वैसा पिछले साल भी नहीं दिखाया था, जब वह तेजी से फैली थी। खासतौर से हमारे देश ने बेबसी के सबसे मुश्किल क्षण देखे। इसी तरह हेलीकॉप्टर दुर्घटना में सीडीएस जनरल बिपिन रावत और उनकी पत्नी समेत कुल 14 लोगों को खोना सबसे दुखद घटनाओं में से एक था। साल जितना क्रूर था, लड़ने के हौसलों की शिद्दत भी इसी साल देखने को मिली। अर्थव्यवस्था पटरी पर वापस आ रही है, वैक्सीनेशन नई ऊँचाई पर है। उम्मीद है बच्चों की पढ़ाई पूरी होगी। राजद्रोह बनाम देशद्रोह मामले पर नई बहस इस साल शुरू हुई, जिसकी परिणति आने वाले वर्ष में देखने को मिलेगी। राजनीतिक जासूसी और टैक्स चोरी से जुड़े दो मामले इस साल उछले। एक पेगासस और दूसरा पैंडोरा पेपर लीक। इन सब बातों के बावजूद साल का अंत निराशाजनक नहीं है। उम्मीदें जगाकर ही जा रहा है यह साल।

महामारी

महामारी इस साल भी सबसे बड़ी परिघटना थी। पिछले दो वर्षों में देश में करीब साढ़े तीन करोड़ लोग संक्रमित हुए हैं। करीब 4.80 लाख लोगों की मौत हुई है। तीन करोड़ 42 लाख से ज्यादा ठीक भी हो चुके हैं, पर अप्रेल के पहले हफ्ते से लेकर जून के दूसरे हफ्ते तक जो लहर चली, उसने देश को हिलाकर रख दिया। अलबत्ता 2 जनवरी को भारत ने दो वैक्सीनों के आपातकालीन इस्तेमाल की अनुमति दी और 16 जनवरी से वैक्सीनेशन शुरू हो गया। शनिवार की सुबह आठ बजे तक देश में 140 करोड़ 31 लाख से ज्यादा टीके लग चुके हैं। आईसीएमआर के अनुसार देश में इस समय  पॉज़िटिविटी रेट एक फीसदी से भी कम है। मृत्यु दर 1.38 फीसदी है और रिकवरी रेट 98.40 फीसदी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सीरम इंस्टीट्यूट में बनी कोवोवैक्स को बच्चों पर इमरजेंसी इस्तेमाल की मंजूरी दे दी है। उम्मीद है कि नए साल में हालात सुधरते जाएंगे।

ममता का अभियान

पश्चिम बंगाल, केरल, असम, पुदुच्चेरी और तमिलनाडु विधानसभा चुनाव इस साल की सबसे महत्वपूर्ण घटनाक्रम था। इनमें सबसे महत्वपूर्ण परिणाम पश्चिम बंगाल से आए, जहाँ ममता बनर्जी लगातार तीसरी बार सत्ता पर काबिज होने में सफल हुईं। चुनाव के पहले और परिणाम आने के बाद की खूनी हिंसा को भी साल की सुर्खियों में शामिल किया जाना चाहिए। इस चुनाव के बाद ममता बनर्जी ने कांग्रेस के स्थान पर खुद को विपक्ष का नेता साबित करने का अभियान शुरू किया है। जिस तरह से गोवा में उनकी पार्टी सक्रिय हुई है, उससे लगता है कि आने वाले वर्ष के राजनीतिक पिटारे में कई रोचक संभावनाएं छिपी बैठी रखी हैं।

भाजपा की पहल

ज्यादा बड़े फेरबदल इस साल बीजेपी में हुए हैं। जुलाई में कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा के स्थान पर बसवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री बनाया गया। सितंबर में गुजरात में विजय रूपाणी के हटाकर भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री बनाया गया। पूरे मंत्रिमंडल को बदल दिया गया। उत्तराखंड में दो बार मुख्यमंत्री बदले गए। केंद्रीय मंत्रिपरिषद में भारी फेरबदल भी इस साल की बड़ी घटनाएं रहीं। इसे विस्तार के बजाय नवीनीकरण कहना चाहिए। अतीत में किसी मंत्रिमंडल का विस्तार इतना विस्मयकारी नहीं हुआ होगा। पिछले साल प्रधानमंत्री ने अयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास किया था, तो इस साल उन्होंने वाराणसी में 'श्री काशी विश्वनाथ धाम' का लोकार्पण किया। इस कार्यक्रम की भव्यता को देखते हुए लगता है कि भारतीय जनता पार्टी अपने सांस्कृतिक-एजेंडा को लगातार चलाए रखेगी।

Wednesday, June 7, 2023

इमरान बनाम सेना बनाम पाकिस्तानी लोकतंत्र


पाकिस्तानी राजनीति में इमरान खान का जितनी तेजी से उभार हुआ था, अब उतनी ही तेजी से पराभव होता दिखाई पड़ रहा है. उनकी पार्टी के वफादार सहयोगी एक-एक करके साथ छोड़ रहे हैं. कयास हैं कि उन्हें जेल में डाला जाएगा, देश-निकाला हो सकता है, उनकी पार्टी को बैन किया जा सकता है वगैरह.

पाकिस्तान में कुछ भी हो सकता है. ऊपर जो बातें गिनाई हैं, ऐसा अतीत में कई बार हो चुका है. पहले भी सेना ने ऐसा किया था और इस वक्त इमरान के खिलाफ कार्रवाई भी सेना ही कर रही है. परीक्षा पाकिस्तानी नागरिकों की है. क्या वे यह सब अब भी होने देंगे?

कुल मिलाकर यह लोकतंत्र की पराजय है. इमरान खान ने सेना का सहारा लेकर प्रतिस्पर्धी राजनीतिक दलों को पीटा, अब वे खुद उसी लाठी से मार खा रहे हैं. पर उन्होंने अपनी इस गलती को कभी नहीं माना. 

ब्रिटिश पत्रिका इकोनॉमिस्ट ने लिखा है कि इमरान को पिछले साल अपदस्थ करने के बजाय, लँगड़ाते हुए ही चलने दिया जाता, तो अगले चुनाव में जनता उसे रद्द कर देती. लोकतंत्र में खराब सरकारों को जनता खारिज करती है. इसकी नज़ीर बनती है और आने वाले वक्त की सरकारें डरती हैं.

सेना का हस्तक्षेप

जनरलों ने किसी भी सरकार को पूरे पाँच साल काम करने नहीं दिया. पिछले साल इमरान को हटाने के पीछे भी जनरल ही थे, जिन्होंने एक विफल राजनेता को सफल बनने का मौका दिया. इमरान ने साजिशों की कहानियाँ गढ़ लीं, और उनके समर्थकों की तादाद बढ़ती चली गई.

Saturday, December 3, 2022

केरल के विझिंजम बंदरगाह की परियोजना के कारण बढ़ा सामुदायिक विद्वेष


केरल में बन रहे देश के सबसे बड़े बंदरगाह अडानी पोर्ट को लेकर विवाद पैदा हो गया है। ऐसे विवाद बंदरगाहों, कारखानों, नाभिकीय बिजलीघरों, बाँधों, राजमार्गों और ऐसे ही दूसरे कार्यक्रमों को लेकर होते रहे हैं, पर यह विवाद एक अलग कारण से चर्चित हो रहा है। कारण है इसे लेकर दो प्रकार के आंदोलनों का शुरू होना। एक आंदोलन इसके विरोध में है और दूसरा इसके समर्थन में। दोनों आंदोलनों के पीछे सांप्रदायिक आधार है।

7500 करोड़ रुपये के विझिंजम इंटरनेशनल सीपोर्ट लिमिटेड प्रोजेक्ट जिसे अडानी पोर्ट के नाम से जाना जाता है, गत 16 अगस्त से संकट से जूझ रहा है और विरोध के कारण परियोजना का काम रोक दिया गया है। पिछले हफ्ते शनिवार को बंदरगाह के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन हिंसक हो गया। आंदोलनकारियों ने एक पुलिस स्टेशन पर हमला करके वहां तोडफोड़ की। इससे पहले पुलिस ने उन प्रदर्शनकारियों को गिरफ़्तार किया था, जिन्होंने ग्रेनाइट ला रहे ट्रकों का रास्ता रोका था। इससे नाराज़ प्रदर्शनकारियों ने पुलिस स्टेशन पर हमला कर दिया।

राज्य के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन का कहना है, यह सरकार के खिलाफ़ प्रदर्शन नहीं है, बल्कि राज्य के विकास को रोकने की कोशिश है। उनके मंसूबों को कामयाब नहीं होने दिया जाएगा। दूसरी तरफ इसके विरोधी मानते हैं कि बंदरगाह बनने से न केवल आसपास के, बल्कि तिरुवनंतपुरम से लेकर कोल्लम तक पूरे तट पर मछुआरों की आजीविका को नुकसान पहुंचेगा। इसका सांप्रदायिक रूप इसलिए उभरा क्योंकि तटवर्ती मछुआरे लैटिन कैथलिक चर्च के सदस्य हैं और चर्च उनका नेतृत्व कर रहा है। वे

इस परियोजना के तहत ऐसा निर्माण किया जाएगा, जिससे भारतीय तट पर बड़े मालवाहक जहाज़ आ सकेंगे। अभी छोटे भारतीय जहाज़ों के लिए भी कोलंबो, सिंगापुर या दुबई के बंदरगाह इस्तेमाल करने पड़ते हैं और आयात निर्यात के लिए वहाँ सामग्री का लदान होता है।

केरल सरकार की कंपनी वीआईएसएल के प्रबंध निदेशक के गोपालकृष्णन ने बीबीसी हिंदी को बताया, हम हर 20-फ़ुट के कंटेनर के लिए 80 अमेरिकी डॉलर का भुगतान करते हैं क्योंकि हम भारत में कहीं भी बड़ा जहाज़ (मदर शिप) पार्क नहीं कर सकते। इससे सात दिनों का नुकसान तो होता ही है साथ-साथ बहुत पैसों की भी बरबादी होती है। यह छोटी रकम नहीं है। 2016-17 के आंकड़ों के मुताबिक हम अकेले इस काम के लिए 1,000 करोड़ रुपये का भुगतान करते हैं। इसके अलावा हम माल ढुलाई पर 3,000-4,000 करोड़ रुपये खर्च करते हैं। कोविड के बाद ये सभी शुल्क चार से पांच गुना बढ़ गए हैं। 20-फुट के कंटेनर में (जिसे टीईयू यानी ट्वेंटी इक्विपमेंट यूनिट कहते हैं) लगभग 24 टन माल लदता है। मदर शिप में 10,000 से 15,000 टीईयू तक भेजा जा सकता है।

Sunday, June 28, 2020

सीमा पर चीन और घर में सियासी शोर!

मंगलवार को हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में अध्यक्ष सोनिया गांधी ने सरकार पर निशाना साधा और सवाल पूछा कि चीन ने जिस जमीन पर कब्जा कर लिया है, उसे वापस कैसे लिया जाएगा? लगता है कि पार्टी ने चीन के साथ वर्तमान तनातनी को लेकर सरकार पर हमले करने की रणनीति तैयार की है। राहुल गांधी ने भी एक वीडियो जारी करके कहा है कि चीन ने लद्दाख के तीन इलाकों में घुसपैठ की है। चीनी घुसपैठ और 20 जवानों की शहादत को लेकर राहुल गांधी लगातार सरकार से तीखे सवाल कर रहे हैं। उन्होंने जापान टाइम्स के एक लेख को ट्वीट कर लिखा है, ‘नरेंद्र मोदी असल में सरेंडर मोदी हैं।’

पार्टी ने शुक्रवार को भारत-चीन सीमा पर शहीद हुए जवानों को श्रद्धांजलि देने के लिए ‘शहीदों को सलाम दिवस’ मनाया। इस मौके पर सोनिया गांधी ने वीडियो संदेश के जरिए कहा, देश जानना चाहता है कि अगर चीन ने लद्दाख में हमारी सरजमीन पर कब्जा नहीं किया, तो फिर हमारे 20 सैनिकों की शहादत क्यों और कैसे हुई? मनमोहन सिंह की टिप्पणी भी आई। कुछ फौजी अफसरों की टिप्पणियाँ भी सोशल मीडिया पर प्रकट हुईं, जिनमें सरकार से सवाल पूछे गए हैं। क्या ये टिप्पणियाँ अनायास थीं या किसी ने इशारा करके कराई थीं?

Saturday, June 29, 2019

कांग्रेस का नया तराना ‘कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन!’

अचानक न्यू इंडिया शब्द विवाद के घेरे में आ गया है। हाल में अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर सेना की ‘डॉग यूनिट' के कार्यक्रम से जुड़ी तस्वीरें शेयर करते हुए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने ट्वीट किया, जिसमें लिखा, न्यू इंडिया'। उनका आशय क्या था, इसे लेकर अपने-अपने अनुमान हैं, पर सरकारी पक्ष ने उसे देश की नई व्यवस्था पर तंज माना। लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद कांग्रेस पार्टी के कुछ सदस्यों ने देशद्रोह, राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रवाद जैसी बातों को चुनाव में पराजय का कारण माना। हालांकि कांग्रेस ने इस आशय का कोई औपचारिक बयान जारी नहीं किया है, पर परोक्ष रूप से बीजेपी के नए भारत पर लानतें जरूर भेजी जा रही हैं।

संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर चली बहस के दौरान संसद के दोनों सदनों में कांग्रेस के सदस्यों ने पिछली सरकार के पाँच साल पर निशाना लगाया। खासतौर से राज्यसभा में कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद ने ध्यान खींचा। उन्होंने कहा, मैं आपसे निवेदन करता हूं कि नया भारत आप अपने पास रखें और हमें हमारा पुराना भारत दे दें जहां प्‍यार और भाईचारा था। जब मुस्‍लिम और दलित को चोट पहुंचती थी, तब हिंदुओं को पीड़ा का अहसास होता था और जब हिंदुओं की आंखों में कुछ पड़ जाता था तब मुस्लिमों और दलितों की आंखों से आंसू निकल जाते थे।

Sunday, April 10, 2022

इमरान का गुब्बारा फूटा, अहंकार नहीं टूटा


पाकिस्तान की राष्ट्रीय असेंबली में इमरान खान सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव सफल रहने के बाद सोमवार से पाकिस्तानी राजनीति का एक नया अध्याय शुरू होगा, जिसमें संभवतः शहबाज़ शरीफ देश के नए प्रधानमंत्री बनेंगे। सोमवार को असेंबली का एक विशेष सत्र होने वाला है जिसमें नए प्रधानमंत्री का चुनाव किया जाएगा, जो अगले चुनावों तक कार्यभार संभालेंगे। चुनाव समय से पहले नहीं  हुए, तो वे अक्तूबर 2023 तक प्रधानमंत्री बने रह सकते हैं। अगले एक साल और कुछ महीने का समय पाकिस्तान के लिए काफी महत्वपूर्ण होगा, क्योंकि देश की अर्थव्यवस्था और विदेश-नीति से जुड़े कुछ बड़े फैसले इस दौरान होंगे। खासतौर से अमेरिका-विरोधी झुकाव में कमी आएगी। उसे अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष से सहायता लेने और एफएटीएफ की ग्रे-लिस्ट से बाहर आने के लिए अमेरिकी मदद की जरूरत है।

पहले प्रधानमंत्री

शनिवार देर रात नेशनल असेंबली में उनकी सरकार के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव पर हुए मतदान में 174 सदस्यों ने प्रस्ताव के पक्ष में वोट दिया। मतदान से पहले नेशनल असेंबली के अध्यक्ष असद कैसर ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। असद कैसर के बाद पीएमएल-एन नेता अयाज़ सादिक ने सत्र की अध्यक्षता की। पाकिस्तान के इतिहास में इमरान देश के पहले प्रधानमंत्री हैं, जिन्हें अविश्वास-प्रस्ताव के मार्फत हटाया गया है। इसके पहले 2006 में शौकत अजीज और 1989 में बेनजीर भुट्टो के विरुद्ध अविश्वास-प्रस्ताव लाए गए थे, पर उन्हें हटाया नहीं जा सका था।

पिछले दो  हफ्ते के घटनाक्रम में बार-बार इमरान खान के तुरुप क पत्त का जिक्र होता रहा, जिसे कुछ पर्यवेक्षकों ने ट्रंप-कार्ड कहा। सत्ता से चिपके रहने, हार को अस्वीकार करने और भीड़ को उकसाने और भड़काने की अराजक-प्रवृत्ति। उन्होंने संसद में अविश्वास-प्रस्ताव को जिस तरीके से खारिज कराया, उससे इस बात की पुष्टि हुई। उनके समर्थकों ने उसे मास्टर-स्ट्रोक बताया। अपनी ही सरकार का कार्यकाल खत्म होने का जश्न मनाया गया। साथ ही उन 197 सांसदों को देशद्रोही घोषित कर दिया गया, जो उनके खिलाफ खड़े थे। इनमें वे सहयोगी दल भी शामिल थे, जो कुछ दिन पहले तक सरकार के साथ थे। उन्होंने इस बात पर भी विचार नहीं किया कि उनकी अपनी पार्टी के करीब दो दर्जन सदस्य उनसे नाराज क्यों हो गए। ये सब बिके हुए नहीं, असंतुष्ट लोग हैं।

Sunday, June 19, 2022

'अग्निपथ' पर पेट्रोल किसने छिड़का?


सेना में भरती से जुड़े 'अग्निपथ' कार्यक्रम के विरोध में देश के कई क्षेत्रों में हिंसा की जैसी लहर पैदा हुई है, उसे रोकने की जरूरत है। यह जिम्मेदारी केवल सरकार की ही नहीं है, विरोधी दलों की भी है। नौजवानों को भड़काना बंद कीजिए। बेशक उनकी सुनवाई होनी चाहिए, पर विरोध को शांतिपूर्ण तरीके से व्यक्त करना चाहिए। जिस प्रकार की हिंसा सड़कों पर देखने को मिली है, वह देशद्रोह है। रेलगाड़ियों, बसों और सरकारी बसों में आग लगाने वाले सेना में भरती के हकदार कैसे होंगे? सरकार ने फौरी तौर पर इस स्कीम भरती होने वालों की आयु में इस साल दो साल की छूट भी दी है। साथ ही रक्षा मंत्रालय से जुड़ी अन्य सेवाओं में अग्निवीरों को 10 प्रतिशत का आरक्षण देने की घोषणा की है। सरकार ने यह भी कहा है कि भविष्य में अर्धसैनिक बलों की भरती में अग्निवीरों को वरीयता दी जाएगी। राज्य सरकारों की पुलिस में भी इन्हें वरीयता दी जा सकती है। वायुसेना ने भरती की प्रक्रिया 24 जून से शुरू करने का कार्यक्रम भी घोषित कर दिया है। इससे माहौल को सुधारने में मदद मिलेगी। 14 जून को जिस दिन केंद्रीय मंत्रिमंडल ने अग्निपथ कार्यक्रम को स्वीकृति दी, उसी दिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सभी विभागों और मंत्रालयों में मानव संसाधन की स्थिति की समीक्षा की और निर्देश दिया कि अगले डेढ़ साल में सरकार द्वारा मिशन मोड में 10 लाख लोगों की भरती की जाए। इन दोनों फैसलों का असर सकारात्मक असर होने के बजाय नकारात्मक होना चिंता का विषय है।

हिंसा के पीछे कौन?

यह देखने की जरूरत भी है कि अचानक शुरू हुए इस आंदोलन के पीछे किन लोगों की भूमिका है और वे चाहते क्या हैं। यह संदेश नहीं जाना चाहिए कि सरकार को आंदोलन की धमकियाँ देकर दबाया जा सकता है। शाहीनबाग, किसान आंदोलन और नूपुर शर्मा से जुड़े मामलों में सरकार की नरम नीति से बेजा फायदे उठाने की कोशिशों को सफलता नहीं मिलनी चाहिए। अग्निपथ कार्यक्रम सेनाओं के आधुनिकीकरण और देश के सुधार कार्यक्रमों का हिस्सा है। देश को अत्याधुनिक हथियारों से लैस एक युवा सशस्त्र बल की ज़रूरत है। यह रोजगार गारंटी कार्यक्रम नहीं है। उसे इस प्रकार आंदोलनों का शिकार बनने से रोकना चाहिए। शुक्रवार तक की जानकारी के अनुसार विरोध प्रदर्शनों के कारण 300 से अधिक ट्रेनें प्रभावित हुई हैं, जबकि 200 से अधिक रद्द की जा चुकी हैं। इनमें 94 मेल व एक्सप्रेस और 140 पैसेंजर ट्रेन रद्द की जा चुकी हैं। वहीं 65 मेल व एक्सप्रेस ट्रेन और 30 यात्री ट्रेन आंशिक रूप से रद्द की गई हैं। तेलंगाना, बिहार और उत्तर प्रदेश में प्रदर्शनकारियों ने तमाम स्थानों पर रेलवे स्टेशनों को नुकसान पहुँचाया है, कैश-काउंटरों से रुपयों की लूट की है और ट्रेनों में आग लगाई है। यह भयावह स्थिति है और इसे किसी कीमत पर स्वीकार नहीं किया जा सकता है।

अग्निपथ योजना

योजना के तहत 90 दिनों के भीतर क़रीब 40 हजार युवकों की सेना में भरती की जाएगी। उन्हें 6 महीने की ट्रेनिंग दी जाएगी। भरती होने के लिए उम्र साढ़े 17 साल से 21 साल के बीच होनी चाहिए। चूंकि पिछले दो साल भरती नहीं हो पाई थी, इसलिए पहले बैच के लिए अधिकतम आयु सीमा दो साल बढ़ाई गई है। इसमें भाग लेने के लिए शैक्षणिक योग्यता 10वीं या 12वीं पास होगी। जनरल ड्यूटी सैनिक में प्रवेश के लिए, शैक्षणिक योग्यता कक्षा 10 है। इस स्कीम के तहत भरती चार साल के लिए होगी। पहले साल का वेतन प्रति महीने 30 हज़ार रुपये होगा, जो हर साल बढ़ते हुए चौथे साल में प्रति माह 40 हज़ार रुपये हो जाएगा। चार साल बाद सेवाकाल में प्रदर्शन के आधार पर मूल्यांकन होगा और 25 प्रतिशत लोगों को नियमित किया जाएगा। योजना का विरोध करने वाले कहते हैं कि चार साल की सेवा के बाद उनका भविष्य सुरक्षित नहीं है।

सामयिक परिवर्तन

कुछ लोगों का कहना है कि चार साल बाद नौजवान एटीएम का गार्ड बनकर रह जाएगा। इस कार्यक्रम को बदलते समय के दृष्टिकोण से भी देखा चाहिए। सभी देशों की सेनाओं का आकार छोटा हो रहा है, क्योंकि युद्धों में सैनिकों की भूमिका कम हो रही है और तकनीकी भूमिका बढ़ रही है। चीन की सेना ने पिछले तीन-चार साल में अपना आकार करीब आधा कर लिया है। भारतीय सेना की थिएटर कमांड योजना और इंटीग्रेटेड बैटल ग्रुप्स बेहतर समन्वय और संसाधनों के इस्तेमाल को देखते हुए बनाए जा रहे हैं। सेना को बदलती चुनौतियों के बीच अपनी गैर-परंपरागत युद्ध क्षमताओं और साइबर और खुफ़िया इकाइयों का विस्तार करने की ज़रूरत है। पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह ने एक टेलीविज़न चैनल से कहा, योजना अभी आई ही है। इसे शुरू तो होने दें, इसमें पहली नियुक्तियां होने दें। ये देखें कि ये योजना कैसे काम करती है। सुधार सभी योजनाओं में होते हैं। शॉर्ट सर्विस कमीशन को पांच साल के लिए शुरू किया गया था और बाद में उसे कोई पेंशन और चिकित्सकीय सुविधा नहीं मिलती थी।

Monday, December 9, 2019

इमरान खान की कुर्सी डोल रही है


पाकिस्तान में जनरल कमर जावेद बाजवा का कार्यकाल सुप्रीम कोर्ट ने छह महीने के लिए बढ़ा तो दिया है, पर इस प्रकरण ने इमरान खान की सरकार को कमजोर कर दिया है। सरकार को अब संसद के मार्फत देश के सेनाध्यक्ष के कार्यकाल और उनकी सेवा-शर्तों के लिए नियम बनाने होंगे। क्या सरकार ऐसे नियम बनाने में सफल होगी? और क्या यह कार्यकाल अंततः तीन साल के लिए बढ़ेगा? और क्या तीन साल की यह अवधि ही इमरान खान सरकार की जीवन-रेखा बनेगी? इमरान खान को सेना ने ही खड़ा किया है। पर अब सेना विवाद का विषय बन गई है, जिसके पीछे इमरान सरकार की अकुशलता है। तो क्या वह अब भी इस सरकार को बनाए रखना चाहेगी? सेना के भीतर इमरान खान को लेकर दो तरह की राय तो नहीं बन रही है?
सुप्रीम कोर्ट ने भी अपनी सुनवाई के दौर यह सवाल किया था कि आखिर तीन साल के पीछे रहस्य क्या है?  देश की सुरक्षा के सामने वे कौन से ऐसे मसले हैं जिन्हें सुलझाने के लिए तीन साल जरूरी हैं? पहले उन परिस्थितियों पर नजर डालें, जिनमें इमरान खान की सरकार ने जनरल बाजवा का कार्यकाल तीन साल बढ़ाने का फैसला किया था। यह फैसला भारत में कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35ए को निष्प्रभावी बनाए जाने के दो हफ्ते बाद किया गया था। संयोग से उन्हीं दिनों मौलाना फज़लुर रहमान के आज़ादी मार्च की खबरें हवा में थीं।

Monday, April 15, 2013

सज़ा नहीं हत्या है फाँसी


मौत की सज़ा क्या सोची-समझी ऐसी हत्या नहीं है, जिसकी तुलना हम किसी भी सुविचारित अपराध से नहीं कर सकते? तुलना करनी ही है तो यह उस अपराधी को दी गई सजा है, जिसने अपने शिकार को पहले से बता दिया हो कि मैं फलां तारीख को तुझे मौत की नींद सुला दूँगा। और उसका शिकार महीनों तक उस हत्यारे की दया पर जीता हो। ऐसे वहशी सामान्य जीवन में नहीं मिलते। -अल्बेर कामू

इस साल हम फ्रांसीसी साहित्यकार पत्रकार अल्बेयर कामू की जन्मशती मना रहे हैं। कामू का जन्म फ्रांसीसी उपनिवेश अल्जीरिया में हुआ था। वहीं उनकी शुरूआती पढ़ाई भी हुई। सन 1957 में कामू को नोबेल पुरस्कार दिया गया था। उसी साल कामू और आर्थर कोस्लर ने मिलकर मौत की सजा के खिलाफ एक लम्बा निबंध लिखा। यह निबंध मनुष्य की प्रकृति का विवेचन करता है। अलबेयर कामू मानवाधिकारों को लेकर बेहद संवेदनशील थे। वामपंथी झुकाव के बावज़ूद उन्हें वामपंथियों की आलोचना का विषय बनना पड़ा। व्यष्टि और समष्टि की इस दुविधा के कारण उन्होंने बहुत से मित्रों को दुश्मन बना लिया। मानवाधिकार को लेकर उन्होंने सोवियत रूस, पोलैंड और जर्मनी की सरकारों के कई निर्णयों की खुलकर आलोचना की। जब कामू लिख ही रहे थे तभी 1954 में अल्जीरिया का स्वतंत्रता संग्राम शुरू हो गया। यहाँ कामू की दुविधाएं सामने आईं। बहरहाल विचार का वह अलग विषय है। मृत्युदंड पर अपने निबंध की शुरूआत कामू एक व्यक्ति की सरेआम गर्दन काटे जाने के प्रसंग से करते हैं, जिसे उनके पिता देखकर आए थे। उस व्यक्ति को एक परिवार की हत्या के कारण मौत की सजा दी गई थी। उसने महिलाओं-बच्चों समेत परिवार के सभी लोगों को मार डाला था। जब पिता इस सजा को देखकर वापस आए तो वे बेहद व्यथित थे। उनके मन में मारे गए बच्चों की छवि नहीं थी बल्कि वह शरीर था, जिसकी गर्दन काटने के लिए उसे एक बोर्ड से नीचे गिराया गया था। कामू ने लिखा राजव्यवस्था के हाथों हुई यह नई हत्या मेरे पिता के मन पर भयानक तरीके से हावी रही। राजव्यवस्था ने एक खराबी के जवाब में दूसरी खराबी को जन्म दिया। यह मान लिया गया कि सजा पाने वाले ने समाज से किए गए अपने अपराध की कीमत चुका दी और न्याय हो गया। यह सामाजिक प्रतिशोध है।

Sunday, December 29, 2019

कांग्रेस के आत्मघात का साल


कांग्रेस पार्टी हर साल 28 दिसंबर को अपना स्थापना दिवस मनाती है। इस साल पार्टी का 135 वाँ जन्मदिन शनिवार को मनाया गया। आज रविवार को पार्टी झारखंड की नई सरकार में शामिल होने जा रही है, पर वह इसका नेतृत्व नहीं कर रही है। इस सरकार के प्रमुख होंगे झारखंड मुक्ति मोर्चा के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन। जिस पार्टी को देश के राष्ट्रीय आंदोलन के संचालन का श्रेय दिया जाता है, वह आज अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष कर रही है। झारखंड के नतीजों ने पार्टी का उत्साह बढ़ाया जरूर है, पर भीतर-भीतर पार्टी के भीतर असमंजस है। यह असमंजस इस साल अपने चरम पर जा पहुँचा है।
कांग्रेस के जीवन में यह 134वाँ साल सबसे भारी पराजय का साल रहा है। पिछले हफ्ते पार्टी के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने एक इंटरव्यू में कहा कि यह हमारे लिए संकट की घड़ी है। ऐसा संकट पिछले 134 साल में कभी नहीं आया। पाँच साल पहले हमारे सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हुआ था, जो आज भी है। कोई जादू की छड़ी हमारी पार्टी का उद्धार करने वाली नहीं है। पार्टी का नेतृत्व सोनिया गांधी के हाथों में है। ऐसा इसलिए करना पड़ा, क्योंकि इस साल की हार के बाद राहुल गांधी ने इस्तीफा दे दिया। यह भी एक प्रकार का संकट है। अभी तक यह तय नहीं है कि पार्टी का भविष्य का नेतृत्व कैसा होगा।

Friday, December 4, 2015

पीएम मोदी की 'संत मुद्रा' के मायने क्या हैं?

प्रमोद जोशी

नरेंद्र मोदी

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसद के दोनों सदनों में दिए गए बयान उपदेशात्मक और आदर्शों से ओत-प्रोत हैं, पर उनसे वास्तविक सवालों के जवाब नहीं मिलते.
लगता नहीं कि विपक्ष इन सवालों को आसानी से भूलकर सरकार को बचकर निकलने का मौका देगा.
राज्यसभा में सीपीएम नेता सीताराम येचुरी के एक नोटिस को सभापति ने विचार के लिए स्वीकार कर लिया है.
येचुरी ने असहिष्णुता व सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के मुद्दे पर एक पंक्ति का यह प्रस्ताव दिया है.
देखना होगा कि कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल इस प्रस्ताव को पास कराने में मदद करेंगे या नहीं. और यह भी कि इस प्रस्ताव का इस्तेमाल सरकार की निंदा के रूप में होगा या नहीं.
दोनों सदनों में प्रधानमंत्री के बयान सकारात्मक जरूर हैं, पर वे विपक्ष के भावी प्रहारों की पेशबंदी जैसे लगते हैं. प्रधानमंत्री की यह संत-मुद्रा बताती है कि वे राजनीतिक दबाव में हैं.

नरेंद्र मोदीImage copyrightPTI

मोदी जी ने किसी भी सवाल का सीधे जवाब नहीं दिया है. जबकि देश उम्मीद रखता है कि वे उन सारे सवालों के जवाब दें जो इस बीच उठाए गए हैं.
गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने सम्मान वापस करने वाले लेखकों और कलाकारों से मिलने की इच्छा व्यक्त की है. गृह मंत्री के बजाय प्रधानमंत्री को ऐसा कदम उठाना चाहिए था.
दादरी में मोहम्मद अख़लाक की हत्या से देश में दहशत का माहौल बना था. उसके बाद कुछ मंत्रियों और सांसदों के बयानों से माहौल और बिगड़ा.
प्रोफेसर कलबुर्गी की हत्या को लेकर लेखकों, कलाकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपना आक्रोश व्यक्त किया तो बजाय हमदर्दी जताने के उनकी आलोचना हुई.
इसके बाद सम्मान वापसी को देशद्रोह साबित करने की कोशिश की गई. बात-बात पर लोगों को पाकिस्तान जाने की सलाह दी गई. इन बातों को बेहतर तरीके से सुलझाया जा सकता था. ऐसा हुआ नहीं.


Sunday, March 12, 2023

विदेश में राहुल का भारतीय-लोकतंत्र पर प्रहार


हाल में ब्रिटेन-यात्रा के दौरान राहुल गांधी के बयानों की ओर देश का ध्यान गया है। वे क्या कहना चाहते हैं और क्यों? सबसे बड़ा सवाल है कि क्या उनकी बातों से कांग्रेस पार्टी की छवि बेहतर बनाने में मदद मिलेगी? इन बातों का ब्रिटिश समाज से क्या लेना-देना है और भारत का मतदाता क्या उनसे सहमत है? उम्मीद थी कि भारत-जोड़ो यात्रा के बाद वे परिपक्व हो चुके होंगे और अब नए सिरे से अपनी बात रखेंगे। पर उनके पास वही पुराना मोदी-मंत्र है और अपनी बात कहने का विदेशी-मंच। क्या उन्हें भारत में कोई ऐसी जगह नजर नहीं आई, जहाँ से वे अपनी बात कह सकें? वे किसे संबोधित कर रहे हैं, भारतीयों को या विदेशियों को? दस दिन के अपने प्रवास में राहुल गांधी ने कैंब्रिज विश्वविद्यालय के एक बिजनेस स्कूल और ब्रिटिश संसद में एक कार्यक्रम को संबोधित किया, भारतवंशियों से भेंट की, ब्रिटेन में रहने वाले भारतीय पत्रकारों के एक संगठन की संवाददाता सम्मेलन को संबोधित किया और चैथम हाउस में हुई एक बातचीत में भाग लिया। कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के वक्तव्य में उन्होंने लोकतंत्र, फ्री प्रेस और पेगासस आदि पर अपने विचार रखे। उन्होंने भारत की केंद्र-सरकार पर लोकतंत्र के मूल ढांचे पर हमला करने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र के लिए जो संस्थागत ढांचा चाहिए जैसे संसद, स्वतंत्र प्रेस और न्यायपालिका… इन सभी पर अंकुश लग रहा है। मेरे खिलाफ कई आपराधिक मामले दर्ज हैं, जो किसी भी परिस्थिति में आपराधिक मामले नहीं हैं। जब आप मीडिया और लोकतांत्रिक ढांचे पर इस प्रकार का हमला करते हैं तो विरोधियों के लिए लोगों के साथ संवाद करना बहुत मुश्किल हो जाता है।

प्रश्न और प्रति-प्रश्न

राहुल गांधी के इन वक्तव्यों से कुछ सवाल खड़े हुए हैं। उन्होंने विदेश जाकर भारतीय-व्यवस्था की जो आलोचना की है, उसे क्या सामान्य राजनीतिक-आलोचना माना जाए? देश के प्रमुख विरोधी-दल के नेता से उम्मीद यही की जाती है कि वह व्यवस्था-दोषों पर रोशनी डाले। आलोचना व्यवस्था की है, तो वे अमेरिका और ब्रिटेन से किस प्रकार का हस्तक्षेप चाहते हैं? अपने देश में पराजित-पार्टी अपनी विफलता का ठीकरा सत्ताधारी दल पर क्यों फोड़ना चाहती है? क्या यह सच नहीं कि 2014 के चुनाव के पहले से ही ब्रिटिश अखबार गार्डियन में उन्हीं लोगों के पत्र और लेख छपने लगे थे, जो आज राहुल गांधी के कार्यक्रमों के पीछे हैं? ऐसी ही आलोचना क्या ब्रिटेन के राजनेता भारत आकर अपनी व्यवस्था की कर सकते हैं? बेशक उनकी व्यवस्थाएं हमारी व्यवस्था से बेहतर हैं, पर आलोचना तो उनकी भी होती है। वहाँ भी सत्तापक्ष और विपक्ष के रिश्ते  खराब रहते हैं, पर राजनीतिक-संवाद का तरीका हमारे तरीके से फर्क है। ब्रिटिश या अमेरिकी राजनेता भारत में आकर अपनी व्यवस्था की आलोचना कर भी लें, पर क्या चीन, रूस, तुर्की, सऊदी अरब, ईरान के राजनेता अपने शासन की आलोचना करके वापस अपने देश में सुरक्षित जा सकते हैं, जिनके साथ अब भारत की तुलना की जा रही है? क्या ये बातें औपनिवेशिक ब्रिटिश-धारणा को सही साबित कर रही हैं कि भारत अपने लोकतंत्र का निर्वाह नहीं कर पाएगा?  भारत में फासिज्म है, तो राहुल गांधी इतनी आसानी से अपनी बात कैसे कह पा रहे हैं? यदि उनकी घेराबंदी इतनी जबर्दस्त है, तो वे अपनी भारत-जोड़ो यात्रा को सफलता के साथ किस प्रकार पूरा कर पाए? क्या भारतीय मीडिया में राहुल गांधी और कांग्रेस के समर्थन और नरेंद्र मोदी की आलोचना में लेखों का प्रकाशन संभव नहीं है?

परिपक्व राहुल

इन कार्यक्रमों को आयोजित करने वाले मानते हैं कि इन कार्यक्रमों से केवल भारत की राजनीति से जुड़े प्रश्नों पर बहस खड़ी होगी, बल्कि दोनों देशों के सांस्कृतिक, सामाजिक और कारोबारी रिश्तों को भी बढ़ावा मिलेगा, जिसमें वहाँ रहने वाले भारतवंशी सेतु का काम करेंगे। उनके समर्थक मानते हैं कि राहुल गांधी ने अपनी परिपक्वता के झंडे गाड़ दिए हैं और उनके आलोचक मानते हैं कि उनकी सारी बातें गोल-मोल, अटपटी और अबूझ पहेली जैसी रही है। उनसे जो नीतिगत सवाल पूछे गए, उनके जवाबों को लेकर भी काफी चर्चा है। खासतौर से जब उनसे पूछा गया कि यदि उनकी सरकार आई, तो उनकी विदेश-नीति में नया क्या होगा, तो उन्होंने जो जवाब दिया, वह काफी लोगों को समझ में नहीं आया। ब्रिटेन जाकर वे चीन की तारीफ क्यों कर रहे हैं? भारत को राज्यों का संघ बताकर वे क्या साबित करना चाहते हैं? वे पिछले एक साल में कम से कम तीन बार कह चुके हैं कि भारत राष्ट्र नहीं है, केवल राज्यों का संघ है। संविधान के पहले अनुच्छेद में यह लिखा गया है तो इससे क्या भारत का राष्ट्र-राज्य होना खारिज हो गया? ऐसा है, तो प्रस्तावना में 'राष्ट्र की एकता अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता' का क्या मतलब है? हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का लक्ष्य क्या था? भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस क्या है? क्या राज्यों ने भारत का गठन किया है जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका का गठन हुआ था? 

देश के इन राज्यों और नागरिकों के बीच हजारों साल से संवाद चलता रहा है। हमारा समाज गतिशील है। तीर्थयात्राओं और साधुओं की यात्राओं के मार्फत यह संवाद चलता रहा है। विविधता के बीच यही हमारी एकता का प्रमाण है। राहुल के विरोधी मानते हैं कि उनकी इस यात्रा के पीछे, पश्चिमी-देशों के भीतर सक्रिय भारत-विरोधी लॉबी है, जिसका जिक्र हाल में अमेरिकी रिसर्च कंपनी हिंडनबर्ग की रिपोर्ट और अमेरिकी पूँजीपति जॉर्ज सोरोस के बयानों के कारण हुआ था। क्या इसे भारतीय राजनीति में पश्चिमी हस्तक्षेप का हिस्सा माना जाए? क्या इन कार्यक्रमों से राहुल गांधी की साख बढ़ी है?