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Monday, March 4, 2013

बांग्लादेश का एक और मुक्ति संग्राम


बांग्लादेश में जिस वक्त हिंसा का दौर चल रहा है हमारे राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी की यात्रा माने रखती है। पर बांग्ला विपक्ष की नेता खालिदा ज़िया ने प्रणव मुखर्जी से मुलाकात को रद्द करके इस आंदोलन को नया रूप दे दिया है। देश में एक ओर जमात-ए-इस्लामी का आंदोलन चल रहा है, वहीं पिछले तीन हफ्ते से ढाका के शाहबाग चौक में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद के समर्थक जमा हैं। इस साल के अंत में बांग्लादेश में चुनाव भी होने हैं। शायद इस देश में स्थिरता लाने के पहले इस प्रकार के आंदोलन अनिवार्य हैं। 
भारत के लिए बांग्लादेश प्रतिष्ठा का प्रश्न रहा है। इस देश का जन्म भाषा, संस्कृति, धर्म और राष्ट्रवाद के कुछ बुनियादी सवालों के साथ हुआ था। इन सारे सवालों का रिश्ता भारतीय इतिहास और संस्कृति से है। इन सवालों के जवाब आज भी पूरी तरह नहीं मिले हैं। पश्चिम में पाकिस्तान और पूर्व में बांग्लादेश भारत के अंतर्विरोधों के प्रतीक हैं। संयोग है तीनों देश इस साल चुनाव की देहलीज पर हैं। पाकिस्तान में अगले दो महीने और भारत और बांग्लादेश में अगला एक साल लोकतंत्र की परीक्षा का साल है। इस दौरान इस इलाके की जनता को तय करना है कि उसे आधुनिकता, विकास और संस्कृति का कैसा समन्वय चाहिए। पर बांग्लादेश की हिंसा अलग से हमारा ध्यान खींचती है।
जमात-ए-इस्लामी के नेता दिलावर हुसैन सईदी को मौत की सज़ा सुनाए जाने के बाद बांग्लादेश के अलग-अलग इलाकों में दंगे भड़के हैं। अभी तक बांग्लादेश नेशनल पार्टी ने इस मामले में पहल नहीं की थी, पर शुक्रवार को उसकी नेता खालिदा जिया ने सरकार पर नरसंहार का आरोप लगाकर इसे राजनीतिक रंग दे दिया है। देश के 15 ज़िले हिंसा से प्रभावित हैं। कई शहरों में सत्तारूढ़ अवामी लीग और जमात-ए-इस्लामी कार्यकर्ताओं के बीच टकराव हुए हैं। सन 1971 के बाद से देश में यह सबसे बड़ी हिंसा है। नेआखाली के बेगमगंज में मंदिरों और हिंदू परिवारों पर हमले हुए हैं। जमात-ए-इस्लामी और उसकी छात्र शाखा इस्लामी छात्र शिविर ने मंदिरों को ही नहीं मस्जिदों को भी निशाना बनाया है। बांग्लादेश की शाही मस्जिद कहलाने वाली बैतुल मुकर्रम मस्जिद में कट्टरपंथियों ने तोड़फोड़ की है। यह हिंसा लगभग एक महीने से चल रही है। और इस कट्टरपंथी हिंसा के जवाब में पिछले एक महीने से धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी नौजवानों का आंदोलन भी चल रहा है। यह आंदोलन भी देश भर में फैल गया है। देखना यह है कि क्या बांग्लादेश आधुनिकतावाद को अपनी राजनीतिक संस्कृति का हिस्सा बना पाएगा।