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Monday, July 25, 2016

सामाजिक बदलाव का वाहक है खेल का मैदान

अगले महीने ब्राजील के रियो डि जेनेरो में हो रहे ग्रीष्मकालीन ओलिम्पिक खेलों में भारत के 116 खिलाड़ियों की टीम हिस्सा लेने जा रही है. ओलिम्पिक के इतिहास में यह हमारी अब तक की सबसे बड़ी टीम है. इसके पहले सन 2012 के लंदन ओलिम्पिक में 84 खिलाड़ियों की टीम सबसे बड़ी टीम थी. ओलिम्पिक में शामिल होना बड़ी उपलब्धि मानी जाती है क्योंकि लगभग सभी स्पर्धाओं का क्‍वालिफिकेशन स्तर बहुत ऊँचा होता है. उसे छूना ही बड़ी उपलब्धि है.

Monday, July 11, 2016

शिक्षा पर विमर्श क्यों नहीं?

पिछले दिनों केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल के बाद स्मृति ईरानी का मानव संसाधन विकास मंत्रालय से कपड़ा मंत्रालय में तबादला होने की खबर दूसरे कारणों से चर्चा का विषय बनी. इस फेरबदल के कुछ समय पहले ही सरकार ने नई शिक्षा नीति के मसौदे के कुछ बिन्दुओं को सार्वजनिक रूप से प्रकाशित किया था. यह तीसरा मौका है जब पर प्राइमरी से लेकर विश्वविद्यालयी शिक्षा के बारे में राष्ट्रीय स्तर पर विमर्श का अवसर आया है. पर क्या कहीं विमर्श हो रहा है?

Thursday, June 30, 2016

वेतन-वृद्धि का सामाजिक दर्शन

देश के तकरीबन पाँच करोड़ लोग किसी न किसी रूप में वेतन-भत्तों, पेशन, पीएफ जैसी सुविधाओं का लाभ प्रप्त कर रहे हैं। इनमें से कुछ को स्वास्थ्य सेवा या स्वास्थ्य बीमा का लाभ भी मिलता है. हमारी व्यवस्था जिन लोगों को किसी दूसरे रूप में सामाजिक संरक्षण दे रही है, उनकी संख्या इसकी दुगनी हो सकती है. यह संख्या पूरी आबादी की की दस फीसदी भी नहीं है. इसका दायरा बढ़ाने की जरूरत है. कौन बढ़ाएगा यह दायरा? यह जिम्मेदारी पूरे समाज की है, पर इसमें सबसे बड़ी भूमिका उस मध्य वर्ग की है, जिसे सामाजिक संरक्षण मिल रहा है. केन्द्र सरकार के कर्मचारियों के वेतन-भत्तों का बढ़ना अच्छी बात है, पर यह विचार करने की जरूरत है कि क्य हम इतना ही ध्यान असंगठित वर्ग के मजदूरों, छोटे दुकानदारों, कारीगरों यानी गरीबों का भी रख पा रहे हैं. देश का मध्य वर्ग गरीबों और शासकों को बीच की कड़ी बन सकता है, पर यदि वह अपनी भूमिका पर ध्यान नहीं देगा तो वह शासकों का रक्षा कवच साबित होगा. व्यवस्था को पारदर्शी और कल्याणकारी बनाने में उसकी भूमिका बड़ी है. केन्द्र सरकार के कर्मचारियों के वेतन-भत्तों में सुधार  की खुशखबरी कुछ अंदेशों को जन्म भी देती है.


वित्त मंत्री अरुण जेटली पिछले दिसम्बर में कहा था कि कर्मचारियों के वेतन-भत्तों में वृद्धि को बनाए रखने के लिए देश को एक से डेढ़ प्रतिशत की अतिरिक्त आर्थिक संवृद्धि की जरूरत है. दुनिया का आर्थिक विकास जब ठहरने लगा है तब भारत की विकास दर में जुंबिश दिखाई पड़ रही है. ट्रिकल डाउन के सिद्धांत को मानने वाले कहते हैं कि आर्थिक विकास होगा तो ऊपर के लोग और ऊपर जाएंगे और उनसे नीचे वाले उनके बराबर आएंगे. नीचे से ऊपर तक सबको लाभ पहुँचेगा. पर इस सिद्धांत के साथ तमाम तरह के किन्तु परन्तु जुड़े हैं. इस वेतन वृद्धि से अर्थ-व्यवस्था पर तकरीबन एक फीसदी का बोझ बढ़ेगा और महंगाई में करीब डेढ़ फीसदी का इजाफा भी होगा. इसकी कीमत चुकाएगा असंगठित वर्ग. उसकी आय बढ़ाने के लिए भी कोई आयोग बनना चाहिए.

Monday, June 27, 2016

डायरेक्ट डेमोक्रेसी के लिए परिपक्व समाज चाहिए

ब्रेक्जिट के बवंडर में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड केमरन को अपना पद छोड़ने की घोषणा करनी पड़ी. दुनिया भर के शेयर बाजार इस फैसले से स्तब्ध हैं. विशेषज्ञ समझने की कोशिश कर रहे हैं इसका भारत पर क्या असर पड़ेगा. बेशक यह जनता का सीधा फैसला है. पर क्या इस प्रकार के जनमत संग्रह को उचित ठहराया जा सकता है? क्या जनता इतने बड़े फैसले सीधे कर सकती है? क्या ऐसे फैसलों में व्यावहारिकता के ऊपर भावनाएं हावी होने का खतरा नहीं है? क्या दुनिया डायरेक्ट डेमोक्रेसी के द्वार पर खड़ी है? पश्चिमी देशों की जनता अपेक्षाकृत प्रबुद्ध है. उसके पास सूचनाओं को जाँचने-परखने के बेहतर उपकरण मौजूद हैं. फिर भी ऐसा लगता है कि संकीर्ण राष्ट्रवाद सिर उठा रहा है. ब्रेक्जिट के बाद यूरोप में विषाद की छाया है. कुछ लोग खुश हैं तो पश्चाताप भी कम नहीं है.

Monday, June 13, 2016

सेंसर की जरूरत क्या है?

पंजाब ड्रग्स के कारोबार की गिरफ्त में है. और इस कारोबार में राजनेता भी शामिल हैं. यह बात मीडिया में चर्चित थी, पर उड़ता पंजाब ने इसे राष्ट्रीय बहस का विषय बना दिया. गोकि बहस अब भी फिल्म तक सीमित है. केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को बोलचाल में सेंसर बोर्ड कहते हैं. पर प्रमाण पत्र देने और सेंसर करने में फर्क है. फिल्म सेंसर को लेकर लम्बे अरसे से बहस है. इसमें सरकार की भूमिका क्या है? बोर्ड सरकार का हिस्सा है या स्वायत्त संस्था? जुलाई 2002 में विजय आनन्द ने बोर्ड का अध्यक्ष पद छोड़ते हुए कहा था कि सेंसर बोर्ड की कोई जरूरत नहीं. तकरीबन यही बात श्याम बेनेगल ने दूसरे तरीके से अब कही है.

Friday, June 3, 2016

कई पहेलियों का हल निकालना होगा राहुल को

कांग्रेस पार्टी की जिम्मेदारी अब राहुल गांधी के कंधों पर पूरी तरह आने वाली है. एक तरह से यह मौका है जब राहुल अपनी काबिलीयत साबित कर सकते हैं. पार्टी लगातार गिरावट ढलान पर है. वे इस गिरावट को रोकने में कामयाब हुए तो उनकी कामयाबी होगी. वे कामयाब हों या न हों, यह बदलाव होना ही था. फिलहाल इससे दो-तीन बातें होंगी. सबसे बड़ी बात कि अनिश्चय खत्म होगा. जनवरी 2013 के जयपुर चिंतन शिविर में उन्हें पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया गया था, तब यह बात साफ थी कि वे वास्तविक अध्यक्ष हैं. पर व्यावहारिक रूप से पार्टी के दो नेता हो गए. उसके कारण पैदा होने वाला भ्रम अब खत्म हो जाएगा.

Monday, May 30, 2016

कश्मीर की इस तपिश के पीछे कोई योजना है

कश्मीर में कई साल बाद हिंसक गतिविधियाँ अचानक बढ़ीं हैं. सोपोर, हंडवारा, बारामूला, बांदीपुरा और पट्टन से असंतोष की खबरें मिल रहीं है. खबरें यह भी हैं कि नौजवान और किशोर अलगाववादी युनाइटेड जेहाद काउंसिल के नियंत्रण से बाहर हो रहे हैं. सुरक्षा दलों के साथ मुठभेड़ में मारे गए अलगाववादियों की लाशों के जुलूस निकालने का चलन बढ़ा है. इस बेचैनी को सोशल मीडिया में की जा रही टिप्पणियाँ और ज्यादा बढ़ाया है. नौजवानों को सड़कों पर उतारने के बाद सीमा पार से आए तत्व भीड़ के बीच घुसकर हिंसक गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं.

Friday, May 20, 2016

असम में कांग्रेस का 'सेल्फ गोल'

केरल में 'एंटी इनकम्बैंसी' थी, पर असम में कांग्रेस का सेल्फ गोल भी था. गुरुवार को चुनाव का ट्रेंड आने के थोड़ी देर बाद ही राहुल गांधी के दफ्तर ने ट्वीट किया, हम विनम्रता के साथ जनता के फैसले को स्वीकार करते हैं. चुनाव जीतने वाले दलों को मेरी शुभकामनाएं. एक और ट्वीट में उन्होंने कहा, पार्टी लोगों का भरोसा जीतने तक कड़ी मेहनत करती रहेगी. इस औपचारिक सदाशयता को अलग रखते हुए सवाल पूछें कि अब पार्टी के सामने विकल्प क्या हैं? वह ऐसा क्या करेगी, जिससे लोगों का भरोसा दोबारा जीता जा सके. पाँच राज्यों की विधानसभाओं के परिणामों का निहितार्थ अगले साल होने वाले चुनावों में नजर आएगा. 

Tuesday, May 17, 2016

चुनावी चंदे की पारदर्शिता का सवाल

बीजेपी और कांग्रेस तमाम मुद्दों पर एक दूसरे के विरोधी हैं, पर विदेशी चंदे को लेकर एक दूसरे से सहमत हैं. ये दोनों पार्टियाँ विदेशी चंदा लेती हैं, जो कानूनन उन्हें नहीं लेना चाहिए. इसी तरह राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर रखने के मामले में भी दोनों दलों की राय एक है. हाल की कुछ घटनाएं चेतावनी दे रहीं हैं कि चुनावी चंदे की व्यवस्था को पारदर्शी बनाने का समय आ गया है.

भारत की चुनाव व्यवस्था दुनिया में काले पैसे से चलने वाली सबसे बड़ी व्यवस्था है. जिस व्यवस्था की बुनियाद में ही काला धन हो उससे सकारात्मक बदलाव की उम्मीद कैसे की जा सकती है? दो साल पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने विदेशी कम्पनी वेदांता से चुनावी चंदा लेने के लिए दो राष्ट्रीय पार्टियों कांग्रेस और बीजेपी को दोषी पाया था. 28 मार्च, 2014 को अदालत ने फ़ैसले पर अमल के लिए चुनाव आयोग को छह महीने की वक़्त दिया.

Monday, April 18, 2016

विदेशी विश्वविद्यालयों की एक और दस्तक

विदेशी शिक्षा संस्थान फिर से दस्तक दे रहे हैं. खबर है कि नीति आयोग ने देश में विदेशी विश्वविद्यालयों के कैम्पस खोले जाने का समर्थन किया है. आयोग ने पीएमओ और मानव संसाधन मंत्रालय के पास भेजी अपनी रपट में सुझाव दिया है कि विश्व प्रसिद्ध विदेशी शिक्षा संस्थाओं को भारत में अपने कैम्पस खोलने का निमंत्रण देना चाहिए. खास बात यह है कि आयोग ने यह रपट अपनी तरफ से तैयार नहीं की है. मानव संसाधन मंत्रालय और पीएमओ की यह पहल है.

Monday, April 4, 2016

राजनीतिक घमासान : अभी तो पार्टी शुरू हुई है

उत्तर भारत में मार्च-अप्रैल के महीने आँधियों के होते हैं. पश्चिम से उठने वाली तेज हवाएं धीरे-धीरे लू-लपेट में बदल जाती हैं. राजनीतिक मैदान पर मौसम बदल रहा है और गर्म हवाओं का इंतजार है. असम और बंगाल में आज विधान सभा चुनाव का पहला दौर है. इसके साथ ही 16 मई तक लगातार चुनाव के दौर चलेंगे, जिसका नतीजा 19 मई को आएगा. इन नतीजों में भविष्य की राष्ट्रीय राजनीति के कुछ संकेत सूत्र होंगे, जो नीचे लिखी कुछ बातों को साफ करेंगे:-

Tuesday, March 15, 2016

सवाल विज्ञान-मुखी बनने का है

विजय माल्या के पलायन, देश-द्रोह और भक्ति से घिरे मीडिया की कवरेज में विज्ञान और तकनीक आज भी काफी पीछे हैं. जबकि इसे विज्ञान और तकनीक का दौर माना जाता है. इसकी वजह हमारी अतिशय भावुकता और अधूरी जानकारी है. विज्ञान और तकनीक रहस्य का पिटारा है, जिसे दूर से देखते हैं तो लगता है कि हमारे जैसे गरीब देश के लिए ये बातें विलासिता से भरी हैं. नवम्बर 2013 में जब हमारा मंगलयान अपनी यात्रा पर रवाना हुआ था तब कई तरह के सवाल किए गए थे. उस साल के आम बजट से आँकड़े निकालकर सवाल किया गया था कि माध्यमिक शिक्षा के लिए पूरा खर्च 3,983 करोड़ रुपए और अकेले मंगलयान पर 450 करोड़ रुपए क्यों? इस रकम से ढाई सौ नए स्कूल खोले जा सकते थे. 

Thursday, March 10, 2016

सवाल माल्या का ही नहीं, बीमार बैंकों का भी है

विडंबना है कि जब देश के 17 सरकारी बैंकों के कंसोर्शियम ने सुप्रीम कोर्ट में रंगीले उद्योगपति विजय माल्‍या के देश छोड़ने पर रोक लगाने की मांग की तब तक माल्या देश छोड़कर बाहर जा चुके थे. अब सवाल इन बैंकों से किया जाना चाहिए कि उन्होंने क्या सोचकर माल्या को कर्जा दिया था? हाल में देश के 29 बैंकों से जुड़े कुछ तथ्य सामने आए तो हैरत हुई कि यह देश चल किस तरह से रहा है. विजय माल्या पर जो रकम बकाया थी, उसकी वसूली शायद अब कभी नहीं हो सकेगी. कर्ज रिकवरी न्यायाधिकरण ने जिस राशि को रोका है वह ऊँट के मुँह में जीरे की तरह है. अफसोस इस बात का है कि व्यवस्था बहुत देर से जागी है. अपराधी आसानी से निकल कर भाग गया. साबित यह हुआ कि बीमार माल्या नहीं हमारे बैंक है.

Tuesday, March 1, 2016

ग्रामीण भारत को ‘मेगापुश’

मोदी सरकार ने चार राज्यों के चुनाव के ठीक पहले राजनीतिक जरूरतों का पूरा करने वाला बजट पेश किया है. इसमें सबसे ज्यादा जोर ग्रामीण क्षेत्र, इंफ्रास्ट्रक्चर, रोजगार और सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों पर है. राजकोषीय घाटे को 3.5 प्रतिशत रखने के बावजूद सोशल सेक्टर के लिए धनराशि का इंतजाम किया गया है. अजा-जजा उद्यमियों के लिए प्रोत्साहन कार्यक्रम भी इसका संकेत देते हैं. बजट का संदेश है कि अमीर ज्यादा टैक्स दें, जिसका लाभ गरीबों को मिले. हालांकि सरकार ने पूँजी निवेश के लिए प्रोत्साहन योजनाओं की घोषणा की है, पर कॉरपोरेट जगत में कोई खास खुशी नजर नहीं आती.

Thursday, February 18, 2016

भारतीय राष्ट्र-राज्य और 'आजादी' की रेखा

भारत की बरबादी तक जंग रहेगी, जंग रहेगी. या भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाल्लाह-इंशाल्लाह. क्या ये नारे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है? या इन्हें लगाने वालों को गोली मार देनी चाहिए जैसा कि भाजपा के विधायक ओपी शर्मा ने कहा है? दोनों बातें अतिवादी हैं. इस दौरान देश-द्रोह का सवाल खड़ा हुआ है. क्या अपने विचार व्यक्त करना देश-द्रोह है? क्या जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया के खिलाफ देश-द्रोह की धाराएं लगाना न्यायसंगत है? या इस घटना मात्र से हम जेएनयू को देश-द्रोही घोषित कर दें? दूसरे सवाल भी हैं. कन्हैया ने नारे लगाए भी या नहीं? नहीं लगाए, पर क्या वे इस माहौल के जिम्मेदार नहीं हैं? नारे लगाने वालों के खिलाफ वे क्यों नहीं बोले? जिन वीडियो के आधार पर हम अपनी राय दे रहे हैं वे क्या सही हैं? इस तकनीकी दौर में वीडियो बनाए भी जा सकते हैं. इन वीडियो की फोरेंसिक जाँच होनी चाहिए. पर सच यह है कि किसी ने नारे लगाए, जिन्हें पूरे देश ने सुना. एक तरफ नारेबाजी हुई तो दूसरी तरफ पटियाला हाउस में वकीलों ने मीडियाकर्मियों पर हमले करके मामले को दूसरी तरफ मोड़ दिया. अब जेएनयू की नारेबाजी पीछे चली गई, जबकि वह एक महत्वपूर्ण सवाल था.

Thursday, February 4, 2016

टेक्नोट्रॉनिक राजनीति का नया दौर

हाल में खबर थी कि ओडिशा के बालासोर (बालेश्वर) जिले में भारत ज्ञान-विज्ञान समिति के 800 कार्यकर्ता घर-घर जाकर जानकारियाँ हासिल कर रहे हैं. बीजू जनता दल के लोकसभा सदस्य रवीन्द्र कुमार जेना का यह क्षेत्र है. गाँवों में काम कर रहे कार्यकर्ता इस सूचना को एक एप की मदद से टैबलेट्स में दर्ज करते जाते हैं. जानकारियों का वर्गीकरण किया गया है. ज्यादातर सूचनाएं स्कूलों, आँगनवाड़ी केन्द्रों, स्वास्थ्य सुविधाओं, पंचायती राज संस्थाओं, सड़कों, परिवहन, विद्युतीकरण और खेती के बारे में हैं. इस डेटा का विश्लेषण एक गैर-लाभकारी संस्था कर रही है, जो सांसद को इलाके का डेवलपमेंट प्लान बनाकर देगी.

Saturday, January 9, 2016

‘फ्री बेसिक्स’ संचार महा-क्रांति या कमाई का नया फंडा?


नए दौर का सूत्र है नेट-साक्षरता. आने वाले वक्त में इंटरनेट पटु होना सामान्य साक्षरता का हिस्सा होगा. जो इंटरनेट का इस्तेमाल कर पाएगा वही सजग नागरिक होगा. वजह साफ है. जीवन से जुड़ा ज्यादातर कार्य-व्यवहार इंटरनेट के मार्फत होगा. इसीलिए इसका व्यावसायिक महत्व बढ़ रहा है. इंटरनेट की भावी पैठ को अभी से पढ़ते हुए नेट-प्रदाता और टेलीकॉम कंपनियां इसमें अपनी हिस्सेदारी चाहती हैं. सरकारों की भी यही कोशिश है कि नीतियाँ ऐसी हों ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों को ऑनलाइन किया जा सके.
नेट के विस्तार के साथ-साथ कुछ अंतर्विरोधी बातें सामने आ रही हैं. इसके साथ दो बातें और जुड़ी हैं. एक है तकनीक और दूसरे पूँजी. इंटरनेट की सार्वजनिक जीवन में भूमिका होने के बावजूद इसका विस्तार निजी पूँजी की मदद से हो रहा है. निजी पूँजी मुनाफे के लिए काम करती है. सूचना-प्रसार केवल व्यावसायिक गतिविधि नहीं है. वह लोकतांत्रिक व्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण कच्चा माल उपलब्ध कराने वाली व्यवस्था है. जानकारी पाना या देना, कनेक्ट करना और जागृत विश्व के सम्पर्क में रहना समय की सबसे बड़ी जरूरत है.  

Thursday, January 7, 2016

मुम्बई से पठानकोट तक के सबक

पठानकोट पर हुए हमले के बाद भारत में लगभग वैसी ही नाराजगी है जैसी 26 नवम्बर 2008 के बाद पैदा हुई थी. बाद में खबरें मिलीं कि तब भारत सरकार ने लश्करे तैयबा के मुख्यालय मुरीद्के पर हमले की योजना बनाई थी. तब दोनों देशों के बीच किसी प्रकार सहमति बनी कि पाकिस्तान हमलावरों की खोज और उन्हें सज़ा देने के काम में सहयोग करेगा. इसमें अमेरिका की भूमिका भी थी. इस बार भी खबर है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ ने मंगलवार को भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को फोन किया और एयरफोर्स बेस पर हुए हमले की जांच में हर संभव मदद का आश्वासन दिया. उसके पहले पाकिस्तान सरकार ने औपचारिक रूप से इस हमले की भर्त्सना भी की. बहरहाल टेलीफोन पर दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों के बीच हुई बातचीत में नरेंद्र मोदी ने इस बात पर जोर दिया कि हमले के जिम्मेदार लोगों के खिलाफ तत्काल कार्रवाई की जाए. इससे पहले पाकिस्तानी विदेश विभाग ने सोमवार की रात एक बयान में कहा था कि भारत द्वारा उपलब्ध कराए गए 'सुरागों' पर पाकिस्तान काम कर रहा है.

Thursday, December 31, 2015

ऐसी भी कोई शाम है, जिसकी सहर न हो

सुबह और शाम के रूपक हमें आत्म निरीक्षण का मौका देते हैं. गुजरते साल की शाम ‘क्या खोया, क्या पाया’ का हिसाब लगाती है और अगली सुबह उम्मीदों की किरणें लेकर आती है. पिछले साल दिसम्बर के अंत में यानी इन्हीं दिनों मुम्बई के कुछ नौजवानों ने तय किया कि कुछ अच्छा काम किया जाए. उन्होंने किंग्स सर्किल रेलवे स्टेशन को साफ-सुथरा बनाने का फैसला किया. शुरुआत एक गंदे किनारे से की. देखते ही देखते इस टीम का आकार बढ़ता चला गया. इस टीम ने इस साल इस स्टेशन की शक्ल बदल कर रख दी. उन्होंने न केवल स्टेशन की सफाई की, बल्कि दीवारों पर चित्रकारी की, रोशनी की और 100 पेड़ लगाए. गौरांग दमानी के नेतृत्व में वॉलंटियरों की इस टीम के सदस्यों की संख्या 500 के ऊपर पहुँच चुकी है.

Thursday, December 24, 2015

संसद केवल शोर का मंच नहीं है

संसद के शीत सत्र को पूरी तरह धुला हुआ नहीं मानें तो बहुत उपयोगी भी नहीं कहा जा सकता. पिछले कुछ वर्षों से हमारी संसद राजनीतिक रोष और आक्रोश व्यक्त करने का मंच बनती जा रही है. वह भी जरूरी है, पर वह मूल कर्म नहीं है.  शीत सत्र में पहले दो दिन गम्भीर विमर्श देखने को मिला, जब संविधान दिवस से जुड़ी चर्चा हुई. अच्छी-अच्छी बातें करने के बाद के शेष सत्र अपने ढर्रे पर वापस लौट आया. सत्र के समापन के एक दिन पहले जुवेनाइल जस्टिस विधेयक के पास होने से यह भी स्पष्ट हुआ कि हमारी राजनीति माहौल के अनुसार खुद को बदलती है.