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Thursday, October 7, 2010

मीडिया की भी परीक्षा का मौका है

एशियाड 1982 के मार्च पास्ट में टीमें हिन्दी के अकारादिक्रम से आईं थी। कॉमनवैल्थ गेम्स में ऐसा नहीं हुआ। इसकी एकमात्र वज़ह यह होगी कि गेम्स की नियमावली में साफ लिखा गया है कि टीमें अंग्रेज़ी के अक्षरक्रम से मैदान में आएंगी। पर टीमों के आगे नाम पट्टिका में अंग्रेजी के साथ हिन्दी में भी नाम लगाए जा सकते थे। स्टेडियम में घोषणाएं हिन्दी में की जा सकतीं थीं। दूरदर्शन इसका एकमात्र टीवी प्रसारक था। वहाँ दो एंकरों में से एक हिन्दी में हो सकता था। नाम का परिचय हिन्दी में भी हो सकता है। यह बात सिर्फ यह ध्यान दिलाने के लिए है कि हिन्दी भारत की राजभाषा है और अंग्रेजी काम-चलाने के लिए उसके साथ चल रही है।

व्यावहारिक बात यह है कि सिर्फ हिन्दी से काम नहीं चलता। चूंकि इसका प्रसारण कॉमनवैल्थ देशों में हो रहा था, इसलिए अंग्रेजी वाली बात समझ में आती है, पर स्टेडियम में उपस्थित और टीवी पर प्रसारण देख रही जनता का काफी बड़ा वर्ग हिन्दी जानता था। उस जनता का हिन्दी प्रेम अच्छा होता तो शायद ऐसा नहीं होता, पर राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के हिन्दी में दो शब्द बोलने पर खुशी की लहर कुछ लोगों ने महसूस की होगी। बीजिंग ओलम्पिक के मार्च पास्ट में टीमों की नाम पट्टिकाओं पर अंग्रेजी के साथ चीनी में भी लिखा था। वहाँ चूंकि अंग्रेजी जानने वाले होते ही नहीं इसलिए ओलिम्पिक के पहले तमाम तरह के लोगों को अंग्रेजी सिखाई गई। हमारे यहाँ भी कॉमनवैल्थ गेम्स के पहले दिल्ली के रेलवे स्टेशन के कुलियों को अंग्रेजी सिखाई गई।

कॉमनवैल्थ गेम्स का उद्घाटन समारोह प्रभावशाली था। कम से कम मीडिया ने उसे प्रभावशाली बताया है। यों मीडिया-कवरेज पर जाएं तो अक्सर भ्रम पैदा होता है कि सही क्या है और ग़लत क्या है। गेम्स की जबर्दस्त फ़ज़ीहत के बाद उद्घाटन समारोह को देखते ही मीडिया दंग रह गया। हमारे लोक-संगीत और लोक संस्कृति में इतना दम है कि उसे ढंग से पेश कर दिया जाय तो दंग रह जाना पड़ता है। देश को शोकेस करने के लिए रेलगाड़ी के माध्यम से जो भारत-यात्रा पेश की गई वह रोचक थी। अलबत्ता उसे और वास्तविक बनाया जा सकता था।

हमारा लोकतंत्र सिर्फ नेताओं के भाषणों तक सीमित नहीं है। पंचायत राज, आरटीआई, चुनाव प्रणाली, जनगणना और मीडिया को अच्छे ढंग से शोकेस किया जा सकता था। सॉफ्टवेयर, सर्विस सेक्टर और शिक्षा हमारी एक और उपलब्धि है। लोक-संगीत और लोक-संस्कृति के साथ-साथ हमें आधुनिक भारत को शोकेस करने की ज़रूरत है। इस समारोह की रौनक एयरोस्टैट से बढ़ी, पर यह हमारी इंजीनियरी का कमाल नहीं था। एआर रहमान का गीत न तो उनका और न आधुनिक भारत का श्रेष्ठ लोकप्रिय संगीत था। बेहद औसत दर्जे का और बेमेल गीत साबित हुआ। उसे लम्बा खींचने के लिए जय हो का इस्तेमाल करना पड़ा। एक अखबार ने बॉलीवुड की अपर्याप्त अनुपस्थिति की ओर भी इशारा किया है। वास्तव में बॉलीवुड की इसके मुकाबले कई गुना बेहतर उपस्थिति 2006 के मेलबर्न कॉमनवैल्थ गेम्स में थी।  

कॉमनवैल्थ गेम्स की एक विशेषता उसे दूसरे खेलों से अलग करती है। इसमें देशों के अलावा कुछ ऐसे इलाकों की टीमें हिस्सा लेतीं हैं, जो स्वतंत्र देश नहीं हैं। वेल्स, नॉर्दर्न आयरलैंड, स्कॉटलैंड, तुवालू, वनुआतू, जर्सी, सेंट किट्स, नाउरू, किरिबाती, सेशेल्स, नोरफॉल्क या आइल ऑफ मैन को अपनी रोचक पहचान के साथ भाग लेने का मौका इसी समारोह में मिलता है। उद्घाटन समारोह में भारतीय टीम के बाद किसी टीम का स्वागत गर्मजोशी से हुआ तो वह पाकिस्तान थी। एकबार गुज़र जाने के बाद कैमरे ने दुबारा इस टीम की प्रतिक्रिया पर नज़रे-इनायत नहीं की। कवरेज की क्वालिटी अच्छी थी, दूरदर्शन पर विज्ञापनों की श्रृंखला इतनी लम्बी चलती है कि ऊब होती है। संयोग से बिग बॉस के दरवाजे उसी वक्त खुल रहे थे, इसलिए काफी दर्शक उधर निकल गए। बहरहाल दूरदर्शन को अपने पैर ज़माने का एक मौका इन खेलों के मार्फत मिला है।

जितनी निगेटिव पब्लिसिटी इन गेम्स को मिली है शायद ही किसी दूसरे गेम्स को मिली होगी। खेल गाँव से और स्टेडियमों से अब पॉज़ीटिव खबरें आ रहीं हैं। इससे मीडिया का बचकानापन भी ज़ाहिर होता है। पल-पल में रंग बदलना अधकचरेपन की निशानी है। उद्घाटन समारोह या समापन समारोह का महत्व औपचारिक है। गेम्स की सफलता या विफलता का पैमाना खेल का स्तर और प्रतियोगिताओं के संचालन में है। मीडिया को खेल की गुणवत्ता का आकलन करना चाहिए। इन खेलों में भारतीय टीम को बड़ी संख्या में मेडल मिलने की उम्मीद है। इसकी वजह एक तो अच्छे खिलाड़ियों की अनुपस्थिति है दूसरे कुश्ती और बॉक्सिंग जैसे खेलों में बेहतर तैयारी है।

कुश्ती देसी खेल है। कॉमनवैल्थ खेलों में कुश्ती के लिहाज़ से हमारा सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 1970 के एडिनबरा गेम्स में रहा जहाँ हमारी टीम ने 12 मेडल जीते। इनमें से 9 मेडल कुश्ती में थे। इन 9 में 5 स्वर्ण, 3 रजत और 1 कांस्य पदक था। इस बार हम अकेले कुश्ती में 21 पदक जीतने की आशा रखते हैं। इतने न भी मिलें तब भी जो जीतेंगे वे अब तक के सबसे ज्यादा होंगे। हम नेटबॉल, रग्बी सेवंस और लॉन बॉल में भी पदक जीतने की होड़ में हैं। पर शायद सबसे बड़ी प्रतिष्ठा हॉकी से जुड़ी है। इस साल मार्च में दिल्ली में हुई विश्व कप हॉकी प्रतियोगिता में हमारा प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। यों भी हॉकी की हमारे देश में वैसी ही फज़ीहत हो रही है जैसी कॉमनवैल्थ गेम्स की हुई है। यह हमारी संगठन क्षमता की विफलता को भी ज़ाहिर करता है।

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तुरत-फुरत फैसले करता है। जल्द नाराज़ होता है और फौरन खुश होता है। तारीफ और आलोचना के लिए अतिवादी शब्दावली का इस्तेमाल करता है। बजाय इसके ठंडे मिजाज़ और गहरे विश्लेषण की ज़रूरत है। अनुभवहीनता या आपसी प्रतियोगिता की लपेट में मीडिया गलतियाँ करता है। पब्लिक स्क्रूटिनी का यह सर्वश्रेष्ठ फोरम अनायास ही पब्लिक स्क्रूटिनी का सबसे महत्वपूर्ण विषय नहीं बना है। उसे ध्यान देना चाहिए कि हमने अपनी व्यवस्था और देश को ही शोकेस नहीं किया है मीडिया को भी शोकेस किया है। कॉमनवैल्थ गेम्स के दौरान हमारी सुरक्षा व्यवस्था, प्रशासनिक क्षमता, खेल आयोजन में कुशलता, खेलों में दक्षता के साथ, मीडिया कवरेज से लेकर मेहमानवाज़ी तक तमाम बातों की परीक्षा होगी। ऐसे मौके छवि को बनाने या बिगाड़ने के लिए मिलते हैं।  


समाचार फॉर मीडिया डॉट कॉम में प्रकाशित

Thursday, September 2, 2010

देश की छवि कौन बिगाड़ता है?

इधर कॉमनवैल्थ खेलों को लेकर काफी फ़ज़ीहत हो रही है। ज्यादातर निर्माण कार्य़ समय से पीछे हैं। उनमें घपलों की शिकायतें भी हैं। हमारा अराजक मीडिया जब मैदान में उतरता है तो उसका एकसूत्री कार्यक्रम होता है। वह पिल पड़ता है। इसके बाद वह सब कुछ भूल जाता है। जब फ़जीहत ज़्यादा हो गई तो कुछ लोगों ने कहा, देश की प्रतिष्ठा के लिए कुछ कम करो। इसपर मीडिया अचानक खामोश हो गया।

यह सब मीडिया के लिहाज से ही नहीं हो रहा है। जिसे राष्ट्रीय प्रतिष्ठा कहते हैं वह दिखावटी चीज़ नहीं है। हम जापान के लोगों को कर्तव्यनिष्ठ मानते हैं, तो किसलिए? उन्होंने अपने मीडिया से इसका प्रचार तो नहीं किया। प्रतिष्ठा न तो प्रचार से मिलती है और न दुष्प्रचार से बिगड़ती है। हमारी छवि कहीं खराब हो रही है तो उसके सूत्र हमारे काम-काज के तरीके में ही छिपे हैं। उन्हें ठीक करने की ज़रूरत है।

कॉमनवैल्थ गेम्स के लिए पचास हजार करोड़ रुपए तक खर्च करने वाले देश में गरीबों के भोजन, गाँवों की सड़कों, स्कूलों और सरकारी अस्पतालों का क्या हाल है? इससे हमारी प्राथमिकताएं नज़र आती हैं। जो समाज अपने व्यवहार में असंतुलित है वह दुनिया में अच्छी छवि का हकदार क्यों है?

हिन्दुस्तान में प्रकाशित मेरा लेख पढ़ने के लिए कतरन पर क्लिक करें