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Sunday, April 28, 2019

वाराणसी से भाजपा का गठबंधन-संदेश


गुरुवार को वाराणसी में भारी-भरकम रोड शो के बाद शुक्रवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपना नामांकन पत्र दाखिल कर दिया। रोड शो और उसके बाद गंगा आरती की भव्यता ने मीडिया का ध्यान आकर्षित किया, जो स्वाभाविक था। इसका आयोजन सोज-समझकर किया गया था। सन 2014 के चुनाव के पहले भी करीब-करीब इसी तरह का आयोजन किया गया था। पर इस कार्यक्रम की भव्यता और भारी भीड़ के बरक्स ध्यान देने वाली बात है इस कार्यक्रम की राजनीतिक प्रतीकात्मकता। यह प्रतीकात्मकता दो तरीके से देखी जा सकती है। एक, प्रस्तावकों के चयन में बरती गई सावधानी से और दूसरे एनडीए से जुड़े महत्वपूर्ण नेताओं की उपस्थिति।
मोदी के नामांकन के ठीक पहले खबर यह भी आई कि प्रियंका गांधी वाराणसी से चुनाव लड़ने नहीं जा रही हैं। हालांकि कांग्रेस पार्टी ने कभी यह नहीं कहा था कि प्रियंका वाराणसी से लड़ेंगी, पर इस सम्भावना को शुरू में ही खारिज नहीं किया गया था। देर से की गई इस घोषणा से पार्टी को नुकसान ही हुआ। शुरू में ही साफ कर देना बेहतर होता। इसे अटकल के रूप में चलने देने की गलती कांग्रेस ने की। इतना ही नहीं ममता बनर्जी, मायावती, अखिलेश यादव, अरविन्द केजरीवाल, के चंद्रशेखर राव और नवीन पटनायक के अंतर्विरोधी बयानों की वजह से भी  महागठबंधन की राजनीति को झटके लगे हैं। बीजेपी के विरोध में खड़ी की गई एकता में दरारें नजर आने लगी हैं। विरोधी दल कम के कम मोदी के खिलाफ अपना संयुक्त प्रत्याशी खड़ा करने में नाकाम रहे। चुनाव परिणाम जो भी हों, पर बीजेपी अपने गठबंधन की एकता को सुनिश्चित रखने का दावा कर सकती है।

Saturday, April 27, 2019

‘सौ में नब्बे बेईमान’, फिर भी ‘वह सुबह तो आएगी’


गुरुवार की रात मीडियाकर्मी करन थापर अपने एक शो में कुछ लोगों के साथ बैठे नरेन्द्र मोदी और देश के चुनाव आयोग को कोस रहे थे। मोदी ने वर्धा में कहा कि कांग्रेस ने हिन्दुओं का अपमान किया है, उसे सबक सिखाना होगा। चुनाव आयोग ने तमाम नेताओं के बयानों पर कार्रवाई की है, मोदी के बयान पर नहीं की। चुनाव आयोग मोदी सरकार से दब रहा है। एक गोष्ठी में कहा जा रहा था, चुनाव में जनता के मुद्दे ही गायब हैं। पहली बार गायब हुए क्या? यह बात हर चुनाव में कही जाती है।
हरेक चुनाव के दौरान हमें लगता है कि लोकतंत्र का स्तर गिर रहा है। नैतिकता समाप्त होती जा रही है। यही बात हमने बीस बरस पहले भी कही थी। तब हमें लगता था कि उसके बीस बरस पहले की राजनीति उदात्त, मूल्यबद्ध, ईमानदार और जिम्मेदार थी। ऐतिहासिक दस्तावेजों को ठीक से पढ़ें, तो पाएंगे कि संकीर्णता, घृणा, स्वार्थ और झूठ का तब भी बोलबाला था।
वोटर की गुणवत्ता
जातिवाद, साम्प्रदायिकता, भावनाओं का दोहन, गुंडागर्दी, अपराधियों की भूमिका, पैसे का बढ़ता इस्तेमाल वगैरह-वगैरह। पर ये क्यों हैं? हैं तो इनके पीछे कोई वजह होगी। हम जिस सिस्‍टम की रचना कर रहे हैं, वह हमारे देश में तो नया है ही, सारी दुनिया में भी बहुत पुराना नहीं है। हमने क्यों मान लिया कि सार्वभौमिक मताधिकार जादू की छड़ी है, जो चमत्कारिक परिणाम देगा? हमारे विमर्श पर यह बात हावी है कि जबर्दस्त मतदान होना चाहिए। जितना ज्यादा वोट पड़ेगा, उतना ही वह जन-भावनाओं का प्रतिनिधित्व करेगा। यह जाने बगैर कि जनता की दिलचस्पी चुनाव में कितनी है? और सिस्‍टम के बारे में उसकी जानकारी का स्तर क्या है?

जम्हूरी जंग में मनोरंजन के महारथी


हाल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का वह टेलीविजन इंटरव्यू काफी चर्चित रहा, जो फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार ने लिया था. सवालों से ज्यादा चर्चा अक्षय कुमार की नई भूमिका को लेकर है. चुनाव के ठीक पहले अचानक तमाम सेलिब्रिटी राजनीति के मैदान में उतरे हैं. कुछ प्रचार के लिए और कुछ प्रत्याशी बनकर. राजधानी दिल्ली से क्रिकेटर गौतम गम्भीर, बॉक्सर विजेन्द्र सिंह और गायक हंसराज हंस मैदान में उतरे हैं. गायक मनोज तिवारी पहले से मैदान में हैं. मथुरा में हेमा मालिनी हैं और मुम्बई में उर्मिला मातोंडकर. दक्षिण में कलाकारों की भरमार है. बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की मुनमुन सेन पहले से सांसद हैं, इसबार मिमी चक्रवर्ती समेत कई कलाकारों को पार्टी ने टिकट दिए हैं.
दिवंगत अभिनेता विनोद खन्ना की गुरदासपुर सीट से सनी देओल को बीजेपी टिकट मिलने की खबर भी मीडिया की सुर्खियों में है. खबर है कि कांग्रेस ने भी उन्हें टिकट देने की पेशकश की थी, पर सनी देओल ने बीजेपी को वरीयता दी. पिता धर्मेन्द्र के पदचिह्नों पर चलते हुए वे भी राजनीति के मैदान में उतरे हैं. धर्मेन्द्र राजस्थान की बीकानेर सीट से दो बार भाजपा के सांसद रहे हैं. उनकी पत्नी हेमा मालिनी मथुरा से सांसद हैं और फिर से चुनाव लड़ रहीं हैं.
बिहार के पटना साहिब से शत्रुघ्न सिन्हा चुनाव मैदान में हैं. उनकी पत्नी पूनम सिन्हा लखनऊ से चुनाव लड़ रहीं हैं. भोजपुरी फिल्मों के स्टार रवि किशन कांग्रेस से पाला बदलकर भाजपा में शामिल हो गए हैं और अब गोरखपुर से चुनाव लड़ रहे हैं. सेलिब्रिटी कलाकारों और खिलाड़ियों की लम्बी फेहरिस्त है, जिनकी दिलचस्पी राजनीति में बढ़ी है. सवाल है कि यह सब क्या है? क्या यह हमारे लोकतंत्र के उत्तम स्वास्थ्य की निशानी है?

Tuesday, April 23, 2019

दिल्ली में ज़ाहिर हुआ बीजेपी-विरोधी मोर्चे का कठोर सच

महीनों की बातचीत और गहमागहमी के बाद भी दिल्ली में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच समझौता नहीं हुआ और मुकाबला तिकोना होकर रह गया. यह स्थिति दोनों पार्टियों के खिलाफ और बीजेपी के पक्ष में है. इस तरह से बीजेपी-विरोधी मोर्चे के अंतर्विरोधों का निर्मम सत्य दिल्ली में खुलकर सामने आया है. जब आप दिल्ली में बीजेपी के खिलाफ एक नहीं हो सकते, तो शेष देश में क्या होंगे? 

दिल्ली का प्रतीकात्मक महत्व है. यहाँ सीधा मुकाबला होने पर राष्ट्रीय राजनीति में एक संदेश जाता, जिसकी अलग बात होती. दिल्ली के परिणामों का प्रभाव राष्ट्रीय राजनीति में देखने को मिलता और अब मिलेगा.

वह कौन सी जटिल गुत्थी थी, जो दिल्ली में सुलझ नहीं पाई? आखिर क्या बात थी कि दोनों का गठबंधन नहीं हुआ? कांग्रेस कुछ पीछे हटती या ‘आप’ कुछ छूट देती, तो क्या समझौता सम्भव नहीं था?

अधकचरी समझ

लगता है कि दोनों तरफ परिपक्वता का अभाव है. पिछले कई महीनों से दोनों तरफ से ट्विटर-संवाद चल रहा था. कभी इसका ‘यू टर्न’ कभी उसका. कभी इसके दरवाजे खुले रहते, कभी उसके बंद हो जाते. पता नहीं आपस में बैठकर बातें करते भी थे या नहीं. दोनों तरफ से क्या असमंजस थे कि ऐन नामांकन तक भ्रम बना रहा? लगता है कि किसी निश्चय पर पहुँचे बगैर बातें हो रहीं थीं.

यूपी में सपा-बसपा और बिहार में बीजेपी-जेडीयू तथा महाराष्ट्र में बीजेपी-शिवसेना के गठबंधनों पर गौर करें, तो पाएंगे कि इन पार्टियों ने समय रहते न केवल गठबंधन किए, बल्कि किसी न किसी ने एक कदम पीछे खींचा. बीजेपी ने बिहार में अपनी जीती सीटों को छोड़ा, तो यह उसकी समझदारी थी. राजनीति में देश-काल के अनुसार ही फैसले होते हैं.

Sunday, April 21, 2019

एयरलाइंस का निर्मम कारोबार



करीब सवा सौ विमानों के साथ चलने वाली देश की दूसरे नम्बर की एयरलाइंस का अचानक बंद होना स्तब्ध करता है। साथ ही कुछ कटु सत्यों को भी उजागर करता है। यह क्षेत्र बहुत निर्मम है। पिछले साल मार्च में यह बात साफ थी कि जेट एयरवेज डांवांडोल है। उसे पूँजी की जरूरत होगी। उस वक्त सबसे ज्यादा चिंता उन संस्थाओं को होनी चाहिए थी, जिन्होंने भारी कर्ज दे रखा था। अब हमारे देश में दिवालिया कानून भी है। समय रहते प्रबंधकीय बदलाव होना चाहिए था, पर बैंकों को देर से बात समझ में आई। सवाल है कि अब क्या होगा?

एक सलाह है कि दिवालिया होने के कगार पर जा पहुंची कंपनी को डूबने देना चाहिए, भले ही उसका आर्थिक असर जो हो। दूसरी सलाह यह है कि सरकार को संकट में फँसी कंपनी की मदद करनी चाहिए। यह हमारी नियामक नीति की परीक्षा का समय भी है। कोई भी विदेशी एयरलाइंस भारतीय कंपनी में 49 फीसदी से अधिक हिस्सेदारी नहीं रख सकती। पर प्रबंधन के लिए कम से कम 51 फीसदी हिस्सेदारी जब तक नहीं होगी, कोई आगे नहीं आएगा।

Saturday, April 20, 2019

जनसंख्या-वृद्धि का सवाल लापता क्यों है?


देश की राजनीति में को लेकर चिंता के दो महत्वपूर्ण उदाहरण हमारे सामने हैं। पहला है, इमर्जेंसी के दौरान संजय गांधी के नेतृत्व में चला अभियान। और दूसरे हैं साक्षी महाराज जैसे बीजेपी के भड़काऊ नेताओं के बयान, जो ‘बढ़ती मुसलिम आबादी’ को देश की बड़ी समस्या मानते हैं। आबादी हमारी राजनीति में कभी गंभीर मुद्दा नहीं बनी। बढ़ती आबादी एक समस्या के रूप में किसी कोने में दर्ज जरूर है, पर उसपर ध्यान किसी का नहीं है। वस्तुतः ‘आबादी’ समस्या नहीं दृष्टिकोण है। 

आबादी की रफ्तार को रोकना हमारी समस्या है। दुनिया के कई इलाकों में रफ्तार बढ़ाने की समस्या है। हमें अपनी आबादी के हिसाब से योजनाएं बनाने की जरूरत है। नागरिकों की शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, परिवहन वगैरह-वगैरह। दुर्भाग्य से हम इस तरीके से दखने के आदी नहीं हैं। इस चुनाव में ही नहीं किसी भी चुनाव में हम आबादी और उससे जुड़े सवालों पर विचार नहीं करते। इस बार के चुनाव में राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों पर ध्यान दें, तो आप इस सवाल को अनुपस्थित पाएंगे।

बढ़ती आबादी

लोकसभा-चुनाव के ठीक पहले यूनाइटेड नेशंस पॉपुलेशन फंड-2019 रिपोर्ट जारी हुई है, जिसके मुताबिक पिछले नौ साल में भारत की जनसंख्या चीन के मुकाबले दुगनी रफ्तार से बढ़ी है। 2010 से 2019 के बीच भारत में 1.2% की सालाना दर से जनसंख्या बढ़ी है। जबकि इस दौरान चीन की जनसंख्या वृद्धि दर 0.5 प्रतिशत ही रही। रिपोर्ट के अनुसार भारत की वर्तमान जनसंख्या 136 करोड़ जबकि चीन की 142 करोड़। एक दशक के भीतर हम चीन को पीछे छोड़ देंगे। अनुमान है कि 2050 में भारत की जनसंख्या 1.69 अरब होगी और चीन की 1.31 अरब।

लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिहाज से हम चीन से आगे जरूर हैं, पर क्या हमारा लोकतंत्र अपनी जरूरतों और महत्वाकांक्षाओं को समझता है? भारत की वर्तमान जनसंख्या 1.36 अरब है, जो 1994 में 94.22 करोड़ और 1969 में 54.15 करोड़ थी। यह तेज गति दरिद्रता की निशानी है। पर हमारी 27 फीसदी जनसंख्या 0-14 वर्ष और 10-24 वर्ष की आयु वर्ग में है, 67 फीसदी 15-64 आयु वर्ग की है। छह फीसदी 65 वर्ष और उससे अधिक आयु की है। युवाओं और किशोरों की संख्या के लिहाज से हम धनी हैं, पर तभी जब उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार का इंतजाम हो। देश और समाज की ताकत उसके सदस्यों से बनती है। ये युवा हमें दुनिया की सबसे बड़ी ताकत बना सकते हैं, बशर्ते वे खुद ताकतवर हों।

Friday, April 19, 2019

पाकिस्तान क्यों है इस चुनाव का बड़ा मुद्दा?


भारतीय चुनावों में पाकिस्तान का मुद्दा कभी इतना महत्वपूर्ण बनकर नहीं बना,  जितना इसबार नजर आ रहा है. इसकी एक वजह 14 फरवरी के पुलवामा हमले को माना जा रहा है. इसके पहले 1999 के करगिल कांड और 2008 के मुम्बई हमले के बाद भी चुनाव हुए थे, पर तब इतनी शिद्दत से पाकिस्तान चुनाव का मुद्दा नहीं बना था, जितना इस बार है. 1999 के लोकसभा चुनाव करगिल युद्ध खत्म होने के दो महीने के भीतर हो गए थे, इसबार चुनाव के दो दौर पूरे हो चुके हैं फिर भी पाकिस्तान और आतंकवाद अब भी बड़ा मसला बना हुआ है. 
यह भी सच है कि नरेन्द्र मोदी और बीजेपी को पाकिस्तानी फैक्टर से लाभ मिल रहा है, पर सवाल है कि यह इतना महत्वपूर्ण बना ही क्यों? कुछ लोगों को लगता है कि पुलवामा कांड जानबूझकर कराया गया है. यह अनुमान जरूरत से ज्यादा है. यों तो 26 नवम्बर 2008 के मुम्बई हमले के पीछे भी भारतीय साजिश का एंगल लोगों ने खोज लिया था, पर उसे 2009 के चुनाव से नहीं जोड़ा था. इस बार के चुनाव में पाकिस्तान कई ऐतिहासिक कारणों से महत्वपूर्ण बना है. सबसे महत्वपूर्ण यह कि इस बार पाकिस्तान खुद एक कारण बनना चाहता है. 
हाल में पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने कहा, हमारे पास विश्वसनीय जानकारी है कि भारत हमारे ऊपर 16 से 20 अप्रैल के बीच फिर हमला करेगा. 16 अप्रैल की तारीख निकल गई, कुछ नहीं हुआ. भारत में अंदेशा था कि शायद पुलवामा जैसा कुछ और न हो जाए. दूसरी तरफ इमरान खान का बयान था कि भारत में नरेंद्र मोदी दूसरा कार्यकाल मिला तो यह पाकिस्तान के लिए बेहतर होगा और कश्मीर के हल की संभावनाएं बेहतर होंगी. पाकिस्तानी नेताओं मुँह से पहले कभी इस किस्म के बयान सुनने को नहीं मिले.

Monday, April 15, 2019

कहाँ गए चुनाव-सुधार के दावे और वायदे?


http://inextepaper.jagran.com/2112325/Kanpur-Hindi-ePaper,-Kanpur-Hindi-Newspaper-InextLive/15-04-19#page/8/1
जनवरी 2017 में पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों के ठीक पहले सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि धर्म, जाति और भाषा के नाम पर वोट माँगना गैर-कानूनी है। कौन नहीं जानता कि इन आधारों पर चुनाव लड़ने पर पहले से रोक है। सुप्रीम कोर्ट के 7 सदस्यीय संविधान पीठ ने जन-प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123(3) की व्याख्या भर की थी। इसमें अदालत ने स्पष्ट किया कि उम्मीदवार के साथ-साथ दूसरे राजनेता, चुनाव एजेंट और धर्मगुरु भी इसके दायरे में आते हैं। क्या आप भरोसे से कह सकते हैं कि इन संकीर्ण आधारों पर वोट नहीं माँगे जाते हैं या माँगे जा रहे हैं? चुनावी शोर के इस दौर में आपको क्या कहीं से चुनाव-सुधारों की आवाज सुनाई पड़ती है? नहीं तो, क्यों?

 जिन दिनों देश सत्रहवीं लोकसभा के चुनावों से गुजर रहा है सुप्रीम कोर्ट में चुनावी बॉण्डों की वैधता और उपादेयता पर सुनवाई चल रही है। चुनाव आयोग का कहना है कि ये बॉण्ड काले धन को सफेद करने का एक और जरिया है। हालांकि कांग्रेस के घोषणापत्र में कहा गया है कि हम जीतकर आए, तो इन बॉण्डों को खत्म कर देंगे। पर चुनावी ट्रस्ट की व्यवस्था तो कांग्रेस की ही देन है। चुनावी बॉण्डों के रूप में कम्पनियाँ बजाय नकदी के बैंक से खरीदे गए बॉण्ड के रूप में चंदा देती हैं। सच यह है कि पिछले 72 साल में सत्ताधारी दलों ने हमेशा व्यवस्था में छिद्र बनाकर रखे हैं ताकि उन्हें चुनावी चंदा मिलता रहे।

Sunday, April 14, 2019

धन-बल के सीखचों में कैद लोकतंत्र


https://www.haribhoomi.com/full-page-pdf/epaper/rohtak-full-edition/2019-04-14/rohtak-main-edition/358
शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने हालांकि चुनावी बॉण्डों पर स्थगनादेश जारी नहीं किया है, पर राजनीतिक चंदे के बारे में महत्वपूर्ण आदेश सुनाया है। अदालत ने राजनीतिक दलों से कहा है कि वे चुनावी बॉण्ड के जरिए मिली रकम का ब्यौरा चुनाव आयोग के पास सीलबंद लिफाफे में जमा कराएं। इस ब्यौरे में दानदाताओं, रकम और उनके बैंक खातों का विवरण भी दिया जाए। यह ब्यौरा 30 मई तक जमा कराना होगा। वस्तुतः अदालत इससे जुड़े व्यापक मामलों पर विचार करके कोई ऐसा फैसला करना चाहती है, जिससे पारदर्शिता कायम हो।

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने अदालत में चुनावी बॉण्ड योजना पर रोक लगाने की गुहार लगाई है। इस योजना को केंद्र सरकार ने पिछले साल जनवरी में अधिसूचित किया था। चुनाव आयोग ने अधिसूचना जारी होने के पहले से ही इसका विरोध किया था। विरोध की वजह है दानदाताओं की गोपनीयता। हमारे विधि आयोग ने चुनाव सुधार से जुड़ी अपनी 255वीं रिपोर्ट में कहा था कि राजनीति में धन के इस्तेमाल के साथ जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण चीज है सार्वजनिक जानकारी। जन प्रतिनिधित्व कानून, आयकर कानून, कम्पनी कानून और दूसरे सभी कानूनों के तहत बुनियादी बातों का पता सबको होना चाहिए।

Sunday, April 7, 2019

कैसे लागू होगा कांग्रेस का घोषणापत्र?



epaper.haribhoomi.com/?mod=1&pgnum=1&edcode=75&pagedate=2019-04-07
चुनाव घोषणापत्रों का महत्व चुनाव-प्रचार के लिए नारे तैयार करने से ज्यादा नहीं होता। मतदाताओं का काफी बड़ा हिस्सा जानता भी नहीं कि उसका मतलब क्या होता है। अलबत्ता इन घोषणापत्रों की कुछ बातें जरूर नारों या जुमलों के रूप में याद रखी जाती हैं। जिस देश में चुनाव जीतने के सैकड़ों क्षुद्र हथकंडे इस्तेमाल में आते हों, वहाँ विचारधारा, दर्शन और आर्थिक-सामाजिक अवधारणाएं पाखंड लगती हैं। फिर भी इन घोषणापत्रों का राजनीतिक महत्व है, क्योंकि न केवल चुनाव प्रचार के दौरान, बल्कि बाद में भी पार्टियों के कार्य-व्यवहार को लेकर इनके आधार पर सवाल किए जाते हैं।

राजनीतिक विश्लेषकों की पहली नजर इनकी व्यावहारिकता पर जाती है। इसे लागू कैसे कराया जाएगा? फिर तुलनाएं होती हैं। अभी बीजेपी ने अपना घोषणापत्र जारी नहीं किया है, कांग्रेस ने किया है। इसपर निगाह डालने से ज़ाहिर होता है कि पार्टी सामाजिक कल्याणवाद के अपने उस रुख पर वापस पर वापस आ रही है, जो सन 2004 में वामपंथी दलों के समर्थन पाने के बाद न्यूनतम साझा कार्यक्रम के रूप में जारी हुआ था। इसकी झलक पिछले साल कांग्रेस महासमिति के 84वें अधिवेशन में मिली थी।

Saturday, April 6, 2019

कांग्रेस फिर ‘सामाजिक कल्याणवाद’ पर वापस

इस बात को शुरू में ही कहना उचित होगा कि भारत में चुनाव घोषणापत्र भ्रामक हैं। जिस देश में चुनाव जीतने के सैकड़ों क्षुद्र हथकंडे इस्तेमाल में आते हों, वहाँ विचारधारा, दर्शन और आर्थिक-सामाजिक अवधारणाएं पाखंड लगती हैं। फिर भी इन घोषणापत्रों का राजनीतिक महत्व है, क्योंकि न केवल चुनाव प्रचार के दौरान, बल्कि चुनाव के बाद भी पार्टियों के कार्य और व्यवहार के बारे में इन घोषणापत्रों के आधार पर सवाल किए जा सकते हैं। उन्हें वायदों की याद दिलाई जा सकती है और लोकमंच पर विमर्श के प्रस्थान-बिन्दु तैयार किए जा सकते हैं।
कांग्रेस के इसबार के घोषणापत्र पर सरसरी निगाह डालने से साफ ज़ाहिर होता है कि पार्टी अपने सामाजिक कल्याणवाद पर वापस आ रही है। बीजेपी के आक्रामक छद्म राष्ट्रवाद के जवाब में कांग्रेस ने अपनी रणनीति को सामाजिक कल्याण और सम्पदा के वितरण पर केन्द्रित किया है। एक अरसे से कहा जा रहा था कि पार्टी को अपने राजनीतिक कार्यक्रम के साथ सामने आना चाहिए। केवल गैर-बीजेपीवाद कोई रणनीति नहीं हो सकती। वह नकारात्मक राजनीति है। अच्छी बात यह है कि कांग्रेस अब अपनी विचारधारा को एक दायरे में बाँधकर पूरी ताकत के साथ मैदान में उतरी है।

लोकपाल को लेकर खामोशी क्यों?


http://inextepaper.jagran.com/2099807/Kanpur-Hindi-ePaper,-Kanpur-Hindi-Newspaper-InextLive/06-04-19#page/10/1
हमारी राजनीति और समाज की प्राथमिकताएं क्या हैं? सन 2011 में इन्हीं दिनों के घटनाक्रम पर नजर डालें, तो लगता था कि भ्रष्टाचार इस देश की सबसे बड़ी समस्या है और उसका निदान है जन लोकपाल. लोकपाल आंदोलन के विकास और फिर संसद से लोकपाल कानून पास होने की प्रक्रिया पर नजर डालें, तो नजर आता है कि राजनीति और समाज की दिलचस्पी इस मामले में कम होती गई है. अगस्त 2011 में देश की संसद ने असाधारण स्थितियों में विशेष बैठक करके एक मंतव्य पास किया. फिर 22 दिसम्बर को लोकसभा ने इसका कानून पास किया, जो राज्यसभा से पास नहीं हो पाया.

फिर उस कानून की याद दिसम्बर, 2013 में आई. राज्यसभा ने उसे पास किया और 1 जनवरी को उसे राष्ट्रपति की मंजूरी मिली और 16 जनवरी, 2014 को यह कानून लागू हो गया. सारा काम तेजी से निपटाने के अंदाज में हुआ. उसके पीछे भी राजनीतिक दिखावा ज्यादा था. देश फिर इस कानून को भूल गया. सोलहवीं लोकसभा के चुनाव के ठीक पहले यह कानून अस्तित्व में आया और अब सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव के ठीक पहले लोकपाल की नियुक्ति हुई है. इसकी नियुक्ति में हुई इतनी देरी पर भी इस दौरान राजनीतिक हलचल नहीं हुई. सुप्रीम कोर्ट में जरूर याचिका दायर की गई और उसकी वजह से ही यह नियुक्ति हो पाई. 

Tuesday, April 2, 2019

राहुल ने क्यों पकड़ी दक्षिण की राह?


तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक के तिराहे पर वायनाड काली मिर्च और मसालों की खेती के लिए मशहूर रहा है। यहाँ की हवाएं तीनों राज्यों को प्रभावित करती हैं। भारी मुस्लिम आबादी और केरल में इंडियन मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन होने के कारण कांग्रेस के लिए यह सीट सुरक्षित मानी जाती है। राहुल यहाँ से क्यों खड़े हो रहे हैं, इसे लेकर पर्यवेक्षकों की अलग-अलग राय हैं। कुछ लोगों को लगता है कि अमेठी की जीत से पूरी तरह आश्वस्त नहीं होने के कारण उन्हें यहाँ से भी लड़ाने का फैसला किया गया है। इसके पहले इंदिरा गांधी और सोनिया गांधी ने भी अपने मुश्किल वक्त में दक्षिण की राह पकड़ी थी।

इंदिरा गाँधी 1977 में रायबरेली से चुनाव हार गई थीं। उन्होंने वापस संसद पहुँचने के लिए कर्नाटक के चिकमंगलूर का रुख किया था। चिकमंगलूर की जीत उनके जीवन का निर्णायक मोड़ साबित हुई थी। उन्होंने धीरे-धीरे अपना खोया जनाधार वापस पा लिया। उन्होंने 1980 का चुनाव आंध्र की मेदक सीट से लड़ा। सोनिया गांधी ने 1999 में पहली बार चुनाव लड़ा, तो उन्होंने अमेठी के साथ-साथ कर्नाटक के बेल्लारी से पर्चा भरा। उनके विदेशी मूल का विवाद हवा में था, इसी संशय में वे बेल्लारी गईं थीं।