Tuesday, February 19, 2019

कुलभूषण जाधव को क्या हम बचा पाएंगे?


पुलवामा कांड के ठीक चार दिन बाद सोमवार से हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में कुलभूषण जाधव के मामले की सुनवाई शुरू हो गई है, जो चार दिन चलेगी. इन चार दिनों में न केवल इस मामले के न्यायिक बिन्दुओं की चर्चा होगी, बल्कि भारत-पाकिस्तान रिश्तों की भावी दिशा भी तय होगी. भारत लगातार इस बात पर जोर दे रहा है कि पाकिस्तान का फौजी प्रतिष्ठान अंतरराष्ट्रीय नियमों-मर्यादाओं और मानवाधिकार के बुनियादी सिद्धांतों को मानता नहीं है. पर ज्यादा बड़ा सवाल है कि क्या हम कुलभूषण जाधव को छुड़ा पाएंगे? इस कानूनी लड़ाई के अलावा भारत के पास दबाव बनाने के और तरीके क्या हैं? पर इतना तय है कि आंशिक रूप से भी यदि हम सफल हुए तो वह पाकिस्तान पर दबाव बनाने में मददगार होगा.

इतिहास के बेहद महत्वपूर्ण पड़ाव पर हम खड़े हैं. इस मामले में अदालत ने सन 2017 में पाकिस्तान को आदेश दिया था कि वह जाधव का मृत्युदंड स्थगित रखे. अदालत का फैसला आने में चार-पाँच महीने लगेंगे, पर यह फैसला दोनों देशों के रिश्तों को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा. पाकिस्तान को लगता है कि भारत में चुनाव के बाद बनने वाली नई सरकार से उसकी बात हो सकती है, पर जाधव को कुछ हुआ, तो वार्ता की उम्मीद नहीं करनी चाहिए.

यों भी इस समय देश का जनमत बुरी तरह से पाकिस्तान के खिलाफ है. अनुमान यह भी है कि सुरक्षा बल पाकिस्तान के खिलाफ कोई बड़ी कार्रवाई किसी भी समय कर सकते हैं. बहरहाल यदि जाधव का मामला भारत के पक्ष में गया, तो यह भारत की डिप्लोमैटिक सफलता और पाकिस्तान के फौजी प्रतिष्ठान की पराजय होगी. उसके बाद इस बात का पता लगाना होगा कि कुलभूषण जाधव पाकिस्तानी सेना के हत्थे कैसे चढ़े. कहा जाता है कि ईरान से पाकिस्तानी गिरोह जैश-उल-अद्ल ने उनका अपहरण करके पाकिस्तानी फौज को सौंपा था.

यह जैश कट्टरपंथी सुन्नी संगठन है, जिसने 13 फरवरी को ईरानी सेना के एक वाहन को पुलवामा शैली में ध्वस्त करके 27 सैनिकों की हत्या कर दी थी. इस संगठन के लश्करे तैयबा से भी रिश्ते हैं. इस पूरे ताने-बाने का भंडाफोड़ करने के लिए कई प्रकार की जानकारियों की जरूरत है. इस बात का पूरा पता तभी लग पाएगा, जब हमारी एजेंसियों को इस जाँच में शामिल किया जाए. यदि ईरान इसमें हमारी मदद करेगा, तब भी हम कुछ जान पाएंगे. सवाल है कि क्या हम इतनी गहराई तक जाने में सफल हो पाएंगे? क्या हमारे खुफिया संगठनों की पहुँच इस स्तर तक है? बहरहाल हमें पहले अदालत के फैसले का इंतजार करना चाहिए.

अदालत में यह मामला लेकर भारत गया है और हम केवल इतना चाहते हैं कि जाधव को कॉन्सुलर एक्सेस दी जाए. भारतीय प्रतिनिधियों को उनसे भेंट करने और तदनुरूप न्यायिक सहायता उपलब्ध कराने का मौका दिया जाए. 25 मार्च 2016 से भारत लगातार जाधव की कॉन्सुलर एक्सेस की मांग कर रहा है. पाकिस्तान का नकारात्मक रुख देख भारत ने 8 मई 2017 को अंतरराष्ट्रीय कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया था और कहा था कि कॉन्सुलर एक्सेस न देकर पाकिस्तान ने वियना संधि का उल्लंघन किया है, जिसके तहत एक-दूसरे के गिरफ्तार नागरिकों को कॉन्सुलर एक्सेस देना ज़रूरी है. दिसंबर 2017 में पाकिस्तान ने जाधव की मां और पत्नी को उनसे मिलने की इजाजत दी थी, पर यह मुलाकात तमाशा साबित हुई. उनके कपड़े बदलवाए गए और यहाँ तक कि जाधव की पत्नी का मंगलसूत्र भी उतरवाया गया. साथ गए उच्चायोग-प्रतिनिधि को उनके पास जाने नहीं दिया गया. 

कश्मीर के घटनाक्रम को लेकर भारत में जबर्दस्त बेचैनी है. पिछले चार दशक से दक्षिण एशिया की राजनीति और अर्थ-व्यवस्था पाकिस्तानी बदमज़गी की शिकार है. पाकिस्तानी फौज ने अपनी व्यवस्था को बुरी तरह से अपनी जकड़बंदी में ले रखा है. उसकी निगाहें कश्मीर और अफ़ग़ानिस्तान पर हैं. तालिबानियों को पाकिस्तानी मदरसों में तैयार किया गया है. जिसके पीछे अंदेशा था कि अफ़ग़ानिस्तान में रूसी प्रभाव में कोई धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था कायम न हो जाए. चार दशक पहले अफ़ग़ानिस्तान 1979 में सोवियत सेनाओं ने अफ़ग़ानिस्तान में प्रवेश किया था. मौका-परस्त पाक फौज ने अमेरिका का इस लड़ाई में इस्तेमाल किया. अंततः सोवियत सेना की वापसी 15 फरवरी, 1989 को पूरी हो गई. रूसी वापसी के बाद अब अमेरिकी सेनाओं की वापसी होने जा रही है.

कश्मीर में जो हो रहा है, वह पाकिस्तान की विस्तारवादी रणनीति का हिस्सा है. नब्बे के दशक में उसने अमेरिका से समर्थन हासिल किया. आज वह चीनी गोद में बैठा है. बेशक इस रणनीति के कारण उसकी अर्थ-व्यवस्था खोखली होती जा रही है. क्या वह लम्बे अर्से तक इस रणनीति पर चलता रह सकता है? अफ़ग़ानिस्तान में खूंरेज़ी के चार दशक बाद अब सवाल है वहाँ क्या होगा? क्या पाकिस्तानी-तालिबानी नेतृत्व में फिर से कट्टरपंथी निजाम कायम होगा? क्या अमेरिका ऐसे निजाम को कायम होने देगा? नहीं तो रास्ता क्या है? अफ़ग़ानिस्तान के साथ समूचे दक्षिण एशिया का भविष्य जुड़ा है, खासतौर से भारत का.

सन 1979 में जब सोवियत सेनाएं अफ़ग़ानिस्तान में प्रवेश कर रही थीं, भारत में चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में एक अंतरिम सरकार काम कर रही थी, जो फौरी तौर पर प्रतिक्रिया भी व्यक्त नहीं कर पाई थी. उसके बाद 1980 के चुनाव हुए और देश की राजनीति के अनेक अंतर्विरोध उस दौर में सामने आए. संयोग से आज हम फिर रूपांतरण के एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़े हैं. अगले पाँच वर्षों में हम दुनिया की सबसे अगली कतार में होंगे. पर उसके पहले अपने अंतर्विरोधों को समझना और सुलझाना होगा. पुलवामा की प्रतिक्रिया में फौरी कार्रवाई से ज्यादा महत्वपूर्ण है हमारी दीर्घकालीन रणनीति. पुलवामा जैसी घटनाएं ट्रिगर का काम करती हैं, जिनसे जनता का गुस्सा सामने आता है, पर गुस्सा दिखाकर हम समस्याओं के समाधान नहीं कर सकते. यह समय संयम और विवेक का है.

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