लेखक मंच’ प्रकाशन की चौथी पुस्तक ‘अपने बच्चे को दें विज्ञान दृष्टि’ अंग्रेजी पुस्तक का अनुवाद है। इस किताब में लेखिका ने लिखा है कि बच्चों को सवाल पूछने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। एकबार नोबेल पुरस्कार विजेता भौतिकविद इसीडोर आई राबी से उनके एक दोस्त ने पूछा, आप अपने आस-पड़ोस के बच्चों की तरह डॉक्टर, वकील, या व्यापारी बनने के बजाय वैज्ञानिक क्यों बने?
राबी ने जवाब दिया, मेरी माँ ने अनजाने में ही मुझे वैज्ञानिक बना दिया। ब्रुकलिन में रहने वाली हर यहूदी माँ स्कूल से लौटने वाले अपने बच्चे से पूछती थी, तो तुमने आज स्कूल में कुछ सीखा कि नहीं? लेकिन मेरी माँ ऐसा नहीं करती थी। वह हमेशा एक अलग तरह का सवाल मुझसे पूछती थी, इज्जी क्या तुमेन आज क्लास में कोई अच्छा सवाल पूछा? दूसरी माताओं से उनके इस फर्क यानी अच्छे सवाल को महत्व देने की उनकी खूबी ने मुझे वैज्ञानिक बना दिया।
कांग्रेस के लिए
आने वाला साल चुनौतियों से भरा है। चुनौतियाँ बचे-खुचे राज्यों में इज्जत बचाए
रखने और अपने संगठनात्मक चुनावों को सम्पन्न कराने की हैं। साथ ही पार्टी के भीतर
सम्भावित बगावतों से निपटने की भी। पर उससे बड़ी चुनौती पार्टी के वैचारिक आधार को
बचाए रखने की है। इस हफ्ते अचानक खबर आई कि राहुल गांधी ने पार्टी के महासचिवों से
कहा है कि वे कार्यकर्ताओं से सम्पर्क करके पता करें कि क्या हमारी छवि ‘हिन्दू विरोधी’ पार्टी के रूप
में देखी जा रही है। लगता है कि राहुल का आशय केवल हिन्दू विरोधी छवि के सिलसिले
में पता लगाना ही नहीं है, बल्कि पार्टी की सामान्य छवि को समझने का है। राहुल ने
यह काम देर से शुरू किया है। खासतौर से पराजय के बाद किया है। इसके खतरे भी हैं।
पिछले तीनेक दशक में कांग्रेस संगठन हाईकमान-मुखी हो गया है। कार्यकर्ता जानना
चाहता है कि हाईकमान का सोच क्या है। पार्टी के भीतर नीचे से ऊपर की ओर
विचार-विमर्श की कोई पद्धति नहीं है। यह दोष केवल कांग्रेस का दोष नहीं है। भारतीय
जनता पार्टी से लेकर जनता परिवार से जुड़ी सभी पार्टियों में यह कमी दिखाई देगी।
आम आदमी पार्टी ने इस दोष को रेखांकित करते हुए ही नए किस्म की राजनीति शुरू की
थी, पर कमोबेश वह भी इसकी शिकार हो गई।
विज्ञान, तकनीक और खासतौर से रक्षा
तकनीक के मामलों में हमें सन 2015 में काफी उम्मीदें हैं। पिछले साल की शुरूआत
भारत के मंगलयान के प्रक्षेपण की खबरों से हुई थी। सितम्बर में मंगलयान अपने
गंतव्य तक पहुँच गया। साल का अंत होते-होते दिसम्बर जीएसएलवी मार्क-3 की सफल उड़ान
के बाद भारत ने अंतरिक्ष में समानव उड़ान का एक महत्वपूर्ण चरण पूरा कर लिया है। अंतरिक्ष
में भारत अपने चंद्रयान-2 कार्यक्रम को अंतिम रूप दे रहा है। साथ ही शुक्र और सूर्य
की ओर भारत के अंतरिक्ष यान उड़ान भरने की तैयारी कर रहे हैं। एक अरसे से रक्षा के
क्षेत्र में हमें निराशाजनक खबरें सुनने को मिलती रही हैं। पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल
वीके सिंह की तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लिखी गई चिट्ठी के लीक होने के
बाद इस आशय की खबरें मीडिया में आईं कि सेना के पास पर्याप्त सामग्री नहीं है।
रक्षा से जुड़े अनेक फैसलों का
कार्यान्वयन रुका रहा। युद्धक विमान तेजस, अर्जुन टैंक और 155 मिमी की संवर्धित
तोप के विकास में देरी हो रही है। मोदी सरकार के सामने रक्षा तंत्र को दुरुस्त
करने की जिम्मेदारी है। कई प्रकार की शस्त्र प्रणालियाँ पुरानी पड़ चुकी हैं।
मीडियम मल्टी रोल लड़ाकू विमानों के सौदे को अंतिम रूप देना है। सन 2011 में भारत
ने तय किया था कि हम फ्रांसीसी विमान रफेल खरीदेंगे और उसका देश में उत्पादन भी
करेंगे। वह समझौता अभी तक लटका हुआ है। तीनों सेनाओं के लिए कई प्रकार के
हेलिकॉप्टरों की खरीद अटकी पड़ी है। विक्रमादित्य की कोटि के दूसरे विमानवाहक पोत
के काम में तेजी लाने की जरूरत है। अरिहंत श्रेणी की परमाणु शक्ति चालित पनडुब्बी
को पूरी तरह सक्रिय होना है। इसके साथ दो और पनडुब्बियों के निर्माण कार्य में
तेजी लाने की जरूरत है।
लोकसभा चुनावों में हार के बाद विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे कांग्रेस पार्टी के लिए निराशाजनक रहे हैं.
मीडिया में आई ख़बरों के अनुसार पार्टी अपनी 'बिगड़ती छवि' पर चिंतन करने के मूड में है. वहीं यह भी कहा गया कि एक के बाद एक हार मिलने की वजह है पार्टी की 'हिंदू विरोधी' छवि.
हालांकि कांग्रेस के बारे में ऐसे बयान नए नहीं हैं.
लेकिन पार्टी की लोकप्रियता में कमी के कारण शायद कुछ और हैं, जिन्हें समझने के लिए ज़रूरी आत्ममंथन से पार्टी शायद गुज़रना नहीं चाहती?
पढ़ें, लेख विस्तार से
कांग्रेस क्या वास्तव में अपनी बिगड़ती छवि से परेशान है? या इस बात से कि उसकी छवि बिगाड़कर ‘हिंदू विरोधी’ बताने की कोशिश की जा रही हैं?
इससे भी बड़ा सवाल यह है कि वह अपनी बदहाली के कारणों को समझना भी चाहती है या नहीं?
छवि वाली बात कांग्रेस के आत्ममंथन से निकली है. पर क्या वह स्वस्थ आत्ममंथन करने की स्थिति में है? आंतरिक रूप से कमज़ोर संगठन का आत्ममंथन उसके संकट को बढ़ा भी सकता है.
अस्वस्थ पार्टी स्वस्थ आत्ममंथन नहीं कर सकती. कांग्रेस लम्बे अरसे से इसकी आदी नहीं है. इसे पार्टी की प्रचार मशीनरी की विफलता भी मान सकते हैं. और यह भी कि वह राजनीति की ‘सोशल इंजीनियरिंग’ में फेल हो रही है.
आरोप नया नहीं
यह मामला केवल ‘हिंदू विरोधी छवि’ तक सीमित नहीं है.
पचास के दशक में जब हिंदू कोड बिल पास हुए थे, तबसे कांग्रेस पर हिंदू विरोधी होने के आरोप लगते रहे हैं पर कांग्रेस की लोकप्रियता में तब कमी नहीं आई.
साठ के दशक में गोहत्या विरोधी आंदोलन भी उसे हिंदू विरोधी साबित नहीं कर सका.
वस्तुतः इसे कांग्रेस के नेतृत्व, संगठन और विचारधारा के संकट के रूप में देखा जाना चाहिए. एक मोर्चे पर विफल रहने के कारण पार्टी दूसरे मोर्चे पर घिर गई है.
कांग्रेस की रणनीति यदि सांप्रदायिकता विरोध और धर्मनिरपेक्षता की है, तो वह उसे साबित करने में विफल रही.
सन 2014 कांग्रेस के लिए खौफनाक यादें छोड़ कर जा
रहा है। इस साल पार्टी ने केवल लोकसभा चुनाव में ही भारी हार का सामना नहीं किया,
बल्कि आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, हरियाणा, महाराष्ट्र, सिक्किम के बाद अब जम्मू-कश्मीर
और झारखंड विधान सभाओं में पिटाई झेली है। यह सिलसिला पिछले साल से जारी है। पिछले
साल के अंत में उसे राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीस गढ़ और दिल्ली में यह हार गले
पड़ी थी। हाल के वर्षों में उसे केवल कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में
सफलता मिली है। आंध्र के वोटर ने तो उसे बहुत बड़ी सज़ा दी। प्रदेश की विधान सभा
में उसका एक भी सदस्य नहीं है। चुनाव के ठीक पहले तक उसकी सरकार थी। कांग्रेस ने
सन 2004 में दिल्ली में सरकार बनाने की जल्दबाज़ी में तेलंगाना राज्य की स्थापना का
संकल्प ले लिया था। उसका दुष्परिणाम उसके सामने है।
बहस धर्मांतरण की हो या किसी दूसरे मसले की उसे खुलकर सामने आना चाहिए। अलबत्ता बातें तार्किक और साधार होनी चाहिए। धार्मिक और अंतःकरण की स्वतंत्रता महत्वपूर्ण मानवाधिकार है, पर हमें धर्म, खासतौर से संगठित धर्म की भूमिका पर भी तो बात करनी चाहिए। जितनी जरूरी धार्मिक स्वतंत्रता है उतनी ही जरूरी है धर्म-विरोध की स्वतंत्रता। धर्म का रिश्ता केवल आस्तिक और नास्तिक होने से नहीं है। वह विचार का एक अलग मामला है। व्यक्ति के दैनिक आचार-विचार में धर्म बुनियादी भूमिका क्यों अदा कर रहे हैं? उनकी तमाम बातें निरर्थक हो चुकी हैंं। धार्मिकता को जितना सुन्दर बनाकर पेश किया जाता है व्यवहार में वह वैसी होती नहीं है। इसमें अलग-अलग धर्मों की अलग-अलग भूमिका है। रोचक बात यह है कि नए-नए धर्मों का आविष्कार होता जा रहा है। हम उन्हें पहचान नहीं पाते, पर वे हमारे जीवन में प्रवेश करते जा रहे हैं। अनेक नई वैचारिक अवधारणाएं भी धर्म जैसा व्यवहार करती हैं। सामान्य व्यक्ति की समझदारी की इसमें सबसे बड़ी भूमिका है। चूंकि बातें कांग्रेस-भाजपा और राष्ट्रीय स्वंसेवक संघ को लेकर हैं इसलिए तात्कालिक राजनीति का पानी इसपर चढ़ा है। धर्म निरपेक्षता के हामियों का नजरिया भी इसमें शामिल है। दुनिया में कौन सा धर्म है जो अपने भीतर सुधार के बारे में बातें करता है? जिसमें अपनी मान्यताओं को अस्वीकार करने और बदलने की हिम्मत हो? हम जिस धार्मिक स्वतंत्रता की बात कर रहे हैं उसका कोई लेवल फील्ड है या नहीं? आज के सहारा में मेरा एक लेख छपा है इसे देखें:-
हमारा देश धर्म-निरपेक्ष है, पर वह धर्म-विरोधी
नहीं है। संविधान में वर्णित स्वतंत्रताओं में धर्म की स्वतंत्रता और अधिकार भी
शामिल है। इस स्वतंत्रता में धर्मांतरण भी शामिल है या नहीं, इसे लेकर कई तरह की
धारणाएं हैं। देश के पाँच राज्यों में कमोबेश धर्मांतरण पर पाबंदियाँ हैं। इनके
अलावा राजस्थान में इस आशय का कानून बनाया गया है, जो राष्ट्रपति की स्वीकृति का
इंतज़ार कर रहा है। अरुणाचल ने भी इस आशय का कानून बनाया, जो किसी कारण से लागू
नहीं हुआ। तमिलनाडु सरकार ने सन 2002 में इस आशय का कानून बनाया, जिसे बाद में
राजनीतिक विरोध के कारण वापस ले लिया गया। ये ज्यादातर कानून धार्मिक स्वतंत्रता
के कानून हैं, पर इनका मूल विषय है धर्मांतरण पर रोक। धर्मांतरण क्या वैसे ही है
जैसे राजनीतिक विचार बदलना? मसलन आज हम
कांग्रेसी है और कल भाजपाई? पश्चिमी देश
धर्मांतरण की इजाजत देते हैं, पर काफी मुस्लिम देश नहीं देते।
आज के अखबारों में जम्मू-कश्मीर और झारखंड के चुनाव परिणाम छाए हैं। मीडिया अभी तय नहीं कर पा रहीा है कि मोदी वेव थमी है या चल रही है। यह वेव कभी थी भी या नहीं। ज्यादातर लोग अपनी पूर्व निर्धारित धारणाओं के आधार पर फैसले कर रहे हैं। ज्यादातर निष्कर्ष कश्मीर को लेकर हैं। कश्मीर की राजनीति अचानक देश की सुर्खियों में है। इस राज्य में बीजेपी की भूमिका भी महत्वपूर्ण हो सकती है, पहले ऐसा सोचा न गया होगा। देखें आज की कुछ कतरनें
भारत प्रशासित जम्मू कश्मीर राज्य और झारखंड के विधानसभा चुनाव परिणामों ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के प्रभाव क्षेत्र के विस्तार को स्थापित किया है.
दोनों राज्यों में उसे अब तक की सबसे बड़ी सफलता हासिल हुई है. जम्मू-कश्मीर में पार्टी पहली बार असाधारण रूप से महत्वपूर्ण स्थिति में पहुँच गई है.
इससे केवल राज्य की राजनीति ही प्रभावित नहीं होगी, बल्कि इसका व्यापक राष्ट्रीय असर होगा. सम्भवतः भाजपा की अनेक अतिवादी धारणाएं पृष्ठभूमि में चली जाएंगी.
उसे राष्ट्रीय राजनीति के बरक्स अपने भीतर लचीलापन पैदा करना होगा.
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भाजपा का दावा है कि जम्मू-कश्मीर का मौजूदा चुनाव उसकी दीर्घकालीन राजनीति का एक चरण है. यानी वह राज्य में ज़्यादा बड़ी भूमिका निभाने का इरादा रखती है.
इसकी परीक्षा अगले एक-दो दिन में ही हो जाएगी. देखना यह होगा कि क्या पार्टी कश्मीर में सरकार बनाने की कोशिश करेगी.
दूसरी ओर झारखंड में भाजपा को पिछली बार की तुलना में सफलता ज़रूर मिली है, पर उसे गठबंधन का सहारा लेना होगा.
यानी राज्य को गठबंधन-राजनीति से पूरी तरह मुक्ति नहीं मिलेगी. इसका मतलब यह भी है कि पार्टी ने सही समय पर वक़्त की नब्ज़ को पढ़ा और आजसू (ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन) से गठबंधन किया.
आज के इंडियन एक्सप्रेस के दो आइटम ध्यान खींचने वाले हैं। अखबार के एक्सप्रेस अड्डा कार्यक्रम में अमर्त्य सेन ने नरेंद्र मोदी के साथ अपने मतभेदों का जिक्र करते हुए यह भी कहा कि मोदी ने इस उम्मीद को कायम किया कि बहुत कुछ हो भी सकता है। उन्होंने मोदी के शौचालय कार्यक्रम की प्रशंसा की और यह भी माना कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने दूसरे कार्यकाल में काम करके दिखा नहीं पाए। आज के एक्सप्रेस ने गोवा के एक कार्यक्रम से सुषमा स्वराज के एक वक्तव्य को उधृत किया है, जिसमें स्वराज ने उदारता और सहिष्णुता के रास्ते को उचित बताया है। हार्डकोर हिन्दुत्व से जुड़े बयानों के बीच सुषमा स्वराज का यह बयान आश्वस्तिकारक है। आज के एक्सप्रेस में पाकिस्तानी पत्रकार हामिद मीर का लेख भी कुछ बुनियादी सवाल उठाता है। एक्सप्रेस में पाकिस्तान के पूर्व विदेशमंत्री खुरशीद महमूद कसूरी का इंटरव्यू भी पढ़ने लायक है, जिसमें उन्होंने ट्रैक टू की बातचीत को उपयोगी बताया है।
कांग्रेस के लिए
यह साल आसमान से जमीन पर गिरने का साल था। दस साल पहले कुछ ऐसी परिस्थितियाँ बनीं
जिनमें कांग्रेस पार्टी को न केवल सत्ता में आने का मौका मिला बल्कि नेहरू-गांधी
परिवार को फिर से पार्टी की बागडोर हाथ में लेने का पूरा मौका मिला। इस साल अचानक
सारी योजना फेल हो गई और अब पार्टी गहरे खड्ड की और बढ़ रही है। लोकसभा चुनाव में
कांग्रेस को सबसे बड़ी पराजय का सामना करना पड़ा। उसके ठीक पहले और बाद में हुए
सभी विधानसभा चुनावों में भी उसकी हार हुई। इन दिनों हो रहे जम्मू-कश्मीर और
झारखंड विधानसभा चुनावों के परिणाम 23 दिसम्बर को आने के बाद पराभव का पहिया एक
कदम और आगे बढ़ जाएगा।
झारखंड और भारत प्रशासित जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनाव अपने राजनीतिक निहितार्थ के अलावा सुरक्षा व्यवस्था के लिहाज़ से महत्वपूर्ण होते हैं.
इन दोनों राज्यों में शांतिपूर्ण तरीक़े से मतदान होना चुनाव व्यवस्थापकों की सफलता को बताता है और मतदान का प्रतिशत बढ़ना वोटर की जागरूकता को.
दोनों राज्यों के हालात एक-दूसरे से अलग हैं, पर दोनों जगह एक तबक़ा ऐसा है जो चुनावों को निरर्थक साबित करता है.
इस लिहाज से भारी मतदान होना वोटर की दिलचस्पी को प्रदर्शित करता है.
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भारत प्रशासित जम्मू-कश्मीर में अलगाववादियों ने चुनाव के बहिष्कार का आह्वान किया था और झारखंड में माओवादियों का डर था.
दोनों राज्यों में भारी मतदान हुआ. यूं भी सन 2014 को देश में भारी मतदान के लिए याद किया जाएगा. साल का अंत भारतीय लोकतंत्र के लिए कुछ अच्छी यादें छोड़कर जा रहा है.
भारत प्रशासित जम्मू-कश्मीर में पिछले 25 साल का सबसे भारी मतदान इस बार हुआ है.
सन 2002 के विधान सभा चुनावों ने कश्मीर में नया माहौल तैयार किया था, पर घाटी में मतदान काफ़ी कम होता था. पर इस बार कहानी बदली हुई है.
इस चुनाव का सबसे महत्वपूर्ण पहले और दूसरे दौर का मतदान था. दोनों में 71 फ़ीसदी से ज़्यादा वोट पड़े.
Well before the arrival of Modi, Indian leaders had talked about promoting manufacturing. The slowdown in China, however, could make a big difference this time. China became an export powerhouse because of its vast pool of low-wage workers, but it’s no longer so cheap to manufacture there. Pinched by double-digit increases in China’s minimum wages, many companies are looking for low-cost alternatives. Southeast Asian countries such as Vietnam and Indonesia are attractive, but they lack the deep supply of workers available in India. “It’s the only country that has the scale to take up where China is leaving off,” says Frederic Neumann, a senior economist with HSBC (HSBC). Vietnam and Indonesia? “Neither one is big enough to take up the slack,” he says, leaving India with a “golden opportunity. Read full article in BloombergBusinessweek
पिछले 140 सालों में यह पहली बार हुआ है. अमरीका ने दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का रुतबा खो दिया है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) के मुताबिक़ अब ये हैसियत चीन के पास है. लेकिन सवाल उठता है कि इस दावे को मजबूती देने वाले आंकड़ों पर किस हद तक भरोसा किया जा सकता है. बीबीसी के आर्थिक मामलों के संपादक रॉबर्ट पेस्टन बता रहे हैं कि आख़िर चीन क्यों हम सबके लिए मायने रखता है. चीन की मौजूदा अर्थव्यवस्था 17.6 ट्रिलियन डॉलर की है जबकि आईएमएफ़ ने अमरीका के लिए 17.4 ट्रिलियन का अनुमान लगाया है.
हाल में बेंगलुरु में आईएस के ट्वीट हैंडलर मेहदी विश्वास की गिरफ्तारी के बाद यह बहस आगे बढ़ी है कि इंटरनेट पर विचारों और सूचना के आदान-प्रदान की आजादी किस हद तक होनी चाहिए। इस बात की जानकारी मिल रही है कि इराक में बाकायदा लड़ाई लड़ रहा आईएस सोशल मीडिया का भरपूर इस्कतेमाल कर रहा है। एक ओर लोकतांत्रिक आजादी का सवाल है और दूसरी ओर आतंकवादी और यहाँ तक कि समुद्री डाकू भी इसका सहारा ले रहे हैं।
The Indian Space Research Organisation has launched the first test flight of its newest rocket – the GSLV Mk.III – on Thursday, conducting a suborbital flight that also demonstrated a prototype crew capsule (CARE) for India’s proposed manned missions. Liftoff from the Satish Dhawan Space Centre occurred at 09:30 local time (04:00 UTC).
ISRO Launch:
India’s new rocket, which the Indian Space Research Organisation (ISRO) refers to by the names GSLV Mk.III and LVM3, is a completely new vehicle marking the third generation for India’s orbital launch systems.
The two-stage rocket is designed to place around 10 tonnes (9.8 Imperial tons, 11 US tons) of payload into low earth orbit or four tonnes (3.9 Imperial tons, 4.4 US tons) to a geosynchronous transfer orbit.
For Thursday’s mission only the first stage and boosters were live, while the inert second stage was loaded with liquid nitrogen to simulate propellant.
पाकिस्तान सरकार ने सन 2008 में आतंकियों को फाँसी दने पर रोक लगा दी थी। पेशावर के हत्याकांड के बाद सरकार ने उस रोक को हटाने का फैसला किया है। यह एक महत्वपूर्ण कदम है। इसमें दो राय नहीं कि आत्मघाती हमले करने वाले लोग एक खास किस्म की मनोदशा में आते हैं। उनका ब्रेनवॉश होता है। उन्हें जुनूनी विचारधारा से लैस किया जाता है। फाँसी की सजा उन्हें कितना रोक पाएगी? अलबत्ता इस फैसले से सरकारी मंशा का पता लगता है। पेशावर हमले के बाद आज सुबह के भारतीय अखबारों में हाफिज सईद का बयान छपा है। उसने कहा है कि पेशावर हमला भारत की साजिश है। उसका यह बयान पाकिस्तानी चैनलों पर प्रसारित किया गया। देश के किसी नेता ने उसके बयान पर आपत्ति व्यक्त नहीं की है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि भविष्य में पाकिस्तान की आतंकवाद से लड़ाई किस किस्म की होगी।
पेशावर में स्कूली बच्चों
की हत्या के बाद सवाल पैदा होता है कि क्या पाकिस्तान अब आतंकवादियों के खिलाफ कमर
कस कर उतरेगा? वहाँ की जनता कट्टरपंथियों को खारिज कर देगी? क्या
उन्हें 26/11 के मुम्बई हमले और इस हत्याकांड में समानता
नज़र आएगी? तमाम भावुक संदेशों और आँसू भरी कहानियों के बाद
भी लगता नहीं कि इस समस्या का समाधान होने वाला है। तहरीके तालिबान के खिलाफ सेना
अभियान चलाएगी। उसमें भी लोग मरेंगे, पर यह अभियान आतंकवाद के खिलाफ नहीं होगा। उन
लोगों के खिलाफ होगा जिन्हें व्यवस्था ने हथियारबंद किया, ट्रेनिंग दी और खूंरेज़ी
के लिए उकसाया। इस घटना के बाद पाकिस्तानी अख़बार ‘डॉन’
ने अपने सम्पादकीय में लिखा है, ‘ऐसी घटनाओं
के बाद लड़ने की इच्छा तो पैदा होगी, पर वह रणनीति सामने नहीं आएगी जो हमें चाहिए।
‘फाटा’ (फेडरली एडमिनिस्टर्ड ट्राइबल
एरिया) में फौजी कार्रवाई और शहरों में आतंक-विरोधी ऑपरेशन तब तक मामूली
फायर-फाइटिंग से ज्यादा साबित नहीं होंगे, जब तक उग्रवादियों की वैचारिक बुनियाद
और उनकी सामाजिक पकड़ पर हमला न किया जाए।’
हाल में ट्विटर
ने पाकिस्तानी संगठन लश्करे तैयबा के अमीर हाफिज सईद का ट्विटर अकाउंट सस्पेंड
किया। इसके कुछ समय बाद ही हाफिज सईद के तीन नए अकाउंट तैयार हो गए। इनके मार्फत
भारत विरोधी प्रचार फिर से शुरू हो गया साथ ही ट्विटर के संचालकों के नाम भी
लानतें बेजी जाने लगीं। आईएस के एक ट्वीट हैंडलर की बेंगलुरु में गिरफ्तारी के बाद
जो बातें सामने आ रहीं हैं उनसे लगता है कि ‘सायबर आतंकवाद’ का खतरा उससे कहीं ज्यादा बड़ा है, जितना सोचा जा रहा था।
ब्रिटेन के जीसीएचक्यू (गवर्नमेंट कम्युनिकेशंस हैडक्वार्टर्स) प्रमुख रॉबर्ट हैनिगैन
के अनुसार फेसबुक और ट्विटर आतंकवादियों और अपराधियों के कमांड एंड कंट्रोल
नेटवर्क बन गए हैं। फाइनेंशियल टाइम्स में प्रकाशित एक लेख में उन्होंने बताया कि
आईएस (इस्लामिक स्टेट) ने वैब का पूरा इस्तेमाल करते हुए सारी दुनिया से ‘भावी जेहादियों’ को प्रेरित-प्रभावित
करना शुरू कर दिया है।
केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद देश में कुछ दिनों तक हिन्दुत्व को लेकर शांति रही.
लोकसभा चुनाव के आख़िरी दौर में कुछ मसले ज़रूर उठे थे, लेकिन मोदी ने उन्हें तूल नहीं दिया.
अब ‘कट्टर हिन्दुत्व’ नरेंद्र मोदी सरकार के गले की फाँस बनता दिख रहा है.
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘कट्टरपंथी’ माना जाता है, पर चुनाव अभियान में उन्होंने राम मंदिर की बात नहीं की, बल्कि गिरिराज सिंह और प्रवीण तोगड़िया जैसे नेताओं को कड़वे बयानों से बचने की सलाह दी.
उनके रुख़ के विपरीत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सहयोगी संगठनों से जुड़े कुछ नेता विवादित मुद्दों को हवा दे रहे हैं. जैसे, विहिप नेता अशोक सिंघल ने दावा किया कि दिल्ली में 800 साल बाद 'गौरवशाली हिंदू' शासन करने आए हैं.
साध्वी निरंजन ज्योति और योगी आदित्यनाथ के तीखे तेवरों के बीच साक्षी महाराज का नाथूराम गोडसे के महिमा-मंडन का बयान आया. बयान बाद में उसे वापस ले लिया गया, पर तीर तो चल चुका था.
इधर, उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाइक ने कहा कि अयोध्या में राम मंदिर जल्द से जल्द बनना चाहिए. इसी तरह ‘धर्म जागरण’ और ‘घर वापसी’ जैसी बातें पार्टी की नई राजनीति से मेल नहीं खातीं.
प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी ने साक्षी महाराज के बयान पर एतराज जताया है। साथ ही अपने सहयोगियों
को सलाह दी है कि ऐसा बयान नहीं दें जिससे विवाद पैदा हो और विपक्ष को बैठे-बिठाए
बड़ा मुद्दा मिल जाए। संसद का शीतकालीन सत्र माफीनामों का इतिहास बना रहा है।
पिछले दसेक दिन में कम से कम दो बार प्रधानमंत्री ने संयम बरतने की अपील की है। इस
दौरान तीन सांसद माफी मांग चुके हैं। नाथूराम गोडसे को देशभक्त बताने वाले साक्षी
महाराज के दो बार खेद जताने के बाद ही शुक्रवार को संसद सामान्य हो पाई। इससे पहले
केंद्रीय राज्य मंत्री निरंजन ज्योति और तृणमूल कांग्रेस के कल्याण बनर्जी को भी
माफी मांगनी पड़ी थी।
बदलाव लाने का एक तरीका होता है ‘चेंज लीडर्स’ तैयार करो। ऐसे
व्यक्तियों और संस्थाओं को बनाओ, जो दूसरों को प्रेरित करें। इस सिद्धांत पर हमारे
देश में ‘आदर्शों’ के ढेर लग गए हैं।
आदर्श विद्यालय, आदर्श चिकित्सालय, आदर्श रेलवे स्टेशन, बस स्टेशन से लेकर आदर्श
ग्राम तक। सैद्धांतिक रूप से यह उपयोगी धारणा है, बशर्ते इसे लागू करने का कोई ‘आदर्श सिद्धांत’ हो। विकास की वास्तविक समस्या
अच्छी नीतियों को खोजने की नहीं, राजनीतिक प्रक्रिया को खोजने की है। राजनीति सही है, तो सही नीतियाँ अपने आप बनेंगी। खराब संस्थाओं
के दुष्चक्र को तोड़ने का एक रास्ता है आदर्श संस्थाओं को तैयार करना। कुछ दशक पहले अमेरिकी
अर्थशास्त्री पॉल रोमर ने व्यवस्थाओं को ठीक करने का एक समाधान सुझाया यदि आप अपना
देश नहीं चला सकते तो उसे किसी दूसरे को सब कॉण्ट्रैक्ट कर दीजिए। उन्होंने अपनी
अवधारणा को नाम दिया “चार्टर सिटीज़।” देश अपने यहाँ खाली ज़मीन विदेशी ताकत को सौंप
दें, जो नया शहर बसाए और अच्छी
संस्थाएं बनाए। एकदम बुनियाद से शुरू करने पर अच्छे ग्राउंड रूल भी बनेंगे।
हमें आदर्श गाँव और आदर्श विद्यालय क्यों चाहिए? क्योंकि सामान्य तरीके से गाँवों का विकास नहीं
होता। वे डराने लगे हैं। पहले यह देखना होगा कि क्या गाँव डराते हैं? नरेंद्र मोदी की सरकार ने
पहले 100 स्मार्ट सिटीज़ की अवधारणा दी और अब ‘आदर्श ग्राम योजना’ दी है। बदलाव लाने का आइडिया अच्छा है बशर्ते वह लागू हो। इस साल जुलाई में
आंध्र प्रदेश से खबर मिली थी कि शामीरपेट पुलिस ने एक मुर्गी फार्म पर छापा मारकर
रेव पार्टी का भंडाफोड किया है। मुर्गी फार्म पर मुर्गियाँ नहीं थीं। अलबत्ता कुछ नौजवानों के सामने औरतें उरियाँ (नग्न) रक़्स कर
रही थीं। इस रेव पार्टी से पुलिस ने 14 नौजवानों को गिरफ्तार किया। शामीरपेट
हैदराबाद और सिकंदराबाद के जुड़वाँ शहरों से 25 किमी दूर बसा शहर है। यह शहर कभी
गाँव होता था। समाजशास्त्री और साहित्यकार श्यामाचरण दुबे ने इस गाँव में पचास के
दशक में उस्मानिया विवि के तत्वावधान में एक सामाजिक अध्ययन किया था। उसके आधार पर
उन्होंने अपनी मशहूर पुस्तक ‘इंडियन विलेज’ लिखी थी। उस किताब के अंतिम वाक्यों में उन्होंने लिखा, ‘कहा नहीं जा सकता कि शताब्दी के अंत तक शामीरपेट की नियति
क्या होगी। संभव है वह विकराल गति से बढ़ते महानगर का अर्ध-ग्रामीण अंतः क्षेत्र
बन जाए...।’ सन 2014 में उनकी बात सच लगती है।
गाँव को लेकर
हमारी धारणाओं पर अक्सर भावुकता का पानी चढ़ा रहता है। ‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है’ जैसी बातें कवि
सम्मेलनों में अच्छी लगती हैं। किसी गाँव में जाकर देखें तो कहानी दूसरी मिलेगी। गाँव
माने असुविधा। महात्मा गांधी का कहना था, ‘भारत का भविष्य
गाँवों में छिपा है।’ क्या बदहाली और बेचारगी
को भारत का भविष्य मान लें? गाँव केवल छोटी सी
भौगोलिक इकाई नहीं है। हजारों साल की परम्परा से वह हमारे लोक-मत, लोक-जीवन और
लोक-संस्कृति की बुनियाद है। सामाजिक विचार का सबसे प्रभावशाली मंच। पर ग्राम
समुदाय स्थिर और परिवर्तन-शून्य नहीं है। वह उसमें हमारे सामाजिक अंतर्विरोध भी झलकते
हैं। हमारा लोकतंत्र पश्चिम से आयातित है। अलबत्ता 73 वे संविधान संशोधन के बाद
जिस पंचायत राज व्यवस्था को अपने ऊपर लागू करने का फैसला किया, उसमें परम्परागत
सामाजिक परिकल्पना भी शामिल थी, जो व्यवहारतः लागू हो नहीं पाई है।