पृष्ठ

Sunday, September 28, 2014

मोदी का ‘ग्लोबल कनेक्ट’

यह लेख नरेंद्र मोदी के संयुक्त राष्ट्र महासभा के भाषण के पहले लिखा गया था। महासभा के भाषणों का व्यावहारिक महत्व कोई खास नहीं होता। भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर को लेकर कहा-सुनी चलती है। भारत मानता है कि यह द्विपक्षीय प्रश्न है, इसे अंतरराष्ट्रीय मंच पर उठाया नहीं जाना चाहिए। पर सच है कि इसे भारत ही अंतरराष्ट्रीय मंच पर लेकर गया था। पाकिस्तान ने हमेशा इसका फायदा उठाया और पश्चिम के साथ अच्छे सम्पर्कों का उसे फायदा मिला। पश्चिमी देश भारत को मित्र मानते हैं पर सामरिक कारणों से पाकिस्तान को वे अपने गठबंधन का हिस्सा मानते हैं। सीटो और सेंटो का जब तक वजूद था, पाकिस्तान उनका गठबंधन सहयोगी था भी। आने वाले वर्षों में भारत को अपने आकार और प्रभावशाली अर्थ-व्यवस्था का लाभ मिलेगा। पर देश की आंतरिक राजनीति और हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को प्रौढ़ होने में समय लग रहा है। हमारी विकास की गति धीमी है। फैसले करने में दिक्कतें हैं। बहरहाल नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत दुनिया से कुछ खरी बातें कहने की स्थिति में आ गया है। यह बात धीरे-धीरे ज्यादा साफ होती जाएगी।


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिका आने के ठीक पहले वॉल स्ट्रीट जनरल के लिए लेख लिखा है। इस लेख में उन्होंने अपने सपनों के भारत का खाका खींचा है साथ ही अमेरिका समेत दुनिया को भारत में निवेश के लिए आमंत्रित किया है। उन्होंने लिखा है, कहते हैं ना काम को सही करना उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना सही काम करना। अमेरिका रवाना होने के ठीक पहले दिल्ली में और दुनिया के अनेक देशों में एक साथ शुरू हुए मेक इन इंडिया अभियान की शुरुआत की थी। इस अभियान के ठीक एक दिन पहले भारत के वैज्ञानिकों ने मंगलयान अभियान के सफल होने की घोषणा की। संयोग है कि समूचा भारत पितृ-पक्ष के बाद नव-रात्रि मना रहा है। त्योहारों और पर्वों का यह दौर अब अगले कई महीने तक चलेगा।

Saturday, September 27, 2014

न्यूक्लियर डील के पेचो-ख़म

पहले जापान, फिर चीन और अब अमेरिका के साथ बातचीत की बेला में भारतीय विदेश नीति के अंतर्विरोध नज़र आने लगे हैं। सन 2005 के भारत-अमेरिका सामरिक सहयोग के समझौते के बाद सन 2008 के न्यूक्लियर डील ने दोनों देशों को काफी करीब कर दिया था। इसी डील ने दोनों के बीच खटास पैदा कर दी है। विवाद की जड़ में है सिविल लायबिलिटी फॉर न्यूक्लियर डैमेज एक्ट 2010 की वे व्यवस्थाएं जो परमाणु दुर्घटना की स्थिति में मुआवजा देने की स्थिति में उपकरण सप्लाई करने वाली कम्पनी पर जिम्मेदारी डालती हैं। खासतौर से इस कानून की धारा 17 से जुड़े मसले पर दोनों देशों के बीच सहमति नहीं है। यह असहमति केवल अमेरिका के साथ ही नहीं है, दूसरे देशों के साथ भी है। जापान के साथ तो हमारा कुछ बुनियादी बातों को लेकर समझौता ही नहीं हो पा रहा है।

Thursday, September 25, 2014

मंगलयान माने रास्ता इधर से है

संयोग से मंगलयान की सफलता और 'मेक इन इंडिया' अभियान की खबरें एक साथ आ रहीं हैं. पिछले साल नवम्बर में जब मंगलयान अपनी यात्रा पर निकला था, तब काफी लोगों को उसकी सफलता पर संशय था. व्यावहारिक दिक्कतों के कारण भारत ने इस यान को पीएसएलवी के मार्फत छोड़ा था. इस वजह से इसने अमेरिकी यान के मुकाबले ज्यादा वक्त लगाया और अनेक जोखिमों का सामना किया. हालांकि यह बात कहने वाले आज भी काफी हैं कि भारत जैसे गरीब देश को इतने महंगे अंतरिक्ष अभियानों की जरूरत नहीं है, पर वे इस बात की अनदेखी कर रहे हैं कि अंतरिक्ष तकनीक के साथ स्वास्थ्य, शिक्षा और संचार की तमाम तकनीकें जुड़ी हैं, जो अंततः हमारे जन-जीवन को बेहतर बनाने में मददगार होंगी. फिलहाल सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत की अंतरिक्ष तकनीक के लिए विकासशील देशों का बहुत बड़ा बाज़ार तैयार है. हमारे पड़ोसी देश श्रीलंका, मालदीव, बांग्लादेश और नेपाल तक अपने उपग्रह भजना चाहते हैं. चूंकि उनके पास यह तकनीक नहीं है, इसलिए ज्यादातर देश चीन की ओर देख रहे हैं. मंगलयान की सफलता ने भारत की एक नई तकनीकी खिड़की खोली है.

Friday, September 19, 2014

चीन से रिश्ते तो बनेंगे, पर भरोसा बनाने में वक्त लगेगा

हालांकि जून 1954 में चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई का नागरिक अभिनंदन किया गया था। उसे भी शामिल कर लें तब भी आज तक चीन के किसी नेता का भारत में ऐसा स्वागत नहीं हुआ जैसा राष्ट्रपति शी जिनपिंग का हुआ है। नेहरू युग में गढ़े गए हिंदी-चीनी भाई-भाई के नारे की हवा सन 1962 में निकल गई। उसके बाद से भारत के लोगों के मन में चीन को लेकर गहरा संशय है। इसीलिए 70 करोड़ डॉलर के सालाना कारोबार के बावजूद दोनों देशों के बीच सीमा पर जारी तनाव हमें सबसे बड़ी समस्या लगता है। हमारे संशय के वाजिब कारण हैं और जब तक वे हैं हम चीन पर पूरा भरोसा नहीं करेंगे।

मोदी सरकार ने सीमा पर फैली इस धुंध को ही दूर करने की कोशिश की है। सच यह है कि वैश्विक मंच पर चीन हमारा प्रतिद्वंद्वी बना रहेगा, पर इसका मतलब दुश्मनी नहीं है। शी जिनपिंग के पहले सन 2005 और 2010 में चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ की भारत यात्रा काफी नाटकीय थी। जियाबाओ को दोनों देशों के रिश्तों को पटरी पर लाने का श्रेय जाता है। उनकी 2005 की यात्रा के बाद 2006 में राष्ट्रपति हू जिनताओ भी भारत आए थे, पर रिश्तों को नाटकीय अंदाज में सरस बनाने का काम जियाबाओ ने ही किया। संस्कृत-श्लोकों को उद्धृत करने से लेकर हजारों साल पुराने सांस्कृतिक रिश्तों का उन्होंने उसी तरह इस्तेमाल किया था। इस बार मोदी ने उन्हें साबरमती की यात्रा कराकर भारत की सॉफ्टपावर से रूबरू कराया। हमने भारत को अभी दुनिया में ठीक से शोकेस नहीं किया है। उसका समय भी आ रहा है। 

इस यात्रा मात्र से चीन हमारा प्यारा दोस्त नहीं बन गया। व्यावहारिक राजनय का तकाज़ा है कि हम वक्त की आवाज़ को सुनें। शी जिनपिंग की इस यात्रा से पहले उम्मीद जाहिर की जा रही थी कि वे लगभग 100 अरब डॉलर के निवेश की घोषणा करेंगे। मोदी की यात्रा के दौरान जापान ने 35 करोड़ डॉलर के निवेश की घोषणा की थी। पर चीन ने अगले पाँच साल में 20 करोड़ डॉलर के निवेश की घोषणा की है। हाँ इस यात्रा की उपलब्धि है भारत-चीन रिश्तों पर जमी बर्फ का टूटना। सीमा के मामले को मजबूती और सफाई के साथ रखने की जरूरत है। यदि चीनी सेना मानती है कि वह अपने इलाके की चौकसी करती है तो उसे उन अपने नक्शों को मुहैया कराना होगा।
नरेंद्र मोदी ने कहा, ‘मैंने सीमा के इर्द-गिर्द की घटनाओं पर चिंता से चीनी राष्ट्रपति को अवगत कराया है। वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर स्पष्टता की जरूरत है। चीन की वीजा नीति के साथ ही पानी के मुद्दे पर चिंता व्यक्त की। इनका समाधान संबंधों को और मजबूत बनाएगा। 

Tuesday, September 16, 2014

कमंडल की प्रयोगशाला फेल

 मंगलवार, 16 सितंबर, 2014 को 14:24 IST तक के समाचार
मोदी और मुलायम
विधानसभा की जिन 33 सीटों पर उप चुनाव हुए थे, उनका लोकसभा चुनाव परिणामों के आधार पर फैसला होता तो इनमें से 25 सीटें भाजपा को मिलनी चाहिए थीं.
परिणामों से ज़ाहिर है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जो ‘लहर’ बनी थी, वह लुप्त हो चुकी है. और दूसरे उत्तर प्रदेश को ‘प्रयोगशाला’ बनाने की भगवा कोशिश फेल हुई है.
फिर भी इसे मोदी सरकार के प्रति जनता की प्रतिक्रिया मानना जल्दबाज़ी होगी. लोकसभा चुनाव के मुद्दे-मसले और मुहावरे इन चुनावों में नहीं थे.
फीका मतदान भी इसका प्रमाण है. दूसरी ओर भाजपा को पश्चिम बंगाल और असम में सफलता मिलना नई परिघटना है. उसके क्षेत्र का विस्तार हो रहा है.

पढ़िए उप चुनाव के नतीजों पर प्रमोद जोशी का विश्लेषण विस्तार से

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सफलता चुनावी गणित का परिणाम है. पार्टी इस चुनाव में भाजपा-विरोधी वोटों को बिखरने से रोकने में कामयाब हुई. यह नहीं कि उत्तर प्रदेश का वोटर अखिलेश सरकार के प्रदर्शन और प्रदेश में बिजली की किल्लत और कानून-व्यवस्था की स्थिति से संतुष्ट है.
मुलायम और अखिलेश
माना जा सकता है कि मोदी के पक्ष में वोट डालने वाले इस बार बाहर नहीं निकले. उन्हें इन चुनाव में जीत हासिल करने की कोई बड़ी चुनौती दिखाई नहीं दी. उत्तर प्रदेश का सामाजिक गणित पिछले महीने के बिहार-प्रयोग की तरह सफल साबित हुआ.

गैर-भाजपा मोर्चे की उम्मीदें

इसका मतलब है कि यदि सांप्रदायिकता विरोध के आधार पर राजनीतिक एकता कायम हो तो उसे सफलता मिल सकती है. गुजरात और राजस्थान से कांग्रेस के लिए संदेश है कि हमने आपका साथ पूरी तरह छोड़ा नहीं है. वसुंधरा राजे की सरकार के लिए तीन सीटें हारना अशुभ संकेत है.
उत्तर प्रदेश की जिन 11 सीटों पर चुनाव हुए वे भाजपा की सीटें थीं. इनमें हार का असर पार्टी के प्रदेश संगठन और स्थानीय नेतृत्व पर पड़ेगा.
दूसरी ओर समाजवादी पार्टी की ‘जान में जान’ आई है. लोकसभा चुनाव में भारी हार से पार्टी ने सबक लिया और मुलायम सिंह यादव ख़ुद आम चुनाव की तरह सक्रिय रहे. एक-एक सीट की रणनीति उन्होंने खुद बनाई. आमतौर पर मुख्यमंत्री उपचुनाव के लिए प्रचार नहीं करते लेकिन अखिलेश यादव ने पूरा समय इन चुनाव को दिया.

Sunday, September 14, 2014

भाषा, पत्रकारिता और हिन्दी समाज के रिश्ते बिखर रहे हैं

हिंदी पत्रकारिता का हिंदी से क्या रिश्ता है?

प्रमोद जोशी
पूर्व संपादक, हिन्दुस्तान
हिंदी के नाम पर हम दो दिन खासतौर से मनाते हैं। पहला हिंदी पत्रकारिता दिवस, जो 30 मई 1826 को प्रकाशितहिंदी के पहले साप्ताहिक अख़बार ‘उदंत मार्तंड’ की याद में मनाया जाता है और दूसरा हिंदी दिवस जो संविधान में हिंदी कोसंघ की राजभाषा बनाए जाने से जुड़े प्रस्ताव की तारीख 14 सितम्बर 1949 की याद में मनाया जाता है। हिंदी और पत्रकारिता का खास रिश्ता बनता है। उन्हें अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता। संयोग से पत्रकारिता और हिंदी दोनों इन दिनों बड़े बदलावों से गुज़र रहे हैं। और दोनों की गिरावट को लेकर एक बड़े तबके को शिकायत है। हाल के वर्षों में रोमन हिंदी का चलन बढ़ा है। उसके लोकप्रिय होने की वजह को भी हमें समझना होगा।
समय के साथ संसार बदलता है। भाषाएं और उनकी पत्रकारिता भी। हिंदी को भी बदलना है। पर क्या उसमें आ रहे बदलाव स्वाभाविक हैं? बदलाव से आशय है, उसमें प्रवेश कर रहे अंग्रेज़ी के शब्द। मसलन प्रधानमंत्री को प्राइम मिनिस्टर, छात्र को स्टूडेंट और गाड़ी को वेईकल लिखने से क्या भाषा ज्यादा सरल और सहज बनती है? दुनियाभर में अख़बार अपनी भाषा को आसान और आम-फहम बनाने की कोशिश करते हैं, क्योंकि उनका पाठक-वर्ग काफी बड़ा होता है। हिंदी के जिस रूप को हम देख रहे हैं वह डेढ़ सौ से दो सौ साल पुराना है। उदंत मार्तंड की हिंदी और आज की हिंदी में काफी बदलाव आ चुका है। हिंदी के इस स्वरूप की बुनियाद फोर्ट विलियम कॉलेज की पाठ्य-पुस्तकों से पड़ी।

हिन्दी के नए वैश्विक सिपाही : क्या आप उन्हें जानते हैं?


मोदी सरकार सोशल मीडिया के मार्फत देश की जनता से जुड़ना चाहती है। और यह भी कि नरेन्द्र मोदी ने हिन्दी को राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक संवाद की भाषा बना दिया। राजदीप सरदेसाई, अर्णब गोस्वामी, सागरिका घोष से लेकर बरखा दत्त तक सब हिन्दी में बोलने लगे। महात्मा गांधी से लेकर नरेन्द्र मोदी तक जो हिन्दी में बोला वह भारत से जुड़ा और जो नहीं बोला वह कटा रहा। पर यह कैसी हिन्दी? कौन है जो इस हिन्दी का पालनहार है?

किसी भी भाषा की जन-संचार, शिक्षा और विचार-विमर्श में जो भूमिका है वह उसके कद को भी निर्धारित करती है। अंग्रेजी को विश्व-भाषा बनने में कई सदियाँ लगीं। इसमें दो राय नहीं कि उसके आर्थिक महत्व ने उसके सामाजिक सम्मान को कायम किया। हम अपने देश में अंग्रेजी का बोल-बाला सिर्फ इसलिए देख रहे हैं क्योंकि जो अंग्रेजी बोलता है उसका रसूख है। नौकरी पानी है तो अंग्रेजी बोलो। हिन्दी जिनकी मातृ-भाषा है उनके मन में अपनी भाषा के प्रति सम्मान है, पर वे जानते हैं कि इससे पेट नहीं भरता। बावजूद इसके उसका अपना एक अलग प्रभाव-क्षेत्र है। खासतौर से मनोरंजन और राजनीति में। एक माने में हिन्दी का असीम विस्तार हो रहा है, पर दूसरी और उसे लेकर हमारे मन में ग्लानि भाव भी है। हिन्दी की दिलचस्पी ज्ञान-विज्ञान, दर्शन, इतिहास, कला और विमर्श में नहीं है।

कांग्रेस : अबके डूबे तो...

हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावों की तारीख आने के साथ देश के राजनीतिक-मंथन का अगला दौर शुरू हो गया है। इस दौर में भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों की ताकत और कमज़ोरियों का परीक्षण होगा। बिहार और उत्तर प्रदेश के उपचुनावों से निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते। बिहार में कांग्रेस, जदयू और राजद के महागठबंधन ने बेशक भाजपा-विरोधी विरोधी मोर्चे की सम्भावनाओं की राह दिखाई है, पर यह राष्ट्रीय प्रवृत्ति नहीं हो सकती। उत्तर प्रदेश के उप-चुनावों से बसपा ने अलग होकर सपा और कांग्रेस को कोई संदेश दिया है या भाजपा को रोकने की उत्तर प्रदेश रणनीति की और इशारा किया है यह चुनाव परिणाम आने के बाद ही कहा जा सकेगा। पर इसमें दो राय नहीं कि सबसे ज्यादा फज़ीहत जिस पार्टी की है वह है कांग्रेस। देखना यह है कि लोकसभा चुनाव के दौरान पैदा हुई मोदी-लहर अभी प्रभावी है या नहीं। अलबत्ता इन दोनों राज्यों में प्रचार के लिए मोदी जाने वाले हैं। उनके मुकाबले कांग्रेस के पास सोनिया और राहुल की जोड़ी है। क्या वह काम करेगी?

Thursday, September 11, 2014

दिल्ली-गतिरोध अब टूटना चाहिए


हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून
दिल्ली में लोकतांत्रिक सरकार बननी चाहिए। यह काम फौरन नहीं हो सकता तो चुनाव कराने चाहिए। पिछले दो महीने से जो सुगबुगाहट सुनाई पड़ रही है वह खत्म होनी चाहिए। यदि भाजपा को आम आदमी पार्टी के कुछ विधायकों से समर्थन मिलने की आशा है तो उसे साफ सामने आना चाहिए। आम आदमी पार्टी को लगता है कि वह सरकार बना सकती है तो उसे गम्भीरता के साथ दुबारा कांग्रेस के पास जाकर यह साफ करना चाहिए कि हम गम्भीरता से सरकार चलाना चाहते हैं। पिछले सात महीने से जिस तरह से दिल्ली में शासन चल रहा है वह भी ठीक नहीं। 
बहरहाल कोई हैरत नहीं कि किसी भी वक्त  लेफ्टिनेंट गवर्नर नजीब जंग भारतीय जनता पार्टी को सरकार बनाने का न्योता दे दें। फिलहाल गतिरोध टूटना चाहिए और आम आदमी पार्टी को उसकी तार्किक परिणति की और जाना चाहिए। ताज़ा खबर है कि भाजपा नेतृत्व की पेशकश को नरेंद्र मोदी ने हरी झंडी दे दी है। अब सरकार बनी तो पहला सवाल यह होगा कि दिसम्बर में पार्टी ने हाथ क्यों खींच लिया था? और यह कि अब बहुमत जुटाने की कीमत वह क्या देगी? नैतिक दृष्टि से भाजपा इस फैसले को सही नहीं ठहरा पाएगी, पर व्यावहारिक रूप से इसके अलावा दूसरा कोई रास्ता दिल्ली के असमंजस को तोड़ने के लिए उपलब्ध नहीं है। भाजपा के कुछ पुराने हारे हुए नेताओं के अलावा कोई नहीं चाहता कि दुबारा चुनाव हों।

आपका विचार, हमारा कारोबार

सोशल मीडिया पर इन दिनों किताब पर चर्चा है. किताब माने किताब. इसे कुछ लोग मेरी पसंदीदा दस किताबेंशीर्षक देकर अपनी राय दे रहे हैं या ले रहे हैं. अगस्त के आखिरी दो हफ्तों में फेसबुक ने अपनी ओर से एक सर्वे किया था, जिसमें एक लाख 30 हजार सैम्पल अपडेटों की मदद से यह जानने की कोशिश की थी कि लोगों की दस सबसे पसंदीदा किताबें कौन सी हैं. इसके सहारे फेसबुक ने सौ किताबों की सूची तैयार की. इस सूची को बनाने के पहले उसने जवाब देने वालों से कहा कि ज्यादा देर सोचे बगैर और ज्यादा गहराई में जाए बगैर तुरत-फुरत जवाब दो. उद्देश्य यह जानना था कि लोगों के मन में कौन सी किताब बैठी है. जरूरी नहीं कि वह महान साहित्यिक रचना हो या कोई महत्वपूर्ण दार्शनिक ग्रंथ हो. इस सर्वे में शामिल सबसे ज्यादा लोग अमेरिकी थे 63.7 फीसदी, दूसरे नम्बर पर भारतीय थे 9.3 फीसदी और तीसरे नम्बर पर यूके के थे 6.3 फीसदी. प्रतिभागियों की औसत उम्र 37 थी.

Monday, September 8, 2014

सिर्फ लिटरेसी नहीं, टेक-लिटरेसी

साक्षरता की अवधारणा ने तभी जन्म लिया जब अक्षर का आविष्कार हुआ. अक्षर के पहले भाषा, बोली और नज़र आने वाले चिह्नों का आविष्कार हुआ था. जो लोग उस नए ज्ञान से लैस नहीं थे, वे निरक्षर थे. यह बात ईसा के आठ से दस हजार साल पहले की है. दुर्भाग्य है कि निरक्षरता आज भी कायम है. खासतौर से हमारे जैसे समाज में. यूनेस्को के अनुसार साक्षरता का मतलब है विभिन्न संदर्भों में मुद्रित और लिखित सामग्री को पहचान पाना, समझ पाना, गिन पाना और दूसरों को बता पाना. यानी यह केवल अक्षर ज्ञान नहीं है. इसका अर्थ निरंतर बदल रहा है. अपने समुदाय से लेकर वैश्विक गतिविधियों तक को समझना और अपनी भागीदारी को सुनिश्चित करना अब इसमें शामिल है. यह टेक्नोट्रॉनिक लिटरेसी और डिजिटल डिवाइड का ज़माना है. बेशक हम अभी अक्षर ज्ञान के दौर में हैं, पर हमें साक्षरता के नए इलाकों की सैर भी करनी होगी.

साक्षरता का मतलब
अनपढ़ या निरक्षर होना सामाजिक-आर्थिक विषमता का पहला प्रतीक है. इसका मतलब यह भी है कि व्यक्ति दुनिया के तौर-तरीकों से वाकिफ नहीं है. विज़ुअल लिटरेसी का मतलब है फोटो, नक्शे, वीडियो और बॉडी लैंग्वेज का मतलब समझ पाना. आप कल्पना करें दो सौ साल पहले दुनिया से गया कोई व्यक्ति आज वापस आए और उसे सिनेमा दिखाया जाए तो वह क्या समझ पाएगा. एक फ्रेम के लांग शॉट में हाथी और क्लोज़अप में मक्खी को देखने-समझने में हमें जितनी आसानी है, वह दो सौ साल पुराने व्यक्ति के लिए उतनी ही मुश्किल भरी होगी. उसे सिनेमा की भाषा समझ में नहीं आएगी. साउंड ट्रैक का इस्तेमाल उसकी कल्पना के परे होगा.

शहरी और ग्रामीण जीवन में बढ़ रहा है फासला
वैश्विक प्रतीक तेजी से बदल रहे हैं. शहरी जीवन से अपरिचित व्यक्ति के लिए कार के हॉर्न की आवाज का कोई मतलब नहीं. एम्बुलेंस के सायरन का मतलब भी वह नहीं समझता, ट्रैफिक कांस्टेबल के संकेतों का उसके लिए कोई अर्थ नहीं. मेट्रो का दरवाजा खुलने और बंद होने की सूचना देने वाली आवाजें उसके लिए कोई माने नहीं रखतीं. दूर से आती रेलगाड़ी के वेग का उसे अनुमान नहीं होता. शहरी जीवन ने समय के साथ जो बॉडी लैंग्वेज तैयार की है उससे उसका परिचय नहीं है. वह पढ़ना जानता भी हो तो शायद इलेक्ट्रॉनिक टेक्स्ट पढ़ना नहीं जानता. हमारी लिपियों में हाल में स्माइली शामिल हो गई और हमें पता नहीं चला. पर तमाम लोग आज भी उनसे अपरिचित हैं. वे साक्षर हैं, पर मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक टेक्स्ट के बदलावों से परिचित नहीं हैं. यानी साक्षरता अब सिर्फ संख्याओं और अक्षरों के ज्ञान तक सीमित नहीं है. अब केवल लिखने या पढ़ने से काम नहीं होता. आपको सुविधाएं चाहिए तो किसी न किसी तकनीक की मदद लेनी होगी.

Sunday, September 7, 2014

मोदी का बच्चों से संवाद

नरेन्द्र मोदी की हर बात पर दो किस्म की प्रतिक्रियाएं होती हैं। भारी समर्थन, घनघोर विरोध। शिक्षक दिवस पर उनके कार्यक्रम पर भी प्रतिक्रियाएं पूर्व-निर्धारित थीं। उनका भाषण जितने ध्यान से उनके समर्थक सुनते हैं उससे ज्यादा गौर से उनके विरोधी सुनते हैं। वे उसे खारिज करते हैं, पर अनदेखी नहीं करते। सोशल मीडिया पर लगी झटपट-टिप्पणियों की झड़ी से यह बात साबित होती है। मोदी जब बोलते हैं तब सारा देश सुनता है। भले ही नापसंद करे। उन्होंने नकारात्मक प्रचार को जिस तरह अपने पक्ष में किया है उसे देखना भी रोचक है।

Friday, September 5, 2014

लोकतंत्र माने केवल बहुजनाधिपत्य नहीं

दिसम्बर 1992 में जिन दिनों अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराई गई थी तब यह बात कही जा रही थी कि देश के बहुमत की आस्था का सवाल है तो इसमें आश्चर्य की बात क्या है। तभी थोड़े से लोगों ने यह भी कहा था कि लोकतंत्र केवल बहुमत की आवाज़ पर चलने वाली व्यवसथा नहीं है। सम्भव है केवल एक व्यक्ति की आवाज 99 आवाजों के मुकाबले ज्यादा समझदारी की हो। उसे सुनने और उसपर विचार करने वाली व्यवस्था का नाम लोकतंत्र है। लोकतंत्र के और भी तमाम मतलब हैं। मोटे तौर पर समझदारी, विज्ञान सम्मत, मानवीय और तार्किक व्यवस्था ही बेहतर लोकतंत्र की ओर ले जाती है। इस लोकतंत्र का विकास हो ही रहा है। हाल में स्वतंत्रता दिवस पर साप्ताहिक पत्रिका आउटलुक ने इस सवाल पर केंद्रित विशेषांक निकाला था, जिसमें सबा नकवी का मुख्य लेख था। दूसरे लेख भी इस बात को लेकर थे कि बहुसंख्यावाद का लोकतंत्र से क्या रिश्ता है।

पर बात केवल नम्बर तक सीमित नहीं हो सकती। सवाल है कि नम्बर नहीं तो क्या? लोकतंत्र के बरक्स तानाशाही है जो अल्पसंख्यावाद की सबसे बेहतरीन प्रतीक है। फिर अल्पसंख्यकों की परिभाषा करना बड़ा मुश्किल है। एक बात यह भी कही गई कि जब नरेंद्र मोदी की सरकार आई तभी बहुसंख्यक की तानाशाही पर नज़र क्यों पड़ी? यह विसंगति तो पहले से है। सन 1975 में तानाशाही फैसले करने वाली सरकार भी जबर्दस्त लोकतांत्रिक ज्वार के सहारे उभर कर आई थी। भारत में प्रायः मुसलमानों को मसले को अल्पसंख्यकों का मसला माना जाता है। पर योगी आदित्यनाथ कहते हैं कि जहाँ मुसलमान एक बड़ी तादाद में रहते हैं झगड़े वहाँ होते हैं। इसका दूसरा मतलब यह भी निकलता है कि अल्पसंख्यक जब अपनी हित-रक्षा की बात सोचते हैं और उसके लिए जद्दो-जहद करते हैं तब टकराव होता है। खामोश रहें तो नहीं होता। सवाल यह भी है कि कौन हमें बताता है कि हमारा धर्म खतरे में है? और क्यों बताता है? धर्म की भूमिका हमारे जीवन में कितनी है? भारत में सेक्युलरिज्म की परिभाषा भी अस्पष्ट है।

आउटलुक के विशेषांक के बाद 5 सितम्बर के हिंदू में ज़ोया हसन का एक विचारोत्तेजक लेख प्रकाशित हुआ है। बेहतर हो कि इन लेखों को पढ़कर हम विचार करें कि हमारा लोकतंत्र कैसा हो। इन लेखों के लिंक नीचे दिए हैं। सामग्री पठनीय और विचारणीय है।

Numerocracy

Will the majoritarian project subvert the very democratic tradition that has brought the BJP to power?

SABA NAQVI

Some weeks ago, on a hot, humid evening, there was a book release in Delhi’s Constitution Club, a short walk from Parliament House where the Narendra Modi government was engaged in its first session. Union cabinet minister for micro, small and medium enterprises Kalraj Mishra had written Hindutva: Ek Jeevan Shaili (Hindutva: A Way of Life) in the twilight of his political career. At 73, Mishra—one of the old hands from Uttar Pradesh—is one of the more fortunate 70-plus leaders of the Bharatiya Janata Party to be accommodated in the Modi cabinet. But with 75 being the cut-off mark, he will probably last no more than two years. Good reason for the soft-spoken Mishra to be engaged in philosophical and ideological pursuits.

So there he was, flanked by the high priests of the mythical Hindu nation. Master of ceremonies was Yogi Adityanath, four-term BJP MP from Gorakhpur (and next in line to take over the influential Gorakhnath math) plus founder of the Hindu Yuva Vahini. All the speakers basically said that the inconve­nient word “secular” does not mean that Hin­dus have to be shy about their religion. Star speaker Baba Ramdev waxed eloquent: “People ask me, will Modi change anything? I believe he is the individual who will take India to a new direction.” What could that direction be? The yoga guru’s answer: “Maths, science, social system, ecosystem, agri­cultural system are all there in Hindutva. The Muslims of India have not come from Saudi Arabia, Iran or Iraq. They are from here, from Hindutva. The Christians have not come from Vatican city, they are from here, from Hindutva. Hinduism is the oldest religion, Islam and Christianity cannot match it, and we are all descendants of Hindus.”
A historical walkthrough of how majoritarianism has made appearances in idea and practice....


Politics without the minorities

ZOYA HASAN
We have two parallel narratives running simultaneously in the first 100 days of the Narendra Modi government. In the first one, as a heroic Prime Minister in total command of his government and party, Mr. Modi is busy revving up the sputtering economy with his decisive leadership and “good governance” much acclaimed by economists, the middle classes, the media, and the twitterati. After taking charge, Mr. Modi has been quick in framing rules and taking some strong decisions: from the announcement to scrap the Planning Commission to calling off Foreign Secretary-level talks with Pakistan to clearing 49 per cent foreign direct investment in insurance to launching the Pradhan Mantri Jan Dhan Yojana with a promise to end “financial untouchability.”
The second narrative unfolding at the same time focusses on the template of majoritarianismdefined by the Sangh Parivar’s principal belief that India is a Hindu nation. The Rashtriya Swayamsevak Sangh (RSS) chief, Mohan Bhagwat, declared that “India is a Hindu state and citizens of Hindustan should be known as Hindus.” Endorsing the RSS view, the Union Minister for Minority Affairs, Najma Heptulla, said, “there is nothing wrong in calling all Indians Hindus,” which she later denied. A similar statement was made by the Bharatiya Janata Party (BJP) MP Yogi Adityanath while opening the Lok Sabha debate on communal violence — “Hindutva is a symbol of Indian nationalism.” That this speech evoked table thumping from his fellow BJP MPs makes it even more significant.

Wednesday, September 3, 2014

बदलती दुनिया की रोशनी में भारत-जापान

नरेंद्र मोदी की जापान यात्रा को भारत के पुनर्जागरण की नजर से देखा जाना चाहिए। बेशक यह मोदी की राजनीतिक उपलब्धि है, पर उससे ज्यादा यह वैश्विक मंच पर भारत के आगमन की घोषणा है। मोदी ने इक्कीसवीं सदी को एशिया की सदी बताया है। इसमें भारत-जापान रिश्तों की सबसे बड़ी भूमिका होगी। साथ ही इसमें चीन एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। मोदी ने क्योटो और वाराणसी के बीच सांस्कृतिक सेतु बनाने की घोषणा करके दोनों देशों के परम्परागत सम्पर्कों को रेखांकित किया है। दोनों देशों के बीच नाभिकीय समझौता फिर भी नहीं हो पाया। अलबत्ता जापान ने कुछ भारतीय कम्पनियों पर लगी पाबंदियाँ हटाने की घोषणा की है। हमें उच्चस्तरीय तकनीक भी चाहिए, जो जापान के पास है। भारत सरकार नए औद्योगिक शहरों को बसाने की योजना बना रही है। हमें इन्फ्रास्ट्रक्चर की कम-खर्च व्यवस्था चाहिए, जिसमें चीन की भूमिका होगी। बहरहाल जापान-यात्रा आर्थिक और सामरिक दोनों प्रकार के सहयोगों की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।