Monday, September 5, 2011

राजनीति में ही है राजनीतिक संकट का हल



दो साल पहले की बात है। प्रेम प्रकाश सिंह उर्फ मुन्ना बजरंगी को किसी सिलसिले में गिरफ्तार किया गया था। तभी उन्होंने कहीं कहा कि मैं राजनीति में आना चाहता हूँ। उनकी माँ को विश्वास है कि उनका बेटा राजनीति में आकर मंत्री बनेगा। कुछ साल पहले फिल्म अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी ने कहीं कहा था कि मैं राजनीति में कभी नहीं आना चाहूँगी। ऐसे शब्दों को हम खोजने की कोशिश करें, जिनके अर्थ सबसे ज्यादा भ्रामक हैं तो राजनीति उनमें प्रमुख शब्द होगा। व्यावहारिक अर्थ में राजनीति अंतर्विरोधों के बीच सामंजस्य बैठाने की कला है। भारत जैसे देश में जहाँ दुनिया के सबसे ज्यादा अंतर्विरोध पाए जाते हैं, इस कला की सबसे ज्यादा ज़रूरत है। संयोग से हमारे यहाँ राजनीति की कमी नहीं है, बल्कि इफरात है। फिर भी हाल के अन्ना हजारे के आंदोलन में सबसे ज्यादा फजीहत राजनीति की हुई। लोगों को लगता है कि यह आंदोलन राजनीति-विरोधी था।

राजनीति को बड़े अर्थ में लें तो जिस आंदोलन की अपनी राजनीति हो वह राजनीति विरोधी कैसे हो सकता है? हम राजनैतिक दलों से निराश हों, हताश हों और उनके तौर-तरीकों के निन्दक हों तब भी वह राजनीति के दायरे से बाहर नहीं है। राजनीति में समाज की श्रेष्ठतम और निकृष्टतम शक्तियाँ साथ-साथ चलतीं हैं। भारत की जनता राजनीति से निराश है तो वह चुनाव के दौरान लम्बी कतारें लगाकर वोट देने क्यों जाती है? गरीब तबके को आज भी राजनीति का सहारा है।

हम राजनीति को सामाजिक यथार्थ से अलग नहीं कर सकते। सामाजिक अंतर्विरोध राजनीति में व्यक्त होते हैं। हमारी वर्णाश्रम व्यवस्था ही अकेली समस्या नहीं है। हर वर्ण के भीतर की हजारों उपजातियाँ अपने आप में अनोखी बात है। यह बात हमारी राजनीति को शेष विश्व से थोड़ा अलग करती है। वोट बैंक निराशा और आशा दोनों का जन्मदाता है। इन वोट बैंकों की संख्या बढ़ेगी। अनेक जातियों के प्रतिनिधि नेता अभी विकसित नहीं हुए हैं। वोट बैंक दोतरफा सुरक्षा भाव पैदा करता है। वोटर के मन में और प्रत्याशी के मन में भी। सामाजिक स्पेक्ट्रम, राजनीतिक परम्पराओं और लोकतांत्रिक संस्थाओं की गाड़ी साथ-साथ चलेगी। जो सिर्फ आर्थिक नज़रिए से देखते हैं, उनकी सामाजिक समझ विकसित होना भी ज़रूरी है। 

देश में एक साथ दो बातें हो रहीं हैं। एक ओर नया मध्यवर्ग सबसे तेजी के साथ उभर रहा है। दूसरी ओर माओवादियों के नाम से दुनिया की सबसे बड़ी बगावत चल रही है। इसकी तुलना चीनी समाज से हो सकती है, पर हमारे पास चीन के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। चीन की साम्यवादी क्रांति ने सबसे नीचे के तबके की स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास जैसी बुनियादी समस्याओं का समाधान किया है। पर राजनीतिक व्यवस्था खुली न होने की वजह से जानकारियाँ अधूरी हैं। हमारे देश का स्वतंत्र और खुला मीडिया जब पूरे देश और समाज की तस्वीर पेश नहीं कर पा रहा है, तब हम चीन के बारे में जानकारी का दावा नहीं कर सकते। चीनी समाज में भी कई तरह की बहुलता है, पर भारत इस मामले में सबसे जटिल देश है।

हमें ऐसा लगता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में हम चीन से बेहतर हैं। हमारे पास लोकतांत्रिक संस्थाएं हैं जो जनता की भावनाओं को सुनती हैं और समाधान करतीं हैं। पिछले दिनों मिस्र और पश्चिम एशिया के देशों में हुई बगावत के संदर्भ में भी यह बात कही गई है। पिछली सदी में दुनिया ने औपनिवेशिक बेड़ियों को टूटते देखा। यह सदी नए राजनीतिक समाज की व्याख्या करेगी। इन सब बातों पर गौर करते वक्त हम आर्थिक शक्तियों के बारे में विचार नहीं कर रहे हैं। पिछले दो दशक पूँजी के वैश्वीकरण की वजह से याद किए जाएंगे। यह वैश्वीकरण अभी पूरा नहीं हुआ है।

संसद का मॉनसून सत्र पूरा होने में अब चार दिन बाकी हैं। पिछले तीन हफ्ते लोकपाल बिल के नाम पर खर्च हो गए। शायद सोमवार को कैबिनेट प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण कानून को ओके कर देगी। अभी बेनामी ट्रांजैक्शंस, रेग्युलेशन ऑफ फैक्टर, पेशन फंड, माइंस अमेंडमेंट, श्रम कानून, बैंकिंग कानून बाकी हैं। साथ ही जीएसटी पर 114 वाँ संविधान संशोधन भी बाकी है। ये ज्यादातर कानून उस आर्थिक उदारीकरण का रास्ता साफ करने के लिए हैं, जिसे हम पूँजी का वैश्वीकरण कहते हैं। कानूनी बदलाव की लम्बी सूची अभी बाकी है।

सामान्य व्यक्ति कानूनी बदलाव को नहीं समझता। वह लोकपाल बिल की बारीकियाँ भी नहीं जानता। उसे संसदीय मर्यादा की समझ भी नहीं है। वह आर्थिक नीतियों के निहितार्थ नहीं जानता। उसे यह सब बातें राजनीति और मीडिया से पता लगतीं हैं। संयोग से दोनों इस वक्त बदलाव के नाज़ुक मोड़ पर खड़े हैं। दुर्भाग्य से दोनों की भाषा में तल्खी है। दोनों की प्राथमिकताएं भावनाओं और आवेशों की आंधियों के हवाले हैं। दोनों की पूँजी है साख। वही मिट्टी में मिली जा रही है। उसे कायम होना चाहिए। 

मंजुल का कार्टून साभार
हाल में त्रिपुरा के एक अखबार ने विकीलीक्स का हवाला देते हुए एक सम्पादकीय लिखा। इसमें जो जानकारियाँ दी गईं थीं उनका खंडन विकीलीक्स काफी पहले कर चुका था। पर इंटरनेट के माध्यम से सूचनाओं की तेज यात्रा जारी है। गलत-सही जिसके जो मन में आ रहा है, वह व्यक्त कर रहा है। आरोपों-प्रत्यारोपों की झड़ी है। ठंडे विचार ठंडे बस्ते में पड़े हैं। अन्ना हजारे भी गांधी की जगह शिवाजी को जगा रहे हैं। हाथ काटने वाली व्यवस्था कायम करने की सलाह दे रहे हैं। सबपर हावी है बचकानापन। गर्म हवाएं चारों ओर हैं। इस संकट से बाहर निकालने के लिए हमें चाहिए परिपक्व राजनीति। वह कहाँ हैं? उसे ढूँढ कर कौन लाएगा? वह आपके आसपास ही है। उसे खोज सकते हैं तो बताएं। 

2 comments:

  1. व्यस्था परिवर्तन का रास्ता जब राजनैतिक आन्दोलन से ही होकर गुजरता है तो क्या इससे दूरी बनाकर ऐसी व्यस्था परिवर्तन किया जा सकता जो टीकाउ है नहीं तो फिर राजनीती से दूरी क्यों
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