Sunday, November 22, 2015

संसदीय भूमिका पर भी बहस होनी चाहिए

संसद का शीत सत्र इस हफ्ते शुरू होगा। हमारी राजनीति में चुनाव और संसदीय सत्र दो परिघटनाएं राजनीतिक सरगर्मियों से भरी रहती है। दोनों ही गतिविधियाँ देश के जीवन और स्वास्थ्य के साथ गहरा वास्ता रखती हैं। चुनाव और संसदीय कर्म ठीक रहे तो काया पलटते देर नहीं लगेगी। पर दुर्भाग्य से देश की जनता को दोनों मामलों में शिकायत रही है। चुनाव के दौरान सामाजिक अंतर्विरोध और व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप चरम सीमा पर होते हैं और संसदीय सत्र के दौरान स्वस्थ बहस पर शोर-शराबा हावी रहता है।

पिछले मॉनसून सत्र में व्यापम घोटाला और ललित मोदी प्रसंग छाया रहा। इस वजह से अनेक सरकारी विधेयक पास नहीं हो पाए। दोनों प्रसंग महत्वपूर्ण थे, पर दोनों मसलों पर बहस नहीं हो पाई। उल्टे पूरे सत्र में संसद का काम ठप रहा। यह पहला मौका नहीं था, जब राजनीति के कारण संसदीय कर्म प्रभावित हुआ हो। अलबत्ता राजनीतिक दलों से उम्मीद की जानी चाहिए कि उन्हें अपनी राजनीति के साथ-साथ राष्ट्रीय हितों का अंदाज भी होता होगा। इस हफ्ते शीत सत्र शुरू होने के पहले सर्वदलीय बैठक होगी। बेहतर हो कि सभी पार्टियाँ कुछ बुनियादी बातों पर एक राय कायम करें। कांग्रेस के नेता आनन्द शर्मा ने कहा है, ‘विधेयक हमारी प्राथमिकता नहीं है। देश में जो हो रहा है उसे देखना हमारी प्राथमिकता है। संसदीय लोकतंत्र केवल एक या दो विधेयकों तक सीमित नहीं हो सकता।’

Saturday, November 21, 2015

गठबंधन-चातुर्य और राजनीति का महा-मंथन

इस साल संसद का मॉनसून सत्र सूखा रहा। पूरे सत्र में सकारात्मक संसदीय कर्म ठप रहा। अब शीत सत्र सामने है। इसमें क्या होने वाला है? सरकार क्या अपने विधेयकों को पास करा पाएगी? क्या वह भारतीय राजनीति के ज्वलंत सवालों का ठीक से जवाब देगी? दूसरी ओर सवाल यह भी है कि क्या विपक्ष एक होकर किसी नई राष्ट्रीय ताकत को तैयार करेगा? बिहार विधान सभा के चुनाव परिणामों से उत्साहित विपक्ष क्या अपनी एकता को संसद में भी साबित करेगा? भाजपा-विरोधी इस राजनीति का नेतृत्व कौन करेगा? यह एकता क्या भविष्य के विधान सभा चुनावों में भी देखने को मिलेगी? 

बिहार-परिणाम के विश्लेषक अब भी इस गुत्थी से उलझे पड़े हैं कि भाजपा की पराजय के पीछे महागठबंधन का जातीय-साम्प्रदायिक गणित था या उसकी असहिष्णु राजनीति। भविष्य की राजनीति का रिश्ता इस सवाल से जुड़ा है। और पूरे देश की राजनीति सोशल इंजीनियरी से जुड़ी है। इस जातीय गणित की अगली महा-परीक्षा अब 2017 के उत्तर प्रदेश चुनाव में होगी। महागठबंधन बिहार की परिस्थितियों से मेल खाता था। देखना होगा कि दूसरे राज्यों में वह किस रूप में बनेगा। और यह भी कि उसका नेतृत्व कौन करेगा?   

बिहार में एनडीए की विफलता और महागठबंधन की सफलता से कांग्रेस प्रफुल्लित जरूर है, पर आने वाले समय में उसके सामने नेतृत्व की चुनौती खड़ी होगी। अब वह जमाना नहीं रहा जब शेर के नेतृत्व में जंगल के सारे जानवर लाइन लगाकर चलते थे। अब सबकी महत्वाकांक्षाएं हैं। जेडीयू का नेतृत्व नीतीश कुमार को नए राष्ट्रीय नेता के रूप में खड़ा करना चाहता है। नीतीश कुमार का शपथ ग्रहण समारोह इसीलिए विपक्ष की एकता के महा-सम्मेलन जैसा बन गया। पर उसके अंतर्विरोध भी छिपे हैं। महागठबंधन के आलोचकों को लालू-नीतीश दोस्ती की दीर्घायु को अब भी लेकर संदेह है।
बिहार में महागठबंधन बनाने में नीतीश कुमार की कोशिशों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। पर जेडीयू की निगाह गैर-कांग्रेस विपक्ष पर है। पार्टी के महासचिव केसी त्यागी ने हाल में कहा है कि जदयू, तृणमूल और आम आदमी पार्टी कई मुद्दों पर समान विचारों वाले हैं और देश में सहयोगात्मक संघवाद को मजबूत करने का समय आ गया है। इस संघवाद को जोड़ने लायक लम्बा धागा कांग्रेस या भाजपा के पास ही है। अतीत में इसमें वाम मोर्चा की भूमिका रही है, जो अभी पृष्ठभूमि में है। वामपंथी सामने आए तो इस मोर्चे के अंतर्विरोध मुखर होंगे।

Friday, November 20, 2015

जेहादियों को फ्रांस का अनोखा जवाब

एक हफ्ते पहले पेरिस में हत्याकांड हुआ, जिसके जवाब में देश के राष्ट्रपति ने आईसिस के खिलाफ युद्ध की घोषणा की. अगले रोज उसकी वायुसेना ने सीरिया के ठिकानों पर हमले तेज कर दिए. हमले में शामिल लोगों को पहचानने की कार्रवाई तेज कर दी गई और बुधवार को इस हमले के मास्टरमाइंड का खात्मा कर दिया गया. हमलों के बाद फ्रांस में तीन दिन के राष्ट्रीय शोक की घोषणा की गई. पेरिस की मेयर ऐन हिडाल्गो ने कहा है कि शहर ने चरमपंथ की बहुत बड़ी क़ीमत चुकाई है. हमलावरों ने उन जगहों को निशाना बनाया जहां सप्ताहांत में युवा जाते हैं. उन्होंने बाद में घोषणा भी की कि हमें इस गलीज संस्कृति से नफरत है.

Sunday, November 15, 2015

आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक संधि में देर क्यों?

रात में भारतीय मीडिया पर लंदन के वैम्बले स्टेडियम की खबरें छाई थीं तो सुबह पेरिस में आतंकवादी हमलों की खबरें आने लगीं। हालांकि इन दोनों घटनाओं का एक-दूसरे से रिश्ता नहीं, पर एक बात शिद्दत से रेखांकित हुई कि अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र के मार्फत एक वैश्विक संधि के लिए दोनों देशों के प्रयासों को शक्ल देने का समय आ गया है। नरेंद्र मोदी और ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड केमरन ने इस बात का उल्लेख किया कि मुम्बई पर हमला हो या लंदन के धमाके दोनों देश आतंकवाद के खतरे से वाकिफ हैं। इसका मुकाबला करने के लिए दोनों एक-जुट हैं। इस यात्रा के दौरान भारतीय राजनीति से जुड़े सवाल भी उठे हैं। अंदेशा है कि इसका इस्तेमाल भारत विरोधी ताकतें अपने हितों के लिए भी करेंगी। अंतरराष्ट्रीय मंच पर इस वक्त भारतीय भूमिका को बढ़ाने की जरूरत है। इसके लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का पुनर्गठन होना चाहिए साथ ही आतंकवाद से निपटने के लिए वैश्विक संधि होनी चाहिए। पेरिस में सौ से ऊपर लोगों की हत्या आतंकवादी आसानी से करने में इसलिए सफल हो पाए क्योंकि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई गोलबंदी की शिकार हो रही है। अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के पीछे संगठित राजशक्तियाँ भी है।

Wednesday, November 11, 2015

मोदी के खिलाफ युद्ध घोषणाएं

 
हिन्दू में केशव का कार्टून
भारतीय जनता पार्टी को यह बात चुनाव परिणाम आने के पहले समझ में आने लगी थी कि बिहार में उसकी हार होने वाली है। इसलिए पार्टी की ओर से कहा जाने लगा था कि इस चुनाव को केन्द्र सरकार की नीतियों पर जनमत संग्रह नहीं माना जा सकता। इसे जनमत संग्रह न भी कहें पर नरेन्द्र मोदी के खिलाफ वोटर की कड़ी टिप्पणी तो यह है ही। इस परिणाम के निहितार्थ और इस पराजय के कारणों पर विवेचन होने लगा है। पार्टी के बुजुर्गों की जमात ने अपनी नाराजगी लिखित रूप से व्यक्त कर दी है। यह जमात नरेंद्र मोदी की तब से विरोधी है जब उन्होंने प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनने के लिए दावेदारी पेश की थी। देखना होगा कि बुजुर्गों की बगावत किस हद तक मोदी को परेशान करेगी।  

Sunday, November 1, 2015

हाशिए पर जाने वाली है कांग्रेस

बिहार में चुनाव अब अंतिम दौर में है। परिणाम चाहे जो हो, उसका राष्ट्रीय राजनीति पर गहरा असर होने वाला है। भारतीय जनता पार्टी के भीतर नेतृत्व को लेकर असमंजस और भाजपा-विरोधी राष्ट्रीय गठबंधन की सम्भावनाएं इस पार या उस पार लगेंगी। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल सामने आ रहे हैं। ममता बनर्जी ने समर्थन किया ही है। उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं। महागठबंधन जीता तो श्रेय किसे मिलेगा? कांग्रेस को, राहुल गांधी को या लालू और नीतीश को? बिहार से आश्चर्यजनक खबरें मिल रहीं हैं कि कांग्रेसी प्रत्याशी लालू-नीतीश की मदद चाहते हैं सोनिया-राहुल की नहीं। परिणाम आने के बाद लालू-नीतीश को अफसोस होगा कि कांग्रेस को इतनी सीटें दी ही क्यों थीं। इस परिणाम की गूँज संसद के शीत सत्र में भी सुनाई पड़ेगी।  जीएसटी, भूमि अधिग्रहण तथा आर्थिक उदारीकरण से जुड़े कानूनों की दिशा का पता भी इससे लगेगा। जब तक राज्यसभा में कांग्रेस की उपस्थिति है वह खबरों में रहेगी, पर उसके बाद?

Thursday, October 29, 2015

गीता क्या रोशनी की किरण बनेगी?

पिछले साल केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद से विदेश नीति से जुड़े मामलों में उन्हें सफलता मिली है, पर पाकिस्तान के साथ रिश्तों में सुधार होने के बजाय तल्खी बढ़ी है. भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में एक-दूसरे के प्रति कड़वाहट है. दोनों तरफ का मीडिया इसमें तड़का लगाता है. ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब नकारात्मक खबर न होती हो. इधर भारत से भटक कर पाकिस्तान चली गई गीता की कहानी से कुछ सकारात्मक पहलू सामने आए हैं. पर पाकिस्तान के उर्दू मीडिया में इसके नकारात्मक पहलू को ज्यादा जगह मिली है.

पाकिस्तान में खबर सुर्खियों में है कि उनके ईधी फाउंडेशन ने भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा दी गई एक करोड़ की धनराशि ठुकरा दी. ईधी फाउंडेशन ने गीता को अपने यहाँ रखा था. उसके स्थापक अब्दुल सत्तार ईधी ने प्रधानमंत्री को उनकी सहृदयता के लिए धन्यवाद देते हुए वित्तीय सहायता अस्वीकार कर दिया. साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि हम किसी प्रकार की सरकारी सहायता नहीं लेते. इस खबर को पाकिस्तान में राष्ट्रवादी स्वाभिमान के रूप में प्रचारित किया जा रहा है, जबकि ईधी फाउंडेशन ने ऐसा नहीं कहा.

Monday, October 26, 2015

पारम्परिक उद्यमों में नई रोशनी

अभिजित बनर्जी और एस्थर ड्यूफ्लो की पुस्तक ‘पुअर इकोनॉमिक्स’ में गरीबों की दशा सुधारने के बाबत उनकी उद्यमिता के बारे में एक अध्याय है। दुनिया के ज्यादातर देशों में छोटे और ऐसे पारम्परिक उद्यमियों की संख्या सबसे बड़ी होती है, जो सैकड़ों साल से चले आ रहे हैं। ज्यादातर नए हुनर किसी पारम्परिक हुनर का नया रूप हैं। भारत जैसे देश में गरीबी दूर करने में सबसे बड़ी भूमिका यहाँ के पारम्परिक उद्यमों की हो सकती है। अक्सर उत्पादन के तौर-तरीकों में बदलाव से पारम्परिक उद्यमों को धक्का लगता है, क्योंकि वे नए तौर-तरीकों को जल्द ग्रहण करने की स्थिति में नहीं होते। ऐसा भी नहीं कि वे उद्यम भावना में कच्चे होते हैं। किताब में उन्होंने लिखा, ‘कई साल पहले एक हवाई यात्रा में हमारे बराबर बैठे एक बिजनेसमैन ने बताया कि 1970 के दशक-मध्य में अमेरिका में एमबीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद जब वह भारत वापस आए तो उनके अंकल वास्तविक उद्यमिता का पाठ पढ़ाने के लिए उन्हें घर से बाहर ले गए।…अंकल चाहते थे कि सड़क के साइडवॉक पर बैठी चार स्त्रियों को गौर से देखूँ।

Sunday, October 25, 2015

लंगड़ाकर क्यों चलती है हमारी राज-व्यवस्था?

अमेरिका का छोटा सा संविधान है, भारत के संविधान का चौथाई भी नहीं। पर वहाँ की राजनीतिक-प्रशासनिक पिछले सवा दो सौ साल से भी ज्यादा समय से बगैर विघ्न-बाधा के चल रही है। संविधान सभा में जब बहस चल रही थी तब डॉ भीमराव आम्बेडकर ने कहा था कि राजनीति जिम्मेदार हो तो खराब से खराब सांविधानिक व्यवस्था भी सही रास्ते पर चलती है, पर यदि राजनीति में खोट हो तो अच्छे से अच्छा संविधान भी गाड़ी को सही रास्ते पर चलाने की गारंटी नहीं दे सकता। पिछले 68 साल में भारतीय सांविधानिक व्यवस्था ने कई मोड़ लिए। इसमें दो राय नहीं कि हमारे पास दुनिया का सर्वश्रेष्ठ संविधान है। पर संविधान से ज्यादा महत्वपूर्ण है वह राजनीतिक संस्कृति जो व्यवस्था का निर्वाह करती है। ऐसी व्यवस्था में शासन के सभी अंगों के बीच समन्वय और संतुलन होता है। हमारे यहाँ इनके बीच अकसर टकराव पैदा हो जाता है। 

हाल में संविधान में संशोधन करके बनाए गए न्यायिक नियुक्ति आयोग या एनजेएसी कानून को रद्द करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद वित्तमंत्री अरुण जेटली के बयान से जो खलिश पैदा हो गई थी उसे शुक्रवार को उन्होंने दूर करने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि उनका आशय न्यायपालिका और संसद के बीच किसी प्रकार के टकराव की वकालत करना नहीं था। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पूरी तरह पालन होगा। एनजेएसी की समाप्ति के बाद न्यायाधीशों की नियुक्ति वाली कॉलेजियम व्यवस्था बहाल हो गई है। बावजूद इसके यह बहस अब फिर से चलेगी। पर सवाल केवल न्यायिक प्रणाली में सुधार का ही नहीं है।

Thursday, October 15, 2015

प्रो डीटन को नोबेल और भारत की गरीबी

आर्थिक विकास, व्यक्तिगत उपभोग और गरीबी उन्मूलन के बीच क्या कोई सूत्र है? यह इक्कीसवीं सदी के अर्थशास्त्रियों के सामने महत्वपूर्ण सैद्धांतिक प्रश्न है. पिछले डेढ़-दो सौ साल में दुनिया की समृद्धि बढ़ी, पर असमानता कम नहीं हुई, बल्कि बढ़ी. ऐसा क्यों हुआ और रास्ता क्या है? इस साल अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार प्रिंसटन विश्वविद्यालय के माइक्रोइकोनॉमिस्ट प्रोफेसर एंगस डीटन को देने की घोषणा की गई है. वे लम्बे अरसे से इस सवाल से जूझ रहे हैं. भारत उनकी प्रयोगशाला रहा है. उनके ज्यादातर अध्ययन पत्र भारत की गरीबी और कुपोषण की समस्या से जुड़े हैं. उनकी धारणा है कि आर्थिक विकास की परिणति विषमता भी है, पर यदि यह काफी बड़े तबके को गरीबी के फंदे से बाहर निकाल रहा है, तो उसे रोका नहीं जा सकता. इसके लिए जनता और शासन के बीच में एक प्रकार की सहमति होनी चाहिए. 

Sunday, October 11, 2015

'चुनाव ही चुनाव' का शोर भी ठीक नहीं

हम बेतहाशा चुनावबाजी के शिकार हैं। लगातार चुनाव के जुमले हम पर हावी हैं। इसे पूरी तरह दोषी न भी माने, पर राजनीति ने भी हमारे सामाजिक जीवन में जहर घोला है। दादरी कांड पर पहले तो नरेंद्र मोदी खामोश रहे, फिर बोले कि राजनेताओं के भाषणों पर ध्यान न दें। उनका मतलब क्या है पता नहीं, पर इतना जाहिर है कि चुनावी दौर के भाषणों के पीछे संजीदगी नहीं होती। केवल फायदा उठाने की इच्छा होती है। इस संजीदगी को खत्म करने में मोदी-पार्टी की बड़ी भूमिका है। पर ऐसा नहीं कि दूसरी पार्टियाँ सामाजिक अंतर्विरोधों का फायदा न उठाती हों। सामाजिक जीवन में जहर घोलने में इस चुनावबाजी की भी भूमिका है। भूमिका न भी हो तब भी सामाजिक शिक्षण विहीन राजनीति का इतना विस्तार क्या ठीक है?

Friday, October 9, 2015

पुरस्कार वापसी और उससे जुड़ी राजनीति

तीन लेखकों की पुरस्कार-वापसी के बाद स्वाभाविक रूप से कुछ बुनियादी सवाल उठे हैं. क्या इन लेखकों की अपील सरकार तक पहुँचेगी? क्या उनके पाठकों तक इस बात का कोई संदेश जाएगा? एक सवाल उन लेखकों के सामने भी है जो अतीत में सम्मानित हो चुके हैं या होने वाले है. क्या उन्हें भी सम्मान लौटाने चाहिए? नहीं लौटाएंगे तो क्या मोदी सरकार के समर्थक माने जाएंगे? पुरस्कार वापसी ने इस मसले को महत्वपूर्ण बना दिया है. लगातार बिगड़ते सामाजिक माहौल की तरफ किसी ने तो निगाह डाली. किसी ने विरोध व्यक्त करने की हिम्मत की. दुर्भाग्य है कि इस दौरान गुलाम अली के कार्यक्रम के खिलाफ शिवसेना ने हंगामा खड़ा कर रखा है. इस तरह की बातों का विरोध होना ही चाहिए. डर यह भी है कि यह इनाम वापसी संकीर्ण राजनीति का हिस्सा बनकर न रह जाए, क्योंकि इसे उसी राजनीतिक कसौटी पर रखा जा रहा है जिसने ऐसे हालात पैदा किए हैं.

Tuesday, October 6, 2015

गोबध पर गांधी की राय

25 जुलाई 1947 की प्रार्थना सभा में महात्मा गांधी ने गोबध को लेकर कुछ बातें कहीं थीं। उनकी सलाह थी कि जबरन कोई कानून किसी पर थोपा नहीं जा सकता। कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ गांधी, गांधी हेरिटेज पोर्टल से लेकर 'दि वायर' ऑनलाइन पत्रिका ने उनके इस भाषण का तर्जुमा अंग्रेजी में छापा। यह वक्तव्य मूल रूप में हिन्दी में है। इसे हिन्दी में ही पढ़ना ज्यादा उपयोगी होगा। सबसे नीचे वह लिंक भी दिया है जहाँ इसे आप सीधे पढ़ सकते हैं। 


उवैसी करेंगे क्या भाजपा की मुश्किल आसान

डाक्टर मुज़फ़्फ़र हुसैन ग़ज़ाली उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार हैं। वे जीवन से जुड़े तमाम जरूरी सवालों पर लिखते हैं। केवल राजनीति पर नहीं। उनका यह लेख तकरीबन एक हफ्ता पुराना हो गया है। बावजूद इसके प्रासंगिक है। उनका लेख पूरी तरह उर्दू का लिप्यांतरण है, अनुवाद नहीं। मैं भविष्य में भी उनके लेख अपने ब्लॉग में लगाता रहूँगा। 

दो माह क़बल बिहार चुनाव के मुताल्लिक़ बी जे पी के अंदरूनी ज़राए ने कहा था देखते जाईए क्या-क्या होता है यहां बहुत सी कुंजियाँ हैं जिनका इस्तिमाल किया जाना बाक़ी है । माँझी का नाम ज़हन में आया और बात आई गई हो गई। इस वक़्त तक उवैसी की जानिब से बिहार जाने की कोई बात सामने नहीं आई थी। पिछले कुछ दिनों में सियासतदानों के इधर से उधर होने और पाला बदलने की ख़बरों ने इस वाक़िया की याद ताज़ा कर दी। बिहार इलैक्शन में असद उद्दीन उवैसी के उतरने के ऐलान के साथ ही इस का मतलब भी समझ आने लगा। 

Sunday, October 4, 2015

कालेधन के प्राण कहाँ बसते हैं?

कर अपवंचना रोकने या काले धन को सामने लाने की मुहिम केवल भारत की मुहिम नहीं है, बल्कि वैश्विक अभियान है। इसका उद्देश्य कराधान को सुनिश्चित और प्रभावी बनाना है। भारत सरकार ने देश में काला धन कानून लागू करने के पहले जो अनुपालन खिड़की छोड़ी थी उसका उत्साहवर्धक परिणाम सामने नहीं आया है। चूंकि इस योजना में माफी की व्यवस्था नहीं थी इसलिए बहुत अच्छे परिणामों की आशा भी नहीं थी। कुल मिलाकर 638 लोगों ने 3,770 करोड़ रुपए (58 करोड़ डॉलर) विदेशी संपत्ति की घोषणा की। यह राशि अनुमान से काफी कम है। हालांकि विदेश में जमा काले धन के बारे में कोई आधिकारिक अनुमान नहीं है, लेकिन गैर-सरकारी अनुमान है कि यह राशि 466 अरब डॉलर से लेकर 1,400 अरब डॉलर तक हो सकती है। 

इस योजना के परिणामों को देखने से लगता है कि काले धन को सामने लाने की चालू कोशिशें ज्यादा सफल होने वाली नहीं हैं। इसके लिए कोई ज्यादा व्यावहारिक नीति अपनानी होगी। इस बार की योजना सन 1997 की माफी योजना जैसी नहीं थी, जिसमें जुर्माने और आपराधिक कार्रवाई से लोगों को मुक्त कर दिया गया था। उस योजना में सरकार को 10,000 करोड़ रुपए की प्राप्ति हुई थी। पर उसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया था कि भविष्य में माफी की कोई योजना शुरू नहीं की जाएगी। इसबार की योजना में जुर्माने की व्यवस्था भी थी। पश्चिमी देशों में इस प्रकार की योजनाओं का चलन हैं, जिनमें राजस्व बढ़ाने के तरीके शामिल होते हैं साथ ही ऐसी व्यवस्था होती है, जिससे अपनी आय स्वतः घोषित करने की प्रवृत्ति बढ़े।

Wednesday, September 30, 2015

विदेश में रहने वाले भारतवंशी मोदी के दीवाने क्यों?

नरेंद्र मोदी अच्छे सेल्समैन की तरह विदेशी जमीन पर भारत का जादू जगाने में कामयाब रहे हैं. पिछले साल सितंबर में अमेरिका की यात्रा से उन्होंने जो जादू बिखेरना शुरू किया था, वह अभी तक हवा में है. उनकी राष्ट्रीय नीतियों को लेकर तमाम सवाल हैं, बावजूद इसके भारत के बाहर वे जहाँ भी गए गहरी छाप छोड़कर आए. यह बात पड़ोस के देश नेपाल, म्यांमार, बांग्लादेश और श्रीलंका से शुरू होकर जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया, चीन, रूस, मध्य एशिया, संयुक्त अरब अमीरात से लेकर आयरलैंड तक साबित हुई. 

मोदी की ज्यादातर यात्राओं के दो हिस्से होते हैं. विदेशी सरकारों से मुलाकात और वहाँ के भारतवंशियों से बातें. भारतवंशियों के बीच जाकर वे सपनों के शीशमहल बनाते हैं साथ ही देशी राजनीति पर चुटकियाँ लेते हैं, जिससे उनके विरोधी तिलमिलाता जाते हैं. उनका यह इंद्रजाल तकरीबन हरेक यात्रा के दौरान देखने को मिला है. उनकी हर कोशिश को लफ्फाजी मानने वाले भी अभी हार मानने को तैयार नहीं हैंं. पर दोनों बातें सच नहीं हो सकतीं. सच इनके बीच में है, पर कितना बीच में?

Tuesday, September 29, 2015

भारतीय बेड़े में अमेरिकी हैलिकॉप्टर

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा के ठीक पहले भारत ने अमेरिका से बोइंग के 22 अपाचे और 15 शिनूक (चिनूक) हैलिकॉप्टर खरीदने को मंजूरी दी. भारत इनके लिए तकरीबन तीन अरब डॉलर की कीमत चुकाएगा. पिछले कुछ साल में अमेरिका ने भारत के साथ 10 बिलियन से ज्यादा के रक्षा सौदें किए हैं. मंत्रिमंडल की सुरक्षा समिति की बैठक के बाद यह फैसला किया गया. अपाचे हेलीकॉप्टरों की आपूर्ति का अनुबंध इनकी निर्माता कंपनी बोइंग के साथ होगा, जबकि इनके शस्त्रास्त्र, रेडार और रेडियो-इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का अमेरिकी सरकार के साथ| अनुबंध में इनकी संख्या में बढ़ोतरी का भी प्रावधान है. 11 अपाचे तथा 4 चिनूक हेलिकॉप्टर और ख़रीदे जा सकते हैं. इनके साथ भारत हेलफ़ायर मिसाइल भी खरीदेगा.

Sunday, September 27, 2015

वैश्विक मंच पर भारत की बदलती भूमिका

ग्रुप ऑफ 4 की शिखर बैठक में भारत, जर्मनी, ब्राजील और जापान के राष्ट्राध्यक्षों ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की संरचना में सुधार की माँग पर जोर देकर दूसरे विश्व युद्ध के बाद के वैश्विक यथार्थ की ओर सबका ध्यान खींचा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा संयुक्त राष्ट्र महासभा के एजेंडा-2030 सत्र के कारण और दुनिया के बदलते शक्ति संतुलन के लिहाज से भी महत्वपूर्ण है। संयुक्त राष्ट्र महासभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वक्तव्य का औपचारिक महत्व ही होता है, पर उससे राष्ट्रीय चिंतन की दिशा का पता जरूर लगता है। साथ ही वैश्विक मंच पर भारत की भावी भूमिका का संकेत भी उससे मिलता है। इस साल महासभा का यह सम्मेलन दुनिया के सतत विकास का एजेंडा-2030 जारी कर रहा है। इसके लिए विशेष सत्र बुलाया गया है। सन 2000 में सन 2015 तक मानव विकास के आठ लक्ष्य संयुक्त राष्ट्र ने घोषित किए थे, जो पूरे नहीं हो पाए। दुनिया के सामने चुनौती है कि अगले पन्द्रह साल में उन खामियों को दूर किया जाए, जिनके कारण लक्ष्य पूरे नहीं हुए। गरीबी, सार्वजनिक स्वास्थ्य, आवास और मौसम में बदलाव जैसी चुनौतियाँ दुनिया के सामने हैं। वहीं वैश्विक आतंकवाद सिर उठा रहा है। इन विसंगतियों के बीच हमें आने वाले समय में भारत की भूमिका को परिभाषित करना होगा।
नरेंद्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार का मुद्दा उठाते हुए स्पष्ट किया कि भविष्य में भारत महत्वपूर्ण भूमिका निभाना चाहेगा। शुक्रवार को संयुक्त राष्ट्र में सतत विकास पर आयोजित बैठक को संबोधित करते हुए मोदी ने कहा कि सुरक्षा परिषद समेत संयुक्त राष्ट्र के तमाम अंगों में बदलाव की जरूरत है। पर अभी हमें कुछ और घटनाक्रमों पर नजर रखनी है। रविवार को पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के भाषण का। इसके बाद संयुक्त महासभा की सामान्य चर्चा 30 सितम्बर को है, जिसमें दोनों देशों के नेताओं के भाषण महत्वपूर्ण होंगे।

आरक्षण पर बहस का पिटारा फिर खुला

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण के बारे में जो राय व्यक्त की है उसका उद्देश्य यदि इस अवधारणा के राजनीतिक दुरुपयोग पर प्रहार करना है तो इससे ज्यादा गलत समय कोई और नहीं हो सकता था। हालांकि भारतीय जनता पार्टी ने फौरन ही अपने आप को इस बयान से अलग कर लिया है, पर राजनीतिक स्तर पर जो नुकसान होना था, वह हो चुका। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी स्पष्ट किया है कि इस बयान का लक्ष्य मौजूदा आरक्षण नीति पर टिप्पणी करना नहीं है। पर उन्होंने जिस बात की ओर इशारा किया था उसका निहितार्थ फौरन सामने है। राजद सुप्रीमो लालू यादव ने फौरन ट्वीट किया, ‘तुम आरक्षण खत्म करने की कहते हो,हम इसे आबादी के अनुपात में बढ़ाएंगे। माई का दूध पिया है तो खत्म करके दिखाओ। किसकी कितनी ताकत है पता लग जाएगा।’
लालू यादव ने आबादी के अनुपात में आरक्षण का संकेत देकर इस बहस की भावी दिशा को भी निर्धारित कर दिया है। एक दशक पहले चली ओबीसी आरक्षण पर राष्ट्रीय बहस में हमारे पास कोई जनगणना के जातीय आँकड़े नहीं थे। मंडल आयोग ने 1931 की जनगणना के आधार पर निष्कर्ष निकाला कि 52 प्रतिशत लोग ओबीसी वर्ग में आते हैं। इसके बाद नेशनल सैंपल सर्वे से पता लगा कि करीब 41 प्रतिशत लोग ओबीसी वर्ग में हैं। ओबीसी आरक्षण को जातीय आधार पर स्वीकार कर लेने के बाद यह स्वाभाविक माँग होगी कि यदि अजा-जजा आरक्षण जनसंख्या के आधार पर है तो फिर यही नियम ओबीसी पर लागू होना चाहिए। बिहार चुनाव में जो होगा सो होगा। मोहन भागवत चाहें या न चाहें, जातीय जनगणना के आँकड़े सामने आने के बाद बहस यों भी आगे बढ़ेगी। 

Friday, September 25, 2015

सायबर कानून में हड़बड़ी के खतरे

सरकार ने चौबीस घंटे के भीतर राष्ट्रीय एनक्रिप्शन (कूटलेखन) नीति का मसौदा वापस लेकर नया रिकॉर्ड कायम किया है। प्रस्तावित नीति की सोशल मीडिया पर हुई आलोचना को देखते हुए सरकार ने फौरन अपने कदम खींच लिए। प्रस्तावित दस्तावेज की भाषा को लेकर सरकार सांसत में आ गई थी। अंततः जिम्मेदारी दस्तावेज तैयार करने वालों पर डाल दी गई। सरकार के लिए सांसत की बात इसलिए थी कि यह मामला ठीक ऐसे मौके पर उठा जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका की सिलिकॉन वैली जाने वाले हैं। वे फेसबुक के मुख्यालय से सीधे लोगों के सवालों के जवाब देंगे। बहरहाल दस्तावेज को फौरन वापस लेने के सरकारी फैसले की तारीफ भी होनी चाहिए। इस बात को भी मान लिया जाना चाहिए कि एनक्रिप्शन नीति पर गहराई से विचार करने की जरूरत है, क्योंकि वैश्विक सुरक्षा को देखते हुए इसे यों ही छोड़ा नहीं जा सकता।

Thursday, September 24, 2015

बच्चे किताबें इसलिए नहीं पढ़ते क्योंकि माता-पिता ने पढ़ना छोड़ दिया

जार्डन सैपाइरो

आप अपने बच्चे को जैसा बनाना चाहते हैं पहले खुद वैसा बनिए। यह बात बच्चों के व्यवहार पर किए जाने वाले अध्ययनों से जाहिर होती है। माता-पिता की गतिविधियों और बच्चों में पढ़ने की ललक के बीच गहरा सम्बन्ध पाया गया है (स्कौलेस्टिक, 2013). उदाहरण के लिए, नियमित रूप से पढ़ने वाले बच्चों में 57% के माता-पिता ने अपने बच्चों के पढ़ने के लिए रोजाना अलग से समय निर्धारित किया हुआ है. इसके विपरीत अनियमित रूप से पढ़ने वाले बच्चों में सिर्फ 17% के माता-पिता ने ही ऐसी व्यवस्था की है. आशुतोष उपाध्याय ने जॉर्डन सैपाइरो के इस लेख का अनुवाद करके भेजा है, जो पठनीय है

यह एक सांस्कृतिक मान्यता है कि आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक उपकरण बच्चों को किताबों से दूर कर रहे हैं. मैं जब दूसरे विश्वविद्यालयी प्राध्यापकों से मिलता हूं तो वे अक्सर शिकायत करते हैं कि विद्यार्थी अब पढ़ते नहीं हैं क्योंकि उनकी आंखें हर वक्त उनके फोन से चिपकी रहती हैं. टेक्नोफोब (टेक्नोलॉजी से भयभीत रहने वाले) जमात के लोग सोचते हैं कि हम एक ऐसी पीढ़ी को तैयार कर रहे हैं जो साहित्य की कीमत नहीं समझती. नए और पुराने के बीच ध्रुवीकरण जारी है. संभव है यह धारणा किसी स्क्रीन-विरोधी मानस की बची-खुची भड़ास हो जो टेलीविजन के स्वर्णकाल की परिधि से बाहर नहीं निकल पाता. यह पिटी-पिटाई मनगढ़ंत कहानी भी हो सकती है जो तकनीकी साम्राज्यवाद के खिलाफ संग्राम में किताबों की हार पर छाती कूट-कूट कर कह रही है- कागज सच्चा नायक और गोरिल्ला ग्लास दुष्ट खलनायक!

Tuesday, September 22, 2015

नेताजी को लेकर इतनी ‘गोपनीयता’ ठीक नहीं


हो सकता है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस को लेकर जो संदेह व्यक्त किए जा रहे हैं वे निर्मूल साबित हों, पर यह बात समझ में नहीं आती कि सत्तर साल बाद अब वे कौन से रहस्य हैं जिनके सामने आने से हमारे रिश्ते दूसरे देशों से बिगड़ जाएंगे। पारदर्शिता का तकाजा है कि गोपनीयता के वर्ष तय होने चाहिए। तीस-चालीस या पचास साल क्या इतिहास पर पर्दा डालने के लिए काफी नहीं होते? यदि ऐसा रहा तो दुनिया का इतिहास लिखना मुश्किल हो जाएगा। दूसरी ओर अतिशय गोपनीयता कई तरह की अफवाहों को जन्म देती है, जो हमारे हित में नहीं है।

अब जब पश्चिम बंगाल सरकार ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जीवन से जुड़ी फाइलों को सार्वजनिक रूप से प्रस्तुत कर दिया है, भारत सरकार पर इस बात का दबाव बढ़ेगा कि वह अपनी फाइलों को भी गोपनीयता के दायरे से बाहर लाए। यह बात इसलिए जरूरी लगती है क्योंकि बंगाल की फाइलों की शुरुआती पड़ताल से यह संदेह पुख्ता हो रहा है कि नेताजी का निधन 18 अगस्त 1945 को हुआ भी था या नहीं। फाइलों के 12,744 पृष्ठ पढ़ने और उनका निहितार्थ समझने में समय लगेगा, पर राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा है कि मैंने उसमें से कुछ फाइलें पढ़ीं। उन फाइलों के अनुसार 1945 के बाद नेताजी के जिंदा होने की बात सामने आई है।

Wednesday, September 16, 2015

बिहार पहले दौर की अधिसूचना आज

बिहार में आज पहले दौर के चुनाव की अधिसूचना जारी होगी। इन क्षेत्रों में नामांकन की आखिरी तारीख 23 और नाम वापसी की तारीख 26 सितम्बर है। मतदान 12 अक्तूबर को होगा। 

12 अक्टूबर 

पहले चरण में भागलपुर मंडल के दोनों जिले भागलपुर और बांका, मुंगेर प्रमंडल के सभी पांचों जिले मुंगेर, लखीसराय, शेखपुरा, खगड़िया, जमुई के साथ मिथिला मंडल के समस्तीपुर, बेगूसराय और मगध मंडल के नवादा जिलों में वोट डाले जाएंगे. यानी कुल 10 जिलों की 49 सीटों पर वोटिंग होगी. 2010 में इन 49 सीटों में से जेडीयू के पास 29, बीजेपी के पास 13, आरजेडी के पास 4, कांग्रेस के पास 1 और अन्य के पास 2 सीटें थी.

इन सीटों के नाम इस प्रकार हैं-



नेपाल के बहाने सेक्युलर-संवाद

नेपाल में संविधान सभा की पुष्टि के बाद धर्म-निरपेक्षता शब्द चर्चा का विषय बन गया है. खासतौर से भारत में जहाँ यह एक राजनीतिक अवधारणा के रूप में सामने आ रहा है. उदार, अनुदार, प्रगतिशील, प्रतिक्रियावादी जैसे शब्द हमारे यहाँ पश्चिम से आए हैं. इनमें धर्म-निरपेक्षता की अवधारणा भी शामिल है, जिसे लेकर समूचे दक्षिण एशिया में भ्रम की स्थिति है. भारतीय राजनीति में इसे गैर-हिंदू (गैर-सांप्रदायिक) अवधारणा के रूप में पेश किया जाता है, वहीं दूसरी ओर इसे मुस्लिम परस्त, छद्म विचार के रूप में पेश किया जाता है. कुछ लोग मानते हैं कि भारत की धार्मिक बहुलता को देखते हुए धर्म-निरपेक्षता अनिवार्यता है. पर धर्म-निरपेक्षता को केवल सामाजिक संतुलनकारी विचार मानने से उसका मतलब अधूरा रह जाता है. इसे सर्वधर्म-समभाव तक सीमित करना इसके अर्थ को संकुचित बनाता है.

भारत के मुसलमान धर्म-निरपेक्ष राजनीति के पक्षधर हैं, वहीं पाकिस्तान और बांग्लादेश में धर्म-निरपेक्षता को नास्तिकता का समानार्थी साबित किया जा रहा है. भारतीय जनता पार्टी इसे छद्म धर्म-निरपेक्षता कहती है. नेपाल की संविधान सभा ने तकरीबन सर्वानुमति से देश को धर्म-निरपेक्ष घोषित कर तो दिया है, पर लगता है कि वहाँ के राजनीतिक दल जनता को इसका मर्म समझाने में नाकामयाब रहे हैं. वहाँ  की राजनीति एक हद तक भारतीय राजनीति के प्रभाव में रहती है. इसीलिए वहाँ के मुख्य राजनीतिक दलों ने धर्मनिरपेक्ष राज्य-व्यवस्था का समर्थन किया है. यदि वहाँ के संविधान में धर्म-निरपेक्षता शब्द नहीं होता तो क्या होता?

Sunday, September 13, 2015

युवा वोटर करेगा बिहार का फैसला



इसी शुक्रवार की बात है। एक चैनल ने बिहार को लेकर एक कार्यक्रम किया, जिसमें लालू यादव नौजवानों के बीच थे। लालू ने अपने लम्बे भाषण के दौरान अपने भावुक अंदाज में नौजवानों से पूछा, आप जातिवाद में यकीन करते हैं? एक स्वर में जवाब आया, ‘नहीं।’ लालू शायद इस जवाब की उम्मीद से नहीं गए थे। पर वे भी अनुभवी राजनेता है। उन्होंने अपने सवाल को फिर से पैकेज किया और बोले, ‘जाति का सवाल प्रासंगिक है या नहीं?’ इसपर फिर एक स्वर से जवाब आया, ‘जाति प्रासंगिक नहीं है।’ इस पर लालू ने कहा, मैं आपकी राय का आदर करता हूँ। इसके बाद उन्होंने बिहार में जाति की प्रासंगिकता पर कुछ बातें कहीं। खासतौर से पिछड़ी जातियों के सशक्तीकरण को लेकर उन्होंने लोहिया जी के विचारों से नौजवानों को अवगत कराया। शायद नौजवान फिर भी उनकी बात से संतुष्ट नहीं थे। एक लड़की ने कहा, आप जातिवाद कर रहे हैं। इस पर लालू ने ऊँचे तेवर से कहा, मैं जातिवाद नहीं कर रहा हूँ, बल्कि हाशिए पर जा चुके लोगों की बात को उठा रहा हूँ।

Saturday, September 12, 2015

जाति-राजनीति के गढ़ में विकास का शोर

बिहार चुनाव में उतरे दोनों मुख्य गठबंधनों ने सीटों के आपसी बँटवारे का फैसला करने के बाद कदम आगे बढ़ा दिए हैं। नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार और सोनिया गांधी के लिए ये चुनाव प्रतिष्ठा की लड़ाई साबित होने वाले हैं। भाजपा विरोधी महागठबंधन की योजना लोकसभा के 2014 के चुनाव से पहले नीतीश कुमार की पहल पर शुरू हुई थी। इसके लिए वे दिल्ली में तिहाड़ जेल में हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री और इनेलो के नेता ओम प्रकाश चौटाला से भी मिले थे।

Monday, September 7, 2015

पंजाब में 'आप' की जीत सम्भव बशर्ते...

पंजाब में जोखिम से जूझती 'आप'

  • 2 घंटे पहले

अरविंद केजरीवालImage copyrightAP

भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन के सहारे बनी आम आदमी पार्टी अपने गठन के समय से ही अंतर्विरोधों की शिकार है. वह सत्ता और आंदोलन की राजनीति में अंतर नहीं कर पा रही है.
पार्टी 'एक नेता' और 'आंतरिक लोकतंत्र के अंतर्विरोध' को सुलझा नहीं पा रही है. इसके कारण वह देश के दूसरे इलाक़ों में प्रवेश की रणनीति बना नहीं पा रही है.
पार्टी की पंजाब शाखा इसी उलझन में है, जहाँ हाल में उसके केंद्रीय नेतृत्व ने (दूसरे शब्दों में अरविंद केजरीवाल) दो सांसदों को निलंबित करके अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है.

पढ़ें विस्तार से

दिल्ली के बाद पंजाब में पार्टी का अच्छा प्रभाव है. संसद में उसकी उपस्थिति पंजाब के कारण ही है, जहाँ से लोक सभा में चार सदस्य हैं.
पंजाब में कांग्रेस, शिरोमणि अकाली दल और बीजेपी के नेता मानते हैं कि उन्हें सबसे बड़ा ख़तरा 'आप' से है.

'आप' का सेल्फ गोल

पंजाब की जनता को भी 'आप' में विकल्प नज़र आता है.
उम्मीद थी कि अकाली सरकार के ख़िलाफ़ 'एंटी इनकम्बैंसी' को देखते हुए वहाँ कांग्रेस पार्टी अपने प्रभाव का विस्तार करेगी, पर वह भी धड़ेबाज़ी की शिकार है.
ऐसे में 'आप' की संभावनाएं बेहतर हैं, पर लगता है कि यह पार्टी भी सेल्फ़ गोल में यक़ीन करती है.
पार्टी ने हाल में पटियाला के सासंद धर्मवीर गांधी और फ़तेहगढ़ साहिब से जीतकर आए हरिंदर सिंह ख़ालसा को अनुशासनहीनता के आरोप में निलंबित किया है. दोनों का मज़बूत जनाधार है.

मनमुटाव की शुरुआत


प्रशांत भूषणImage copyrightPTI

केजरीवाल और प्रशांत भूषण के टकराव के दौरान इस मनमुटाव की शुरुआत हुई थी. तब से धर्मवीर गांधी योगेंद्र यादव के साथ हैं. शुरू में हरिंदर सिंह खालसा का रुख़ साफ़ नहीं था, पर अंततः वे भी केंद्रीय नेतृत्व के ख़िलाफ़ हो गए.
इन दोनों नेताओं को समझ में आता है कि प्रदेश में लहर उनके पक्ष में है. दूसरी ओर पार्टी नेतृत्व को लगता है कि पार्टी से अलग होने के बाद किसी नेता की पहचान क़ायम नहीं रहती.

नई संस्कृति का फूटता भांडा

शीना बोरा हत्याकांड को आप कई तरीकों से देख सकते हैं। इंद्राणी मुखर्जी के व्यक्तिगत रिश्तों से जुड़ी बातें लोगों का ध्यान सबसे ज्यादा खींच रही हैं। जबकि सबसे कम ध्यान उनपर जाना चाहिए। यह उनका व्यक्तिगत मामला है और इसे उछालने का हमें अधिकार नहीं है। यह केस एक सम्भावित हत्या तक केंद्रित हो तो इसका उस स्तर का महत्व है भी नहीं जितना दिखाया जा रहा है। पर इस सिलसिले में दो और बातें महत्वपूर्ण हैं। एक इस मामले की मीडिया कवरेज। दूसरे इस प्रकरण से जुड़े कारोबारी प्रसंग। इन दोनों को जोड़कर देखा जाए तो यह कहानी हमारी नई संस्कृति की पोल खोलती है।

Saturday, September 5, 2015

भाजपा ने डाली महागठबंधन के दुर्ग में दरार



 समाजवादी पार्टी ने बिहार विधानसभा चुनाव अकेले लड़ने की घोषणा करने के बाद राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा विरोधी मोर्चा बनने की सम्भावनाओं को गहरा धक्का लगा है। बावजूद इसके नीतीश और लालू की एकता और सोनिया गांधी के समर्थन के कारण महागठबंधन कायम रहेगा। पर बीजेपी की कोशिश इसकी जड़ों को काटने की होगी। यह बात पिछले हफ्ते की गतिविधियों से साफ है। पिछली 27 अगस्त को मुलायम सिंह यादव और रामगोपाल यादव की नरेंद्र मोदी से मुलाकात हुई थी। उसके फौरन बाद मुलायम सिंह यादव ने कहा था कि मैं महागठबंधन की 30 अगस्त को होने वाली स्वाभिमान रैली में शामिल नहीं हो पाऊँगा। इस पर लालू यादव ने कहा था कि इसमें परेशानी की कोई बात नहीं है। उन्होंने अगली रात बिहार में सपा के बिहार इंचार्ज किरण्मय नंदा से मुलाकात भी की। साथ ही सपा को पाँच सीटें देने की घोषणा भी की। इन पाँच में अपने कोटे की 100 में से दो और एनसीपी को आबंटित तीन सीटें देने की घोषणा 29 अगस्त को की।

Thursday, September 3, 2015

इस गलीज संस्कृति के खतरे

अकल्पनीय मानवीय रिश्तों की कहानियाँ गढ़ना फिल्म निर्माता महेश भट्ट का शौक है. उनमें कल्पनाशीलता का पुट होता है, यानी जो नहीं है फिर भी रोचक है. पर हाल में शीना हत्याकांड की खबर सुनने के बाद वे भी विस्मय में पड़ गए. उनका कहना है, मैं तकरीबन इसी प्लॉट पर कहानी तैयार कर रहा था. उसका शीर्षक है अब रात गुजरने वाली है. अक्सर फिल्मी कहानियां जिंदगी के पीछे चलती हैं, परंतु इस मामले में घटनाक्रम कहानी से आगे चल रहा है.

Tuesday, September 1, 2015

स्मार्ट सिटी सिर्फ सपना नहीं है

पिछले साल सोलहवीं लोकसभा के पहले सत्र में नई सरकार की ओर से राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के अभिभाषण में  बदलते भारत का नक्शा पेश किया गया था। नरेंद्र मोदी के आलोचकों ने तब भी कहा था और आज भी कह रहे हैं कि यह एक राजनेता का सपना है। इसमें परिकल्पना है, पूरा करने की तजवीज नहीं। देश में एक सौ स्मार्ट सिटी का निर्माण, अगले आठ साल में हर परिवार को पक्का मकान, डिजिटल इंडिया, गाँव-गाँव तक ब्रॉडबैंड पहुँचाने का वादा और हाई स्पीड ट्रेनों के हीरक चतुर्भुज तथा राजमार्गों के स्वर्णिम चतुर्भुज के अधूरे पड़े काम को पूरा करने का वादा वगैरह। सरकार की योजनाएं कितनी व्यावहारिक हैं या अव्यावहारिक हैं इनका पता कुछ समय बाद लगेगा, पर तीन योजनाएं ऐसी हैं जिनकी सफलता या विफलता हम अपनी आँखों से देख पाएंगे। ये हैं आदर्श ग्राम योजना, डिजिटल इंडिया और अब 100 स्मार्ट सिटी।

Monday, August 31, 2015

क्यों नहीं टूटता राजनीतिक चंदे का मकड़जाल?

राजनीतिक दल आरटीआई से बच क्यों रहे हैं?

  • 27 अगस्त 2015

आरटीआई आंदोलन की शुरुआत राजस्थान के एक संगठन ने की थीImage copyrightABHA SHARMA
Image captionआरटीआई आंदोलन की शुरुआत राजस्थान के किसान शक्ति संगठन ने की थी

बात कितनी भी ख़राब लगे, पर इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय चुनाव दुनिया में काले पैसे से चलने वाली सबसे बड़ी गतिविधि है. यह बात हमारे लोकतंत्र की साख को बट्टा लगाती है.
अफ़सोस इस बात का है कि मुख्यधारा की राजनीति ने व्यवस्था को पारदर्शी बनाने के बजाय इन कोशिशों का ज़्यादातर विरोध किया है. ताज़ा उदाहरण है केंद्र सरकार का सुप्रीम कोर्ट में दाख़िल हलफ़नामा.
सरकार ने राजनीतिक पार्टियों को आरटीआई के दायरे में लाने का विरोध किया है. हलफ़नामे में कहा गया है कि पार्टियां पब्लिक अथॉरिटी नहीं हैं.

सूचना आयोग का फ़ैसला


आरटीआई का लोगोImage copyrightRTI.GOV.IN

सन 2013 में केंद्रीय सूचना आयोग ने इन दलों को आरटीआई के तहत लाने के आदेश जारी किए थे.
सरकार और पार्टियों ने आदेश का पालन नहीं किया. उसे निष्प्रभावी करने के लिए सरकार ने संसद में एक विधेयक भी पेश किया, पर जनमत के दबाव में उसे स्थायी समिति के हवाले कर दिया गया. यह मामला अभी तार्किक परिणति तक नहीं पहुँचा है.
उसी साल सुप्रीम कोर्ट ने दाग़ी सांसदों के बाबत फ़ैसला किया था. पार्टियों ने उसे भी नापसंद किया.
संसद के मॉनसून सत्र के पहले हुई सर्वदलीय बैठक में एक स्वर से पार्टियों ने अदालती आदेश को संसद की सर्वोच्चता के लिए चुनौती माना.
सरकार ने उस फ़ैसले को पलटने वाला विधेयक पेश करने की योजना भी बनाई, पर जनमत के दबाव में झुकना पड़ा.

Wednesday, August 26, 2015

क्यों करते हैं इंसान दुनिया पर राज

युवाल नोह हरारी
प्रो. युवाल नोह हरारी यरुसलम विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाते हैं. उनके लिए इतिहास संस्कृति के जन्म के साथ शुरू नहीं होता बल्कि वह उसे बहुत-बहुत पीछे ब्रहमांड के उद्भव तक ले जाते हैं. इतिहास को जैविक उद्विकास के नज़रिए (ईवोल्युशनरी पर्सपेक्टिव) से देखने का उनका तरीका उन्हें ख़ास बनाता है. उनका एक लेख (क्या 21वीं सदी में किसी काम का रह जाएगा इंसान) पहले भी आप जिज्ञासा में पढ़ चुके हैं, जिसे हमारे मित्र आशुतोष उपाध्याय ने साझा किया था. आशुतोष जी ने इस बार TED TALKS में दिए गए उनके हालिया भाषण का अनुवाद साझा किया है, जो कुछ रोचक बातों की ओर इशारा करता है. क्या वजह है कि शेर और हाथी जैसे जानवर इंसान के मुकाबले कमजोर साबित होते हैं.
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सत्तर हजार साल पहले हमारे पुरखे मामूली जानवर थे. प्रागैतिहासिक इंसानों के बारे में सबसे महत्वपूर्ण बात हम यही जानते हैं कि वे ज़रा भी महत्वपूर्ण नहीं थे. धरती में उनकी हैसियत एक जैली फिश या जुगनू या कठफोड़वे से ज्यादा नहीं थी.  इसके विपरीत, आज हम इस ग्रह पर राज करते हैं. और सवाल उठता है: वहां से यहां तक हम कैसे पहुंच गए? हमने खुद को अफ्रीका के एक कोने में अपनी ही दुनिया में खोए रहने वाले मामूली वानर से पृथ्वी के शासक में कैसे बदल डाला?