Monday, December 8, 2014

योजना आयोग : काम बदलें या नाम?

कांग्रेसी 'योजना' बनाम भाजपाई 'आयोग'

  • 1 घंटा पहले
भारत संघ के राज्यों के मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ.
भारत संघ के राज्यों के मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ.
रविवार को दिल्ली में हुई मुख्यमंत्रियों की बैठक में योजना आयोग को लेकर मचे घमासान और राजनीति का पटाक्षेप नहीं हुआ.
बल्कि लगता है कि इसे लेकर राजनीति का नया दौर शुरू होगा.
यह संस्था जवाहरलाल नेहरू ने शुरू ज़रूर की थी लेकिन इसके रूपांतरण की बुनियाद साल 1991 में बनी कांग्रेस सरकार ने ही डाली थी.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व्यक्ति और विचारक के रूप में नेहरूवादी विरोधी के रूप में उभरे हैं.

कांग्रेस का मोह

राहुल गांधी, सोनिया गांधी
उन्होंने इस साल लाल किले की प्राचीर से स्वतंत्रता दिवस के अपने पहले संदेश में योजना आयोग को समाप्त करने की घोषणा करके व्यवस्था-परिवर्तन के साथ-साथ प्रतीक रूप में अपने नेहरू विरोध को भी रेखांकित किया था.
लगता यह भी है कि कांग्रेस को इसके नाम से मोह है.
वह शायद चाहती है कि इसका काम बदल जाए, पर नाम न बदले. दूसरी ओर सारी कवायद नाम की लगती है. काम घूम-फिरकर फिर वैसा ही रहेगा.

Sunday, December 7, 2014

नवाज़ शरीफ का लश्कर कार्ड

कश्मीर में पाकिस्तान समर्थक आतंकवादियों के ताबड़-तोड़ फिदायी हमलों को लेकर न तो विस्मित होने की जरूरत है और न घबराने की। हमलों का उद्देश्य अपनी उपस्थिति को दर्ज कराना है।  विधानसभा चुनाव के तीसरे दौर और नरेंद्र मोदी की कश्मीर यात्रा के मद्देनज़र अपनी ओर ध्यान खींचना। आत्मघाती हमलों का पूर्वानुमान मुश्किल होता है और सुरक्षा की तमाम दीवारों के बावजूद एक बार हमला हो जाए तो उस पर काबू पाने में समय लगता है। हर साल प्रायः इन्हीं दिनों ज्यादातर हमले होते हैं। इसके बाद बर्फ पड़ने लगेगी और सीमा के आर-पार आना-जाना मुश्किल होगा। ध्यान देने वाली बात यह है कि जिस वक्त यह हमला चल रहा था लगभग उसी वक्त लाहौर के मीनार-ए-पाकिस्तान मैदान में जमात-द-दावा उर्फ लश्करे तैयबा का दो दिन का सम्मेलन चल रहा था और उसके अमीर खुले आम घोषणा कर रहे थे कि मुजाहिदीन को कश्मीर में घुसकर उसे आजाद कराने का हक़ है।

Friday, December 5, 2014

सहमे विपक्ष को साध्वी का सहारा

डूबते विपक्ष के लिए साध्वी बनी तिनका

  • 2 घंटे पहले
साध्वी निरंजन ज्योति
भारतीय जनता पार्टी सरकार के छह महीने बीत जाने के बाद भी सहमे-सहमे विपक्ष को केंद्रीय मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति के बयान से तिनके जैसा सहारा मिला है.
सोलहवीं लोकसभा के शीतकालीन सत्र में पहली बार एकताबद्ध विपक्षी राजनीति गरमाती नज़र आ रही है. ऐसे में साध्वी का बयान पार्टी के लिए बेहद नाज़ुक मोड़ पर सेल्फ़ गोल जैसा घातक साबित हुआ है.
पिछले छह महीने से नरेंद्र मोदी अपने समर्थकों को आश्वस्त और विरोधियों को परास्त करने में सफल रहे हैं. उनके बड़े से बड़े आलोचक भी मान रहे थे कि येन-केन प्रकारेण नरेंद्र मोदी हवा को अपने पक्ष में बहाने में कामयाब हैं.

हनीमून की समाप्ति

मोदी मंत्रमंडल
मोदी के आलोचक मानते हैं कि यह हनीमून है जो लम्बा खिंच गया है. साध्वी प्रकरण की वजह से यह हनीमून ख़त्म नहीं हो जाएगा और न ही मोदी की हवा निकल जाएगी.
अलबत्ता इससे भाजपा के वैचारिक अंतर्विरोध खुलेंगे. इसके अलावा संसद में हंगामों का श्रीगणेश हुआ. दोनों सदनों में तीन दिन से गहमागहमी है.
गुरुवार को राज्यसभा को पूरे दिन के लिए स्थगित करना पड़ा. यानी विपक्ष को एक होने और वार करने का मौका मिला है.

रामलला से दूर जाती भाजपा


राम मंदिर के मुद्दे से भाजपा ने कब किनाराकशी शुरू की यह कहना मुश्किल है, पर इतना साफ है कि नरेंद्र मोदी की सरकार पार्टी के हिंदुत्व को सिर-माथे पर लेकर नहीं चल रही है। सन 1992 के बाद 6 दिसम्बर की तारीख कई बार आई और गई। भाजपा ने इस मसले पर बात करना ही बंद कर दिया है। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद से केंद्र में यह तीसरा सरकार है, जिसमें भारतीय जनता पार्टी की प्रभावी भूमिका है। 1998 और 1999 में बनी सरकारें एनडीए की थीं। मान लिया उनमें सहयोगी दलों की सहमति मंदिर बनाने को लेकर नहीं थी। पर इस बार भाजपा अपने बूते बहुमत हासिल करके आई है। फिर भी वह राम मंदिर पर मौन है। क्या वजह है कि यह मसला भाजपा की राजनीति में टॉप से बॉटम पर आ गया है?

Thursday, December 4, 2014

छह महीने में उम्मीदें बढ़ीं

नरेंद्र मोदी सामान्य तरीके से सत्ता हासिल करके नहीं आए हैं। उन्होंने दिल्ली में प्रधानमंत्री बनने के पहले अपनी पार्टी के भीतर एक प्रकार की लड़ाई लड़ी थी। उनकी तुलना उस योद्धा से की जा सकती है जिसका अस्तित्व लगातार लड़ते रहने पर आश्रित हो। इस हफ्ते जब 26 मई को उनकी सरकार के छह महीने पूरे हुए तो उसके तीन दिन पहले राहुल गांधी ने झारखंड उपचुनावों में प्रचार के दौरान मोदी पर हमला बोलते हुए पूछा, क्या आपके अच्छे दिन आ गए? कहां है अच्छे दिन? छह महीने नहीं सौ दिन नहीं 26 मई को ही लोग पूछ रहे थे कि क्या आ गए अच्छे दिन? मोदी ने उम्मीदें जगाईं, अपेक्षाएं तैयार कीं और जीत हासिल करने के लिए अपने विरोधियों पर करारे वार किए, इसलिए उनपर वार होना अस्वाभाविक नहीं। नई सरकार की उपलब्धियों पर पाँच साल बाद ही बात होनी चाहिए, पर कम से कम समय की बात करें तो अगले बजट को एक आधार रेखा माना जाना चाहिए। वह भी पर्याप्त इसलिए नहीं है, क्योंकि सरकार के पूरे एक वित्तीय वर्ष का लेखा-जोखा तबतक भी तैयार नहीं हो पाएगा। फिर भी मोटे तौर पर मोदी के छह महीनों की पड़ताल की जाए तो कुछ बातें सामने आती हैं वे इस प्रकार हैः-

काम करने की संस्कृति
नेताओं और मंत्रियों के वक्तव्यों पर रोक
कुछ बड़े फैसले
वैश्विक मंच पर ऊर्जावान भारत का उदय

बांग्लादेश पर यू-टर्न एकदम उचित है


मोदी सरकार केवल आर्थिक उदारीकरण के मामले में ही नहीं विदेश नीति और रक्षा नीति में भी पिछली यूपीए सरकार के कदमों पर चल रही है. फर्क केवल तौर-तरीकों का है. व्यक्तिगत रूप से नरेंद्र मोदी का अंदाज़ मुकाबले मनमोहन सिंह के ज्यादा आक्रामक है और ज्यादा खुलकर है. खासतौर से विदेश नीति के मामले में. इधर कांग्रेस ने '6 महीने पार, यू-टर्न सरकार' शीर्षक से जो पुस्तिका जारी की है उसमें सरकार की 22 'पलटियों' का जिक्र किया गया है. इनमें विदेश नीति से जुड़े दो मसले महत्वपूर्ण हैं. पहला सिविल न्यूक्लियर डैमेज एक्ट जिसे लेकर भाजपा ने खूब हंगामा किया गया था. अब मोदी जी इसे नरम करना चाहते हैं ताकि नाभिकीय तकनीक लाने में अड़चनें खड़ी न हों.

Tuesday, December 2, 2014

इंतज़ार मोदी-हनीमून खत्म होने का

कांग्रेस ने मोदी सरकार के 6 महीने के कार्यकाल के दौरान विभिन्न मुद्दों पर यू-टर्न लेने का आरोप लगाते हुए एक बुकलेट जारी की है। इस बुकलेट में बताया गया है कि सत्ता में आने से पहले बीजेपी ने क्या-क्या वादे किए थे और सत्ता में आने के बाद कैसे वह उनसे पलट गई। '6 महीने पार, यू टर्न सरकार' टाइटल वाली इस बुकलेट में विभिन्न मुद्दों पर बीजेपी सरकार की 22 'पलटियों' का जिक्र किया गया है। कांग्रेस पार्टी के सामने अस्तित्व रक्षा का सवाल है। उसके पास हमले करने के अलावा कोई हथियार नहीं है। प्रश्न मोदी सरकार के कौशल का है। भाजपा के बाहर और भीतर मोदी विरोधियों को इंतज़ार है कि एक ऐसी घड़ी आएगी, जब मोदी का विजय रथ धीमा पड़ेगा। दूसरी ओर मोदी सरकार के सामने तेजी से फैसले करने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि उसने सत्ता हासिल करने के प्रयास में शत्रुओं पर जो प्रहार किए थे, उनका जवाब भी मिलना है। सवाल है कि क्या मोदी पर प्रहार का सही वक्त आ गया है? या इस वक्त के तीर उल्टे विरोधियों पर ही पड़ेंगे? 

राहुल गांधी से लेकर सीताराम येचुरी तक और शायद भाजपा के भीतर बैठे विरोधियों तक को आशा है कि मोदी का हनीमून कभी न कभी तो खत्म होगा। इस उम्मीद के पीछे रोशनी की किरणें हैं महंगाई, काला धन और बेरोज़गारी वगैरह। सरकारी कर्मचारियों ने दुःख व्यक्त करना शुरू कर दिया है। अब दफ्तर में ज्यादा काम करना पड़ता है। सरकार शायद रिटायरमेंट की उम्र कम करने वाली है। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कर्मचारियों को लुभाने के लिए यूपीए सरकार ने सातवें वेतन आयोग के गठन को मंजूरी दी थी। उसे व्यवहारिक रूप देने की जिम्मेदारी सरकार की है। उस वक्त नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और उन्होंने आयोग के गठन का विरोध इस आधार पर किया था कि इससे राज्य सरकार पर भी अनावश्यक दबाव पड़ेगा। मोदी के अंतर्विरोधों के खुलने का उनके विरोधियों को इंतज़ार है। आर्थिक उदारीकरण के लिहाज से संसद का यह सत्र जितना महत्वपूर्ण है उतना ही महत्वपूर्ण विपक्षी एकता के लिहाज़ से भी है। संसदीय कर्म के प्रति राजनीति की प्रतिबद्धता का परिचय भी इस सत्र में देखने को मिल रहा है।

Saturday, November 29, 2014

अर्ध-आधुनिकता की देन है अंधविश्वास का गरम बाज़ार

बाबाओं और संतों से जुड़े सवाल एकतरफा नहीं हैं। या तो हम इन्हें सिरे से खारिज करते हैं या गुणगान की अति करते हैं। यह हमारे अर्ध-आधुनिक समाज की समस्या है, जो केवल बाबाओं-संतों तक सीमित नहीं है बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में है। एक ओर आस्था और अंधविश्वास हैं और दूसरी ओर जीवन को अतार्किक मशीनी तरीके से देखने वाली ‘प्रगतिशीलता’ का विद्रूप है। लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से यह विसंगति पल्लवित हुई और मीडिया ने इसे पुष्पित होने का मौका दिया। दोनों मनुष्य के विकास की देन हैं।

अध्यात्म, सत्संग, प्रवचन और अंधविश्वास के सालाना कारोबार का हिसाब लगाएं तो हमारे देश से गरीबी कई बार खत्म की जा सकती है। यह कारोबार कई लाख करोड़ का है। भारत सरकार के बजट से भी ज्यादा। यह इतनी गहराई तक जीवन में मौजूद है कि इसकी केवल भर्त्सना करने से काम नहीं होगा। इसे समझने की कोशिश होनी चाहिए और इसकी सकारात्मक भूमिका की पहचान भी करनी होगी। परम्परागत धर्मानुरागी समाज केवल भारत में ही निवास नहीं करता। यूरोपीय और अमेरिकी समाज का बड़ा तबका आज भी परम्परा-प्रिय है। फिर भी उस समाज ने तमाम आधुनिक विचारों को पनपने का अवसर दिया और पाखंडों से खुद को मुक्त किया।

अनुपस्थित आधुनिक राज-समाज
संत रामपाल या दूसरे संतों के भक्त कौन हैं और वे उनके पास क्यों जाते हैं? ऐसे तमाम संतों और बाबाओं के आश्रम, डेरे, मठ वगैरह चलते हैं। इनके समांतर खाप, पंचायतें और जन जातीय समूह हैं। ग्रामीण समाज में तमाम काम सामुदायिक स्वीकृतियों, सहमतियों और सहायता से होते हैं। लोग अपनी समस्याओं के समाधान के लिए पंचायतों और सामुदायिक समूहों में आते हैं या फिर इन आश्रमों की शरण लेते हैं। यहाँ उनके व्यक्तिगत विवाद निपटाए जाते हैं, समझौते होते हैं। यह काम आधुनिक राज और न्याय-व्यवस्था का था। पर इस परम्परागत काम के विपरीत इन मठों में सोशल नेटवर्किंग विकसित होने लगी। हथियारों के अंतरराष्ट्रीय सौदे पटाए जाने लगे। संत-महंतों की दैवीय शक्तियों का दानवी इस्तेमाल होने लगा। सत्ता के गलियारों में संत-समागम होने लगे।

Sunday, November 23, 2014

संतों की सामाजिक भूमिका भी है

बाबा रामपाल प्रकरण के बाद भारतीय समाज में बाबाओं और संतों की भूमिका को लेकर कई तरह के सवाल खड़े होते हैं। तेजी से आधुनिक होते देश में संतों-बाबाओं की उपस्थिति क्या किसी विसंगति की और संकेत कर रही हैं? क्या बाबाओं, संतों, साधु-साध्वियों, आश्रमों और डेरों की बेहतर सामाजिक भूमिका हो सकती है या वह खत्म हो गई? एक ओर इन संस्थाओं का आम जनता के जीवन में गहरा प्रभाव नजर आता है वहीं इनके नकारात्मक रूप को उभार ज्यादा मिल रहा है। नई पीढ़ी और खासतौर से लड़कियों के पहनावे, मोबाइल फोन के इस्तेमाल और शादी-विवाह को लेकर ये परम्परागत संस्थाएं मीडिया के निशाने पर हैं। क्या वास्तव में इनकी कोई सकारात्मक भूमिका नहीं बची?

सन 1857 से लेकर 1947 तक राष्ट्रीय आंदोलन के साथ तमाम सामाजिक आंदोलन इन परम्परागत संस्थाओं-संगठनों की मदद से ही चले। अलीगढ़ मुस्लिम विवि, काशी हिन्दू विवि, डीएवी कॉलेज, आर्य कन्या पाठशालाएं और खालसा कॉलेज धार्मिक-सांस्कृतिक आंदोलनों की देन हैं। महात्मा गांधी की अपील धार्मिक और सांस्कृतिक रंग से रंगी थी। पर उसमें साम्प्रदायिकता नहीं समभाव था। महाराष्ट्र में गणेशोत्सव और दुर्गा पूजा का इस्तेमाल राष्ट्रीय आंदोलन में हुआ। केवल भारत में ही नहीं वियतनाम में हो ची मिन्ह जैसे कम्युनिस्ट नेता ने अपने आंदोलन में धार्मिक-सांस्कृतिक संस्थाओं का सहारा लिया। आज भी तमाम छोटे-छोटे बदलावों के साथ इन्हें जोड़ा जाए तो सार्थक परिणाम दिखाई पड़ेगा।

सिर्फ पिकनिक स्पॉट नहीं है ट्रेड फेयर

दिल्ली के प्रगति मैदान में साल भर कोई न कोई नुमाइश लगी रहती है, पर दिल्ली वाले ट्रेड फेयर और पुस्तक मेले का इंतज़ार करते हैं। आमतौर पर ट्रेड फेयर में शनिवार और रविवार को जबर्दस्त भीड़ टूटती है। इस साल बुधवार से ही जनता टूट पड़ी है। पहले रोज ही 80 हजार से ज्यादा लोग जा पहुँचे। मेले में इस साल दर्शकों की संख्या 20 लाख से कहीं ज्यादा हो तो आश्चर्य नहीं होगा। इसकी वजह उपभोक्ताओं की संख्या और दूसरे देशों के उत्पादों में दिलचस्पी का बढ़ना है। चीन के उत्पादों की तलाश में भीड़ पहुंची, जहाँ उन्हें निराशा हाथ लगी। पर पाकिस्तानी स्टॉल जाकर संतोष मिला, जहाँ महिलाओं के डिज़ाइनर परिधान आए हैं। इस साल थाई परिधानों, केश सज्जा, रत्न-जेवरात वगैरह पर फोकस है।

ट्रेड फेयर उत्पादक, व्यापारी, ग्राहक और उपभोक्ता को आमने-सामने लाता है। बड़ी संख्या में नौजवानों को अपना कारोबार शुरू करने के विकल्प भी उपलब्ध कराता है। तकनीकी नवोन्मेष या इनोवेशन की कहानी सुनाता है, जो किसी समाज की समृद्धि का बुनियादी आधार होती है। ये मेले हमें कुछ नया करने और दुनिया के बाजार में जगह बनाने का हौसला देते हैं। पर क्या हम इसके इस पहलू को देखते हैं? हमारी समझ में यह विशाल पैंठ या नुमाइश है, जिसकी पृष्ठभूमि वैश्विक है। इंटीग्रेटेड बिग बाज़ार।

Thursday, November 20, 2014

आक्रामक राजनय का दौर

पिछले तीन महीने में भारत की सामरिक और विदेश नीति से जुड़े जितने बड़े कदम उठाए गए हैं उतने बड़े कदम पिछले दो-तीन दशकों में नहीं उठाए गए। इसकी शुरूआत 26 मई को नई सरकार के शपथ ग्रहण समारोह से हो गई थी। इसमें पड़ोसी देशों के राष्ट्राध्यक्षों को बुलाकर भारत ने जिस नए राजनय की शुरूआत की थी उसका एक चरण 25 से 27 नवम्बर को काठमांडू में पूरा होगा। दक्षेस देशों के वे सभी राजनेता शिखर सम्मेलन में उपस्थित होंगे जो दिल्ली आए थे। प्रधानमंत्री ने 14 जून को देश के नए विमानवाहक पोत विक्रमादित्य पर खड़े होकर एक मजबूत नौसेना की जरूरत को रेखांकित करते हुए समुद्री व्यापार-मार्गों की सुरक्षा का सवाल उठाया था। उन्होंने परम्परागत भारतीय नीति से हटते हुए यह भी कहा कि हमें रक्षा सामग्री के निर्यात के बारे में भी सोचना चाहिए।

Tuesday, November 18, 2014

नेहरू के सहारे गैर-भाजपा एकता की कोशिश

 कांग्रेस पार्टी क्या जवाहर लाल नेहरू की 125 वीं जयंती के मौके पर गैर-भाजपा राजनीति का श्रीगणेश करना चाहती है? क्या देश का बिखरा विपक्ष वर्तमान हालात को देखते हुए उसके साथ आ जाएगा। बहरहाल नरेंद्र मोदी की ऑस्ट्रेलिया यात्रा की कवरेज ने कल दिल्ली में हुए समारोह को पीछे कर दिया। दिल्ली के कुछ अखबारों ने आज राहुल गांधी और प्रकाश करत की तस्वीरें छापी हैं। ममता बनर्जी भी इस समारोह में शामिल हुईं। आज के टेलीग्राफ ने इस बातो को खास महत्व दिया कि ममता ने कल आडवाणी जी और अरुण जेटली से मुलाकात भी की। अलबत्ता इंडियन एक्सप्रेस का शीर्षक है Mamata Banerjee ready to be part of ‘secular front’ to fight communal forces; but won’t lead. गौर करें आज की कतरनों पर
हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून
आज के हिंदुस्तान टाइम्स के सम्पादकीय पेज पर सीताराम येचुरी का यह लेख भी पठनीय है
The Right-wing route is wrong
Sitaram Yechury
November 17, 2014
The current flavour of the month for the chatteratti is the 125th birth anniversary of the first Prime Minister of India, Jawaharlal Nehru. For the media, ‘Breaking News’ is generating a debate on why the Congress has not invited Prime Minister Narendra Modi to its international seminar on Nehru’s worldview and legacy.

Monday, November 17, 2014

जनता खेमे में यह उमड़-घुमड़ कैसी?

हिंदू में केशव का कार्टून
जनता परिवार की पार्टियों के एक होने की कोशिशों के पीछे सबसे बड़ी वजह यही लगती है कि नरेंद्र मोदी और बीजेपी के देश में बढ़ते असर को रोकने के लिए उन्हें एक छतरी की जरूरत है। यह छतरी किस तरह की होगी और कब तक कायम रहेगी? इस सवाल का जवाब देने के लिए पहले हमें उस छतरी के खड़े होने का इंतज़ार करना होगा। पिछले साल इन्हीं दिनों से शुरू हुई इस मुहिम के सिलसिले में कम से कम तीन बड़ी बैठकें तकरीबन इन्हीं नेताओं की दिल्ली में हो चुकी हैं। नतीजा सामने नहीं आया है।

इधर जवाहर लाल नेहरू की 125वीं जयंती के सहारे कांग्रेस ने जरूर धर्म निरपेक्ष छतरी के रूप में अपनी बैनर भी ऊँचा कर दिया है। सवाल है कि धर्म निरपेक्षता की ध्वजवाहक कांग्रेस को माना जाए या जनता परिवार से जुड़ी उन पार्टियों को जो गाहे-बगाहे एक साथ आती हैं और फिर अलग हो जाती हैं? पर जैसा कि जनता परिवार के कुछ नेता कह रहे हैं कि इस मुहिम का मोदी और भाजपा से कुछ भी लेना-देना नहीं है। हम तो नई राजनीति की शुरूआत करना चाहते हैं, तब सवाल पैदा होगा कि इस नई राजनीति में नया क्या है? मुलायम सिंह यादव और लालू यादव की राजनीति के मुकाबले नीतीश कुमार की राजनीति में नई बात विकास और सुशासन वगैरह की थी, पर वह नारा तो भाजपा के साथ गया। क्या वह अब भी नीतीश कुमार का नारा है?

Sunday, November 16, 2014

मोदी का 'एक्ट ईस्ट'

भारत की लुक ईस्ट पॉलिसी को देश के नए नेतृत्व ने एक्ट ईस्ट का एक नया रंग दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस वक्त ऑस्ट्रेलिया की यात्रा पर हैं, जहाँ एक और भारत-ऑस्ट्रेलिया रिश्तों पर बात होगी वहीं वे ब्रिसबेन में हो रहे जी-20 शिखर सम्मेलन में हिस्सा ले रहे हैं। वैश्विक अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाने, पश्चिम एशिया में इस्लामिक स्टेट के नाम के एक नए आंदोलन के खड़े होने और एशिया-प्रशांत क्षेत्र के बदलते परिदृश्य के विचार से यह सम्मेलन बेहद महत्वपूर्ण है। ब्राजील में हुए ब्रिक्स सम्मेलन के बाद नरेंद्र मोदी का यह सबसे बड़ा अंतरराष्ट्रीय संवाद भी है। इसके पहले वे म्यांमार में हुए आसियान शिखर सम्मेलन और ईस्ट एशिया समिट में हिस्सा लेकर आए हैं, जहाँ उन्होंने भारत के आर्थिक बदलाव का जिक्र करने के अलावा भारत की क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं का उल्लेख भी किया। उन्होंने लुक ईस्ट के संवर्धित रूप एक्ट ईस्ट का जिक्र भी इस बार किया।

Saturday, November 15, 2014

बिखरे जनता परिवार की एकता?

 क्षेत्रीय राजनीति के लिए सही मौका है और दस्तूर भी,
पर इस त्रिमूर्ति का इरादा क्या है?
पिछले हफ्ते दिल्ली में बिखरे हुए जनता परिवार को फिर से बटोरने की कोशिश के पीछे की ताकत और सम्भावनाओं को गम्भीरता के साथ देखने की जरूरत है। इसे केवल भारतीय जनता पार्टी को रोकने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है। व्यावहारिक रूप से यह पहल ज्यादा व्यापक और प्रभावशाली हो सकती है। खास तौर से कांग्रेस के पराभव के बाद उसकी जगह को भरने की कोशिश के रूप में यह सफल भी हो सकती है। भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय राजनीति को एक-ध्रुवीय बना दिया है। उसके गठबंधन सहयोगी भी बौने होते जा रहे हैं। ऐसे में क्षेत्रीय राजनीति को भी मंच की तलाश है। संघीय व्यवस्था में क्षेत्रीय आकांक्षाओं को केवल राष्ट्रीय पार्टी के भरोसे छोड़ा नहीं जा सकता। पर सवाल यह है कि लालू, मुलायम, नीतीश पर केंद्रित यह पहल क्षेत्रीय राजनीति को मजबूत करने के वास्ते है भी या नहीं? इसे केवल अस्तित्व रक्षा तक सीमित क्यों न माना जाए?

Tuesday, November 11, 2014

अंतरिक्ष में भारत बनाम चीन

एक साल पहले 6 नवम्बर दिन अखबारों में मंगलयान के प्रक्षेपण की खबर छपी थी। 5 नवम्बर के उस प्रक्षेपण के बाद पिछली 24 सितम्बर को जब भारत के मंगलयान ने जब सफलता हासिल की थी तब पश्चिमी मीडिया ने इस बात को खासतौर से रेखांकित किया कि भारत और चीन के बीच अब अंतरिक्ष में होड़ शुरू होने वाली है। ऐसी ही होड़ साठ के दशक में अमेरिका और सोवियत संघ के बीच चली थी। स्पेस रेस शब्द तभी गढ़ा गया था, जो अब भारत-चीन के संदर्भों में इस्तेमाल हो रहा है। भारत के संदर्भ में जब भी बात होती है तो उसकी तुलना चीन से की जाती है। माना जा रहा है कि इक्कीसवीं सदी इन दोनों देशों की है।

Sunday, November 9, 2014

मोदी का गाँवों की जनता से संवाद

नरेंद्र मोदी की बातों को गाँवों और कस्बों में रहने वाले लोग बड़े गौर से सुन रह हैं। हाल में उन्होंने रेडियो को मार्फत जनता से जो संवाद किया उसकी अहमियत शहरों में भले न रही हो, पर गाँवों में थी। गाँवों में बिजली नहीं आती। रेडियो आज भी वहाँ का महत्वपूर्ण माध्यम है। नरेंद्र मोदी ने उसके महत्व को समझा और गाँवों से सीधे सम्पर्क का उसे ज़रिया बनाया। शुक्रवार को वाराणसी में उनके कार्यक्रमों में जयापुर गाँव का कार्यक्रम गाँव के लोगों को छूता था। यह केवल एक गाँव का मसला नहीं है बल्कि देशभर के गाँवों की नजर इस कार्यक्रम पर थी।

Saturday, November 8, 2014

आर्थिक शक्ति देती है सामरिक सुरक्षा की गारंटी

वैश्विक व्यवस्था और खासतौर से अर्थ-व्यवस्था का प्रभावशाली हिस्सा बनने के लिए भारत को अपने सामाजिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक और सामरिक रिश्तों को भी पुनर्परिभाषित करना होगा। जो देश आर्थिक रूप से सबल हैं वे सामरिक रूप से भी मजबूत हैं। उनकी संस्कृति ही दुनिया के सिर पर चढ़कर बोलती है। संयुक्त राष्ट्र के गठन के समय अंग्रेजी और फ्रेंच दो भाषाओं को औपचारिक रूप से उसकी भाषाएं माना जाता था। फिर 1948 में इसमें रूसी भाषा जुड़ी, इसके बाद स्पेनिश। सत्तर के दशक में चीनी भाषा इसमें शामिल हुई। उसके बाद अरबी को आधिकारिक भाषा बनाया गया। सत्तर के दशक में पेट्रोलियम की ताकत ने अरबी को वैश्विक भाषा का दर्जा दिलाया था। सन 77 में जब तत्कालीन विदेशमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण दिया था, तब से यह माँग की जा रही है कि हिंदी को भी संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाना चाहिए। उसे आधिकारिक भाषा बनाने के लिए भारी खर्च की व्यवस्था करनी होगी इसलिए हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा नहीं बनाया जा सकता। अपनी बात कहने का अधिकार उन्हें ज्यादा है जिनके पास सामर्थ्य है।

Sunday, November 2, 2014

राजनीति के साथ गवर्नेंस का मसला भी है काला पैसा

काले धन का मसला राजनीति नहीं गवर्नेंस से जुड़ा है। भारतीय जनता पार्टी ने इसे चुनाव का मसला बनाया था, पर अब उसे इस मामले में प्रशासनिक कौशल का परिचय देना होगा। सवाल केवल काले धन का पता लगाने और उसे वापस लाने का नहीं है, बल्कि बुनियाद पर प्रहार करने का है। काला धन जन्म क्यों लेता है और इस चक्र को किस तरह रोका जाए? कुछ लोगों का अनुमान है कि भारत में काले धन की व्यवस्था सकल राष्ट्रीय उत्पाद की 60 से 65 फीसदी है। यानी लगभग 60 से 65 लाख करोड़ रुपए के कारोबार का हिसाब-किताब नहीं है। इससे एक ओर सरकारी राजस्व को घाटा होता है दूसरे मुद्रास्फीति बढ़ती है। पर इसे रोकने के लिए आप क्या करते हैं?

Saturday, November 1, 2014

जानकारी देने में घबराते क्यों हो?

सूचना पाने के अधिकार से जुड़ा कानून बन जाने भर से काम पूरा नहीं हो जाता। कानून बनने के बाद उसके व्यावहारिक निहितार्थों का सवाल सामने आता है। पिछले साल जब देश के छह राजनीतिक दलों को नागरिक के जानकारी पाने के अधिकार के दायरे में रखे जाने की पेशकश की गई तो दो तरह की प्रतिक्रियाएं आईं। इसका समर्थन करने वालों को लगता था कि राजनीतिक दलों का काफी हिसाब-किताब अंधेरे में होता है। उसे रोशनी में लाना चाहिए। पर इस फैसले का लगभग सभी राजनीतिक दलों ने विरोध किया। पर प्रश्न व्यापक पारदर्शिता और जिम्मेदारी का है। देश के तमाम राजनीतिक दल परचूनी की दुकान की तरह चलते हैं। केवल पार्टियों की बात नहीं है पूरी व्यवस्था की पारदर्शिता का सवाल है। जैसे-जैसे कानून की जकड़ बढ़ रही है वैसे-वैसे निहित स्वार्थ इस पर पर्दा डालने की कोशिशें करते जा रहे हैं।  

Sunday, October 26, 2014

कांग्रेस की गांधी-छत्रछाया


पी चिदंबरम के ताज़ा वक्तव्य से इस बात का आभास नहीं मिलता कि कांग्रेस के भीतर परिवार से बाहर निकलने की कसमसाहट है। बल्कि विनम्रता के साथ कहा गया है कि सोनिया गांधी और राहुल को ही पार्टी का भविष्य तय करना चाहिए। हाँ, सम्भव है भविष्य में नेहरू-गांधी परिवार से बाहर का कोई नेता पार्टी अध्यक्ष बन जाए। इस वक्त पार्टी का मनोबल बहुत गिरा हुआ है। इस तरफ तत्परता से ध्यान देने और पार्टी में आंतरिक परिवर्तन करने का अनुरोध उन्होंने ज़रूर किया। पर यह अनुरोध भी सोनिया और राहुल से है। साथ ही दोनों से यह अनुरोध भी किया कि वे जनता और मीडिया से ज्यादा से ज्यादा मुखातिब हों। इस मामले में उन्होंने भाजपा को कांग्रेस से ज्यादा अंक दिए हैं।

Thursday, October 23, 2014

बदलते अंधेरे और बदलते चिराग़

इस साल लालकिले के प्राचीर से स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, मेड इन इंडिया के साथ-साथ दुनिया से कहें मेक इन इंडिया. भारत की यात्रा पर आए चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने कहा, चीन दुनिया का कारखाना है और भारत दुनिया का दफ्तर. उधर सरसंघचालक मोहन भागवत ने विजयादशमी पर अपने संदेश में कहा, हम अपने देवी और देवताओं की मूर्तियां व अन्य उत्पाद भी चीन से खरीद रहे हैं, जिस पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए. जाने-अनजाने दीपावली की रात आप अपने घर में एलईडी के जिन नन्हें बल्बों से रोशनी करने वाले हैं उनमें से ज्यादातर चीन में बने हैं. वैश्वीकरण की बेला में क्या हम इन बातों के निहितार्थ और अंतर्विरोधों को समझ रहे हैं?

Wednesday, October 22, 2014

और अब आर्थिक सुधारों की उड़ान

नरेंद्र मोदी की सरकार वोटर को संतुष्ट करने में कामयाब है या नहीं इसका संकेतक महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनावों को माना जाए तो कहा जा सकता है कि जनता फिलहाल सरकार के साथ खड़ी है। और अब लगता है कि सरकार आर्थिक नीतियों से जुड़े बड़े फैसले अपेक्षाकृत आसानी से करेगी। सरकार ने कोल सेक्टर और पेट्रोलियम को लेकर दो बड़े फैसले कर भी लिए हैं। मई में नई सरकार बनने के बाद के शुरूआती फैसलों में से एक पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों से जुड़ा था। फिर प्याज, टमाटर और आलू की कीमतों को लेकर सरकार की किरकिरी हुई। मॉनसून भी अच्छा नहीं रहा। अंदेशा था कि दीपावली के मौके पर मतदाता मोदी सरकार के प्रति अपनी नाराज़गी व्यक्त करेगा। पर ऐसा हुआ नहीं। जैसाकि हर साल होता है दीपावली के ठीक पहले सब्जी मंडियों में दाम गिरने लगे हैं। टमाटर और प्याज अब आसानी से खरीदे जा सकते हैं। फूल गोभी सस्ती होने लगी है। मूली 10 रुपए किलो पर बिक रही है और इसके भी नीचे जाएगी। नया आलू आने के बाद उसके दाम गिरेंगे। वित्तमंत्री को लगता है कि अर्थ-व्यवस्था की तीसरी और चौथी तिमाही काफी बेहतर होने वाली है।

Sunday, October 19, 2014

चुनावी रंगमंच पर ‘मोदी मैजिक’ की पुष्टि

चुनावी रंगमंच पर ‘मोदी मैजिक’ का भविष्य

  • 5 घंटे पहले
नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री, भारत, भारतीय जनता पार्टी, भाजपा
महाराष्ट्र और हरियाणा के विधान सभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को मिली बढ़त भारतीय राजनीति में नए दौर की शुरुआत की तरह है.
लोकसभा चुनावों के बाद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की स्वीकार्यता की अग्निपरीक्षा के रूप में देखे जा रहे इन दोनों विधान सभा चुनावों ने भाजपा को सही मायनों में देश की प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी के रूप में स्थापित कर दिया है.
इन राज्यों में मिली सफलता भाजपा को अन्य राज्यों में अपना प्रभाव बढ़ाने में मदद करेगी.
लेकिन इस जीत से क्षेत्रीय दलों के भाजपा के ख़िलाफ़ एकजुट होने की मांग भी ज़ोर पकड़ सकती है.

पढ़ें प्रमोद जोशी का विश्लेषण विस्तार से

हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव परिणामों का रुख़ तीन बातों की ओर इशारा कर रहा है. भाजपा निर्विवाद रूप से देश की सबसे प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी बन चुकी है.
दूसरी ओर कांग्रेस के सामने क्षेत्रीय दल बनने का ख़तरा है. और क्षेत्रीय दलों के पराभव का नया दौर शुरू हो गया है.

आत्मनिर्भर भाजपा की आहट

आज हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव परिणाम वैसे ही रहे जैसे कि एक्ज़िट पोल बता रहे हैं तब भारतीय राजनीति में तीन नई प्रवृत्तियाँ सामने आएंगी। भाजपा निर्विवाद रूप से देश की सबसे प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी बनेगी। दूसरे कांग्रेस के सामने क्षेत्रीय दल बनने का खतरा पैदा हो जाएगा। तीसरे क्षेत्रीय दलों के पराभव का नया दौर शुरू होगा। भाजपा को अब दिल्ली विधानसभा के चुनाव कराने का फैसला लाभकारी लगेगा। मोदी लहर को खारिज करने वाले खारिज हो जाएंगे। और अमित शाह के नेतृत्व में पार्टी के नए नेतृत्व को मान्यता मिल जाएगी। 

इन दोनों राज्यों में कांग्रेस को प्रतीकात्मक सफलता भी मिली तो ठीक। वरना पार्टी अंधे कुएं में जा गिरेगी। दूसरी ओर गठबंधन सहयोगियों के बगैर चुनाव में सफल हुई भाजपा के आत्मविश्वास में कई गुना वृद्धि होगी। अब सवाल है कि क्या पार्टी एनडीए को बनाए रखना चाहेगी? क्या क्षेत्रीय दलों के लिए यह खतरे की घंटी है? और क्या इसके कारण राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा-विरोधी मोर्चे को बनाने की मुहिम जोर नहीं पकड़ेगी?

Saturday, October 18, 2014

संयुक्त राष्ट्र नहीं, महत्वपूर्ण है हमारी संसद का प्रस्ताव

जम्मू-कश्मीर के मामले में दो बातें समझ ली जानी चाहिए। पहली यह कि इस मामले को संयुक्त राष्ट्र में भारत लेकर गया था न कि पाकिस्तान। 1 जनवरी 1948 को भारत ने यह मामला उठाया और इसमें साफ तौर पर पाकिस्तान की ओर से कबायलियों और पाकिस्तानी सेना के जम्मू-कश्मीर में प्रवेश की शिकायत की गई थी। यह मसला अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत किसी फोरम पर कभी नहीं उठा। भारत की सदाशयता के कारण पारित सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव के एक अंश को पाकिस्तान आज तक रह-रहकर उठाता रहा है, पर पूरी स्थिति को कभी नहीं बताता। 13 अगस्त 1948 के प्रस्ताव को लागू कराने को लेकर पाकिस्तान संज़ीदा था तो उसी समय पाकिस्तानी सेना जम्मू-कश्मीर छोड़कर क्यों नहीं चली गई और उसने कश्मीर में घुस आए कबायलियों को वापस पाकिस्तान ले जाने की कोशिश क्यों नहीं कीप्रस्ताव के अनुसार पहला काम उसे यही करना था।

Sunday, October 12, 2014

अशांति के दौर में शांति का पुरस्कार

इस साल का नोबेल शांति-पुरस्कार एक विसंगति की ओर इशारा कर रहा है। इस पुरस्कार की घोषणा जिस वक्त हुई है उस वक्त भारत और पाकिस्तान की सुरक्षा सेनाएं जम्मू-कश्मीर की नियंत्रण रेखा पर एक अघोषित युद्ध लड़ रहीं है। दोनों देश एटम बमों से लैस हैं, दोनों के पास दुनिया के बेहतरीन शस्त्रास्त्र हैं, दोनों बदलाव के एक महत्वपूर्ण दौर से गुज़र रहे हैं और दोनों के नागरिकों के सामने भोजन, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य और न्याय की बुनियादी सुविधाओं का संकट है। नोबेल पुरस्कार समिति ने संयुक्त पुरस्कार क्या सोचकर दिया कहना मुश्किल है, पर दोनों देशों के नागरिकों को इस पुरस्कार के गहरे निहितार्थ को समझने की कोशिश करनी चाहिए। यह पुरस्कार मलाला और कैलाश सत्यार्थी से ज्यादा इन दोनों देशों के लिए महत्वपूर्ण है।

Saturday, October 11, 2014

ई-रिटेल का खेल, अभी तो यह शुरुआत है

फ्लिपकार्ट की बिग-बैंग सेल के बाद भारत के ई-रिटेल को लेकर कई बातें रोशनी में आईं हैं। इसकी अच्छाइयों और बुराइयों के किस्से सामने हैं, कई पेचीदगियों ने सिर उठाया है और सम्भावनाओं का नया आसमान खुला है। इस नए बाज़ार ने व्यापार कानूनों के छिद्रों की ओर भी इशारा किया है। यह बाज़ार इंटरनेट के सहारे है जिसकी पहली पायदान पर ही हम खड़े हैं। ‘बिग बिलियन डे’ की सेल ने नए मायावी संसार की झलक भारतवासियों को दिखाई साथ ही फ्लिपकार्ट की प्रबंध क्षमता और तकनीकी प्रबंध पर सवाल भी उठाए। इसके लिए उसके सह-संस्थापकों सचिन बंसल और बिनी बंसल ने फौरन अपने ग्राहकों से माफी माँगी। उनकी असली परीक्षा अब अगले कुछ दिनों में होगी।

Thursday, October 9, 2014

अब खुल रहा है ई-बाज़ार...

पिछले एक हफ्ते की गतिविधियों को देखते हुए शायद दिनकर की पंक्तियों को कुछ संशोधित करके इस तरह कहने की घड़ी आ रही है, सेनानी करो प्रयाण अभय, सायबर आकाश तुम्हारा है. चीन की ई-कॉमर्स वेबसाइट अलीबाबा न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध हो गयी. उसके संस्थापक और कार्यकारी अध्यक्ष जैक मा 21 अरब डॉलर की संपत्ति के साथ दुनिया के सबसे अमीर लोगों में से एक बन गए. नौजवानों को स्टीव जॉब्स, जुकेनबर्ग और बिल गेट्स जैसा एक और रोल मॉडल मिल गया है. उधर भारत में सबसे बड़े ई-रिटेल ग्रुप फ्लिपकार्ट ने अपनी बंपर सेल के 'बिग बिलियन डे' को बिगबैंग के अंदाज़ में मनाया. यह अलग बात है कि कुछ नासमझी, कुछ अनुभवहीनता और कुछ तकनीकी सीमाओं ने फ्लिपकार्ट को फ्लॉपकार्ट बनाने में देर नहीं की और सोशल मीडिया ने उसका जमकर मज़ाक उड़ाया. 

Monday, October 6, 2014

खेलों में हम फिसड्डी ही साबित क्यों होते हैं?

इंचियॉन के एशिया खेलों में जब भारत की टीम जा रही थी तब उम्मीद ज़ाहिर की गई थी कि सन 2010 के ग्वांगझो एशियाड के मुकाबले इस बार हमारे खिलाड़ी बेहतर प्रदर्शन करेंगे। ग्वांगझो में हमें कुल 65 मेडल मिले थे। एशिया खेलों में वह हमारा अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था। इसके पहले सन 1982 के दिल्ली एशियाड में हमें 57 मेडल मिले थे। पहले एशिया खेल सन 1951 में दिल्ली में हुए थे। तब पदक तालिका में हम 51 मेडलों के साथ दूसरे स्थान पर रहे, जबकि 60 मेडलों के साथ जापान पहले स्थान पर रहा। 1982 में कुल 57 मेडलों के साथ हम पाँचवें पर, 2010 में छठे पर और इस बार 57 मेडलों के साथ हम आठवें स्थान पर रहे। 342 मेडलों के साथ चीन का पहला नम्बर रहा।

Sunday, October 5, 2014

सामूहिक इच्छा होगी तो सब साफ हो जाएगा

महात्मा गांधी के चरखा यज्ञ की सामाजिक भूमिका पर कम लोगों ने ध्यान दिया होगा। देशभर के लाखों लोग जब चरखा चलाते थे, तब कपड़ा बनाने के लिए सूत तैयार होता था साथ ही करोड़ों लोगों की ऊर्जा एकाकार होकर राष्ट्रीय ऊर्जा में तबदील होती थी। प्रतीकात्मक कार्यक्रमों का कुशलता से इस्तेमाल व्यावहारिक रूप से बड़े परिणाम भी देता है। जैसे लाल बहादुर शास्त्री के जय जवान, जय किसान के नारे ने संकट के मौके पर देश को एक कर दिया। यह एकता केवल संकटों का सामना करने के लिए ही नहीं चाहिए, बल्कि राष्ट्रीय निर्माण के लिए भी इसकी जरूरत है। भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना-आंदोलन या निर्भया मामले में जनता के रोष के पीछे भी यह राष्ट्रीय एकता खड़ी थी। इस एकता या सर्वानुमति की अक्सर जरूरत होगी, क्योंकि हमारी व्यवस्था इतनी प्रभावशाली नहीं है कि सारे काम हल करके दे दे। उसे प्रभावशाली बनाने के लिए भी जनांदोलनों की जरूरत है।

Sunday, September 28, 2014

मोदी का ‘ग्लोबल कनेक्ट’

यह लेख नरेंद्र मोदी के संयुक्त राष्ट्र महासभा के भाषण के पहले लिखा गया था। महासभा के भाषणों का व्यावहारिक महत्व कोई खास नहीं होता। भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर को लेकर कहा-सुनी चलती है। भारत मानता है कि यह द्विपक्षीय प्रश्न है, इसे अंतरराष्ट्रीय मंच पर उठाया नहीं जाना चाहिए। पर सच है कि इसे भारत ही अंतरराष्ट्रीय मंच पर लेकर गया था। पाकिस्तान ने हमेशा इसका फायदा उठाया और पश्चिम के साथ अच्छे सम्पर्कों का उसे फायदा मिला। पश्चिमी देश भारत को मित्र मानते हैं पर सामरिक कारणों से पाकिस्तान को वे अपने गठबंधन का हिस्सा मानते हैं। सीटो और सेंटो का जब तक वजूद था, पाकिस्तान उनका गठबंधन सहयोगी था भी। आने वाले वर्षों में भारत को अपने आकार और प्रभावशाली अर्थ-व्यवस्था का लाभ मिलेगा। पर देश की आंतरिक राजनीति और हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को प्रौढ़ होने में समय लग रहा है। हमारी विकास की गति धीमी है। फैसले करने में दिक्कतें हैं। बहरहाल नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत दुनिया से कुछ खरी बातें कहने की स्थिति में आ गया है। यह बात धीरे-धीरे ज्यादा साफ होती जाएगी।


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिका आने के ठीक पहले वॉल स्ट्रीट जनरल के लिए लेख लिखा है। इस लेख में उन्होंने अपने सपनों के भारत का खाका खींचा है साथ ही अमेरिका समेत दुनिया को भारत में निवेश के लिए आमंत्रित किया है। उन्होंने लिखा है, कहते हैं ना काम को सही करना उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना सही काम करना। अमेरिका रवाना होने के ठीक पहले दिल्ली में और दुनिया के अनेक देशों में एक साथ शुरू हुए मेक इन इंडिया अभियान की शुरुआत की थी। इस अभियान के ठीक एक दिन पहले भारत के वैज्ञानिकों ने मंगलयान अभियान के सफल होने की घोषणा की। संयोग है कि समूचा भारत पितृ-पक्ष के बाद नव-रात्रि मना रहा है। त्योहारों और पर्वों का यह दौर अब अगले कई महीने तक चलेगा।

Saturday, September 27, 2014

न्यूक्लियर डील के पेचो-ख़म

पहले जापान, फिर चीन और अब अमेरिका के साथ बातचीत की बेला में भारतीय विदेश नीति के अंतर्विरोध नज़र आने लगे हैं। सन 2005 के भारत-अमेरिका सामरिक सहयोग के समझौते के बाद सन 2008 के न्यूक्लियर डील ने दोनों देशों को काफी करीब कर दिया था। इसी डील ने दोनों के बीच खटास पैदा कर दी है। विवाद की जड़ में है सिविल लायबिलिटी फॉर न्यूक्लियर डैमेज एक्ट 2010 की वे व्यवस्थाएं जो परमाणु दुर्घटना की स्थिति में मुआवजा देने की स्थिति में उपकरण सप्लाई करने वाली कम्पनी पर जिम्मेदारी डालती हैं। खासतौर से इस कानून की धारा 17 से जुड़े मसले पर दोनों देशों के बीच सहमति नहीं है। यह असहमति केवल अमेरिका के साथ ही नहीं है, दूसरे देशों के साथ भी है। जापान के साथ तो हमारा कुछ बुनियादी बातों को लेकर समझौता ही नहीं हो पा रहा है।