Monday, November 19, 2012

दिल्ली धमाका! तैयारी विंटर सेल की!


यह हफ्ता काफी नाज़ुक साबित होने वाला है। कांग्रेस पार्टी ने देर से, लेकिन अपेक्षाकृत व्यवस्थित तरीके से महीने की शुरूआत की है, पर 22 तारीख से शुरू हो रहे संसद के सत्र में साफ हो जाएगा कि अगले लोकसभा चुनाव 2014 में होंगे या 2013 में। मनमोहन सिंह ने डिनर पर मुलायम सिंह से और लंच पर मायावती से मुलाकात कर ली है। किसी को भी समझ में आता है कि बात लोकसभा के फ्लोर मैनेजमेंट को लेकर हुई होगी। मतदान की नौबत आई तो क्या करेंगे? संगठन के स्तर पर भी बात हुई होगी। पर प्रधानमंत्री की मुलाकात का मतलब समझ में आता है। उन्होंने सरकारी नीतियों को स्पष्ट किया होगा या गलतफहमियों को दूर करने की कोशिश की होगी। सपा और बसपा पर दारोमदार है। सहयोगी दलों के अलावा बीजेपी के साथ भी कांग्रेस का बैकरूम संवाद चल रहा है। आर्थिक उदारीकरण के सवाल पर दोनों पार्टियों में वैचारिक सहमति है।

Sunday, November 18, 2012

बाल ठाकरे के बारे में कुछ बातें


नीचे कुछ पैराग्राफ अभय कुमार दुबे की किताब बाल ठाकरे से लिए हैं। यह किताब 1999 में प्रकाशित हुई थी। सात किताबों की सीरीज़ का यह हिस्सा थी। सीरीज़ का नाम था आज के नेता/आलोचनात्मक अध्ययनमाला। यह वह दौर था, जब भारतीय राजनीति में क्षेत्रीय नेताओं का उठान शुरू हुआ था। इसकी प्रस्तावना में कहा गया था, 'ये लोग आज के नेता तो हां लेकिन आज़ादी के आंदोलन से निकले नेताओं की तरह सभी भारतीयों के नेता नहीं हैं। वे कुछ तबकों, जाति समूहों या किसी एक प्रवृत्ति के प्रतिनिधि नज़र आते हैं।...इनमें से अधिकांश नेताओं का आगमन साठ के दशक के आसपास हुआ था और इसी किस्म के जो नेता सत्तर और अस्सी के दशक में उभरे उनके लिए अनुकूल इतिहास बनाने की शुरूआत भी साठ के ज़माने ने ही कर दी थी।...निश्चय ही ये नेता ज़मीन के जिस टुकड़े से जुड़े हुए हैं उसमें उनकी जड़ें बहुत गहरी हैं।...इनका सौन्दर्यबोध, राजनीति से इतर विषयों की जानकारी और दिलचस्पी नेहरू युग के नेताओं के मुकाबले हीन प्रतीत होती है।...यही नेता हमारी राजनीति के वर्तमान हैं और ये भविष्य का ठीक-ठीक प्रतिनिधित्व नहीं करते, तो भी भविष्य इन्हीं के बीच से निकलने वाला है।' इस सीरीज़ में जिन नेताओं को कवर किया गया था वे थे मुलायम सिंह, ज्योति बसु, लालू यादव,  कांसीराम, कल्याण सिंह, बाल ठाकरे और मेधा पाटकर। यह सीरीज़ आगे बढ़ी या नहीं, मेरे लिए कहना मुश्किल है। बहरहाल बाल ठाकरे का संदर्भ शुरू हुआ है, तो उनसे जुड़ी किताब के कुछ अंश पढ़ें--

Saturday, November 17, 2012

मुलायम क्या जल्दी चुनाव चाहते हैं?

उत्तर प्रदेश की 80 में से 55 लोकसभा सीटों के लिए प्रत्याशी घोषित करके क्या मुलायम सिंह ने चुनाव का बिगुल बजा दिया है? हालांकि यह बात उनकी राजनीति से असंगत नहीं है और इस साल विधानसभा चुनाव में विजय पाने के बाद उन्होंने कहा था कि जल्द ही लोकसभा चुनाव के लिए तैयार रहें। ऐसा माना जाता है कि आने वाले लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, अन्ना द्रमुक, अकाली दल जैसे क्षेत्रीय दलों को फायदा मिलेगा। पर जल्द चुनाव के  माने क्या हैं? क्या लोकसभा के इसी सत्र में यह फैसला होगा? या सरकार बजट पेश करने के बाद चुनाव की घोषणा करेगी? करेगी भी तो क्यों करेगी? क्या जल्दी चुनाव कराने से कांग्रेस का कुछ भला होने वाला है?

Friday, November 16, 2012

चीन एक वैकल्पिक मॉडल भी है

चीनी व्यवस्था को लेकर हम कितनी भी आलोचना करें, दो बातों की अनदेखी नहीं कर सकते। एक 1949 से, जब से नव-चीन का उदय हुआ है, उसकी नीतियों में निरंतरता है। यह भी सही है कि लम्बी छलांग और सांस्कृतिक क्रांति के कारण साठ के दशक में चीन ने भयानक संकटों का सामना किया। इस दौरान देश ने कुछ जबर्दस्त दुर्भिक्षों का सामना भी किया। सत्तर के दशक में पार्टी के भीतर वैचारिक मतभेद भी उभरे। देश के वैचारिक दृष्टिकोण में बुनियादी बदलाव आया। माओ के समवर्ती नेताओं में चाऊ एन लाई अपेक्षाकृत व्यावहारिक थे, पर माओ के साथ उनका स्वास्थ्य भी खराब होता गया। माओ के निधन के कुछ महीने पहले उनका निधन भी हो गया। उनके पहले ल्यू शाओ ची ने पार्टी की सैद्धांतिक दिशा में बदलाव का प्रयास किया, पर उन्हें कैपिटलिस्ट रोडर कह कर अलग-थलग कर दिया गया और अंततः उनकी 1969 में संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई। उसके बाद 1971 में लिन बियाओ माओ के खिलाफ बगावत की कोशिश में मारे गए। 1976 में माओ जेदुंग के निधन के बाद आए हुआ ग्वो फंग और देंग श्याओ फंग पर ल्यू शाओ ची की छाप थी। कम से कम देंग देश को उसी रास्ते पर ले गए, जिस पर ल्यू शाओ ची जाना चाहते थे। चीन का यह रास्ता है आधुनिकीकरण और समृद्धि का रास्ता। कुछ लोग मानते हैं कि चीन पूँजीवादी देश हो गया है।  वे पूँजीवाद का मतलब निजी पूँजी, निजी कारखाने और बाजार व्यवस्था को ही मानते हैं। पूँजी सरकारी हो या निजी इससे क्या फर्क पड़ता है? यह बात सोवियत संघ में दिखाई पड़ी जहाँ व्यवस्था का ढक्कन खुलते ही अनेक पूँजीपति घराने सामने आ गए। इनमें से ज्यादातर या तो पुरानी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता हैं या कम्युनिस्ट शासन से अनुग्रहीत लोग। चीनी निरंतरता का दूसरा पहलू यह है कि 1991 में सोवियत संघ के टूटने के बावजूद चीन की शासन-व्यवस्था ने खुद को कम्युनिस्ट कहना बंद नहीं किया। वहाँ का नेतृत्व लगातार शांतिपूर्ण तरीके से बदलता जा रहा है। इसका मतलब यह हुआ कि वहाँ पार्टी का बड़ा तबका प्रभावशाली है, केवल कुछ व्यक्तियों की व्यवस्था नहीं है।

Thursday, November 15, 2012

चीन में नया नेतृत्व

General Secretary of the Central Committee of the Communist Party of China (CPC) Xi Jinping (C) and the other newly-elected members of the Standing Committee of the 18th CPC Central Committee Political Bureau Li Keqiang (3rd R), Zhang Dejiang (3rd L), Yu Zhengsheng (2nd R), Liu Yunshan (2nd L), Wang Qishan (1st R), Zhang Gaoli (1st L) meet with journalists at the Great Hall of the People in Beijing, capital of China, Nov. 15, 2012. Photo: Xinhua 


चीन के पोलित ब्यूरो की स्थायी समिति के सात सदस्यों की घोषणा हो गई है। जैसा अनुमान था इसके सदस्यों की संख्या नौ से घटकर सात हो गई है। ऊपर के चित्र से आपको नेतृत्व के वरिष्ठता क्रम का पता भी लग जाएगा। केन्द्रीय समिति के नेताओं में से तकरीबन आधे सेवा-निवृत्त हो गए  हैं। वर्तमान राष्ट्रपति हू जिंताओ और प्रधानमंत्री वेन जियाओ बाओ के नाम इसमें नहीं हैं। चीनी अखबरा ग्लोबल टाइम्स की खबर के अंश पढ़ें

The Constitution of the Communist Party of China (CPC) has enshrined the "Scientific Outlook on Development," a political guideline that puts people first and calls for balanced and sustainable development, the 18th CPC National Congress announced as the week-long event concluded on Wednesday.

Some 2,270 Party delegates cast votes Wednesday, electing the new CPC Central Committee and the new Central Commission for Discipline Inspection.

Nearly 50 percent of the new Central Committee are newcomers, indicating that the CPC, with 91 years of history and more than 82 million members, has again completed its leadership transition.
Other members of 17th Party leadership, Hu Jintao, Wu Bangguo, Wen Jiabao, Jia Qinglin, Li Changchun, He Guoqiang and Zhou Yongkang, are not in the new Central Committee. 

Wednesday, November 14, 2012

चीन में राजनीतिक बदलाव




चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की एक हफ्ते से चल रही कांग्रेस खत्म हो गई है और नए नेताओं की घोषणा भी हो गई है। इसके निहितार्थ क्या हैं, इसके बारे में अब कुछ समय तक अटकलें लगेंगी। पहला चुनाव पार्टी की नई केंद्रीय समिति का हुआ है, जिसमें में देश की सर्वोच्च नीति निर्धारण संस्था पोलित ब्यूरो और उसकी स्थायी समिति का गठन किया गया है। अगले राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और दूसरे नीति निर्धारकों के नाम भी स्पष्ट हो गए हैं।

चीन में हर दस साल में नेतृत्व परिवर्तन होता है। अठारहवीं कांग्रेस केवल नेतृत्व परिवर्तन के कारण महत्वपूर्ण नहीं है। महत्व है राजनीतिक, आर्थिक और संवैधानिक सुधारों का। पार्टी कांग्रेस के उदघाटन भाषण में राष्ट्रपति हू ने भ्रष्टाचार को बड़ी चुनौती बताया था, जिससे अगर नहीं निपटा गया तो उसके घातक परिणाम हो सकते हैं। कांग्रेस के समापन भाषण में उन्होंने कहा कि कांग्रेस ने पुराने नेताओं की जगह नए युवा नेताओं को चुन लिया है और ऐतिहासिक महत्व के फैसले किए हैं। अनुमान है कि पार्टी की केन्द्रीय समिति में चीन के सबसे अमीर लियांग वेनजेन इस संस्था में शामिल होने वाले पहले प्राइवेट बिजनेसमैन होंगे।

Monday, November 12, 2012

डूडल फॉर गूगल प्रतियोगिता


चंडीगढ़ के छात्र अरुण कुमार यादव ने इस साल बाल दिवस का Doodle4Google पुरस्कार जीता है। इसके पहले भी मैने डूडल फॉर गूगल के बारे में लिखा है। गूगल ने अपने लोगो के सहारे रचनात्मक आंदोलन खड़ा कर दिया है। एक और गूगल अपने तईं दुनियाभर के देशों में अलग-अलग मौकों पर लोगो ज़ारी करता है। इन लोगो के माध्यम से जीवन के विविध क्षेत्रों की जानकारी हमें मिलती है। साथ ही गूगल को दुनिया भार से जुड़ने का मौका मिलता है। इस साल भारत के गूगल अभियान का विषय था 'विविधता में एकता'। इसके लिए 1000 से ज्यादा स्कूलों से 2,00,000 से ज्यादा प्रविष्टियाँ आईं थीं। प्रतियोगिता के निर्णायकों में अभिनेता बोमन ईरानी और कार्टूनिस्ट अजित नायनन थे। 

National Winner

Arun Kumar Yadav, Kendriya Vidyalaya, Chandigarh
Arun Kumar Yadav

India : A prism of multiplicity
India has diverse cultures, religions, languages, customs and traditions. This diversity can be witnessed in enthusiasm for sports; unique folk culture; extraordinary remarkable handicrafts; wide range of flora and fauna; agricultural practices with worldwide farming output; unparalleled spices and cuisines... Such colossal diversities represent Indias oneness.


Category Winners
Vasudevan DeepakClass 1-3
Vasudevan Deepak, Devgiri CMI Public School, Calicut
The Great Banyan
India is like a large banyan tree that shelters and protects everyone who comes to it. It brings different kinds of living things together under the same roof.



Shravya ManjunathClass 4-7
Shravya Manjunath, Mitra Academy, Bangalore
Unity in dance disperses vibrant colours
The Google Doodle portrayed by me represents the different dance forms of India. Dance, being the common topic in my doodle has many sub-divisions. Hence the different dances performed by Indians come under a united category dance. So my doodle represents the topic, "Unity in Diversity"


Class 8-10
S. Preetham Paul, Sri Prakash Vidyaniketan, T.P.T. Branch, Vishakhapatnam
Striding Forward the Unity
S. Preetham PaulIndia is the home to a wide variety of languages, crops, religions, architectural masonry, music and dance forms, and so on, with blurred boundaries between them. Despite such immense diversity of culture across the country, Indians tend to be together, and take the nation forward, towards progress.

गूगल लोगो पर मेरी पिछली पोस्ट



चीन के खामोश बदलाव को भी देखिए

अमेरिका में पिछले हफ्ते राष्ट्रपति चुनाव हुआ। छह महीने से दुनिया भर का मीडिया चुनाव-चुनाव चिल्ला रहा था। भारत में कब चुनाव होगा, इसे लेकर संग्राम मचा है। पर इस हफ्ते चीन में सत्ता परिवर्तन हो रहा है तो इसका ज़िक्र वैसे ही हो रहा है जैसे अखबारों के सांस्कृतिक समाचार। दुनिया की दूसरी नम्बर की आर्थिक महाशक्ति जो सामरिक ताकत से लेकर ओलिम्पिक खेलों के मैदान तक अपना झंडा गाड़ चुकी है, अपने राजनीतिक नेतृत्व की अगली पीढ़ी को आगे ला रही है। जैसा कि इमकान है शी जिनपिंग देश के नए राष्ट्रपति होंगे और ली केचियांग नए प्रधानमंत्री। पर इस देश में केवल दो नेता ही नहीं होते। चीन की सर्वोच्च राजनीतिक संस्था पोलित ब्यूरो के 25 सदस्य सबसे महत्वपूर्ण राजनेता होते हैं। इनमें भी सबसे महत्वपूर्ण होते हैं पोलित ब्यूरो की स्थायी समिति के नौ सदस्य। इनमें राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी शामिल हैं। कुछ लोगों को लगता है कि दुनिया से कम्युनिज़्म का सफाया हो चुका है, उनके लिए चीन अभी अध्ययन का विषय है। वहाँ की अर्थ-व्यवस्था बड़ी संख्या में लोगों को पूँजीवादी लगती है। कम से कम नीतियों के संदर्भ में चीन के मुकाबले भारत ज़्यादा बड़ा समाजवादी देश लगता है। चीन के खुदरा बाज़ार में सौ फीसदी विदेशी निवेश सम्भव है। भारत में 49 फीसदी सीमित निवेश लागू कराने में लाले लगे हैं। पश्चिमी देशों की निगाह में न सिर्फ पूँजी निवेश के मामले में बल्कि व्यापार शुरू करने और उसे चलाने के मामले में भारत के मुकाबले चीन बेहतर है।

Sunday, November 11, 2012

Biggest tree in the world / दुनिया का सबसे बड़ा पेड़


अद्भुत विश्व-2
Amazing World-2


दुनिया का सबसे ऊँचा पेड़
 दुनिया का सबसे ऊँचा जीवित पेड़ है रेडवुड नेशनल पार्क, कैलिफोर्निया में खड़ा कोस्ट रेडवुड जिसकी ऊँचाई है 115.66 मीटर यानी 379 फुट। कुतुब मीनार से भी ऊँचे इस पेड़ की तुलना कुछ और चीजों से करें तो पाएंगे कि यह अमेरिकी संसद भवन और स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी से भी ज्यादा ऊँचा है।


और सबसे बड़ा यानी सबसे ज्यादा जगह घेरने वाला पेड़ है जनरल शर्मन। आसानी से समझने के लिए सबसे ज्यादा लकड़ी देने वाला पेड़।

Friday, November 9, 2012

मछली बाज़ार और मीडिया की भाषा एक जैसी नहीं हो सकती


वित्तमंत्री पी चिदंबरम के बेटे के खिलाफ ट्वीट करने पर युवा उद्योगपति रवि श्रीनिवासन को इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट की धारा 66-ए के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। इसके पहले बंगाल में कार्टून प्रकरण हुआ था। असीम त्रिवेदी का प्रकरण भी हाल की बात है। सायबर स्पेस में अपराध बढ़ रहे हैं। बैंकों के साथ धोखाधड़ी, क्रेडिट कार्ड और एटीएम के दुरुपयोग बढ़ रहे हैं। अब तो एमएस आते हैं कि आपके नाम पाँच करोड़ की लॉटरी खुल गई है। अपने बारे में जानकारी भेजें। हर रोज़ ई-मेल के इनबॉक्स में अनेक स्पैम-मेल होती है। बावज़ूद इसके कि जीमेल सिस्टम अपनी तरफ से काफी मेल स्पैम मानकर ट्रैश में भेज देता है। सायबर स्पेस का संवाद दोधारी तलवार की तरह घाव करता है। अभद्रता बढ़ी है और शालीन तरीके से अपनी बात कहने वाले दबे हैं। बदमज़गी का माहौल है।

Monday, November 5, 2012

राहुल, रिफॉर्म और भैंस के आगे बीन





गारंटी के साथ नहीं कहा जा सकता कि कांग्रेस को इस रैली से फायदा होगा, पर इससे नुकसान भी कुछ नहीं होने वाला। पार्टी के पास अब आक्रामक होने के अलावा विकल्प भी नहीं बचा था। उसकी अतिशय रक्षात्मक रणनीति के कारण पिछले लगभग तीन साल से बीजेपी की राजनीति में प्राण पड़ गए थे, अन्यथा जिस वक्त आडवाणी जी को हटाकर गडकरी को लाया गया था, उसी वक्त बीजेपी ने अपना भविष्य तय कर लिया था। रविवार को जब कांग्रेस रामलीला मैदान में रैली कर रही थी, तब दिल्ली में मुरली मनोहर जोशी कुछ व्यापारियों के साथ भैस के आगे बीन बजा रहे थे। खुदरा बाजार में विदेशी निवेश को लेकर बीजेपी ने जो स्टैंड लिया है वह नकारात्मक है सकारात्मक नहीं। हमारी राजनीति में कांग्रेस भी ऐसा ही करती रही है। ज़रूरत इस बात की है कि सकारात्मक राजनीति हो। बहरहाल कांग्रेस को खुलकर अपनी बात सामने रखनी चाहिए। यदि राजनीति इस बात की है कि तेज आर्थिक विकास हमें चाहिए ताकि उपलब्ध साधनों को गरीब जनता तक पहुँचाया जा सके तो इस बात को पूरी शिद्दत से कहा जाना चाहिए। गैस के जिस सिलेंडर को लेकर हम बहस में उलझे हैं, उसका सबसे बड़ा उपभोक्ता मध्य वर्ग है। शहरी गरीब आज भी महंगी गैस खरीदते हैं, क्योंकि उनके पास केवाईसी नहीं है। घर के पते का दस्तावेज़ नहीं है। वे अपने नाम कनेक्शन नहीं ले सकते हैं और मज़बूरन छोटे सिलंडरों में बिकने वाली अवैध गैस खरीदते हैं। राहुल गांधी ने जिस सिस्टम की बात कही है, वह वास्तव में गरीबों का सिस्टम नहीं है। आम आदमी की पहुँच से काफी दूर है। पिछले साल दिसम्बर में सरकार ने संसद में Citizen's Charter and Grievance Redressal Bill 2011 पेश किया था। यह बिल समय से पास हो जाता तो नागरिकों को कुछ सुविधाओं को समय से कराने का अधिकार प्राप्त हो जाता। अन्ना हजारे आंदोलन के कारण कुछ हुआ हो या न हुआ हो जनता का दबाव तो बढ़ा ही है। यह आंदोलन व्यवस्था-विरोधी आंदोलन था। कांग्रेस ने इसे अपने खिलाफ क्यों माना और अब राहुल गांधी वही बात क्यों कह रहे हैं?

Saturday, November 3, 2012

नायपॉल को लेकर इतने उत्तेजित क्यों हुए गिरीश कर्नाड?

नायपॉल और उनकी पत्नी नादिरा के बीजेपी दफ्तर में जाने की
यह तस्वीर भी आज फिर से दिखाई पड़ी।

लेखक-अभिनेता गिरीश कर्नाड ने मुम्बई लिटफेस्ट में वीएस नायपॉल के बारे में जो बातें कहीं हैं, उन्हें लेकर विचार करने की ज़रूरत है। गिरीश कर्नाड की सेक्युलर पहचान ज़ाहिर है और वीएस नायपॉल के मुस्लिम-जगत को लेकर विचार से भी काफी लोग परिचित हैं। नायपॉल को नोबेल पुरस्कार 9/11 के कारण मिला यह भी मान लेते हैं, पर कर्नाड ने जिस मौके पर अपने विचार व्यक्त किए उसे उचित कैसे ठहराया जा सकता है? यों भी उन्हें आयोजकों ने अपने रंगमंचीय जीवन के बारे में विचार व्यक्त करने के लिए बुलाया था, पर उन्होंने उस विषय पर कुछ भी नहीं बोला। केवल नायपॉल पर बोला। बहरहाल कर्नाड की इस वक्तृता के बाद सेक्युलरवाद, छद्म धर्मनिरपेक्षता, मुस्लिम शासन और भारतीय संस्कृति को लेकर वह बहस शायद फिर से शुरू हो जाएगी, जो कुछेक साल से पृष्ठभूमि में चली गई थी। पिछले साल जयपुर फेस्टिवल में सलमान रुश्दी के आगमन को लेकर इस बहस ने सिर उठाया था, पर वह समय रहते दब गई। यों इस बात का धर्मनिरपेक्षता से कोई लेना-देना नहीं है। भारतीय इतिहास को लेकर कई तरह की दृष्टियों के टकराव का यह भी एक रूप है।  गिरीश कर्नाड ने जो कुछ भी कहा, वह अनायास नहीं था। और उन्होंने जो कहा, वह नई बात भी नहीं थी। इस खबर के फैलने के बाद सायबर स्पेस में यह बहस शुरू हो भी चुकी है। फर्स्ट पोस्ट में आर जगन्नाथ ने कर्नाड की भर्त्सना करते हुए टिप्पणी की है।

आज के इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित रपट के अंश बताते हैं कि वे कितने उत्तेजित थेः-

 Not only did he cast aspersions on the credibility of some accounts in Naipaul’s book India: A Wounded Civilisation, Karnad also lashed out at the Nobel laureate for his critical views on the influence of Islam on India. Naipaul was given the award on Wednesday at the Tata Literature Live! LitFest, which is now in its third year. Karnad was invited on Friday to talk about his life as a theatre person but he chose to launch an attack against the Trinidadian-born writer, who was not in the audience... While he admitted that “Naipaul is certainly among the great English writers of our generation”, Karnad said Naipaul had painted even the Taj Mahal in poor light. “Of the Taj, probably the most beloved of the monuments in India, Naipaul writes, ‘The Taj is so wasteful, so decadent and in the end, so cruel that it is painful to be there for very long. This is an extravagance that speaks of the blood of the people’,” Karnad said.

Karnad said Naipaul had visited the BJP office in Delhi some years ago and made some controversial remarks. “Ayodhya, he said, is a sort of passion. Any passion is creative. Passion leads to creativity,” Karnad quoted Naipaul as having said. Foreign writers such as William Dalrymple had spoken about these incidents connected to Naipaul but not Indian writers, Karnad added.

“Naipaul is a foreigner and he is entitled to his opinion. But why give an award to a man who calls Indian Muslims ‘raiders’ and ‘marauders’? I have Muslim friends and I feel strongly about this,” he said...When the session was thrown open to the audience, Naipaul’s friend, writer Farrokh Dhondy, rose to ask a question. But Karnad refused to entertain any queries from him. “This is like a court where the prosecution has been presenting its case without giving any opportunity to the defence,” Dhondy remarked in anger.

Festival director Anil Dharker was disappointed by the way the session had turned out. “We gave you the chance to speak about your life in theatre, but you never spoke about it. Instead, you chose to go on about a writer who has won the Nobel Prize for literature,” Dharker said, addressing Karnad from the audience. “When we gave him the award, it was because of his entire body of work and not any one particular book. To have taken this up here was not polite.”

Soon after, the session was brought to an abrupt end. Speaking about the incident later, Dhondy said Naipaul never made the remarks about Ayodhya Karnad had attributed to him. “In fact, his wife, Nadira, is a Muslim and so is his adopted son. By not letting me quiz him, Karnad imposed censorship, something that he himself vehemently opposes,” Dhondy said.

नायपॉल का सम्मान बुधवार को हुए समारोह में किया गया था। उसमें उन्होंने कहा था कि  मैं भारत के बारे में काफी लिख चुका हूँ। इस पर अब और नहीं लिखूँगा। मैंने भारत के बारे में चार किताबें, दो उपन्यास और बहुत से निबंध लिखे हैं।' उन्होंने 1962 में किताब लिखने के लिए भारत यात्रा के अपने फैसले के बारे में बात करते हुए कहा, 'मेरी पृष्ठभूमि भारतीय है और मेरी रुचि हमेशा अपनी पृष्ठभूमि में रही है।' सर विद्याधर सूरजप्रसाद नायपॉल बुधवार की शाम नैशनल सेंटर फॉर प्रोग्रामिंग आर्ट्स(एनसीपीए) संचालित लिटरेचर लाइव फेस्ट के तीसरे आयोजन में लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड हासिल करने के लिए मुम्शबई में थे। त्रिनिदाद-ब्रिटिश लेखक उस समय भावुक हो उठे जब उनसे उनके व्यक्तिगत फिक्शन 'ए हाउस फॉर बिस्वास' के बारे में बात की गई। यह 1961 में प्रकाशित हुआ था और उनके पिता के जीवन के इर्द-गिर्द घूमता है। नायपॉल जब उन यादों के बारे में बात कर रहे थे, तो उनकी पत्नी नादिरा ने उनका इंटरव्यू ले रहे लेखक फारूख ढोंडी से इस विषय को छोड़कर आगे बढ़ने की गुजारिश की।


शुक्रवार के कार्यक्रम में कर्नाड ने कहा कि जहां भारत की हर गली, हर रेस्त्रां और सभी जगह संगीत की उपस्थिति दिखाई देती है, ऐसे में आपको उम्मीद होती है कि वह इस पर भी कुछ लिखेंगे। नायपॉल ने भारत पर तीन किताबें लिखी हैं। तीन बड़ी किताबें, जिनमें से एक में भी संगीत का जिक्र तक नहीं है। अब मुझे लगता है कि वह टोन-डेफ (संगीत की कद्र न करने वाले) हैं। अगर आप संगीत नहीं समझते हैं, अगर आप संगीत पर अपनी प्रतिक्रिया नहीं दे सकते हैं, तो आप भारत के इतिहास पर भी अपनी प्रतिक्रिया नहीं दे सकते क्योंकि भारतीय संस्कृति की असल पहचान संगीत से ही रही है। भारतीय संस्कृति को समझने में यही नायपॉल की समस्या रही है। वह भक्ति और सूफी के बारे में हिंदूओं और मुस्लिमों के कलाकौशल से अनजान रहे हैं, जो भारत को विरासत में मिले हैं।

कर्नाड ने नायपॉल पर पश्चिमी सभ्यता को लाने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा, विदेशी आते हैं, भारतीय संस्कृति को देखते हैं। वे हिदुओं की मूल संस्कृति को देखते हैं। वे देखते हैं कि ये मुस्लिमों द्वारा भ्रष्ट है। नायपॉल की किताबों में आप इन्हीं चीजों को पाएंगे, जिनका वह दावा करते हैं कि उन्होंने यह खोज खुद से की है, बल्कि ये पहले से ही की गई हर इंडोलॉजिक स्टडी में मौजूद हैं।

कर्नाड ने कहा, नोबेल पुरस्कार से सम्मानित लेखक वास्तुकला पर लिखते हैं, जिस पर उन्होंने लिखा भी है, लेकिन वही मुस्लिम विरोधी विचारों के साथ। आज भी वह यही भविष्यवाणी करने में लगे हैं कि मुस्लिम भरतीय वास्तुकला को नष्ट कर देंगे। वह बस यही कहते रहते हैं कि वे छापेमार थे, वे ध्वंसक थे और आप मुस्लिमों के शासन के दौरान की किसी भी बिल्डिंग को देखो, क्या हाल है उनका। और ताज के बारे में लोगों द्वारा आपत्ति जताए जाने पर उन्होंने कहा, ताज एकदम बर्बाद है और अंत में मुझे वह बेहद क्रूर लगा, जिस वजह से मैं वहां अधिक देर तक नहीं रुक सका। कर्नाड ने व्यंग्यात्मक ढंग से कहा, हममें से कोई भी अगर ताज में मौजूद होता, तो इसे बेहद फिजूल का समझता जो वहां खड़े होकर लोगों के खून की बात कर रहा है! अब आप समझे, इसीलिए आपको नोबेल पुरस्कार मिला है।

काफिला में शिवम विज का आलेख जिसमें गिरीश कर्नाड के भाषण को विभिन्न स्रोतों से जोड़ा गया है।
इंडियन एक्सप्रेस में प्रताप भानु मेहता का आलेख
कर्नाड के समर्थन में हिन्दू में गीता हरिहरन का आलेख
हिन्दू में मुशीरुल हसन



Friday, November 2, 2012

ब्रेक के उस पार है रोचक तमाशा

कुछेक साल पुराना कार्टून जो हमेशा ताज़ा लगेगा
इस बात की सम्भावना है कि संसद का शीत सत्र 22 नवम्बर से शुरू होकर 20 दिसम्बर तक चलेगा। उस दौरान गुजरात विधान सभा के चुनाव का मतदान भी हो रहा होगा। जैसी कि उम्मीद है सरकार पेंशन और इंश्योरेंस से जुड़े कानूनों में संशोधन के अलावा भूमि अधिग्रहण विधेयक भी इस दौरान पास कराना चाहेगी। कम्पनी कानून में बदलाव का विधेयक भी इस दौरान आएगा। 

संसद के पिछले सत्र में बीजेपी ने कोल ब्लॉक्स को लेकर प्रधानमंत्री के इस्तीफे की माँग की थी और सदन में कार्य नहीं होने दिया था। क्या इस बार यह पार्टी संसदीय कार्य में हिस्सा लेगी? तृणमूल कांग्रेस का कहना है कि  सरकार अल्पमत में है, उसे सदन का विश्वास हासिल करना चाहिए। यह टेस्ट विधेयकों के पास होते समय भी किया जा सकता है। उस स्थिति में समाजवादी पार्टी और बसपा पर काफी कुछ निर्भर करेगा। दोनों पार्टियों ने फिलहाल सरकार गिराने का इरादा ज़ाहिर नहीं किया है। बसपा ने फैसला अपनी नेता पर छोड़ दिया है, जो बहुजन समाज के हित को देखते हुए उचित निर्णय करेंगी। 

अन्ना हज़ारे और उनके साथ आए जनरल वीके सिंह संसद के घेराव की योजना बना रहे हैं। ममता बनर्जी भी कह रहीं हैं कि संसद भंग कर दो। कुछ लोगों को लगता है कि इस सत्र के दौरान सरकार की छुट्टी हो जाएगी, पर मुझे यह बात समझ में नहीं आती। कोई भी पार्टी अभी चुनाव के लिए तैयारदिखाई नहीं पड़ती। कोई सांसद यों भी अपनी सदस्यता डेढ़ साल पहले छोड़ना नहीं चाहेगा। अगले चुनाव में जीतने की कोई गारंटी नहीं है। संसद का कार्यक्रम घोषित होने के बाद पार्टियों के वक्तव्यों पर ध्यान देंगे तो राजनीति के अनेक रोचक अंतर्विरोध सामने आएंगे। तमाशा देखने लायक होगा। 

Thursday, November 1, 2012

गौरी भोंसले के नाम पर क्या यह खबर भी सीरियल की पब्लिसिटी थी?

इस बात पर टाइम्स ऑफ इंडिया ने ध्यान दिया। खबर में खास बात नहीं थी, पर लगता है कि कुछ बड़े अखबार इस खबर के लपेटे में आ गए। हाँ इससे एक बात यह भी साबित हुई कि लगभग सभी अखबार पुलिस की ब्रीफिंग का खुले तरीके से इस्तेमाल करते हैं और हर बात ऐसे लिखते हैं मानो यही सच है। पत्रकारिता की ट्रेनिंग के दौरान उन्हें बताया जाता है कि सावधानी से तथ्यों की पुष्टि करने के बाद लिखो, पर व्यवहार में ऐसा होता नहीं।

पहले आप यह विज्ञापन देखें जो कुछ दिन पहले कई अखबारों में छपा, जिसमें गौरी भोंसले नामक लड़की के लंदन से लापता होने की जानकारी दी गई थी। विज्ञापन देखने से ही पता लग जाता था कि यह किसी चीज़ की पब्लिसिटी के लिए है। इस सूचना की क्लिप्स लगभग खबर के अंदाज़ में एबीपी न्यूज़ में आ रहीं थीं। हालांकि एबीपी न्यूज़ का स्टार टीवी से सम्बन्ध अब नहीं है, पर विज्ञापन क्लिप्स खबर के अंदाज़ में आना क्या गलतफहमी पैदा करना नहीं है? पर स्टार के पास इसका जवाब है कि विज्ञापन को खबर के फॉ्र्मेट में देना मार्केटिंग रण नीति है। बहरहाल पहले से लग रहा था कि स्टार पर कोई सीरियल आने वाला है, जिसमें इस किस्म की कहानी है। अचानक 31 अक्टूबर को दिल्ली के इंडियन एक्सप्रेस, मेल टुडे और हिन्दू ने खबर छापी कि वह लड़की उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के एक गाँव से बरामद की गई है। हिन्दू ने खबर में लड़की का नाम नहीं दिया, जबकि बाकी दोनों अखबारों ने उसका नाम गौरी भोंसले, वही विज्ञापन वाला नाम।

Monday, October 29, 2012

संज़ीदगी के चक्कर में क़मेडी सर्कस बनती राजनीति


हक़ीक़त में मैं एक बुलबुल हूँ, मगर चारे की ख़्वाहिश में/ बना हूँ मिम्बर-ए-कौंसिल यहाँ मिट्ठू मियाँ होकर
अकबर इलाहाबादी की सिफत थी कि वे अपने आसपास की दिखावटी दुनिया पर पुरज़ोर वार करते थे। आज वे होते तो उन्हें लिखने का जो माहौल मिलता, वह उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध और बीसवीं सदी के शुरुआती दो दशकों से बेहतर होता, जिस दौर में उन्होंने लिखा। आज आप जिधर निगाहें उठाएं तमाम मिट्ठू मियाँ नज़र आएंगे। जसपाल भट्टी की उलट बाँसियों में भी उसी किस्म का आनंद मिलता था। अपने दौर को किसी किस्म की छूट दिए बगैर महीन किस्म की डाँट लगाने का फन हरेक के बस की बात नहीं। पर ज़माने की रफ्तार है कि पहले से ज्यादा तेज़ हुई जा रही है। फेसबुक में किसी ने हाल के घोटालों की लिस्ट बनाकर पेश की है। पढ़ते जाएं तो खत्म होने का नाम नहीं लेती। आलम यह है कि आज एक लिस्ट बनाओ, कल चार नाम और जुड़े जाते हैं। भारतीय घोटाला-सेनानियों के खुश-खबरी यह है कि इधर दुनिया के कुछ और नाम सुनाई पड़े हैं। पहले लगता था कि घोटालों में नाम जुड़ने से बदनामी होती है, पर अब लगता है कि इससे एक किस्म की मान्यता मिलती है कि आदमी काम का है। संसद के मॉनसून सत्र को सिर पर उठाने वाले भाजपाई नेताओं को अरविन्द केजरीवाल ने नितिन गडकरी के नाम फूलों के गुलदस्ते भेजे तो सबने खुशी जताई कि इत्ती सा बात। हम तो ज्यादा बड़े घोटालों की उम्मीद कर रहे थे। बहरहाल गडकरी जी के करिअर में गतिरोध आ रहा है। हालांकि पार्टी के नेता साथ खड़े हैं, पर कहना मुश्किल है कि वे अगले सत्र के लिए अध्यक्ष चुने जाएंगे या नहीं। उन्हें फिर से अध्यक्ष बनाने के लिए पार्टी ने संविधान में संशोधन तक कर लिया था।

Sunday, October 28, 2012

नई मंत्रिपरिषद


Dr Manmohan Singh- Prime Minister

Cabinet Ministers
Vayalar Ravi – Overseas Indian Affairs

Kapil Sibal – Communications & Information Technology

CP Joshi – Road Transport & Highways

Kumari Selja – Social Justice & Empowerment

Pawan Kumar Bansal – Railways

Salman Khursheed – External Affairs

Jairam Ramesh – Rural Development

M Veerappa Moily – Petroleum & Natural Gas

S Jaipal Reddy – Science & Technology and Earth Sciences

Kamal Nath – Urban Development & Parliamentary Affairs

K Rahman Khan- Minority Affairs

Dinsha J Patel- Mines

Ajay Maken – Housing & Urban Poverty Alleviation

MM Pallam Raju – Human Resource Development

Ashwani Kumar – Law & Justice

Harish Rawat- Water Resources

Chandresh Kumari Katoch- Culture

Ministers of State with independent charge

Manish Tewari – Information & Broadcasting

Dr K Chiranjeevi – Tourism

Jyotiraditya Madhavrao Scindia – Power

KH Muniappa – Micro, Small & Medium Enterprises

Bharatsinh Madhavsinh Solanki – Drinking Water & Sanitation

Sachin Pilot – Corporate Affairs

Jitendra Singh – Youth Affairs & Sports

Ministers of state
Dr Shashi Tharoor – Human Resource Development

Kodikunnil Suresh – Labour & Employment

Tariq Anwar – Agriculture & Food Processing Industries

KJ Surya Prakash Reddy – Railways

Ranee Narah – Tribal Affairs

Adhir Ranjan Chowdhury – Railways

AH Khan Choudhury – Health & Family Welfare

Sarvey Sathyanarayana – Road Transport & Highways

Ninong Ering – Minority Affairs

Deepa Dasmunsi – Urban Development

Porika Balram Naik – Social Justice & Empowerment

Dr( Smt) Kruparani Killi – Communications & Information Technology

Lalchand Kataria – Defence

E Ahamed – External Affairs

D Purandeswari – Commerce & Industry

Jitin Prasada – Defence & Human Resource Development

Dr S Jagathrakshakan – New & Renewable Energy

RPN Singh – Home

KC Venugopal – Civil Aviation

Rajeev Shukla – Parliamentary Affairs & Planning

भ्रष्टाचार मूल रोग नहीं, रोग का लक्षण है


यह जो नन्हा है भोला भाला है
खूनीं सरमाए का निवाला है
पूछती है यह इसकी खामोशी
कोई मुझको बचाने वाला है!

अली सरदार ज़ाफरी की ये पंक्तियाँ यों ही याद आती हैं। पिछले कुछ साल से देश में आग जैसी लगी है। लगता है सब कुछ तबाह हुआ जा रहा है। घोटालों पर घोटाले सामने आ रहे हैं। हमें लगता है ये घोटाले ही सबसे बड़ा रोग है। गहराई से सोचें तो पता लगता है कि ये घोटाले रोग नहीं रोग का एक लक्षण है। रोग तो कहीं और है।

तीन-चार महीने पहले हरियाणा और पंजाब की यात्रा के दौरान सड़क के दोनों ओर खेतों लगी आग की ओर ध्यान गया। यह आग किसानों ने खुद अपने खेतों में लगाई थी। हमारे साथ एक कृषि विज्ञानी भी थे। उनका कहना था कि पुरानी फसल को साफ करने के इस तरीके के खिलाफ सरकार तमाम प्रयास करके हार गई है। इसे अपराध घोषित किया जा चुका है, अक्सर किसानों के खिलाफ रपट दर्ज होती रहती हैं, पर किसान प्रतिबंध के बावजूद धान के अवशेष जलाकर न सिर्फ पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं, बल्कि अपने खेत की उर्वरा शक्ति को कम करते हैं। कृषि विभाग खेत में फसलों के अवशेष को आग लगाने के खिलाफ जागरूकता अभियान भी चलाता है लेकिन इसके किसानों को बात समझ में नहीं आती। हमारे साथ वाले कृषि वैज्ञानिकों का कहना था कि पुआल जैविक खाद के रूप में भी तब्दील की जा सकती है जिससे जमीन की आवश्यकता की पूर्ति की जा सकती है। लेकिन जागरूकता के अभाव में किसान अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार रहे हैं। किसानों का कहना है कि धान की कटाई के बाद किसान गेहूं, सरसों, बरसीम लहसुन, टमाटर, गोभी आदि फसलों की बुआई करनी है। कंबाईन से धान कटाई के बाद काफी पुआल खेत में रह जाते हैं। कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि इन अवशेषों में ऐसे जैविक पदार्थ होते हैं, जो खाद का काम करते हैं। इस पर कुछ किसान कहते हैं कि धान के अवशेष रहने पर गेहूं की फसल तो उगाई जा सकती है, लेकिन सब्जियाँ नहीं उगाई जा सकतीं।

फेरबदल माने, ढाक के तीन पात

केन्द्रीय मंत्रिमंडल का विस्तार हुआ, इतनी बात तो सही साबित हुई, पर न तो इसमें राहुल गांधी दिखाई पड़े और न राहुल फैक्टर। अलबत्ता कांग्रेस की परम्परागत समझ ज़रूर दिखाई पड़ी, सेटिंग्स। आंध्र को सेट करने की कोशिश। वर्तमान को साधे रखने की कोशिश, जोखिम से बचने की कोशिश। कई बार कांग्रेस काफी समझदार लोगों की पार्टी नज़र आती है, फिर अचानक लगता है कि ऐसा कुछ नहीं है। मंत्रिमंडल में बदलाव से जिसने भी जो उम्मीदें लगाईं थीं वे गलत साबित हुईं, सिवा उनके जिन्हें इससे कुछ मिलना था या खोना था।

पार्टी नेतृत्व के सामने यह आखिरी मौका है, जब पार्टी की छवि बनाई जा सकती है। सवाल है कैसी छवि? सामान्य व्यक्ति के जीवन में फर्क नहीं पड़ा तो सारी छवियाँ बेकार हैं। जगनमोहन रेड्डी इसी कांग्रेस संस्कृति से निकले हैं और उन्होंने कांग्रेस को परेशान कर रखा है।  पर अगले लोकसभा चुनाव में बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल, छत्तीसगढ़ और झारखंड का हिन्दी इलाका महत्वपूर्ण साबित होगा। यहाँ कांग्रेस खुद को लगातार अलोकप्रिय कर रही है। इन राज्यों में पार्टी के पास संगठन नहीं है। शेष राज्यों में कहाँ है, पता नहीं। कांग्रेस को दुबारा सत्ता मिली तो टीना फैक्टर (देयर इज़ नो ऑल्टरनेटिव) काम करेगा।

नीति के स्तर पर सरकार खाद्य सुरक्षा कानून, महात्मा गांधी ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना, शिक्षा का अधिकार और राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य कार्यक्रम के अंतर्गत भारी राशि खर्च करने जा रही है, पर कोई दावा नहीं कर सकता कि गरीबों तक वह ठीक ढंग से पहुँच पाएगी। भ्रष्टाचार महत्वपूर्ण मसला है या नहीं, पर सरकार सिटिजन चार्टर और ह्विसिल ब्लोवर कानून पास नहीं करा पाई है।

राहुल गांधी राजनीति में पूरे वेग के साथ हिस्सा लेने की हिम्मत नहीं कर पा रहे हैं। केवल कुर्ता पाजामा पहनने और कुछ गरीबों की कुटिया में भोजन करने से काम नहीं होगा। इससे मीडिया में जगह मिल जाएगी, पर जनता की बेचैनी और बढ़ेगी। पार्टी के पास संगठन नहीं है और न कर्मठ कार्यकर्ता हैं। नेता बनने का फॉर्मूला है परिवार की नज़र में चढ़ना।

हालांकि शपथ की भाषा यह तय नहीं करती कि किसका जनता से जुड़ाव कितना है, पर आप एक नज़र डालें तो नेताओं की शक्लो-सूरत और ज़मीन से जुड़ाव का पता लगता है। गुजरात के दिनशा पटेल, बंगाल की दीपा दासमुंशी, आंध्र के बलराम नायक, अरुणाचल के निनांग इरिंग और राजस्थान के लालचंद कटारिया ने हिन्दी में शपथ ली। बलराम नायक का अटक-अटक कर हिन्दी पढ़ना भी नहीं अखरा। इससे इनका ज़मीन से जुड़ाव दिखाई पड़ता है। दिल्ली के अजय माकन अपेक्षाकृत ज़मीनी नेता हैं, पर उन्होंने और अश्विनी कुमार और मनीष तिवारी ने अंग्रेजी में शपथ ली। अजय माकन हो सकता है कि मणिशंकर अय्यर को बताना चाहते हों कि मुझे अंग्रेज़ी आती है। इनके मुकाबले हरीश रावत और तारिक अनवर का हिन्दी में शपथ लेना उनके जनाधार को भी बताता है। उत्तराखंड में कांग्रेस-विरोधी भी हरीश रावत के सिर्फ इसलिए प्रशंसक हैं, क्योंकि वे जनाधार वाले नेता हैं। पर नेतृत्व इन बातों को नहीं समझता, इससे पार्टी की दशा और दिशा का पता लगता है।

अब देखना यह है कि राहुल गांधी किस रूप में राजनीति में सक्रिय होते हैं। कुछ लोगों को लगता है कि वे मंत्री बने तो बहुत जल्द किसी विवाद में फँस सकते हैं। पता नहीं ऐसा राहुल सोचते हैं या नहीं, पर यह सोच नकारात्मक है। इस सरकार में जयराम रमेश जैसे मंत्री भी हैं, जो वामपंथी नहीं हैं, पर अनेक वामपंथियों से बेहतर और सामान्य कांग्रेसी से ज्यादा साफ-सुथरे हैं। वैचारिक और सामाजिक आधार के लिहाज से कांग्रेस इस देश की सहज पार्टी है, पर उसे चलाने वाले  देश के सहज नेता नहीं है। जनाधार वाले नेता अब न कांग्रेस के पास हैं और न भाजपा के पास हैं। 

Saturday, October 27, 2012

इससे मीडिया पर पाबंदियों की माँग बढ़ेगी

नवीन जिन्दल-ज़ी न्यूज़ और  सलमान खुर्शीद-इंडिया टुडे प्रकरण ने तमाम और बातों के अलावा इस बात को रेखांकित किया है कि मीडिया के समाचार और कारोबार विभाग मिलकर काम करने लगे हैं, और इसके दुष्परिणाम सामने आएंगे। ये दुष्परिणाम कवरेज के रूप में ही दिखाई नहीं पड़ेंगे, बल्कि उन लोगों को हैंडल मिलेगा जो मीडिया पर सरकारी नियंत्रण लागू करना चाहते हैं।  कुछ महीने पहले कांग्रेस की सांसद मीनाक्षी नटराजन इस आशय का प्राइवेट बिल संसद में ला रहीं थीं। एक अर्से से जस्टिस मार्कंडेय काटजू मीडिया पर पाबंदियों का समर्थन कर रहे हैं। इसका मतलब है अंततः जनता के जानकारी पाने के अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर चोट लगेगी। इसके ज़िम्मेदार मीडिया-स्वामी, पत्रकारों का ज़रूरत से ज़्यादा महत्वाकांक्षी तबका  और सरकार है। हम यह भूल रहे हैं कि यह स्वतंत्रता जनता की है, पर कानूनी भाषा में यह शेयर होल्डर और मीडिया के स्वामी की है। पत्रकार इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते थे। उनका प्रशिक्षण इस बात के लिए था कि वे समाज के व्यापक हित में काम करते हैं, पर व्यावहारिक बात यह है कि वे अपने निजी हित में काम करते हैं और उनका उद्देश्य अपने स्वामी की हित-रक्षा है। यह सामाजिक अंतर्विरोध है। 

इस संकट के लिए मीडिया भी ज़िम्मेदार है। उसने यह संकट खुद निमंत्रित किया है। इसकी वजह उसका कारोबारी विस्तार है। पर यह कारोबार जूता पॉलिश का कारोबार नहीं है। इसके मैनेजरों को पता होना चाहिए कि वे जिस साख को बेच रहे हैं वह कई बरसों में हासिल की गई है। अभी तक हम जिस मुख्यधारा के मीडिया में काम करते रहे हैं उसमें एक संस्थान के भीतर कई गेटकीपर होते थे। उन द्वारपालों के मार्फत कई प्रकार की बातें सामने आने से रह जाती थीं। कारोबार और कर्म की विसंगति आज से नहीं हमेशा से है। पत्रकारीय व्यवस्था में जो लिहाज कल तक था, वह भी खत्म हो गया। ज़रूरत उस परम्परा को आगे बढ़ाने की थी, पर हुआ उसका उल्टा। लगभग समूचा मीडिया अपनी तारीफ में जब बातें करता है तो मूल्यों-मानदंडों और सत्कर्मों का ज़बर्दस्त ढिंढोरा पीटता है। 

सबसे खतरनाक बात है इस मसले पर मीडिया की चुप्पी। किसी को यह ज़रूरी नहीं लगता कि इस विषय पर लिखा जाए। पारदर्शिता पूरी तरह दो रोज़ में कायम नहीं होती, पर ऐसी अपारदर्शिता के क्या माने हैं? बहरहाल हिन्दू ने 27 अक्टूबर 2012 के अंक में इस विषय पर सम्पादकीय लिखकर इस चुप्पी को तोड़ा है। इसके पहले सपन दासगुप्ता ने पायनियर में लेख लिखकर इस मामले को उठाया था। भारतीय प्रिंट मीडिया में इस मामले का उतना ज़िक्र नहीं है, जितना इंटरनेट पर है। इसकी एक वज़ह यह है कि नेट पर मुफ्त का मीडिया है और किसी किस्म का फिल्टर या गेटकीपर न होने पर कुछ भी प्रकाशित हो जाता है, पर फर्स्टपोस्ट ने इस मामले में सबसे ज्यादा रपटें प्रकाशित की हैं। नीचें पढ़ें हिन्दू के सम्पादकीय का एक अंशः-


There is only one word for promising to back off on an investigation in exchange for lucrative advertising revenue: blackmail. And that is the essence of Mr. Jindal’s allegation against Zee. Of course, the hidden camera recordings, which seem to show the two editors making such an assurance, need to be assessed on many counts, including authenticity and the context in which the conversations took place. The Zee editors have denied all wrongdoing, claiming they were victims of an attempt to bribe them, implying they played along because their channels were conducting their own sting operation. But it boggles the mind why the two should have been discussing an advertising contract with executives of Jindal Steel and Power Ltd at a time when their channels were running a series of investigations on the company’s coal block allocations....Such illegal and unethical practices only serve to strengthen the voices that would like some control over the media in the form of external regulation. It was only this May that a private member’s bill seeking to regulate the working of the press and the electronic media was introduced in Parliament. 

हिन्दू में सम्पादकीय-मीडिया कहाँ हैं तेरे वाण?
बढ़ता टकराव फर्स्ट पोस्ट की रपट
भारतीय मीडिया के लिए एक मौका-फर्स्ट पोस्ट की रपट
नवीन जिन्दल और मीडिया-फर्स्ट पोस्ट की एक और रपट
राहुल गांधी की सहयोगी मीनाक्षी नटराजन के निजी विधेयक को लेकर उपजा विरोध
भारतीय मीडिया पर अमर्त्य सेन
न्यूयॉर्क टाइम्स के ब्लॉग इंडिया इंक में भ्रष्टाचार पर कथा

Friday, October 26, 2012

कांग्रेस को रक्षात्मक नहीं, आक्रामक बनना चाहिए

नितिन गडकरी संकट में आ गए हैं। उन्हें अब फिर से अध्यक्ष बनाना मुश्किल होगा। उनके लिए यह संकट केजरीवाल ने पैदा किया या कांग्रेस ने या पार्टी के भीतर से ही किसी ने यह अभी समझ में नहीं आएगा, पर राजनीति का खेल चल रहा है। हमारी सब से बड़ी उपलब्धि है लोकतंत्र। और लोकतंत्र को दिशा देने वाली राजनीति। पर राजनीति के अंतर्विरोध लगातार खुल रहे हैं। मीडिया के शोर पर यकीन करें तो लगता है कि आसमान टूट पड़ा है, पर इस शोर-संस्कृति ने मीडिया को अविश्वसनीय बना दिया है। हम इस बात पर गौर नहीं कर रहे हैं कि दुनिया के नए देशों में पनप रहे लोकतंत्रों में सबसे अच्छा और सबसे कामयाब लोकतंत्र हमारा है। इसकी सफलता में राजनीतिक दलों और मतदाताओं दोनों की भूमिका है। बेशक दोनों में काफी सुधार की सम्भावनाएं हैं। फिलहाल कांग्रेस पार्टी पर एक नज़र डालें जो आने वाले समय के लिए किसी बड़ी रणनीति को तैयार करती दिखाई पड़ती है। 

हिमाचल और गुजरात के चुनाव सिर पर हैं और कांग्रेस पार्टी के सामने राजनीतिक मुहावरे खोजने और क्रमशः बढ़ती अलोकप्रियता को तोड़ निकालने की चुनौती है। अरविन्द केजरीवाल ने फिलहाल कांग्रेस और भाजपा दोनों को परेशान कर रखा है। भाजपा ने नितिन गडकरी को दुबारा अध्यक्ष बनाने के लिए संविधान में संशोधन कर लिया था, पर केजरीवाल ने फच्चर फँसा दिया है। शुरू में जो मामूली बात लगती थी वह गैर-मामूली बनती जा रही है। 4 नवम्बर को हिमाचल में मतदान है और वीरभद्र सिंह ने मीडिया से पंगा मोल ले लिया है। कांग्रेस ने फौरन ही माफी माँगकर मामले को सुलझाने की कोशिश की है, पर चुनाव के मौके पर रंग में भंग हो गया। हिमाचल में सोनिया, राहुल और मनमोहन सिंह तीनों अभियान पर निकले हैं। शायद चुनाव के मौके पर कांग्रेस के लिए असमंजस पैदा करने के लिए ही वीरभद्र को उकसाया गया होगा, पर उन्हें उकसावे में आने की ज़रूरतही क्या थी? दोनों पार्टियों के प्रत्याशियों की सूचियाँ देर से ज़ारी हुईं है। सोनिया गांधी के जवाब में नरेन्द्र मोदी भी हिमाचल आ रहे हैं। हिमपात होने लगा है। अचानक बढ़ी ठंड ने प्रदेश के बड़े हिस्से को आगोश में लेना शुरू कर दिया है। हिमाचल के परिणाम से बहुत कुछ हासिल होने वाला नहीं है, पर कांग्रेस को इस समय छोटी-छोटी और प्रतीकात्मक सफलताएं चाहिए। हिमाचल में भी और उससे ज्यादा गुजरात में। हिमाचल और गुजरात दोनों जगह मुकाबला सीधा है। कांग्रेस और भाजपा के बीच। इस वक्त दोनों पार्टियाँ विवादों के घेरे में हैं। इन दो राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियाँ नहीं हैं, पर अगले लोकसभा चुनाव का सबसे बड़ा सवाल है कि क्या राष्ट्रीय दलों की पराजय होने वाली है।

Tuesday, October 23, 2012

अपने सवालों पर क्यों खामोश हो जाता है मीडिया

जिन्दल स्टील की ओर से ज़ी न्यूज़ के खिलाफ की गई शिकायत की जाँच चल रही है। जाँच के नतीज़े किस तरह सामने आएंगे, अभी कहना मुश्किल है, पर मुख्यधारा के मीडिया में इस सवाल पर चुप्पी है। लगभग ऐसी ही चुप्पी नीरा राडिया मामला उठने पर देखी गई थी। बेशक यह एक शिकायत है और किसी भी पक्ष को लेकर कोई बात नहीं कही जा सकती, पर सामान्य जानकारियाँ तो सामने लाई जा सकती हैं। अपने से जुड़े जितने भी मामले आए, जिनमें पेड न्यूज़ का मामला भी है, हमारा मीडिया खामोश हो जाता है। खामोश रहकर सुविचारित बात कहना उसकी फितरत नहीं है। केजरीवाल, गडकरी, सलमान खुर्शीद, रॉबर्ट वडरा और अंजली दमनिया के मामले सामने हैं। इधर पायनियर में सपन दासगुप्ता ने एक लेख लिखा है जो ध्यान खींचता है। उनके लेख का यह अंश महत्वपूर्ण हैः-

"The media didn’t react to the JSPL sting with the same measure of breathless excitement that greets every political corruption scandal because it is aware that this is just the tip of the iceberg. A thorough exploration of the media will unearth not merely sharp business practices but even horrifying criminality....
"Since the Press Council of India chairman Justice (retired) Markandey Katjuis desperate to make a mark, he would do well to suo moto establish a working group to inquire into journalistic ethics. He could travel to a small State in western India where there persistent rumours that those who claim to be high-minded crusaders arm-twisted a Chief Minister into bankrolling an event as the quid pro quo for not publishing an investigation into some dirty practices.
"The emphasis these days is on non-publishing. One editor, for example, specialised in the art of actually commissioning stories, treating it in the proper journalistic way and even creating a dummy page. This dummy page would be sent to the victim along with a verbal ‘demand notice’. Most of them paid up. This may be a reason why this gentleman’s unpublished works are thought to be more significant than the few scribbles that reached the readers and for which he received lots of awards."

सपन दासगुप्ता एक नए चलन की ओर ध्यान दिला रहे हैं। वह है खबर न छापना। उन्होंने एक सम्पादक का ज़िक्र किया है जो किसी के बारे में पड़ताल कराते हैं, फिर उसके बारे में  एक पेज बनवाते हैं। फिर उस डमी पेज को सम्बद्ध व्यक्ति के पास भिजवाते हैं। माँग पूरी होने पर पेज रुक जाता है। ऐसा कितना होता है पता नहीं, पर अखबारों और टीवी स्टिंग के किस्से बताते हैं कि खोजी पत्रकारिता का एक रूप अब खोज-खबर पर ढक्कन लगाना हो गया है। हाल के वर्षों में हमारे मीडिया की साख को सबसे जबर्दस्त धक्का लगा है। पेड न्यूज़ के चलन के पीछे मालिकों का हाथ भी था। इसमें केवल पत्रकार होते तो उनके बारे में कुछ कहा भी जाता। यानी रोग ज्यादा बड़ा है। अफसोस इस बात का  है कि इसका ज़िक्र भी नहीं होता। हाल में आईबीएन-सीएनेन के राजदीप सरदेसाई ने एक ट्वीट किया,“Behind every successful neta is a real estate co, sugar mill, mining co, education baron”, इसके जवाब में कांग्रेस सांसद मिलिन्द देवड़ा का ट्वीट आया, “Not newspaper/news channel?” पत्रकार निर्भीक तब होते थे, जब वे फक्कड़ थे। तब उन्हें इतना सीधा जवाब नहीं मिलता था। अब वे भी शीशे के घरों में रहने लगे हैं। 

सपन दासगुप्ता का लेख
ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष के नाम सुधीर चौधरी का पत्र
कोयला घोटाले में मीडिया मालिक
कोलगेट में मीडिया हाउस
चार मीडिया हाउसों पर उंगलियाँ

Monday, October 22, 2012

सरकार के गले की हड्डी बनेगा ज़मीन का सवाल


 आर्थिक-सामाजिक विकास के सैद्धांतिक सवालों पर टकराव चरम बिन्दु पर आ रहा है। भूमि अधिग्रहण, पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्थापन विधेयक 2012 के मसौदे को पिछले हफ्ते ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स से स्वीकृति मिलने के बाद उम्मीद है कि कैबिनेट से स्वीकृति मिलने में देर नहीं है और संसद के अगले सत्र में इसे पास करा लिया जाएगा। पिछले साल 7 सितम्बर को इसे लोकसभा में पेश किया गया था, जिसके बाद इसे ग्रामीण विकास की स्थायी समिति के पास भेज दिया था, जिसने मई 2012 में इसे अपनी रपट के साथ वापस भेजा था। ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स ने स्थायी समिति की सिफारिशों को शामिल करते हुए इसे अंतिम रूप दे दिया है। 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन के लिए सन 2007 में एक विधेयक पेश किया गया था। इसके बाद भूमि अधिग्रहण से विस्थापित व्यक्तियों के पुनर्स्थापन के लिए एक और विधेयक पेश किया गया। दोनों 2009 में लैप्स हो गए। इस बीच सिंगुर-नंदीग्राम से नोएडा और कूडानकुलम तक कई तरह के आंदोलन शुरू हुए जो अभी तक चल रहे हैं। आर्थिक उदारीकरण की नीतियों को तेजी से लागू करने के कारण सरकारी अलोकप्रियता बढ़ी है। इसलिए सरकार अब दूसरे विकल्पों की ओर जाएगी। उसके पास खाद्य सुरक्षा और भूमि अधिग्रहण के कानूनों के प्रस्ताव भी हैं, जो ग्रामीण इलाकों में उसकी लोकप्रियता बढ़ा सकते हैं।

Sunday, October 21, 2012

राष्ट्रगान के विश्व रिकॉर्ड

25 जनवरी 2012 औरंगाबाद

20 अक्टूबर 2012 लाहौर
केवल राष्ट्रगान गाने से काम चलता हो तो पाकिस्तान ने गिनीज़ बुक ऑफ रिकॉर्ड्स के अंतर्गत विश्व रिकॉर्ड कायम कर लिया है। शनिवार 20 अक्टूबर को लाहौर के नेशनल हॉकी स्टेडियम में 44,200 लोगों ने एक साथ खड़े होकर देश का राष्ट्रगान गाया। पाकिस्तान के लिए एक उपलब्धि यह भी थी कि उसने इस मामले में भारत का रिकॉर्ड तोड़ा था। 25 जनवरी 2012 को महाराष्ट्र के औरंगाबाद शहर के डिवीज़नल स्पोर्ट्स ग्राउंड में 15,243 लोगों ने एक साथ खड़े होकर वंदे मातरम गाया था। वह कार्यक्रम लोकमत मीडिया कम्पनी ने आयोजित किया था। उसके पहले 14 अगस्त 2011 को पाकिस्तान के कराची शहर में 5,857 लोगों ने एक साथ अपना राष्ट्रगान गाया था। इस रिकॉर्ड को कायम करने के लिए फेसबुक और ट्विटर की मदद ली गई थी।

शनिवार को लाहौर में कायम किए गए विश्व रिकॉर्ड में पाकिस्तान के पंजाब सूबे के मुख्यमंत्री शाहबाज़ शरीफ भी शामिल थे। राष्ट्रगान और समूहगान हमें एक जुट होने की प्रेरणा देते हैं। हाल में मलाला युसुफज़ई प्रकरण में पाकिस्तान की सिविल सोसायटी ने एकता का परिचय दिया था। इस एकता की दिशा बदहाली और बुराइयों से लड़ने की होनी चाहिए। हम होंगे कामयाब जैसे समूहगान चमत्कारी हो सकते हैं बशर्ते हमारी सामूहिक पहलकदमी में दम हो। सम्भव है कल भारत में कोई इससे भी बड़ी भीड़ से राष्ट्रगान गवाने में कामयाब हो जाए, पर असल बात भावना की है।

पाकिस्तान में 44,200 ने एक साथ गाया राष्ट्रगान

Friday, October 19, 2012

न्यूज़वीक का प्रिंट संस्करण बंद होगा

पिछले दो साल से लड़खड़ाती समाचार पत्रिका न्यूज़वीक आखिरकार प्रिंट मीडिया के एडवर्टाइज़िंग रेवेन्यू में लगातार गिरावट का शिकार हो गई। गुरुवार को घोषणा की गई कि इस साल के अंत तक या अगले साल के शुरू में इसके प्रिंट संस्करण का प्रकाशन बंद हो जाएगा। इसका ऑनलाइन रूप बना रहेगा, जो ऑनलाइन पत्रिका डेली बीस्ट के साथ इस समय भी चल रहा है। 

हाल के वर्षों में न्यूज़वीक पर सबसे बड़ा संकट  2010 में आया। तब उसे एक दानी किस्म के स्वामी ने खरीद लिया। इसे ख़रीदने वाले 91 साल के सिडनी हर्मन थे, जो ऑडियो उपकरणों की कंपनी हर्मन इंडस्ट्रीज़ के संस्थापक थे। वॉशिंगटन पोस्ट कम्पनी, जिसने न्यूज़वीक को बेचा, न्यूज़वीक’ अपने आप में और इसे खरीदने वाले सिडनी हर्मन तीनों किसी न किसी वजह से महत्वपूर्ण हैं। कैथरीन ग्राहम जैसी जुझारू मालकिन के परिवार के अलावा वॉशिंगटन पोस्ट के काफी शेयर बर्कशर हैथवे के पास हैं, जिसके स्वामी वॉरेन बफेट हैं।न्यूज़वीक को ख़रीदने की कोशिश करने वालों में न्यूयॉर्क डेली न्यूज़ के पूर्व प्रकाशक फ्रेड ड्रासनर और टीवी गाइड के मालिक ओपनगेट कैपिटल भी शामिल थे। पर सिडनी हर्मन ने 1 डॉलर में खरीदकर इसकी सारी देनदारी अपने ऊपर ले ली। 

Monday, October 15, 2012

टाइम्स ऑफ इंडिया का एई समय


 कुछ दिन पहले आनन्द बाज़ार पत्रिका ग्रुप ने कोलकाता से बांग्ला अखबार 'एबेला' यानी इस घड़ी  शुरू किया था। और अब दुर्गापूजा के उत्सव की शुरूआत यानी महालया के साथ टाइम्स ऑफ इंडिया ने 'एई समय' लांच किया है। दोनों में बुनियादी फर्क है। एबेला टेबलॉयड है और 'एई समय' ब्रॉडशीट अखबार है।

बांग्ला और हिन्दी समाज में भाषा का कितना फर्क है वह यहाँ देखा जा सकता है। कोलकाता के लिए आनन्द बाज़ार पत्रिका जीवन का एक हिस्सा है। उसके मुकाबले किसी गैर-बांग्ला समूह द्वारा बांग्ला अखबार निकालने की कोशिश अपने आप में दुस्साहस है। टाइम्स ऑफ इंडिया समूह ने चेन्नई में हिन्दू के मुकाबले अंग्रेजी अखबार निकाला था, पर कोलकाता में वह बांग्ला अखबार के साथ सामने आए हैं। एक ज़माने में टाइम्स हाउस ने कोलकाता से हिन्दी का नवभारत टाइम्स भी निकाला था, जो चला नहीं।

ऐसे जन सत्याग्रहों की हमें ज़रूरत है


मज़रूह सुलतानपुरी  की नज़्म है , 'मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल मगर, लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया।' ( मूल आलेख में मैंने इसे मखदूम मोहियुद्दीन की  रचना लिखा था, जिसे अब मैंने सुधार दिया है। इसका संदर्भ कमेंट में देखें।)

हालांकि एकता परिषद की कहानी के पीछे वामपंथी जोश-खरोश नहीं है। और न इसकी कार्यशैली और नारे इंकलाबी हैं, पर यह संगठन रेखांकित करता है कि आधुनिक भारत का विकास गरीब-गुरबों, दलितों, आदिवासियों, खेत-मज़दूरों और छोटे किसानों के विकास के बगैर सम्भव नहीं है। और इनके अधिकारों की उपेक्षा करके बड़े औद्योगिक-आर्थिक विकास की कल्पना नहीं की जा सकती । पर इस विशाल जन-शक्ति का आवाज़ उठाने के लिए ज़रूरी नहीं है कि कड़वाहट भरा, तिक्त-शब्दावली से गुंथा-बुना सशस्त्र आंदोलन खड़ा किया जाए। इसके कार्यक्रम सुस्पष्ट हैं और इनमें नारेबाजी की जगह मर्यादा और अनुशासन है। इससे जुड़े लोगों ने पूरे देश में कई तरह की यात्राएं की है, जिससे इनका जुड़ाव सार्वदेशिक है। आप चाहें तो इसे राजनीतिक आंदोलन कह सकते हैं क्योंकि आखिरकार यह राजव्यवस्था और राजनीति से जुड़े महत्वपूर्ण सवाल उठाता है, पर सत्ता को सीधे अपने हाथ में लेने का प्रयास नहीं करता है। पिछले हफ्ते इसका  जन सत्याग्रह एक मोड़ पर आकर वापस हो गया। साथ में अनेक सवाल पीछे छोड़ गया। यह बात अलग है कि इसकी आवाज़ उतने ज़ोर से नहीं सुनी गई, जितने ज़ोर से कुछ दूसरे आंदोलनों की सुन ली जाती है। यह बात हमारे लोकतंत्र, सरकारी कार्य-प्रणाली और मीडिया की समझ को भी रोखांकित करती हैं।

पिछले साल जब अन्ना-आंदोलन की लाइव कवरेज मीडिया में हो रही थी, तब थोड़ी देर के लिए महसूस हुआ कि हमारा मीडिया अब राष्ट्रीय महत्व के सवालों को उठाना चाहता है। यह गलतफहमी जल्द दूर हो गई। पिछले हफ्ते 11 अक्टूबर को महानायक अमिताभ बच्चन के जन्मदिन की कवरेज देखने से लगा कि हमारी वरीयताएं बदली नहीं हैं। न जाने क्यों मीडिया की शब्दावली का ‘फटीग फैक्टर’ इन जन्मदिनों पर लागू नहीं होता? साँप-सपेरे, जादू-टोना, प्रिंस, मटुकनाथ, सचिन, धोनी, सहवाग से लेकर राहुल महाजन और राखी सावंत तक सारे प्रयोग करके देख लिए। पर मस्ती-मसाला को लेकर मीडिया थका नहीं। बहरहाल पिछली दो अक्टूबर को ग्वालियर से तकरीबन साठ हजार लोगों का एक विशाल मर्यादित जुलूस दिल्ली की ओर चला था। इसका नाम था जन सत्याग्रह 2012। उम्मीद थी कि इस बार मीडिया की नजरे इनायत इधर भी होगी। और सरकार ने इसी खतरे को भाँपते हुए समय रहते इसे टाल दिया। 

Friday, October 12, 2012

तोता राजनीति के मैंगो पीपुल

भारतीय राज-व्यवस्था के प्राण तोतों में बसने लगे हैं। एक तोता सीबीआई का है, जिसमें अनेक राजनेताओं के प्राण हैं। फिर मायावती, मुलायम सिंह, ममता और करुणानिधि के तोते हैं। उनमें यूपीए के प्राण बसते हैं। तू मेरे प्राण छोड़, मैं तेरे प्राण छोड़ूं का दौर है। ये सब तोते सात समंदर और सात पहाड़ों के पार सात परकोटों से घिरी मीनार की सातवीं मंजिल में सात राक्षसों के पहरे में रहते हैं। तोतों, पहाड़ों और राक्षसों की अनंत श्रृंखलाएं हैं, और राजकुमार लापता हैं। तिरछी गांधी टोपी सिर पर रखकर अरविन्द केजरीवाल दिल्ली में कटी बत्तियाँ जोड़ रहे हैं। हाल में उन्होंने गांधी के हिन्द स्वराज की तर्ज पर एक किताब लिखी है। टोपियाँ पहने  आठ-दस लोगों ने एक नई पार्टी बनाने की घोषणा की है। पिछले 65 साल में भारतीय राजनीति में तमाम प्रतीक और रूपक बदले पर टोपियों और तोतों के रूपक नहीं बदले। इस दौरान हमने अपनी संस्थाओं, व्यवस्थाओं और नेताओं की खिल्ली उड़ानी शुरू कर दी है। आम आदमी ‘मैंगो पीपुल’ में तब्दील हो गया है। संज़ीदगी की जगह घटिया कॉमेडी ने ले ली है। 

Monday, October 8, 2012

समस्या उदारीकरण नहीं, कुप्रशासन है

आधुनिकीकरण, औद्योगीकरण और आर्थिक गतिविधियों में तेजी के बगैर हमारे देश में गहराई तक बैठी गरीबी और पिछड़ेपन को दूर करने का तरीका नज़र नहीं आता। इसके साथ कुछ बातें जुड़ी हैं। जैसे ही ऊपर बताई गतिविधियँ शुरू होंगी सबसे पहले इससे वे लोग ही जुड़ेंगे जो शिक्षित, किसी खास धंधे में कुशल, स्वस्थ और सक्रिय हैं। दुनिया में इस समय जो व्यवस्था है वह पूँजीवादी है। इस दौरान सोवियत संघ और चीन जैसे कुछ देशों में पूँजीवाद का समाजवादी मॉडल आया था, जिसमें नियोजन और लगभग युद्ध की अर्थव्यवस्था के तर्ज पर पिछड़ेपन को दूर करने की कोशिश की गई थी। इस कोशिश में रूस के लाखों किसान मारे गए थे। चीन में ग्राम-केन्द्रित क्रांति हुई थी, जिसने तीन दशक पहले रास्ता बदल लिया। एक मानवीय और उच्चस्तरीय व्यवस्था के आने के पहले जिसे आप समाजवाद कह सकते हैं, पिछड़ेपन से छुटकारा ज़रूरी है। पिछड़ेपन के तमाम रूप हैं। सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक वगैरह। यूरोप और अमेरिका का समाज रूस और चीन के समाज से ऊँचे स्तर पर आ चुका था, पर वहाँ समाजवाद नहीं आया। इसका मतलब यह नहीं कि वहाँ नहीं आ सकता या नहीं आएगा। कार्ल मार्क्स आज प्रासंगिक हैं तो पूँजीवाद के विश्लेषण के कारण। पर उन्होंने अपने समाजवाद की कोई रूपरेखा नहीं दी थी। लेनिन ने अपने तरीके से उसे परिभाषित किया और रूस में एक शुरूआत की। मार्क्सवाद के कुछ प्रवर्तकों को संशोधनवादी कहा जाता है। इनमें बंर्सटीन और कौटस्की भी हैं। इनका विचार है कि पूँजीवादी व्यवस्था का समाजवाद में रूपांतरण होना चाहिए। इस लिहाज से समाजवाद भी पूँजीवाद की तरह वैश्विक विचार है। इस अवधारणा पर जब आगे बढ़ते हैं तब कई प्रकार के विचार एक साथ सामने आते हैं। सोवियत संघ में आर्थिक गतिविधियाँ पूरी तरह राज्य केन्द्रित थीं। वॉशिंगटन कंसेंसस पूरी तरह से निजी हाथों में और समृद्ध होने को आतुर व्यक्तियों के हाथों में सत्ता देने को आतुर है। रूसी साम्यवाद परास्त हुआ और वॉशिंगटन कंसेंसस भी विफल है। पर हम अभी मँझधार में हैं। हमें वैश्विक आर्थिक और तकनीकी प्रतियोगिता में बने रहने के लिए विशाल ताने-बाने की ज़रूरत है। इस प्रयास में टू-जी और कोल-गेट वगैरह होते हैं। ज़रूरत इनके नियमन और जनता के दबाव की है। इसके लिए जनता का स्वस्थ, शिक्षित और जागरूक होना ज़रूरी है। बेहतर हो हम तरीके बताएं कि यह काम कैसे होगा। मेरे विचार से हम लोग मध्य वर्ग से ताल्लुक रखते हैं। यह वर्ग पढ़ा-लिखा और अपेक्षाकृत जागरूक और व्यवस्था को समझने वाला होता है। अभी मैं हस्तक्षेप में अरुण महेश्वरी का लेख पढ़ रहा था। उन्हें ममता बनर्जी के राज में निराशा मिली है। दरअसल वाम मोर्चा को लम्बे समय बाद यह समझ में आया कि रास्ता कहाँ है। तब तक राजनीतिक रूप से वे गलतियाँ कर चुके थे। वामपंथी पार्टियों को वैश्विक गतिविधियों के बरक्स अपने विचार बनाने चाहिए। रूसी म़डल फेल हो चुका है। चीन में अभी कम्युनिस्ट पार्टी का शासन है। यह शासन दो-चार लोगों की साज़िश का परिणाम नहीं है। उसके अंतर्विरोध भी सामने आ रहे हैं। हमें पहले तय करना चाहिए कि हम तेज आधुनिकीकरण चाहते हैं या नहीं। बेशक क्रोनी कैपिटलिज़्म, कॉरपोरेट क्राइम और पूँजी के नाम पर प्राकृतिक सम्पदा का ध्वंस गलत है, पर निजी पूँजी, विदेशी पूँजी और शहरीकरण में चाहिए। यदि आप समझते हैं कि नहीं चाहिए, तब फिर अपनी पूरी बात को बताएं कि आपका रास्ता क्या है।  नीचे सी एक्सप्रेस में प्रकाशित लेख है, पर यह संदर्भ इसलिए ज़रूरी है कि हम सारी चीजों को एक साथ देख रहे हैं। समस्या उदारीकरण है तो उसे खत्म कीजिए। उपयोगी है तो पूरी ताकत से लागू कीजिए।

Friday, October 5, 2012

हिन्दी में रक्षा और सामरिक विषयों पर पत्रिका ‘डिफेंस मॉनिटर’


हिन्दी में रक्षा, आंतरिक सुरक्षा, विदेशनीति और नागरिक उड्डयन जैसे विषयों पर केन्द्रित पत्रिका डिफेंस मॉनिटर का पहला अंक प्रकाशित होकर सामने आया है। अंग्रेज़ी में निश या विशिष्ट पत्रिकाओं का चलन है। हिन्दी में यह अपने किस्म की पहली पत्रिका है। इसका पहला अंक वायुसेना विशेषांक है। इसमें पूर्व नौसेनाध्यक्ष अरुण प्रकाश, एयर मार्शल(सेनि) एके सिंह, एयर वाइस मार्शल(सेनि) कपिल काक, हर्ष वी पंत, घनश्री जयराम और राजीव रंजन के अलावा मृणाल पांडे का उन्नीसवी सदी के भारतीय फौजियों पर विशेष लेख है। इसके अलावा सुखोई विमानों में ब्रह्मोस मिसाइल तैनात करने पर एक विशेष आलेख है। हिन्दी सिनेमा और भारतीय सेना पर आलेख है साथ ही एचएएल के चेयरमैन आरके त्यागी और डीआरडीओ के प्रमुख वीके सारस्वत के इंटरव्यू हैं। पत्रिका के प्रबंध सम्पादक सुशील शर्मा ने बताया कि इसी विषय पर केन्द्रित द्विभाषी वैबसाइट भारत डिफेंस कवच की सफलता के बाद इसे द्वैमासिक पत्रिका के रूप में शुरू किया गया है। कुछ समय बाद इसकी समयावधि मासिक करने की योजना है। पत्रिका के मुख्य सम्पादक हैं प्रमोद जोशी।   

Tuesday, October 2, 2012

न्यूयॉर्कर में समीर जैन और टाइम्स ऑफ इंडिया



बुनियादी तौर पर अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर के जीवन और संस्कृति पर केन्द्रित पत्रिका न्यूयॉर्कर निबंध लेखन, फिक्शन, व्यंग्य लेखन, कविता और खासतौर से कार्टूनों के लिए विशिष्ट है। किसी ज़माने में हिन्दी में भी ऐसी पत्रिकाएं थीं, पर आधुनिकता की दौड़ में हमने सबको खत्म होने दिया। इधर पिछले कुछ वर्षों में भारत केन्द्रित लेख भी प्रकाशित हुए हैं। पत्रिका के ताज़ा अंक (8अक्टूबर,2012) में भारत के समीर जैन, विनीत जैन और टाइम्स ऑफ इंडिया के बारे में इसके प्रसिद्ध मीडिया क्रिटिक केन ऑलेटा का नौ पेज का आलेख छपा है। ऑलेटा 1992 से एनल्स ऑव कम्युनिकेशंस कॉलम लिख रहे हैं। सिटिज़ंस जैन शीर्षक आलेख में उन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया के विस्तार का विवरण दिया है। आलेख के पहले सफे के सबसे नीचे इसका सार इन शब्दों में दिया गया है, "Their success is a product of an unorthodox philosophy." 

Monday, October 1, 2012

बीजेपी को चाहिए हाजमोला

लाल कृष्ण आडवाणी ने अपने ब्लॉग में 15 सितम्बर को फ्रांसिस फुकुयामा की इतिहास का अंत अवधारणा का हवाला देते हुए भारतीय राजनीति के युगांतरकारी मोड़ का ज़िक्र किया है। उनके अनुसार 1989 भारत के राजनीतिक इतिहास का निर्णायक मोड़ रहा। इस वर्ष के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने एक लम्बी छलांग लगाते हुए 1984 की दयनीय दो सीटों के मुकाबले 86 सीटों का सम्मानजनक स्थान प्राप्त किया। भाजपा राष्ट्रीय राजनीति पर कांग्रेस पार्टी के एकाधिकार को चुनौती देने वाले मुख्य दल के रुप में उभरी। अगले दशक में भाजपा 1996 तक, तेजी से बढ़ती रही और कांग्रेस पार्टी सिकुड़ती गई, जब भाजपा लोक सभा में सर्वाधिक बड़े दल के रुप में उभरी, और 1998-1999 में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए ने केंद्र सरकार का पूर्ण नियंत्रण संभाल लिया। आडवाणी जी ने लिखा, तब से, जब भी कोई मुझसे पूछता है: राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा के मुख्य योगदान को आप कैसे निरूपित करेंगें; तो सदैव मेरा उत्तर रहता है: भारत की एकदलीय प्रभुत्व वाली राजनीति को द्विध्रुवीय राजनीति में परिवर्तित करना। यह उपलब्धि न केवल भाजपा अपितु कांग्रेस और निस्संदेह देश तथा इसके लोकतंत्र के लिए वरदान सिध्द हुई है। दुर्भाग्य से कांग्रेस पार्टी इसे इस रुप में नहीं लेती, भाजपा को एक मुख्य विपक्ष मानकर जिसके साथ सतत् सवांद करना शासन के लिए लाभकारी हो सकता है के बजाय इसे एक शत्रु के रुप में मानती है जिसे हटाना और किसी भी कीमत पर मिटाना उसका लक्ष्य है। प्रणव मुखर्जी अपवाद थे। नेता लोकसभा के रुप में यूपीए के अधिकांश कार्यकाल में उन्होंने मुख्य विपक्ष के नेतृत्व से निरंतर संवाद बनाए रखा। 

Friday, September 28, 2012

चुनावी नगाड़े और महाराष्ट्र का शोर

ऐसा लगता है कि एनसीपी के ताज़ा विवाद में अजित पवार नुकसान उठाने जा रहे हैं। शरद पवार का कहना है कि यह विवाद सुलझ गया है। यानी अजित पवार का इस्तीफा मंज़ूर और बाकी मंत्रियों का इस्तीफा नामंज़ूर। आज शुक्रवार को मुम्बई में एनसीपी विधायकों की बैठक हो रही है, जिसमें स्थिति और साफ होगी।
नेपथ्य में चुनाव के नगाड़े बजने लगे हैं। तृणमूल कांग्रेस की विदाई के बाद एनसीपी के विवाद के शोर में नितिन गडकरी का संदेश भी शामिल हो गया है कि जल्द ही चुनाव के लिए तैयार हो जाइए। बीजेपी ने एफडीआई को मुद्दा बनाने का फैसला किया है। पिछले महीने कोल ब्लॉक पर बलिहारी पार्टी को यह मुद्दा यूपीए ने खुद आगे बढ़कर दे दिया है। पर व्यापक फलक पर असमंजस है। बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी और राष्ट्रीय परिषद की बैठकों के समांतर यूपीए समन्वय समिति की पहली बैठक गुरुवार को हुई। यह समन्वय समिति दो महीने पहले जुलाई के अंतिम सप्ताह में कांग्रेस और एनसीपी के बीच विवाद को निपटाने का कारण बनी थी। संयोग है कि उसकी पहली बैठक के लिए एक और विवाद खड़ा हो गया है। अब एनसीपी के टूटने का खतरा है और महाराष्ट्र में नए समीकरण बन रहे हैं। वास्तव में चुनाव करीब हैं।