Monday, October 5, 2020

क्या सेना का सहारा लेंगे ट्रंप?

डोनाल्ड ट्रंप अब अपनी रैलियों में इस बात का जिक्र बार-बार कर रहे हैं कि इसबार के चुनाव में धाँधली हो सकती है। जैसे-जैसे चुनाव की तारीख नजदीक आती जा रही है, वैसे-वैसे कयासों की बाढ़ आती जा रही है। यह बात तो पहले से ही हवा में है कि अगर हारे तो ट्रंप आसानी से पद नहीं छोड़ेंगे। डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से कहा जा रहा है कि चुनाव का विवाद अदालत और संसद में भी जा सकता है। और अब अमेरिकी सेना को लेकर अटकलें फिर से शुरू हो गई हैं। अमेरिकी सेना की अफगानिस्तान, इराक, चीन, सीरिया और सोमालिया में भूमिकाओं को लेकर अटकलें तो चलती ही रहती थीं, पर अब कयास है कि राष्ट्रपति पद के चुनाव में भी उसकी भूमिका हो सकती है।

कुछ महीने पहले देश में चल रहे रंगभेद-विरोधी आंदोलन को काबू में करने के लिए जब ट्रंप ने सेना के इस्तेमाल की धमकी दी थी, तबसे यह बात हवा में है कि अमेरिकी सेना क्या ट्रंप के उल्टे-सीधे आदेश मानने को बाध्य है? बहरहाल गत 24 सितंबर को ट्रंप ने यह कहकर फिर से देश के माहौल को गर्म कर दिया है कि चुनाव में जो भी जीते, सत्ता का हस्तांतरण शांतिपूर्ण नहीं होगा। इतना ही नहीं उसके अगले रोज ही उन्होंने कहा कि मुझे नहीं लगता कि चुनाव ईमानदारी से होने वाले हैं। इसका मतलब क्या है?

Sunday, October 4, 2020

हाथरस से उठते सवाल

हाथरस कांड ने एकसाथ हमारे कई दोषों का पर्दाफाश किया है। शासन-प्रशासन ने इस मामले की सुध तब ली, जब मामला काबू से बाहर हो चुका था। तत्काल कार्रवाई हुई होती, तो इतनी सनसनी पैदा नहीं होती। इस बात की जाँच होनी चाहिए कि पुलिस ने देरी क्यों की। राजनीतिक दलों को जब लगा कि आग अच्छी सुलग रही है, और रोटियाँ सेंकने का निमंत्रण मिल रहा है, तो उन्होंने भी तत्परता से अपना काम किया। उधर टीआरपी की ज्वाला से झुलस रहे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने आनन-फानन इसे प्रहसन बना दिया। रिपोर्टरों ने मदारियों की भूमिका निभाई।  

कुल मिलाकर ऐसे समय में जब हम महामारी से जूझ रहे हैं सोशल डिस्टेंसिंग की जमकर छीछालेदर हुई। बलात्कारियों को फाँसी देने और देखते ही गोली मारने के समर्थकों से भी अब सवाल पूछने का समय है। बताएं कि दिल्ली कांड के दोषियों को फाँसी देने और हैदराबाद के बलात्कारियों को गोली मारने के बाद भी यह समस्या जस की तस क्यों है? इस समस्या का समाधान क्या है?

Friday, October 2, 2020

सबके मनभावन फैसला संभव नहीं

बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में सीबीआई की विशेष अदालत का फैसला आने के बाद यह नहीं मान लेना चाहिए कि इस प्रकरण का पटाक्षेप हो गया है। और यह निष्कर्ष भी नहीं निकलता कि बाबरी मस्जिद को गिराया जाना अपराध नहीं था। पिछले साल नवंबर में सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर-मस्जिद विवाद के जिस दीवानी मुकदमे पर फैसला सुनाया था, उसमें स्पष्ट था कि मस्जिद को गिराया जाना अपराध था। उस अपराध के दोषी कौन थे, यह इस मुकदमे में साबित नहीं हो सका। 

जिन्हें उम्मीद थी कि अदालत कुछ लोगों को दोषी करार देगी, उन्हें निराशा हुई है। इसका मतलब यह नहीं है कि हम अपनी न्याय-व्यवस्था को कोसना शुरू करें। फौजदारी के मुकदमों में दोष सिद्ध करने के लिए पुष्ट साक्ष्यों की जरूरत होती है। यह तो विधि विशेषज्ञ ही बताएंगे कि ऐसे साक्ष्य अदालत के सामने थे या नहीं। जो साक्ष्य थे, उनपर अदालत की राय क्या है वगैरह। अलबत्ता कुछ लोगों ने कहना शुरू कर दिया है कि मस्जिद गिरी ही नहीं, मस्जिद थी ही नहीं वगैरह।

Thursday, October 1, 2020

तुर्की-पाकिस्तान और अजरबैजान का नया त्रिकोण!

आर्मीनिया और अजरबैजान की लड़ाई के संदर्भ में भारत की दृष्टि से तीन बातें बहुत महत्वपूर्ण हैं। पहली है कश्मीर के मसले पर अजरबैजान का भारत-विरोधी रवैया। बावजूद इसके भारत ने संतुलित नीति को अपनाया है। दूसरी है भारत की कश्मीर-नीति को आर्मीनिया का खुला समर्थन और तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात है पाकिस्तान-तुर्की और अजरबैजान का नया उभरता त्रिकोण, जिसके राजनयिक और सामरिक निहितार्थ हैं। इस बीच खबरें हैं कि तुर्की के सहयोग से सीरिया में लड़ रहे पाकिस्तानी आतंकी आर्मीनिया के खिलाफ लड़ने के लिए पहुँच रहे हैं। टेलीफोन वार्तालापों के इंटरसेप्ट से पता लगा है कि पाकिस्तानी सेना भी इसमें सक्रिय है।

पाकिस्तान सरकार ने आधिकारिक रूप से अजरबैजान के प्रति अपने समर्थन की घोषणा की है। पाकिस्तानी विदेश विभाग के प्रवक्ता जाहिद हफीज़ चौधरी ने गत रविवार को कहा कि पाकिस्तान अपने बिरादर देश अजरबैजान का समर्थन करता है और उसके साथ खड़ा है। नागोर्नो-काराबाख के मामले में हम अजरबैजान का समर्थन करते हैं। सोशल मीडिया पर पाकिस्तानी हैंडलों की बातों से लगता है कि जैसे यह पाकिस्तान की अपनी लड़ाई है। पाकिस्तान अकेला देश है, जिसने आर्मीनिया को मान्यता ही नहीं दी है, जबकि अजरबैजान तक उसे मान्यता देता है।

पाकिस्तानी जेहादी भी पहुँचे

ट्विटर और फेसबुक जैसे सोशल मीडिया पर जाएं, तो पाकिस्तानी हैंडलों की प्रतिक्रियाओं से लगता है कि जैसे यह पाकिस्तान की लड़ाई है। इतना ही होता तब भी बात थी। अब खबरें हैं कि पाकिस्तानी जेहादी लड़ाके अजरबैजान की ओर से लड़ाई में शामिल होने के लिए मचल रहे हैं। कुछ सूत्रों ने खबरें दी हैं कि गत 22 सितंबर के बाद से पाकिस्तानी लड़ाकों के दस्तों ने अजरबैजान की राजधानी बाकू में पहुँचना शुरू कर दिया है। इन दस्तों का रुख सीरिया से अजरबैजान की तरफ मोड़ा गया है।

बाबरी-पटाक्षेप अभी नहीं

बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में सीबीआई की विशेष अदालत का फैसला आने के बाद यह नहीं मान लेना चाहिए कि इस प्रकरण का पटाक्षेप हो गया है। फैसले से यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि बाबरी मस्जिद को गिराया जाना अपराध नहीं था। पिछले साल नवंबर में सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर-मस्जिद विवाद के जिस दीवानी मुकदमे पर फैसला सुनाया था, उसमें स्पष्ट था कि मस्जिद को गिराया जाना अपराध था। उस अपराध के दोषी कौन थे, यह इस मुकदमे में साबित नहीं हो सका। इसका मतलब यह नहीं है कि हम अपनी न्याय-व्यवस्था को कोसना शुरू करें। कुछ लोगों ने कहना शुरू कर दिया है कि मस्जिद गिरी ही नहीं, मस्जिद थी ही नहीं वगैरह।

हमारी धर्म निरपेक्षता, न्याय-व्यवस्था और प्रशासनिक के साथ यह राजनीति की परीक्षा की घड़ी भी है। मंदिर-मस्जिद विवाद को राजनीति से अलग करके नहीं देखना चाहिए। अभी इसके व्यापक निहितार्थ देखने को मिलेंगे। पर सबसे बड़ा असर सामाजिक जीवन में देखने को मिलेगा। कई बार हम सोचते हैं कि समय बड़े-बड़े घाव भर देता है। पर भावनाओं के मामले में समय घाव भरता नहीं उन्हें कुरेदता है।