Saturday, March 17, 2018

कांग्रेस अपनी ताकत तो साबित करे


पूर्वोत्तर में सफलता से भाजपा के भीतर जो जोश पैदा हुआ था, वह उत्तर प्रदेश और बिहार के तीन लोकसभा उपचुनावों में हार से ठंडा पड़ गया होगा। पर इन परिणामों से कोई नई बात साबित नहीं हुई। विपक्षी एकता का यह टेम्पलेट 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में तैयार हुआ था। उत्तर प्रदेश के लिए यह नई बात थी, क्योंकि 1993 के बाद पहली बार सपा और बसपा ने मिलकर चुनाव लड़ा था। संदेश साफ है कि यूपी में दोनों या कांग्रेस को भी जोड़ लें, तो तीनों मिलकर बीजेपी को हरा सकते हैं। पर इस फॉर्मूले को निर्णायक मान लेना जल्दबाजी होगी। बेशक 2019 के चुनावों के लिए उत्तर प्रदेश में विरोधी दलों की एकता को रोशनी मिली है, पर संदेह के कारण भी मौजूद हैं।  

बिहार में 2015 की सफलता राजद और जेडीयू की एकता का परिणाम थी। उसमें कांग्रेस की बड़ी भूमिका नहीं थी। उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस हाशिए की पार्टी है। सफलता मिली भी तो सपा-बसपा एकता की बदौलत। इसमें कांग्रेस की क्या भूमिका है? कांग्रेस को इस बात से संतोष हो सकता है कि इस एकता ने उसके मुख्य शत्रु को परास्त कराने में भूमिका निभाई। पर राजनीति में सबके हित अलग-अलग होते हैं। पहला सवाल है कि गोरखपुर-फूलपुर विजय से कांग्रेस को क्या हासिल हुआ या हासिल होगा? दूसरा यह कि क्या उत्तर प्रदेश के सामाजिक गठजोड़ की बिना पर क्या कांग्रेस राष्ट्रीय गठजोड़ खड़ा कर सकती है? इसके उलट सवाल यह भी है कि क्या वह सपा-बसपा और राजद की पिछलग्गू बनकर नहीं रह जाएगी?

कांग्रेसी नेतृत्व में विपक्ष?

बिहार की अररिया लोकसभा और जहानाबाद विधानसभा सीट राष्ट्रीय जनता दल की रही है। इस जीत से लालू और तेजस्वी यादव की बिहार में लोकप्रियता का अनुमान लगाना मुश्किल है। महत्वपूर्ण है उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री के चुनाव क्षेत्रों में बीजेपी की पराजय। इससे योगी आदित्यनाथ को ठेस लगी है। लोकसभा चुनाव करीब हैं, इसलिए राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में इसके निहितार्थ को समझने की जरूरत है। जिस रोज ये परिणाम आए उसके पहले दिन दिल्ली में कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी के रात्रि भोज में 20 विरोधी दलों की शिरकत का सांकेतिक महत्व भी है। कांग्रेस का कोशिश है कि सोनिया गांधी को राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष के नेता के रूप में प्रदर्शित किया जाए।

Monday, March 12, 2018

पूर्वोत्तर की जीत से बढ़ा बीजेपी का दबदबा

पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में हुए चुनाव में बीजेपी को आशातीत सफलता मिली है। उसका उत्साह बढ़ना स्वाभाविक है, पर कांग्रेस और वामपंथी दलों के लिए इसमें एक संदेश भी छिपा है। उनका मजबूत आधार छिना है। खासतौर से वाममोर्चे के अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है। बीजेपी ने तकरीबन शून्य से शुरूआत करके अपनी मजबूत स्थिति बनाई है। कांग्रेस और वामपंथ के पास जनाधार था। वह क्यों छिना? उन्हें जनता के बीच जाकर उसकी आकांक्षाओं और अपनी खामियों को समझना चाहिए। बीजेपी हिन्दुत्व वादी पार्टी है। वह ऐसे इलाके में सफल हो गई, जहाँ के वोटरों में बड़ी संख्या अल्पसंख्यकों और जनजातियों की थी।  

पूर्वोत्तर के राज्यों का उस तरह का राजनीतिक महत्व नहीं है, जैसा उत्तर प्रदेश या बिहार का है। यहाँ के सातों राज्यों से कुल जमा लोकसभा की 24 सीटें हैं, जिनमें सबसे ज्यादा 14 सीटें असम की हैं। इन सात के अलावा सिक्किम को भी शामिल कर लें तो इन आठ राज्यों में कुल 25 सीटें हैं। बावजूद इसके इस इलाके का प्रतीकात्मक महत्व है। यह इलाका बीजेपी को उत्तर भारत की पार्टी के बजाय सारे भारत की पार्टी साबित करने का काम करता है।

Sunday, March 11, 2018

गठबंधनों का गणित, गठजोड़ों की आहटें


राजनीतिक-बेताल फिर से डाल पर वापस चला गया है। पूर्वोत्तर के चुनाव परिणाम आने के साथ राजनीतिक घटनाक्रम तेजी से बदलने लगा है। इस वक्त एक बड़ा सवाल है कि लोकसभा के चुनाव कब होंगे? अब सारी निगाहें कर्नाटक के चुनाव पर हैं। वहाँ के नतीजे अगले आम-चुनाव की दशा-दिशा तट करेंगे। कांग्रेस जीती तो बीजेपी लोकसभा चुनाव जल्दी कराने पर जोर नहीं देगी, क्योंकि इससे न केवल कांग्रेस के हौसले बुलंद होंगे, बीजेपी के हौसले धराशायी हो जाएंगे।

बीजेपी की रणनीति फिलहाल निरंतर सफल होते जाने में है। इसलिए यदि बीजेपी कर्नाटक में जीत गई तो राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनावों के साथ लोकसभा चुनाव कराने पर जरूर विचार करेगी। वह राजस्थान और मध्य प्रदेश की एंटी इनकम्बैंसी का जोखिम नहीं उठाएगी और जीत की लहर पैदा करने की कोशिश करेगी, जिसमें हिन्दी भाषी इन तीनों राज्यों को बहा लेने की कोशिश होगी। उधर पृष्ठभूमि में चुनाव-पूर्व के गठबंधनों की गहमागहमी भी शुरू हो चुकी है। आंध्र प्रदेश में तेदेपा और बीजेपी गठबंधन का गठबंधन टूटने के बाद कुछ नए गठजोड़ों की आहट मिल रही है।  

चुनावी चिमगोइयों का दौर

लोकसभा चुनाव में एक साल से ज्यादा समय बाकी है, पर नेपथ्य में चुनाव के नगाड़े सुनाई पड़ने लगे हैं। पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में भाजपा का प्रवेश हो गया है। तीन राज्य पहले से उसकी झोली में हैं। सातवाँ राज्य मिजोरम है, जहाँ इस साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। पूर्वोत्तर का केवल सांकेतिक महत्व है। तुरुप के पत्ते तो उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु जैसे राज्य हैं, जहाँ असली राजनीतिक घमासान होगा। इन्हीं राज्यों से ऐसे गठबंधन निकलेंगे, जो 2019 की जंग में निर्णायक साबित होंगे। आज हालात बीजेपी बनाम शेष के बन चुके हैं। पर यक्ष-प्रश्न है कि क्या शेषएकसाथ आएगा?

सब जानते हैं कि असली मुकाबला लोकसभा चुनाव में है, पर उसकी राहें विधानसभा चुनाव से ही खुलती हैं। इससे स्थानीय स्तर पर संगठन तैयार होता है और वोटर के बीच पैठ बनती है। इस लिहाज से पूर्वोत्तर पर बीजेपी का ध्वज लहराना सांकेतिक होने के साथ-साथ उपयोगी भी है। त्रिपुरा में वाममोर्चे और कांग्रेस दोनों का सफाया हो गया। इससे बीजेपी के हौसले बुलंद हुए हैं। उधर विरोधी दलों ने बीजेपी के इस विस्तार को खतरनाक मानते हुए पेशबंदी शुरू कर दी है। 

Tuesday, March 6, 2018

चिदम्बरम को घेर पाएगी सरकार?

पिछले हफ्ते जब सारे टीवी चैनल श्रीदेवी के निधन की खबरों से घिरे थे, अचानक सुबह कार्ति चिदम्बरम की गिरफ्तारी की खबर आई। इसके साथ इस आशय की खबरें भी आईं कि सरकार आर्थिक अपराधों के खिलाफ एक मजबूत कानून संसद के इसी सत्र में पेश करने जा रही है। पंजाब नेशनल बैंक घोटाले के कारण अर्दब में आई सरकार अचानक आक्रामक मुद्रा में दिखाई पड़ने लगी है। नोटबंदी के दौरान चार्टर्ड अकाउंटेंटों और बैंकों की भूमिका को लेकर काफी लानत-मलामत हुईं थी। अब दोनों तरफ से घेराबंदी चल रही है। देखना होगा कि सरकर विपक्षी घेरे में आती है या पलटवार करती है।

पी चिदम्बरम के बेटे कार्ति चिदम्बरम की गिरफ्तारी के कई मायने हैं। इसे एक आपराधिक विवेचना की तार्किक परिणति, देश में सिर उठा रहे आर्थिक अपराधियों को एक चेतावनी, राजनीतिक बदले और नीरव मोदी प्रकरण की पेशबंदी के रूप में अलग-अलग तरीके से देखा जा रहा है। सभी बातों का कोई न कोई आधार है, पर इसका सबसे बड़ा निहितार्थ राजनीतिक है। पूर्वोत्तर के चुनाव-परिणामों से प्रफुल्लित भारतीय जनता पार्टी पूरे वेग के साथ अब कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनावों में उतरेगी, जहाँ निश्चित रूप से यह मामला बार-बार उठेगा।