Friday, July 14, 2017

‘मोदी संस्कृति’ को चुनौती हैं गोपाल कृष्ण गांधी

प्रशासक, विचारक, लेखक और आंशिक रूप से राजनेता गोपाल कृष्ण गांधी की देश की गंगा-जमुनी संस्कृति के पक्षधर के रूप में पहचान है. उन्हें महत्वपूर्ण बनाती है उनकी विरासत और विचारधारा. उनके पिता देवदास गांधी थे और माँ लक्ष्मी गांधी, जो राजगोपालाचारी की बेटी थीं. दादा महात्मा गांधी और नाना चक्रवर्ती राजगोपालाचारी.
गोपाल कृष्ण गांधी सामाजिक बहुलता के पुजारी हैं, और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में विकसित हो रहे राजनीतिक हिन्दुत्व के मुखर विरोधी. विपक्षी दलों ने उन्हें उप-राष्ट्रपति पद के लिए चुनकर यह बताने की कोशिश की है कि भारत जिस सांस्कृतिक चौराहे पर खड़ा है, उसमें वे वैचारिक विकल्प का प्रतिनिधित्व करते हैं. वे मोदी के सामने सांस्कृतिक चुनौती के रूप में खड़े हैं. 

Sunday, July 9, 2017

विपक्षी एकता की निर्णायक घड़ी

सीबीआई लालू ने यादव के परिवार के खिलाफ एफआईआर दर्ज करके शुक्रवार को देशभर में 12 स्थानों पर छापामारी की है। लालू परिवार पिछले कुछ महीनों से सीबीआई के अलावा इनकम टैक्स विभाग और प्रवर्तन निदेशालय की निगाहों में है। इस गतिविधि के आपराधिक निहितार्थ एक तरफ हैं और राजनीतिक निहितार्थ दूसरी तरफ। इसका फौरी असर बिहार के महागठबंधन पर पड़ने का अंदेशा है। पर इससे ज्यादा महत्वपूर्ण प्रभाव 2019 के चुनाव को लेकर चल रहे विपक्षी-एकता के प्रयासों पर पड़ेगा।

दूसरी ओर एनडीए की रणनीति भी इन छापों से जुड़ी है। इस छापामारी ने महागठबंधन की राजनीति के अंतर्विरोधों को खोला है। महागठबंधन में सेंध लगाने की एनडीए-राजनीति कितनी सफल होगी, इसका भी इंतजार है। फिलहाल सारी निगाहें नीतीश कुमार पर हैं। उनका नजरिया इन सभी बातों को प्रभावित करेगा।

पिछले दो-तीन हफ्ते में नीतीश कुमार ने अचानक कुछ अप्रत्याशित फैसले किए हैं। राष्ट्रपति पद के चुनाव में विपक्षी एकता से अलग होकर उन्होंने पहला झटका दिया और अपने दृष्टिकोण में आए बदलाव का संकेत भी दिया। उसके बाद उन्होंने कांग्रेस की बुनियादी समझ पर प्रहार किए। फिर भी उन्होंने खुद को व्यापक स्तर पर विपक्षी-एकता से अलग नहीं किया।

Friday, July 7, 2017

भारतीय भाषाओं को लड़ाने की कोशिश

बंगाल में जड़ें जमाने की कोशिश में भारतीय जनता पार्टी साम्प्रदायिक सवालों को उठा रही है. उसके लिए परिस्थितियाँ अच्छी हैं, क्योंकि ममता बनर्जी ने इस किस्म की राजनीति के दूसरे छोर पर कब्जा कर रखा है. भावनाओं की खेती के अर्थशास्त्र को समझना है तो वोट की राजनीति पढ़ना चाहिए. ऐसी ही खेती का जरिया भाषाएं हैं. कर्नाटक में अगले साल चुनाव होने वाले हैं. उसके पहले वहाँ भाषा को लेकर एक अभियान शुरू हुआ है. राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस तीन भाषा सूत्र की समर्थक है, पर बेंगलुरु मेट्रो में हिंदी विरोध की वह समर्थक है. साम्प्रदायिक राजनीति का यह एक और रूप है, इसमें सम्प्रदाय की जगह भाषा ले लेती है. भाषा सामूहिक पहचान से जुड़ी है. इस आंदोलन के पीछे अंग्रेजी-परस्त लोग भी शामिल हैं, क्योंकि अंग्रेजी उन्हें 'साहब' की पहचान देने में मददगार है.
इन दिनों बेंगलुरु मेट्रो के सूचना-पटों में अंग्रेजी और कन्नड़ के साथ हिंदी के प्रयोग को लेकर एक आंदोलन चलाया जा रहा है. इस आंदोलन को अंग्रेजी मीडिया ने हवा भी दी है. शहर के कुछ मेट्रो स्टेशनों में हिंदी में लिखे नाम ढक दिए गए हैं. ऐसा ही एक आंदोलन कुछ समय पहले दक्षिण भारत में राष्ट्रीय राजमार्गों के नाम-पटों में हिंदी को शामिल करने के विरोध में खड़ा हुआ था. हाल में राम गुहा और शशि थरूर जैसे लोगों ने बेंगलुरु मेट्रो-प्रसंग में हिंदी थोपे जाने का विरोध किया है. एक तरह से यह भारतीय भाषाओं को आपस में लड़ाने की कोशिश है. साथ ही अंग्रेजी के ध्वस्त होते किले को बचाने का प्रयास भी.

Thursday, July 6, 2017

डगमग होती विपक्षी एकता

बुधवार को मीरा कुमार ने औपचारिक रूप से पर्चा दाखिल करने के बाद अपने प्रचार-अभियान की शुरूआत कर दी है. उनका कहना है कि यह सिद्धांत की लड़ाई है. संविधान की रक्षा के लिए और देश को साम्प्रदायिक ताकतों के हाथ में जाने से रोकने के लिए वे खड़ी हुई हैं. वस्तुतः यह सन 2019 के चुनाव में गैर-बीजेपी गठजोड़ का प्रस्थान बिंदु है. देशभर में असहिष्णुता और अल्पसंख्यकों की हत्याओं के खिलाफ आंदोलन खड़ा हो गया है. यह उस राजनीति का पहला अध्याय है, जो राष्ट्रीय स्तर पर उभरेगी.
मीरा कुमार के नामांकन के वक्त 17 दलों के प्रतिनिधि उपस्थित थे. इनके नाम हैं कांग्रेस, सपा, बसपा, राजद, वाममोर्चा के चार दल, तृणमूल कांग्रेस, राकांपा, नेशनल कांफ्रेंस, डीएमके, झामुमो, जेडीएस, एआईयूडीएफ, केरल कांग्रेस, मुस्लिम लीग. आम आदमी पार्टी इस प्रक्रिया में शामिल नहीं थी, पर वह भी मीरा कुमार के साथ जाएगी. यह प्रभावशाली संख्या है, पर इसके मुख्य सूत्रधार कांग्रेस और वामदल हैं. धर्म-निरपेक्ष राजनीति का काफी बड़ा हिस्सा इस राजनीति से बाहर है.

Wednesday, July 5, 2017

गांधी का लेख 'यहूदी लोग'


इस बात को लेकर बहस चल निकली है कि गांधी ने इस्रायल का समर्थन किया था या नहीं। सन 1938 के उनके इस लेख से इतना जरूर पता लगता है कि वे चाहते थे कि यहूदी लोग बंदूक के जोर पर इस्रायल बनाने के बजाय अरबों की सहमति से अपने वतन वापस आएं। व्यावहारिक सच यह भी है कि इस लेख के लिखे जाने के कुछ साल बाद वे धर्म के आधार पर बने पाकिस्तान को रोक नहीं पाए। नीचे मैंने इस लेख का अंग्रेजी प्रारूप भी दिया है। गांधी समग्र के खंड 68 में यह लेख हिंदी में पढ़ा जा सकता है।