Sunday, October 16, 2016

पर्सनल लॉ : बहस है, युद्ध नहीं

तीन बार बोलकर तलाक देने और समान नागरिक संहिता के मामले में बहस के दो पहलू हैं। एक पहलू भाजपाई है। भाजपा की राजनीति मुस्लिम तुष्टीकरण की अवधारणा पर टिकी है। सन 1985 के शाहबानो मामले में केन्द्र सरकार के रुख से ज़ाहिर हुआ कि सरकार कठोर फैसले नहीं करेगी। सन 1984 से 1989 के लोकसभा चुनाव के बीच बीजेपी की संसद में उपस्थिति बढ़ाने में मंदिर आंदोलन की भूमिका जरूर थी, पर उस मनोदशा को बढ़ाने में जिन दूसरी परिघटनाओं का हाथ था, उनमें एक मामला शाहबानो का भी था।
भारत में साम्प्रदायिक विभाजन आजादी के करीब सौ साल पहले होने लगा था। पर चुनाव की राजनीति स्वतंत्रता के बाद की देन है। राजनीतिक दलों के लिए वोट सबसे बड़ी पूँजी है। वे वोट के दीवाने हैं और उसके लिए संकीर्ण विचार को भी प्रगतिशील लिफाफे में रखकर पेश करते हैं। सामाजिक बदलाव के लिए उनकी जिम्मेदारी नहीं है। बदलाव आसानी से होते भी नहीं। उनकी प्रतिक्रिया होती है। उदाहरण दिए जाते हैं कि हमारे साथ ऐसा और उसके साथ वैसा क्यों? हमारी राज-व्यवस्था धर्म निरपेक्ष है, पर यह धर्म-निरपेक्षता धार्मिक संवेदनाओं का सम्मान करती है। इसी वजह से इसके अंतर्विरोध पैदा होते हैं। मंदिर आंदोलन ने एक दूसरे किस्म की संवेदनशीलता को बढ़ावा दिया। विश्व हिन्दू परिषद और शिवसेना जैसे संगठनों ने इसे हवा दी और नफरत की राजनीति को बढ़ावा दिया। अराजकता किसी एक तरफ से नहीं है।  

Tuesday, October 11, 2016

समस्या ‘हाथी’ से ज्यादा बड़ी है

नब्बे के दशक में जब लखनऊ में पहली बार आम्बेडकर उद्यान का निर्माण शुरू हुआ था, तब यह सवाल उठा था कि सार्वजनिक धन के इस्तेमाल को लेकर क्या राजनीतिक दलों पर मर्यादा लागू नहीं होती? जवाब था कि चुनाव के वक्त यह जनता तय करेगी कि सरकार का कार्य उचित है या नहीं? आम्बेडकर स्मारक काफी बड़ी योजना थी। उसे दलितों के लिए प्रेरणा स्थल के रूप में पेश किया गया।
देश में इसके पहले भी बड़े नेताओं के स्मारक बने हैं। सार्वजनिक धन से भी बने हैं। उसपर भी बात होनी चाहिए कि देश में एक ही प्रकार के नेताओं के स्मारकों की भरमार क्यों है। पर हाथी राजनीतिक प्रतीक है और बीएसपी का चुनाव चिह्न। यह सरासर ज्यादती है। लखनऊ में और उत्तर प्रदेश के कुछ दूसरे स्थानों पर भी हाथियों की बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ खड़ी की गईं। क्या यह चुनाव प्रचार में मददगार नहीं?

मोदी को भागवत का आशीर्वाद

'मोदी पर जारी है संघ की छत्रछाया'

प्रमोद जोशी

राजनीतिक विश्लेषक, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए


सरसंघचालक मोहन भागवत के इस बार के विजयादशमी सम्बोधन से कोई बड़ा निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता, सिवाय इस बात के कि यह मोदी सरकार पर संघ की मुहर लगाता है.

संघ प्रमुख सेना के 'सर्जिकल स्ट्राइक' से गदगद हैं. उन्होंने देश की जनता से कहा है कि कुछ देश नहीं चाहते कि भारत आगे बढ़े और कुछ स्वार्थी शक्तियाँ देश में उपद्रव फैलाना चाहती हैं.

स्वाभाविक रूप से उनके भाषण में राष्ट्रवाद, स्वाभिमान, आत्मविश्वास और स्वावलम्बन जैसे शब्दों की भरमार है. और यह भी कि 'भारत का स्वार्थ' सर्वोपरि है.

विवादास्पद बात से बचने की सावधानी भी इस वक्तव्य में दिखाई पड़ती है. बहरहाल उन्होंने इतना साफ़ कहा कि शासन पर पूरा विश्वास है. देश धीरे-धीरे आगे जाएगा.

संघ की सबसे बड़ी अपेक्षा है कि भाजपा सरकार जल्द से जल्द पूरे भारत पर अपना असर कायम करे. 'राज्य सरकारों का सहयोग भी चाहिए. देश में संघीय व्यवस्था है, जिसमें केवल केन्द्र के करने से ही सब कुछ नहीं होगा.'

हालांकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ घोषित रूप से सांस्कृतिक संगठन है, पर भाजपा के संरक्षक के रूप में उसकी आक्रामक राजनीतिक छवि साफ़ दिखाई पड़ती है. विजयादशमी सम्बोधनों में राजनीतिक विवेचन क्रमशः बढ़ रहा है.

इस साल के सम्बोधन में स्वाभाविक रूप से कश्मीर का प्रकरण हावी रहा. सेना के सर्जिकल स्ट्राइक और पाकिस्तान को अलग-थलग करने की मोदी की कोशिशों की उन्होंने तारीफ़ की है.

कश्मीर की आंतरिक स्थिति के संदर्भ में उनका कहना है कि केन्द्र और राज्य की नीति में एक दिशा होनी चाहिए. केन्द्र की नीति में दृढ़ता है, जबकि राज्य की नीति उपद्रवियों पर नरम है.

संघ की अपेक्षा है कि घाटी में पंडितों की वापसी हो और सामरिक बल, सीमा रक्षकों और सूचना तंत्र में समन्वय हो. प्रकारांतर से यह पठानकोट और उड़ी की घटनाओं पर टिप्पणी है.

राजनीतिक रूप से वे दलितों के अलगाव पर वे इशारा करना चाहते हैं. उनका कहना था, 'अनजाने में भी समाज में भेद न होने पाए.' गो-रक्षा के नाम पर हुई घटनाओं पर उनका कहना है, 'छोटी बातों को बड़ा बनाया जा रहा है.'

संघ की अपेक्षा है कि गोरक्षा के नाम पर सक्रिय उपद्रवियों से भाजपा खुद को अलग करे. उन्होंने जाति के साथ धर्म के नाम पर प्रताड़ना को रोकने की अपील भी की है. साथ ही कहा है कि देश का 'इमोशनल इंटीग्रेशन' ख़तरे में नहीं पड़ना चाहिए.

Sunday, October 9, 2016

‘सर्जिकल स्ट्राइक’ पर सियासत

सेना ने जब सर्जिकल स्ट्राइक की घोषणा की थी तो एकबारगी देश के सभी राजनीतिक दलों ने उसका स्वागत किया था। इस स्वागत के पीछे मजबूरी थी और अनिच्छा भी। मजबूरी यह कि जनमत उसके साथ था। पर परोक्ष रूप से यह मोदी सरकार का समर्थन था, इसलिए अनिच्छा भी थी। भारतीय जनता पार्टी ने संयम बरता होता और इस कार्रवाई को भुनाने की कोशिश नहीं की होती तो शायद विपक्षी प्रहार इतने तीखे नहीं होते। बहरहाल अगले दो-तीन दिन में जाहिर हो गया कि विपक्ष बीजेपी को उतनी स्पेस नहीं देगा, जितनी वह लेना चाहती है। पहले अरविन्द केजरीवाल ने पहेलीनुमा सवाल फेंका। फिर कांग्रेस के संजय निरूपम ने सीधे-सीधे कहा, सब फर्जी है। असली है तो प्रमाण दो। पी चिदम्बरम, मनीष तिवारी और रणदीप सुरजेवाला बोले कि स्ट्राइक तो कांग्रेस-शासन में हुए थे। हमने कभी श्रेय नहीं लिया। कांग्रेस सरकार ने इस तरह कभी हल्ला नहीं मचाया। पर धमाका राहुल गांधी ने किया। उन्होंने नरेन्द्र मोदी पर खून की दलाली का आरोप जड़ दिया।
इस राजनीतिकरण की जिम्मेदारी बीजेपी पर भी है। सर्जिकल स्ट्राइक की घोषणा होते ही उत्तर प्रदेश के कुछ शहरों में पोस्टर लगे। हालांकि पार्टी का कहना है कि यह सेना को दिया गया समर्थन था, जो देश के किसी भी नागरिक का हक है। पर सच यह है कि पार्टी विधानसभा चुनाव में इसका लाभ उठाना चाहेगी। कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दलों के लिए यह स्थिति असहनीय है। वे बीजेपी के लिए स्पेस नहीं छोड़ना चाहते। हालांकि अभी यह बहस छोटे दायरे में है, पर बेहतर होगा कि हमारी संसद इन सवालों पर गम्भीरता से विचार करे। बेशक देश की सेना या सरकार कोई भी जनता के सवालों के दायरे से बाहर नहीं है, पर सवाल किस प्रकार के हैं और उनकी भाषा कैसी है यह भी चर्चा का विषय होना चाहिए। साथ ही यह भी देखना होगा कि सामरिक दृष्टि से किन बातों को सार्वजनिक रूप से उजागर किया जा सकता है और किन्हें नहीं किया जा सकता। 

Saturday, October 8, 2016

वाजपेयी का नेहरू पर प्रहार क्या देशद्रोह था?

क्या भारतीय सेना और सरकार के कदमों पर उँगली उठाना देशद्रोह है? शुक्रवार को बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के संवाददाता सम्मेलन के बाद हमारे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर इस बात को लेकर जो बहस शुरू हुई थी वह अब भी जारी है। इस सिलसिले में कांग्रेस के मणिशंकर अय्यर ने सन 1962 के चीन युद्ध के समय राज्यसभा में अटल बिहारी वाजपेयी ने सरकार की जो आलोचना की थी उसका उल्लेख करते हुए कहा कि क्या अटल बिहारी वाजपेयी देशद्रोही साबित हुए? 8 नवम्बर 1962 की यह बहस सरकार की और से लाए गए आपातकाल प्रस्ताव के संदर्भ में शुरू हुई थी। इसमें वाजपेयी ने सवाल किया कि क्या नेहरू जी को पता था कि हमारी सेना नेफा में हमले का सामना करने के लिए तैयार थी? चीन ने पहली हमला 5 सितम्बर को और फिर दूसरा हमला 22 अक्तूबर को किया। इस बीच हमने तैयारी क्यों नहीं की? सेना की तैयारी क्यों नहीं थी और सैनिकों के पास पर्याप्त उपकरण क्यों नहीं थे? नेहरू जी ने विदेश यात्रा से लौटने के बाद चीन पर हमला करने का फैसला क्यों किया?

मणिशंकर अय्यर वाजपेयी के इस बयान का जिक्र पहले भी कर चुके हैं। सन 1962 में वाजपेयी ने नेहरू से कहा था कि राज्यसभा का सत्र बुलाया जाए। नेहरू ने इसे स्वीकार किया और वाजपेयी को निर्बाध बोलने का मौका दिया गया। उस दिन की राज्यसभा की कार्यवाही के दस्तावेजों में से मैने उस चर्चा के अंशों को निकाला है। ये कुछ पन्ने हैं सभी पन्ने यहाँ मिलेंगे