Thursday, October 29, 2015

गीता क्या रोशनी की किरण बनेगी?

पिछले साल केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद से विदेश नीति से जुड़े मामलों में उन्हें सफलता मिली है, पर पाकिस्तान के साथ रिश्तों में सुधार होने के बजाय तल्खी बढ़ी है. भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में एक-दूसरे के प्रति कड़वाहट है. दोनों तरफ का मीडिया इसमें तड़का लगाता है. ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब नकारात्मक खबर न होती हो. इधर भारत से भटक कर पाकिस्तान चली गई गीता की कहानी से कुछ सकारात्मक पहलू सामने आए हैं. पर पाकिस्तान के उर्दू मीडिया में इसके नकारात्मक पहलू को ज्यादा जगह मिली है.

पाकिस्तान में खबर सुर्खियों में है कि उनके ईधी फाउंडेशन ने भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा दी गई एक करोड़ की धनराशि ठुकरा दी. ईधी फाउंडेशन ने गीता को अपने यहाँ रखा था. उसके स्थापक अब्दुल सत्तार ईधी ने प्रधानमंत्री को उनकी सहृदयता के लिए धन्यवाद देते हुए वित्तीय सहायता अस्वीकार कर दिया. साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि हम किसी प्रकार की सरकारी सहायता नहीं लेते. इस खबर को पाकिस्तान में राष्ट्रवादी स्वाभिमान के रूप में प्रचारित किया जा रहा है, जबकि ईधी फाउंडेशन ने ऐसा नहीं कहा.

Monday, October 26, 2015

पारम्परिक उद्यमों में नई रोशनी

अभिजित बनर्जी और एस्थर ड्यूफ्लो की पुस्तक ‘पुअर इकोनॉमिक्स’ में गरीबों की दशा सुधारने के बाबत उनकी उद्यमिता के बारे में एक अध्याय है। दुनिया के ज्यादातर देशों में छोटे और ऐसे पारम्परिक उद्यमियों की संख्या सबसे बड़ी होती है, जो सैकड़ों साल से चले आ रहे हैं। ज्यादातर नए हुनर किसी पारम्परिक हुनर का नया रूप हैं। भारत जैसे देश में गरीबी दूर करने में सबसे बड़ी भूमिका यहाँ के पारम्परिक उद्यमों की हो सकती है। अक्सर उत्पादन के तौर-तरीकों में बदलाव से पारम्परिक उद्यमों को धक्का लगता है, क्योंकि वे नए तौर-तरीकों को जल्द ग्रहण करने की स्थिति में नहीं होते। ऐसा भी नहीं कि वे उद्यम भावना में कच्चे होते हैं। किताब में उन्होंने लिखा, ‘कई साल पहले एक हवाई यात्रा में हमारे बराबर बैठे एक बिजनेसमैन ने बताया कि 1970 के दशक-मध्य में अमेरिका में एमबीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद जब वह भारत वापस आए तो उनके अंकल वास्तविक उद्यमिता का पाठ पढ़ाने के लिए उन्हें घर से बाहर ले गए।…अंकल चाहते थे कि सड़क के साइडवॉक पर बैठी चार स्त्रियों को गौर से देखूँ।

Sunday, October 25, 2015

लंगड़ाकर क्यों चलती है हमारी राज-व्यवस्था?

अमेरिका का छोटा सा संविधान है, भारत के संविधान का चौथाई भी नहीं। पर वहाँ की राजनीतिक-प्रशासनिक पिछले सवा दो सौ साल से भी ज्यादा समय से बगैर विघ्न-बाधा के चल रही है। संविधान सभा में जब बहस चल रही थी तब डॉ भीमराव आम्बेडकर ने कहा था कि राजनीति जिम्मेदार हो तो खराब से खराब सांविधानिक व्यवस्था भी सही रास्ते पर चलती है, पर यदि राजनीति में खोट हो तो अच्छे से अच्छा संविधान भी गाड़ी को सही रास्ते पर चलाने की गारंटी नहीं दे सकता। पिछले 68 साल में भारतीय सांविधानिक व्यवस्था ने कई मोड़ लिए। इसमें दो राय नहीं कि हमारे पास दुनिया का सर्वश्रेष्ठ संविधान है। पर संविधान से ज्यादा महत्वपूर्ण है वह राजनीतिक संस्कृति जो व्यवस्था का निर्वाह करती है। ऐसी व्यवस्था में शासन के सभी अंगों के बीच समन्वय और संतुलन होता है। हमारे यहाँ इनके बीच अकसर टकराव पैदा हो जाता है। 

हाल में संविधान में संशोधन करके बनाए गए न्यायिक नियुक्ति आयोग या एनजेएसी कानून को रद्द करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद वित्तमंत्री अरुण जेटली के बयान से जो खलिश पैदा हो गई थी उसे शुक्रवार को उन्होंने दूर करने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि उनका आशय न्यायपालिका और संसद के बीच किसी प्रकार के टकराव की वकालत करना नहीं था। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पूरी तरह पालन होगा। एनजेएसी की समाप्ति के बाद न्यायाधीशों की नियुक्ति वाली कॉलेजियम व्यवस्था बहाल हो गई है। बावजूद इसके यह बहस अब फिर से चलेगी। पर सवाल केवल न्यायिक प्रणाली में सुधार का ही नहीं है।

Thursday, October 15, 2015

प्रो डीटन को नोबेल और भारत की गरीबी

आर्थिक विकास, व्यक्तिगत उपभोग और गरीबी उन्मूलन के बीच क्या कोई सूत्र है? यह इक्कीसवीं सदी के अर्थशास्त्रियों के सामने महत्वपूर्ण सैद्धांतिक प्रश्न है. पिछले डेढ़-दो सौ साल में दुनिया की समृद्धि बढ़ी, पर असमानता कम नहीं हुई, बल्कि बढ़ी. ऐसा क्यों हुआ और रास्ता क्या है? इस साल अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार प्रिंसटन विश्वविद्यालय के माइक्रोइकोनॉमिस्ट प्रोफेसर एंगस डीटन को देने की घोषणा की गई है. वे लम्बे अरसे से इस सवाल से जूझ रहे हैं. भारत उनकी प्रयोगशाला रहा है. उनके ज्यादातर अध्ययन पत्र भारत की गरीबी और कुपोषण की समस्या से जुड़े हैं. उनकी धारणा है कि आर्थिक विकास की परिणति विषमता भी है, पर यदि यह काफी बड़े तबके को गरीबी के फंदे से बाहर निकाल रहा है, तो उसे रोका नहीं जा सकता. इसके लिए जनता और शासन के बीच में एक प्रकार की सहमति होनी चाहिए. 

Sunday, October 11, 2015

'चुनाव ही चुनाव' का शोर भी ठीक नहीं

हम बेतहाशा चुनावबाजी के शिकार हैं। लगातार चुनाव के जुमले हम पर हावी हैं। इसे पूरी तरह दोषी न भी माने, पर राजनीति ने भी हमारे सामाजिक जीवन में जहर घोला है। दादरी कांड पर पहले तो नरेंद्र मोदी खामोश रहे, फिर बोले कि राजनेताओं के भाषणों पर ध्यान न दें। उनका मतलब क्या है पता नहीं, पर इतना जाहिर है कि चुनावी दौर के भाषणों के पीछे संजीदगी नहीं होती। केवल फायदा उठाने की इच्छा होती है। इस संजीदगी को खत्म करने में मोदी-पार्टी की बड़ी भूमिका है। पर ऐसा नहीं कि दूसरी पार्टियाँ सामाजिक अंतर्विरोधों का फायदा न उठाती हों। सामाजिक जीवन में जहर घोलने में इस चुनावबाजी की भी भूमिका है। भूमिका न भी हो तब भी सामाजिक शिक्षण विहीन राजनीति का इतना विस्तार क्या ठीक है?