Sunday, August 17, 2014

एक था योजना आयोग

योजना आयोग खत्म करने की खबर पर आज के टेलीग्राफ ने अपना पूरा पहला पेज इस खबर को समर्पित कर दिया। इस पेज में काफी रोचक जानकारियाँ हैं।

ONE DINO DOWN

- Jurassic plan panel set to be replaced

New Delhi, Aug. 16: The Narendra Modi government plans to transform the Soviet-era Planning Commission into a Chinese-style National Development Reforms Commission.

The proposed commission will act not only as an economic and human development think tank but also as a body that plans and monitors the implementation of mega projects and industrial areas, liaising with state governments to get the projects up and running within a timeframe.

Modi feels the plan panel — a Jurassic-era relic of the command economy — has outlived its utility in the new age where the larger chunk of the economy is in private hands, and where the State’s role is that of a catalyst rather than a Soviet-style target setter.

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Those days of commanding heights
- Species that towered over the economy is finally being declared extinct
JAYANTA ROY CHOWDHURY

Yojana Bhavan, which houses the Planning Commission. Picture by Ramakant Kushwaha
An apocryphal story: Raj Krishna, the economist who coined the phrase “Hindu rate of growth”, was a member of the Planning Commission when it was formulating the Sixth Five-Year Plan. Someone asked him what the approach to the Sixth Plan would be. Krishna replied: “This is not the approach to the Sixth Plan. This is the Sixth approach to the same Plan.”
Like other relics of the Nehruvian era — smoke-belching Ambassador cars, unwieldy Murphy radio sets, urban sprawls of ugly, box-like, post-World War flats, the fashion statement of the Nehru jacket and Godrej typewriters — the Planning Commission, housed just three buildings away from Parliament, is now destined for history’s dustbin.


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ज़ीरो डिफैक्ट यानी मोदी इफैक्ट

नरेंद्र मोदी ने औपचारिक और पिटे-पिमटाए भाषणों की परम्परा तोड़ कर देश की जनता से जो सीधा संवाद किया है उसका केंद्रीय संदेश है कि राष्ट्रीय चरित्र बनाए बगैर देश नहीं बनता। इस लिहाज से 68 साल में यह पहला स्वतंत्रता दिवस संदेश है जो उसे संबोधित है जो देश का निर्माता है। इस भाषण के अंदाजे बयां की नेहरू, इंदिरा या अटल बिहारी के भाषणों से तुलना संभव है, पर अपने कंटेंट या कथ्य में यह एकदम नया और निराला है। देश बनाना है तो जनता बनाए और दुनिया से कहे कि भारत ही नहीं हम दुनिया का निर्माण करेंगे।

Friday, August 15, 2014

इन बदरंग राष्ट्रीय तमगों की जरूरत ही क्या है?

राष्ट्रीय सम्मानों की हमारी व्यवस्था विश्वसनीय कभी नहीं रही। पर हाल के वर्षों में वह मजाक का विषय बन गई है। इन पदकों ने पहचान पत्र की जगह ले ली है। यूपीए सम्मानित, एनडीए सम्मानित या सिर्फ असम्मानित! पिछले हफ्ते खबर थी कि नेताजी सुभाष बोस को भारत रत्न मिलने वाला है। फिर कहा गया कि अटल बिहारी को भी मिलेगा। ताज़ा खबर है कि हॉकी के जादूगर ध्यानचंद के नाम की संस्तुति प्रधानमंत्री से की गई है। पता नहीं किसी को मिलेगा या नहीं पर ट्विटर, फेसबुक और टेलीविजन पर कम से कम डेढ़ सौ हवा में नाम फेंके जा चुके हैं। कांशीराम से लेकर सर सैयद, एओ ह्यूम से एनी बेसेंट, भगत सिंह से रास बिहारी बोस, लाला लाजपत राय से मदन मोहन मालवीय और राम मनोहर लोहिया से लेकर कर्पूरी ठाकुर। लगो हाथ जस्टिस काटजू ने ट्वीट करके सचिन तेन्दुलकर को भारत रत्न देने की भर्त्सना कर दी। जवाब में शिवसेना ने जस्टिस काटजू की निंदा कर दी। सम्मानों की राजनीति चल रही है।

Thursday, August 14, 2014

फटा सुथन्ना पहने हरचरना किसके गुन गाता है?

कुछ तो कहती हैं जनता की खामोशियाँ

राष्ट्रगीत में  भला कौन  वह/ भारत भाग्य विधाता है/ फटा सुथन्ना पहने जिसका/ गुन हरचरना गाता है।
मख़मल टमटम बल्लम तुरहीपगड़ी छत्र चँवर के साथ/ तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर/ जय-जय कौन कराता है।
पूरब-पच्छिम से आते हैं/ नंगे-बूचे नरकंकाल/ सिंहासन पर बैठा,उनके/ तमगे कौन लगाता है।
कौन-कौन है वह जन-गण-मन/ अधिनायक वह महाबली/ डरा हुआ मन बेमन जिसका/ बाजा रोज़ बजाता है।
हमारे तीन राष्ट्रीय त्योहार हैं।15 अगस्त है जन-जन की आज़ादी का दिन। गणतंत्रका दिन है 26 जनवरी। गण पर हावी तंत्र। देश का मन गांधी के सपने देखता है, सो 2 अक्तूबर चरखा कातने का दिन है। मन को भुलाने का दिन। जन और मन की जिम्मेदारी थी कि वह गण को नियंत्रण में रखे। पर जन खामोश रहा और मन राजघाट में सो गया। व्यवस्था ने उसके नाम से गली-चौराहों के नाम रख दिए, म्यूजियम बना दिए और पाठ्य पुस्तकों पर उसकी सूक्तियाँ छाप दीं। इन्हीं सूक्तियों को हमने गीतों में ढाल दिया है। फटा सुथन्ना पहनने वाला हरचरना और उसकी संतानें सालहों-साल राष्ट्रगान बजते ही सीधे खड़े हो जाते हैं। रघुवीर सहाय की ऊपर लिखी कविता हर साल स्वतंत्रता दिवस पर ताज़ा रहती है, जैसे अभी लिखी गई हो। सबसे महत्वपूर्ण है इसका आखिरी सवाल। वह जन-गण-मन अधिनायक कौन है, जिसका बाजा हमारा डरा हुआ मन रोज बजाता है?
रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने जॉर्ज पंचम के लिए कविता लिखी या भारतीय जन-गण के लिए लिखी इस बहस को फिर से ताज़ा करने का इरादा नहीं है। दिलचस्पी हरचरना के हसीन सपनों में है। उसे 1947 में ही बता दिया गया था कि अच्छे दिन आने वाले हैं। 67 साल गुजर गए हरचरना के नाती-पोते इंतज़ार कर रहे हैं। दशकों पहले काका हाथरसी ने लिखा, जन-गण-मन के देवता, अब तो आँखें खोल/ महँगाई से हो गया, जीवन डांवांडोल/ जीवन डांवांडोल, ख़बर लो शीघ्र कृपालू/ कलाकंद के भाव बिक रहे बैंगन-आलू। काका को भी जन-गण-मन के किसी देवता से शिकायत थी। काका ने जब यह लिखा तब टमाटर आठ रुपए किलो मिलते थे। अब अस्सी में मिल जाएं तो अच्छे भाग्य समझिए।

धारदार, साखदार है तभी अख़बार, वर्ना है काग़ज़ का टुकड़ा


हर सुबह अखबार के साथ रंगीन आर्ट पेपर पर छपे इश्तहारों के टुकड़े भी आते हैं। उनकी सजावट के मुकाबले अखबार कुछ भी नहीं होते, पर आप पहले अखबार उठाते हैं। उन्हें भी पढ़ते हैं, पर वे आप तक अखबार की वजह से आते हैं, अखबार के साथ। पिछले चार सौ साल से ज्यादा वक्त हो गया अखबार निकलते। वे पहला औद्योगिक उत्पाद माने जाते हैं। उनका विकास दुनिया में लोकतंत्र के विकास का इतिहास है। तमाम किस्म के अंतर्विरोध अखबार के साथ छिपे हैं। अखबारों ने वैश्विक सामाजिक-राजनीतिक जीवन में अपनी जगह बनाई, जो अभी तक बनी है। अब ऐसा लगता है कि अखबार की कहानी कुछ दशकों की रह गई है। सम्भव है कागज़ के पर्चे के रूप में अखबार हमारे जीवन से चला जाए, पर पत्रकारिता की जरूरत हमेशा बनी रहेगी। आज रांची के दैनिक प्रभात खबर ने अपनी तीसवीं वर्षगाँठ मनाई है। इस अखबार की खासियत है कि यह आधुनिक भारत के उस दौर से शुरू हुआ जब देश नई करवट ले रहा था। राजीव गांधी के नेतृत्व में इक्कीसवीं सदी की बातें प्रभात खबर के आने के बाद शुरू हुईं हैं। इस अखबार ने सामाजिक जीवन के कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं का साथ नहीं छोड़ा है। इसने समय के साथ बहुत कुछ बदला है, पर तमाम बातों को छोड़ा नहीं है। यानी नया जोड़ा है, पर पुराना नहीं छोड़ा। इसकी तीसवीं वर्षगाँठ पर अखबार के विशेष पेज पर छपा मेंरा लेख। इस लेख के साथ एनके सिंह का लेख भी है, जो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के रुझानों पर है। 

कुछ साल पहले पंजाब के एक हिंदी अख़बार के पहले सफे पर चार तस्वीरों के साथ एक खबर छपी थी जिसका शीर्षक था मुझे घर जाने दो नहीं तो जान दे दूँगी. खबर एक छोटे शहर की थी जहाँ की पुलिस सार्वजनिक स्थानों पर घूमते जोड़ों की पक़ड़-धकड़ कर रही थी. खबर के साथ लगी पहली तीन तस्वीरों में एक लड़की पुलिस वालों से बात करती नजर आती थी. मुख्य शीर्षक के ऊपर शोल्डर था मोरल पुलिसिंग! प्रेमी जोड़ों पर कार्रवाई के दौरान छात्रा हुई प्रताड़ित, फिर आ गई ट्रेन के नीचे. खबर में चौथी तस्वीर रेल की पटरियों के बीच पड़ी लाश की थी. पुलिस की कार्रवाई, लड़की का घबराना और अख़बार में खबर का ट्रीटमेंट तीनों को बदलते वक्त की रोशनी में देखना चाहिए.
मीडिया तकनीक और कवरेज में बदलते वक्त का आइना दिखाई देता है. एक अख़बार ने महिलाओं की किटी पार्टी की कवरेज में विशेषज्ञता हासिल कर ली. पंजाब और दिल्ली का एक अख़बार संयुक्त परिवारों पर विशेष सामग्री छापता है. ऐसे ज़माने में जब परिवार छोटे हो रहे हैं, यह द्रविड़ प्राणायाम अलग किस्म का नयापन लेकर आया है. एक और अख़बार सीनियर सिटिज़न यानी वयोवृद्धों पर अलग से पेज छापता है. युवाओं पर अलग पेज तो तकरीबन सभी अखबारों ने शुरू किए हैं. धर्म और धार्मिक कर्मकांड भी हिंदी अखबारों का एक अनिवार्य हिस्सा है. वैसे ही जैसे विज्ञान-तकनीक और गैजेट्स का पेज.   

रॉबिन जेफ्री की किताब इंडियाज़ न्यूज़पेपर रिवॉल्यूशन सन 2000 में प्रकाशित हुई थी. इक्कीसवीं सदी के प्रवेश द्वार पर आकर किसी ने संज़ीदगी के साथ भारतीय भाषाओं के अखबारों की ख़ैर-ख़बर ली. रॉबिन जेफ्री ने किताब की शुरुआत करते हुए इस बात की ओर इशारा किया कि अखबारी क्रांति ने एक नए किस्म के लोकतंत्र को जन्म दिया है. उन्होंने 1993 में मद्रास एक्सप्रेस से आंध्र प्रदेश की अपनी एक यात्रा का जिक्र किया है. उनका एक सहयात्री एक पुलिस इंस्पेक्टर था. बातों-बातों में अखबारों की जिक्र हुआ तो पुलिस वाले ने कहा, अखबारों ने हमारा काम मुश्किल कर दिया है. पहले गाँव में पुलिस जाती थी तो गाँव वाले डरते थे. पर अब नहीं डरते. बीस साल पहले यह बात नहीं थी. तब सबसे नजदीकी तेलुगु अख़बार तकरीबन 300 किलोमीटर दूर विजयवाड़ा से आता था. सन 1973 में ईनाडु का जन्म भी नहीं हुआ था, पर 1993 में उस इंस्पेक्टर के हल्के में तिरुपति और अनंतपुर से अख़बार के संस्करण निकलते थे.