Tuesday, February 26, 2013

हंगामा करने मात्र से आतंक को हराना सम्भव नहीं


हैदराबाद के बम धमाके जब हुए हैं तब हमारी संसद का सत्र चल रहा है। धमाकों की गूँज संसद में सुनाई भी पड़ी है। उम्मीद करनी चाहिए कि राष्ट्रीय राजनीति इन धमाकों  के निहितार्थ को जनता का सामने रखेगी और कोई समाधान पेश करेगी। यह मानने के पहले हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि आतंकी गतिविधियाँ फिलंहाल हमारे जीवन का हिस्सा हैं। इन्हें पूरी तरह खत्म करने का दावा नहीं किया जा सकता, पर समाधान खोजा जा  सकता है। न्यूयॉर्क और लंदन से लेकर मैड्रिड तक धमाकों के मंज़र देख चुके हैं। भारत के मुकाबले अमेरिका आतंकवादियों का ज़्यादा बड़ा निशाना है, पर 9/11 के बाद अमेरिका ने दूसरा मौका धमाका-परस्तों को नहीं दिया। बेशक हम उतने समृद्ध नहीं। भौगोलिक रूप से हमारी ज़मीन पर दुश्मन का प्रवेश आसान है। इन बातों के बावज़ूद हमें खुले दिमाग से कुछ मसलों पर विचार करना चाहिए। खासतौर से इस बात को ध्यान में रखते हुए कि भारत आर्थिक बदलाव के महत्वपूर्ण दौर से गुज़र रहा है और नए प्रकार की राष्ट्र-रचना का काम चल रहा है। तथ्य यह है कि नवम्बर 2008 में मुम्बई धमाकों और उसके बाद छह शहरों में हुए धमाकों में से किसी की तह तक हम नहीं पहुँच पाए। बावजूद इसके कि हमने नेशनल इंटेलिजेंस एजेंसी बनाई है, जिसका काम सिर्फ आतंकवादी मामलों की जाँच करना है। दिल्ली हाईकोर्ट धमाकों में भी कोई बड़ी प्रगति नहीं हो पाई। आमतौर पर धमाकों के पीछे इंडियन मुजाहिदीन या हूजी का हाथ माना जाता है जो प्रकारांतर से लश्करे तैयबा से जुड़ते हैं। हाल में हिन्दुत्ववादी संगठनों का हाथ भी देखा गया है। आतंकवाद से सुरक्षा के दो पहलू हैं। एक है कार्रवाई से पहले की खुफिया सूचना और दूसरा है जाँच। हम दोनों जगह नाकाम हैं।
हैदराबाद धमाकों के राजनीतिक, प्रशासनिक और सामाजिक निहितार्थ को एक-एक करके देखें तो कुछ सकारात्मक और कुछ नकारात्मक बातें सामने आएंगी। धमाकों की खबर के साथ ही मीडिया हरकत में आ गया जैसा कि हमेशा होता है। रात के पौने नौ बजे अपने आप को सबसे तेज़ कहने वाले चैनल ने मरने वालों की संख्या  24 पर पहुँचा दी थी। यह संख्या दूसरे चैनलों के अनुमानों की दुगनी थी और अब तक के अनुमानों से भी ज्यादा है। दूसरे चैनल बम धमाकों की संख्या दो या तीन के बीच अटके थे वहीं इस चैनल पर इससे ज्यादा का अंदेशा व्यक्त किया जा रहा था। धमाकों का उद्देश्य अफरा-तफरी फैलाने का था तो मीडिया का काम उसे बढ़ाने का नहीं होना चाहिए। न्यूयॉर्क पर हुए आतंकी हमले की कवरेज को देखें तो आप पाएंगे कि मीडिया ने अव्यवस्था और अराजकता के बजाय व्यवस्था को दिखाने की कोशिश की। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की ऊँची इमारत की सीढ़ियों में दो कतारें अपने आप बन गईं। एक कतार में लोग उतर रहे थे और दूसरी कतार में राहतकर्मी ऊपर जा रहे थे। आपने लाशों की तस्वीरें देखी भी नहीं होंगी। इसके विपरीत मुम्बई पर हुए आतंकी हमले की भारतीय मीडिया कवरेज ने पाकिस्तान में बैठे आतंकियों को मदद पहुँचाई। आतंकियों और उन्हें निर्देश देने वालों के फोन-संदेशों ने इस बात की पुष्टि की। ज़रूरत इस बात की है कि मीडियाकर्मियों को इन स्थितियों में कवरेज का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
दूसरा पाठ प्रशासनिक व्यवस्था का है। गृहमंत्री सुशील कुमार शिन्दे के वक्तव्य से लगता है कि सरकार के पास कुछ शहरों में धमाकों के अंदेशे की खुफिया जानकारी थी। जानकारी इतनी साफ हो कि किस वक्त पर कहाँ हमला हो सकता है तो हमला हो ही नहीं पाता। पर मोटा अंदेशा हो तो पेशबंदी की जा सकती है। हैदराबाद में क्या पेशबंदी थी, अभी यह स्पष्ट नहीं है। लगता है कि सुरक्षा-व्यवस्था को इसका गुमान नहीं  था। इसे इंटेलिजेंस फेल होना कहते हैं। इंटेलिजेंस या खुफियागीरी कई तरह से होती है। इसमें तकनीक का इस्तेमाल होता है, दूसरे देशों या संगठनों की सूचनाओं को एकत्र किया जाता है और जनता से सीधे प्राप्त जानकारियों को हासिल किया जाता है। इसे मानवीय या ह्यूमन इंटेलिजेंस कहते हैं। हमारे यहाँ ह्यूमन इंटेलिजेंस बेहद कमज़ोर है। इसके सामाजिक और प्रशासनिक दोनों कारण हैं। मसलन हैदराबाद में अमोनियम नाइट्रेट से बम बनाया गया था। यह सबसे आसानी से मिलने वाला विस्फोटक है जो खेती के काम भी आता है। इसकी बिक्री को नियंत्रित करने के साथ-साथ इसके विक्रेताओं से सम्पर्क रखने और उन्हें प्रशिक्षित करने की ज़रूरत भी होगी। पर हम यह काम नहीं कर पाए हैं। हमने जानकारियों का नेशनल ग्रिड (नैट ग्रिड) बनाया है, पर लगता है जानकारियों के विश्लेषण की पद्धति तैयार नहीं की। इससे भी बड़ी बात यह है कि पुलिस बलों के पास पर्याप्त लोग नहीं हैं, जो अपने इलाके की जनता से दोस्ताना रिश्ता रखें। उन्हें इसके लिए प्रशिक्षित भी नहीं किया गया है। इसी महीने सुप्रीम कोर्ट में एक लोक याचिका के संदर्भ में तमाम तथ्य सामने आए हैं कि किस तरीके से हमारे नेता वीआईपी सुरक्षा के नाम लाल बत्ती, एक्स-वाई-जेड सुरक्षा की तलाश में रहते हैं। इसके कारण जनता की सुरक्षा पीछे रह जाती है। खुफिया एजेंसियों में युवा खून की ज़रूरत भी है। अधिकतर एजेंसियों में 50 से ऊपर की उम्र के लोग यह काम कर रहे हैं, जबकि आतंकी संगठन किशोरों को आकर्षित कर रहे हैं। इसमें भी दो राय नहीं कि बेरोज़गारी और गरीबी ने किशोरों को भ्रमित कर दिया है। उन्हें सकारात्मक रास्ते पर लाने की जिम्मेदारी व्यवस्था की है। और भ्रष्टाचार पर काबू पाने की ज़रूरत भी है, क्योंकि आतंकियों के पास पैसा हथियार बैकडोर से आते हैं।
राजनीतिक दृष्टि से देखें तो हमारे सामने सबसे बड़ा उदाहरण है नेशनल काउंटर टैररिज़्म सेंटर (एनसीटीसी)। पिछले साल फरवरी में सरकार ने अचानक इसे बनाने की घोषणा कर दी। इसपर कुछ राज्य सरकारों ने इसमें अड़ंगा लगा दिया। यदि हमें एनसीटीसी की ज़रूरत है तो उसके राजनीतिक निहितार्थ को जल्द से जल्द समझ कर इसका रास्ता साफ करना चाहिए। पिछले एक साल में यह मामला जस का तस है। हैदराबाद की घटना क्या मजलिसे इत्तहादुल मुस्लिमीन के विधायक अकबरुद्दीन ओवेसी के भाषण का परिणाम थी? लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने यह सवाल उठाया है। उनका यह भी कहना था कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में सरकार और भाजपा का दृष्टिकोण एक नहीं है। यह चिंतनीय वक्तव्य है। इन दो दलों का नहीं पूरे देश का दृष्टिकोण एक होना चाहिए। यह आम जनता की सुरक्षा का सवाल है। बेशक जब अकबरुद्दीन ओवेसी का ज़िक्र होगा तो प्रवीण तोगड़िया का भी होगा। राजनीतिक दलों को इस मामले की संवेदनशीलता को समझना चाहिए। 
एक महत्वपूर्ण पहलू अंतरराष्ट्रीय स्तर पर है। इस बात तक की तह तक पहुँचने की ज़रूरत है कि पाकिस्तान में कराची प्रोजेक्टनाम से लश्करे तैयबा का वह गिरोह चल रहा है या नहीं जिसका उद्देश्य भारत में अराजकता फैलाना है। कराची प्रोजेक्ट के बारे में डेविड कोल हैडली ने अमेरिका की खुफिया एजेंसी एफबीआई को जानकारी दी थी। यह प्रोजेक्ट 2003 से चल रहा था और अनुमान है कि आज भी सक्रिय है। लश्करे तैयबा अपने नए नाम दारुल उद दावा के रूप में सक्रिय है और हाफिज सईद दिफा-ए-पाकिस्तान कौंसिल के नाम से कट्टरपंथी आंदोलन चला रहे हैं। मुम्बई धमाकों के सिलसिले में पाकिस्तान सरकार के आश्वासन के बावज़ूद वहाँ से आए आयोग की जानकारी को पाकिस्तान की अदालत ने साक्ष्य नहीं माना। और अब एक नए आयोग की व्यवस्था की जा रही है, जो इस मामले की तफतीश से जुड़े लोगों से बात करेगा। इतना साफ है कि पाकिस्तान की नागरिक सरकार इतनी ताकतवर नहीं है कि वह लश्करे तैयबा पर काबू पा सके। हाफिज सईद पर अमेरिका की ओर से 10 मिलियन डॉलर के इनाम की घोषणा के बाद से उसके हौसले बढ़े ही हैं, कम नहीं हुए। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में हम तभी जीत सकते हैं जब सामाजिक और राजनीतिक रूप से एक और प्रशासनिक रूप से कुशल हों। 

Wednesday, February 20, 2013

खतरा ! वीआईपी आ रहा है


वीआईपीवाद से मुक्ति चाहती है जनता
इंटरनेट ने सामान्य व्यक्ति के दुख-दर्द को उजागर करने का काम किया है। एक ब्लॉगर ने लिखा, लगता है कि वीआईपी होने का सुख जिसे भी मिलता हो, पर उसका दुख पूरा शहर सहन करता है। कुछ साल पहले कानपुर में प्रधानमंत्री के दौरे के दौरान ट्रैफिक में फँसा एक घायल बच्चा समय पर अस्पताल नहीं पहुंच सका और उसकी मौत हो गई। इसी तरह प्रधानमंत्री का चंड़ीगढ़ दौरा एक मरीज का मौत का कारण बन गया था। गम्भीर रूप से बीमार व्यक्ति को पुलिस वालों ने इसलिए नहीं जाने दिया क्योंकि प्रधानमंत्री का काफिला उधर से गुजरने वाला था। गुर्दे का मरीज होने की वजह से वह हर महीने पीजीआई खून बदलवाने के लिए जाया करता था। उसके परिजनों ने पुलिस वालों को लाख समझाया, पर उनकी नहीं सुनी गई। भारत जैसी वीआईपी सुरक्षा शायद दुनिया के किसी देश में नहीं होगी। एम्बुलेंस को रास्ता देना आधुनिकता का प्रतीक है, पर आप देश की राजधानी में अक्सर वीआईपी मूवमेंट के कारण रोके गए ट्रैफिक में फँसी एम्बुलेंसों को देख सकते हैं। इंडिया गेट के पास से गुजरते वीआईपी के लिए रुके ट्रैफिक के कारण कनॉट प्लेस में लगे जाम को देख सकते हैं। आम जनता के जरूरी काम, इंटरव्यू, डॉक्टरों से अपॉइंटमेंट, मीडिंग सब बेकार हैं। सबसे ज़रूरी है साहब बहादुर की सवारी।

Tuesday, February 19, 2013

इंटरनेट सेंसरशिप


ग्वालियर की एक अदालत के आदेश पर कार्रवाई करते हुए सरकार ने उन 78 यूआरएल को ब्लाक करने के आदेश जारी किए जिनमें आईआईपीएम या फिर उनके निदेशक अरिन्दम चौधरी के बारे में कुछ अभद्र कहा सुना गया था। चीन में इंटरनेट सेंसरशिप चलती है, पर भारत में हाल के दिनों में इसे लेकर विमर्श चल रहा है। आईआईपीएम का तर्क अपनी जगह है कि यदि कोई किसी के भी बारे में अपनी राय व्यक्त करने को स्वतंत्र है तो किसी को अपने बारे में कुछ भी लिखे गए को स्वीकार करने या न करने की आजादी भी है। पिछली 14 फरवरी को ग्वालियर की एक अदालत के आदेश के बाद डीओटी की कम्प्यूटर इमरजंसी रिस्पांस टीम ने कार्रवाई भी कर दी। मीडियानामा नामक एक वेबसाइट ने उन सभी यूआरएल की लिस्ट भी प्रसारित कर दी जिन्हें ब्लाक किया जा रहा है। रोचक बात यह है कि जिन यूआरएल को ब्लाक करने की लिस्ट जारी की गई है उसमें यूजीसी की वेबसाइट का एक पन्ना भी शामिल है। हालांकि इस वक्त यूजीसी साइट का वह पन्ना विजिबल है जिसके ब्लाक करने की खबर कही गई थी। ऐसे कुछ और पन्ने भी देखे जा सकते हैं। ब्लाक लिस्ट में रीडिफ, आउटलुक, कैरेवान, इंडियन एक्सप्रेस के भी कुछ पन्ने शामिल हैं जिसमें आईआईपीएम के बारे में कथित 'गलत जानकारी' दी गई थी। इन वैबसाइटों में से कुछ का कहना है कि उनके पन्ने ब्लॉक करने के पहले कोई सूचना नहीं दी गई। 

इंटरनेट पर विवादित सामग्री के प्रकाशन को लेकर धीरे-धीरे मामले सामने आएंगे, पर आश्चर्य इस बात का है कि भारतीय मीडिया में इस सवाल पर चर्चा बहुत क्षीण है। कम से कम हिन्दी अखबारों के सम्पादकों को तो लगता है कि इसकी भनक भी नहीं हैं, हालांकि लगभग सभी में अपने आप को यंगिस्तान के पहलवान साबित करने की होड़ लगी है। वस्तुतः यह अभिव्यक्ति के अधिकार और व्यवसाय चलाने की स्वतंत्रता के अंतर्विरोधों को उजागर करने का मामला है और जनता के सामने सारे तथ्य आने चाहिए। पर जैसा कि पहले होता रहा है मीडिया अपने मामलों पर विमर्श में पीछे रहता है। 18 फरवरी के हिन्दू के ऑपएड पेज पर वासुदेव मुकंठ और अनुज श्रीवास का लेख प्रकाशित हुआ। आज हिन्दू और इंडियन एक्सप्रेस ने इस मसले पर सम्पादकीय भी लिखे हैं। हिन्दू में Think beyond censorship शीर्षक सम्पादकीय में इटरनेट ब्लॉक करने की तकनीकी खामियों की ओर इशारा किया गया है। हिन्दू के सम्पादकीय अंशः-

 That bruising lesson must have been learnt by all actors involved in the blocking of over 70 web pages containing content critical of the Indian Institute of Planning and Management, an agency that widely advertises a variety of study courses and degrees. The online community has responded with a counter-offensive against the institution on a devastating scale, and called attention worldwide to precisely what the institute wanted purged. Moreover, the episode proves once again that the Information Technology Act is a handy censorship tool. Although the order to the Department of Telecommunications to block the web pages was issued by a Gwalior court, it is flawed, because no opportunity was provided to the websites to enter a defence. It is shocking that the court saw merit in the plaintiff’s plea to block a page of the University Grants Commission, the highest body regulating the general university system, simply because it declared that within the meaning of the UGC Act, IIPM is not a university, and does not have the right to confer or grant degrees. पूरा पढ़ें

इंडियन एक्सप्रेस

Block games
IIPM case highlights the inept way information is blocked online

Defamation is a serious business, and quick legal recourse is everyone’s due. That said, the IIPM case has revealed the bluntness of the instrument — the way IT legislation can be misused to blank out important public information, like the UGC’s notice. Courts are meant to use interim injunctions only in extraordinary situations, because of the way they can chill free speech. What’s more, this blocking was done silently, without offering the websites a chance to explain their side of the story, without even informing them. If the IIPM’s partner was hoping that all unflattering references would be quietly effaced, he would have realised his mistake by now. As tends to happen on the internet in response to clumsy attempts at suppression, that material has now sprouted all around, as publications and individuals defiantly reposted the content. The hacker collective, Anonymous India, targeted the IIPM for a while. On Twitter, Minister of State for HRD Shashi Tharoor flagged the UGC-blocking news to his counterpart in the communications ministry, Milind Deora. This kind of selective filtering of websites, and the pressure on intermediaries to remove “offensive” content, has come to characterise the official approach in recent years. The IIPM case is still unfolding in court, but it has revealed how, by default, the internet regulation regime appears to be set against free expression. पूरा पढ़ें

20 फरवरी 2013 के हिन्दू में प्रकाशित अपर्णा विश्वनाथन के लेख का अंश। पूरा लेख यहाँ पढ़ें

On February 6, 2013, Sanjay Chaudhary was arrested under section 66A of the Information Technology (IT) Act for posting ‘objectionable comments and caricatures’ of Prime Minister Manmohan Singh, Union Minister Kapil Sibal and Samajwadi Party president Mulayam Singh Yadav on his Facebook wall.

This arrest follows numerous others over the past few months for political speech through social media: Manoj Oswal for having caused ‘inconvenience’ to relatives of Nationalist Congress Party chief Sharad Pawar for allegations made on his website; Jadavpur University Professor Ambikesh Mahapatra for a political cartoon about West Bengal Chief Minister Mamata Banerjee; businessman Ravi Srinivasan in Puducherry for an allegedly defamatory tweet against the son of Union Finance Minister P. Chidambaram; two Air India employees, who were jailed for 12 days for allegedly defamatory remarks on Facebook and Orkut against a trade union leader and a politician; Aseem Trivedi, accused of violation of the IT Act for drawing cartoons lampooning Parliament and the Constitution to depict its ineffectiveness. However, the incident that rocked the nation was the arrest last November of two young women, Shaheen Dadha and her friend Renu Srinivasan, for a comment posted on Facebook that questioned the shutdown of Mumbai following the demise of Shiv Sena Supremo Bal Thackeray. The girls were arrested under Section 66A(a) of the IT Act for allegedly sending a ‘grossly offensive’ and ‘menacing’ message through a communication device.


कुछ यूआरएल जो बंद किए गए। पूरी सूची यहाँ देखें
http://bitly.com/bundles/maheshmurthy/5
http://www.consumercourt.in/other-product-services/114783-fraud-done-iipm-delhi.html
http://akosha.com/IIPM-complaints-98.html
http://www.consumercourt.nic.in/other-department/88450-fraud-iipm-bangalore-campus.html
कुछ वे यूआरएल जो अभी देखे जा सकते हैं
http://www.iipmfraud.com/
http://www.fakingnews.com/2011/07/iipm-appoints-poonam-pandey-as-their-brand-ambassador/
http://harishc.blogspot.in/2011/06/caravan-iipm-article.html
http://www.indianexpress.com/news/court-asks-iipm-ugc-to-clarify-on-affiliation/676123/
http://kafila.org/2011/06/22/arindam-chaudhuri-silchar/

Call me ugly but don't attack my business: Arindam Caudhari


Monday, February 18, 2013

भारतीय सुरक्षा को प्रभावित करेगी यह 'भिंडी बाज़ार' मनोवृत्ति


भारत सरकार ने ऑगस्टा वेस्टलैंड हेलिकॉप्टर के समझौते को रद्द करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। समझौते का रद्द होना इटली की कम्पनी फिनमैकेनिका के लिए बहुत बड़ा झटका साबित होगा। इतना ही बड़ा झटका यूपीए सरकार को लगेगा। क्योंकि इसके गहरे राजनीतिक निहितार्थ हैं। मीडिया में इस आशय की जानकारियाँ अलग-अलग स्रोतों से आने लगी हैं कि फायदा परिवार को मिला। इस तरह की बातों से भ्रम की स्थिति पैदा होती है। प्रमाणों के साथ बात की जानी चाहिए। अच्छी बात यह है कि मामले की शुरूआत इटली सरकार ने की है। हमें जो भी जानकारियाँ मिल रहीं हैं, वे सब वहीं से हासिल हो रही हैं। अब सीबीआई को इटली जाकर जाँच करने का मौका मिलेगा, पर उसके पहले वहाँ की सरकार और अदालत से इज़ाज़त लेनी होगी। इस मामले की तुलना बोफोर्स मामले से की जाती है, पर उस मामले में स्वीडन सरकार ने सहयोग नहीं किया था। सारी जाँच भारतीय एजेंसियों और मीडिया के मार्फत हुई थी। इस बार इटली की सरकार ने पहल की है। आश्चर्य इस बात पर है कि तकरीबन एक साल से यह मामला भारतीय मीडिया में उछल रहा था, पर सरकार ने पहल नहीं की।

Saturday, February 16, 2013

हिन्द महासागर में भारत-विरोधी हवाओं पर ध्यान दें


सिद्धांततः भारत को मालदीव की आंतरिक राजनीति में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, पर वहाँ जो कुछ हो रहा है, उसे बैठे-बैठे देखते रहना भी नहीं चाहिए। पिछले साल जब मालदीव में सत्ता परिवर्तन हुआ था वह किसी प्रकार से न्यायपूर्ण नहीं था। फौजी ताकत के सहारे चुने हुए राष्ट्रपति को हटाना कहीं से उचित नहीं था। और अब उस राष्ट्रपति को चुनाव में खड़ा होने से रोकने की कोशिशें की जा रहीं है। इतना ही नहीं देश का एक तबका परोक्ष रूप से भारत-विरोधी बातें बोलता है। वह भी तब जब भारत उसका मददगार है। दरअसल हमें मालदीव ही नहीं पूरे दक्षिण एशिया और खासतौर से हिन्द महासागर में भारत-विरोधी माहौल पैदा करने की कोशिशों के बाबत सतर्क रहना चाहिए।  16 फरवरी 2013 के हिन्दी ट्रिब्यून में प्रकाशित मेरा लेखः-
Maldivian army and policemen face supporters of Mohamed Nasheed, who resigned Tuesday from his post as Maldivian President, during a protest in Male on Wednesday.
मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नाशीद की गिरफ़्तारी का वॉरंट जारी होने के बाद उनका माले में स्थित भारतीय दूतावास में आना एक महत्वपूर्ण घटना है। पिछले साल फरवरी में जब नाशीद का तख्ता पलट किया गया था तब भारत सरकार ने उस घटना की अनदेखी की थी, पर लगता है कि अब यह घटनाक्रम किसी तार्किक परिणति की ओर बढ़ेगा। शायद हम अभी इस मामले को ठीक से समझ नहीं पाए हैं, पर यह बात साफ दिखाई पड़ रही है कि नाशीद को इस साल वहाँ अगस्त-सितम्बर में होने वाले चुनावों में खड़ा होने से रोकने की पीठिका तैयार की जा रही है। इसके पहले दिसम्बर 2012 में मालदीव सरकार ने भारतीय कम्पनी जीएमआर को बाहर का रास्ता दिखाकर हमें महत्वपूर्ण संदेश दिया था। माले के इब्राहिम नासिर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे की देखरेख के लिए जीएमआर को दिया गया 50 करोड़ डॉलर का करार रद्द होना शायद बहुत बड़ी बात न हो, पर इसके पीछे के कारणों पर जाने की कोशिश करें तो हमारी चंताएं बढ़ेंगी। समझना यह है कि पिछले एक साल से यहाँ चल रही जद्दो-जेहद सिर्फ स्थानीय राजनीतिक खींचतान के कारण है या इसके पीछे चीन और पाकिस्तान का हाथ है।

Monday, February 11, 2013

फाँसी की राजनीति


भारत में किसी भी बात पर राजनीति हो सकती है। अफज़ल गुरू को फाँसी देने के सवाल पर और उससे जुड़ी तमाम पेचीदगियों पर भी। और अब अफज़ल गुरू के बाद पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह तथा राजीव गांधी की हत्या के अभियुक्तों को फाँसी की मसला राजनीति का विषय बनेगा।  
फेसबुक पर कानपुर के पत्रकार ज़फर इरशाद का स्टेटस था, कांग्रेस के लोगों के पास ज़बरदस्त दिमाग है..जैसे ही उसने देखा कुम्भ में बहुत मोदी-मोदी हो रहा है, उसने अफज़ल को फाँसी देकर सारी ख़बरों को डाइवर्ट कर दिया..अब कोई बचा है क्या फाँसी के लिए?” अजमल कसाब की तरह अफज़ल गुरू की फाँसी न्यायिक प्रक्रिया से ज़्यादा राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा नज़र आती हैं। इस सिलसिले में अभी कुछ और पात्र बचे हैं, जिनकी सज़ा राजनीतिक कारणों से रुकी है। बहरहाल एक और टिप्पणी थी फ्रॉम सॉफ्ट टु एक्शन टेकिंग स्टेट। यानी सरकार अपनी छवि बदलने की कोशिश में है। यह भाजपा के हिन्दुत्व को दिया गया जवाब है। लम्बे अरसे से कश्मीर को लेकर भारत और पाकिस्तान में ही नहीं, हमारे दो बड़े राजनीतिक दलों के बीच रस्साकशी चलती रही है। और यह बात कश्मीर समस्या और भारत-पाकिस्तान रिश्तों को परिभाषित करने में बड़ी बाधा है। अजमल कसाब और अफज़ल गुरू को फाँसी देने में जिस किस्म की गोपनीयता बरती गई वह इस अंतर्विरोध को रेखांकित करती है। हमारी  आंतरिक राजनीति पर विभाजन की छाया हमेशा रही है। और ऐसा ही पाकिस्तान में है। दोनों देशों में चुनाव की राजनीति इस प्रवृत्ति को बजाय कम करने के और ज्यादा बढ़ाती है। दोनों देशों के चुनाव करीब है।

Sunday, February 10, 2013

फाँसी के बाद भी सवाल उठेंगे


अब इस बात पर विचार करने का वक्त नहीं है कि अफज़ल गुरू को फाँसी होनी चाहिए थी या नहीं, पर इतना साफ है कि यह फाँसी केन्द्र सरकार पर बढ़ते दबाव के कारण देनी पड़ी। अजमल कसाब की फाँसी की यह तार्किक परिणति थी। और प्रयाग के महाकुम्भ में धर्मसंसद की बैठक के कारण पैदा हुआ दबाव। सन 2014 के चुनाव के पहले देश में एक बार फिर से भावनात्मक आँधियाँ चलने लगें तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। पर उसके पहले पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के हत्यारे बलवंत सिंह राजोआणा और राजीव गांधी की हत्या में शामिल संतन, मुरुगन और पेरारिवालन की सजाओं के बारे में भी विचार करना होगा। इन सजाओं के भी राजनीतिक निहितार्थ हैं। राजोआणा को फाँसी होने से शिरोमणि अकाली दल की लोकप्रियता पर असर पड़ेगा, जो भारतीय जनता पार्टी का मित्र दल है। और राजीव हत्याकांड के दोषियों को फाँसी का असर द्रमुक पर पड़ेगा, जो यूपीए में शामिल पार्टी है। समाज के किसी न किसी हिस्से की इन लोगों के साथ सहानुभूति है। सरकार दोहरे दबाव में है। एक ओर गुजरते वक्त के साथ उसके ऊपर सॉफ्ट होने का आरोप लगता है, दूसरे न्याय-प्रक्रिया में रुकावट आती है।
पिछले साल तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने एक साथ 35 हत्यारों की फाँसी माफ कर दी, जो अपने आप में एक रिकॉर्ड था। जिन 35 व्यक्तियों की फाँसी की सजा उम्रकैद में बदली गई है, वे 60 से ज्यादा लोगों की हत्या में दोषी ठहराए गए थे। क्या वह प्रतिभा पाटिल का व्यक्तिगत निर्णय था? ऐसा नहीं है। राष्ट्रपति के निर्णय गृहमंत्री की संस्तुति पर होते हैं। पिछले साल तक सरकार धीरे-धीरे देश में मौत की सजा की समाप्ति की ओर बढ़ रही थी। यों भी सुप्रीम कोर्ट का निर्देश है कि फाँसी रेयर ऑफ द रेयरेस्ट मामले में दी जाए। दुनिया के अधिकतर देश मौत की सज़ा खत्म कर रहे हैं। पर दिल्ली गैंगरेप के बाद मौत की सजा के पक्ष में ज़ोरदार तर्क सामने आए हैं। हालांकि जस्टिस वर्मा समिति ने रेप के लिए मौत की सजा को उचित नहीं माना है, पर सरकार ने जो अध्यादेश जारी किया है, उसमें रेयर ऑफ द रेयरेस्ट मामले में मौत की सजा को भी शामिल किया है। यहाँ भी राजनीति का दबाव न्याय-तंत्र पर दिखाई पड़ता है। पर हम स्त्रियों के मसले पर नहीं आतंकवादी हिंसा या देश पर हमले की बात कर रहे हैं। ऐसी हिंसा पर मौत की सजा का विरोध करना काफी मुश्किल है। हालांकि कसाब को फाँसी मिलने के बाद यह बात उठी थी कि हमें फाँसी की सज़ा पूरी तरह खत्म कर देनी चाहिए। यह बात उन सिद्धांतवादियों की ओर से आई थी जो मृत्युदंड के खिलाफ हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने जिस रेयर ऑफ द रेयरेस्ट की बात कही है, वह पहली नज़र में अपराध के जघन्य होने की ओर इशारा करता है। पहली नज़र में लगता है कि सामूहिक बलात्कार, क्रूरता और वीभत्सता की कसौटी पर रेयर ऑफ द रेयरेस्ट को परखा जाना चाहिए। क्या इसमें राजनीतिक हिंसा को शामिल नहीं किया जा सकता? राजनीतिक उद्देश्यों से हिंसा में शामिल होने वाले ज्यादा बड़े लक्ष्यों के साथ आते हैं। उनका व्यक्तिगत हित इसमें नहीं होता। पर दूसरे नज़रिए से देखें तो राजनीतिक सज़ा को टालते रहना ज्यादा खतरनाक साबित हुआ है। मसलन सन 1999 में इंडियन एयरलाइंस के विमान का अपहरण करके लाहौर ले जाने वाले लोगों की योजना मौलाना मसूद अज़हर, अहमद उमर सईद शेख और मुश्ताक अहमद ज़रगर को रिहा कराने की थी। यदि इन लोगों को समय से मौत की सजा दिलवाकर फाँसी दे दी गई होती तो विमान अपहरण न होता। अपराधियों को छुड़ाने के लिए विमान यात्रियों से लेकर सरकारी अधिकारियों तक को बंधक बनाने की परम्परा दुनिया भर में है। भारत में झारखंड, ओडीसा और बंगाल में सरकार को कई बार नक्सली बंदियों की रिहाई करनी पड़ी। इसके विपरीत कहा जाता है कि राजनीतिक प्रश्नों का हल राजनीति से होना चाहिए। नक्सलपंथ या इस्लामी आतंकवाद एक राजनीतिक सवाल है, उनका बुनियादी हल निकलना चाहिए।
पर कुछ बड़े सवाल अनुत्तरित हैं। क्या अफज़ल गुरू की फाँसी अनिश्चित काल तक टाली जा सकती थी? पर उससे बड़ा सवाल है कि क्या वास्तव में अफ़ज़ल गुरू संसद पर हमले का गुनहगार था? उसका मास्टरमाइंड कौन थाउस हमले के दौरान मारे गए पाँच आतंकवादी कौन थे, वे कहाँ से आए थे? इस मामले में पकड़े गए दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक एसएआर गीलानी की रिहाई के बाद यह सवाल पैदा हुआ था कि क्या अफज़ल गुरू को भी फँसाया गया था? अरुंधती रॉय उसके मामले को फर्ज़ी मानती हैं। उनका कहना है कि अफज़ल ने ऐसा दावा नहीं किया कि वह बिलकुल निर्दोष है, पर इस मामले में पूरी तहकीकात नहीं की गई। 13 दिसम्बर शीर्षक से पेंगुइन बुक्स की एक पुस्तक ज़ारी भी की गई, जिसकी प्रस्तावना अरुंधती रॉय ने लिखी थी। इस किताब में अनेक सवाल उठाए गए थे। सवाल अब भी उठेंगे। श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या में दोषी पाए गए केहर सिंह को दी गई फाँसी की सज़ा के बाद भी ऐसे सवाल उठे थे। सम्भव है आने वाले समय में इस पर कुछ रोशनी पड़े।

Wednesday, February 6, 2013

यह उजाले पर अंधेरों का वार है

अक्टूबर 2011 में बीबीसी हिन्दी की वैबसाइट पर संवाददाता समरा फ़ातिमा की रपट में बताया गया था कि अलगाववादी आंदोलन और हिंसा के दृश्यों के बीच कश्मीर में इन दिनों सुरीली आवाजें सुनाई दे रही हैं। उभरते युवा संगीतकार चार से पाँच लोगों का एक बैंड बना कर ख़ुद अपने गाने लिखने और इनका संगीत बनाने लगे हैं। चूंकि इनके गीतों में तकलीफों का बयान था, इसलिए पुलिस की निगाहें इनपर पड़ीं। 'एम सी कैश' के नाम से गाने बनाने वाले 20 वर्षीय 'रोशन इलाही' ने बताया कि 2010 के सितंबर में पुलिस ने उनके स्टूडियो में छापा मारा और उसे बंद कर दिया। इन कश्मीरी बैंडों में अदनान मट्टू का ब्लड रॉक्ज़ भी है, जिनकी प्रेरणा से तीन लड़कियों का बैंड प्रगाश सामने आया।
प्रगाश के फेसबुक पेज पर जाएं तो आपको समझ में आएगा कि कट्टरपंथी उनका विरोध क्यों कर रहे हैं। जैसे ही वे चर्चा में आईं उनके फ़ेस बुक अकाउंट पर नफरत भरे संदेशों का सिलसिला शुरू हो गया। सबसे पहले उनका पेज खोजना मुश्किल है, क्योंकि इस नाम से कई पेज बने हैं। असली पेज का पता इन लड़कियों के बैंड छोड़ने की घोषणा से लगता है। प्रगाश के माने हैं अंधेरे से रोशनी की ओर। रोशनी की ओर जाना कट्टरपंथियों को पसंद नहीं है। पिछले रविवार को कश्मीर के प्रधान मुफ़्ती ने उनके गाने को ग़ैर इस्लामीकरार दिया, पर उसके दो दिन पहले मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ट्वीट किया था कि थोड़े से पागल लोग इनकी आवाज़ को खामोश नहीं कर पाएंगे। पर तीनों लड़कियों को बैंड छोड़ने का फैसला करना पड़ा। इससे पहले हुर्रियत कांफ़्रेंस ने भी इन उनकी यह कह कर आलोचना की थी कि वह पश्चिमी मूल्यों का अनुसरण कर रही हैं। कश्मीर के ये बैंड सन 2004 के बाद से सक्रिय हुए हैं। कश्मीर में ही नहीं पाकिस्तान में संगीत का खासा चलन है। हाल में दिल्ली आया पाकिस्तानीलाल बैंडकाफी लोकप्रिय हुआ। लाल बैंड प्रगतिशील गीत गाता है। इन्होंने रॉक संगीत में फैज अहमद फैज जैसे शायरों के बोल ढाले और उन्हें सूफी कलाम के नज़दीक पहुंचाया। पाकिस्तान और कश्मीर में सूफी संगीत पहले से लोकप्रिय है। ऐसा क्यों हुआ कि जब लड़कियों ने बैंड बनाया तो फतवा ज़ारी हुआ?

Monday, February 4, 2013

कानूनी सुधार का अधूरा चिंतन


पिछले दो साल में हुए दो बड़े जनांदोलनों की छाया से सरकार बच नहीं पा रही है। यह छाया 21 फरवरी से शुरू होने वाले बजट सत्र पर भी पड़ेगी। इन आंदोलनों की नकारात्मक छाया से बचने के लिए सरकार ने पिछले हफ्ते दो बड़े फैसले किए हैं। केन्द्रीय कैबिनेट ने पहले लोकपाल विधेयक के संशोधित प्रारूप को मंज़ूरी दी और उसके बाद स्त्रियों के खिलाफ होने वाले अपराधों को रोकने के लिए कानून में बदलाव की पहल करते हुए अध्यादेश लाने का फैसला किया। दोनों मामलों में सरकार कुछ देर से चेती है और दोनों में उसका आधा-अधूरा चिंतन दिखाई पड़ता है। अंदेशा यह है कि यह कदम उल्टा भी पड़ सकता है। सीपीएम ने इस बात को सीधे-सीधे कह भी दिया है। यह अधूरापन केवल सरकार में नहीं समूची राजनीति में है। इसके प्रमाण आपके सामने हैं। सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व आईपीएस अधिकारी प्रकाश सिंह की याचिका पर छह साल पहले सरकार को निर्देश दिया था कि वह पुलिस सुधार का काम करे। ज्यादातर राज्य सरकारों की दिलचस्पी इसमें नहीं है। पिछले साल लोकपाल आंदोलन को देखते हुए लगभग सभी दलों ने संसद में आश्वसान दिया था कि कानून बनाया जाएगा। जब 2011 के दिसम्बर में संसद में बहस की नौबत आई तो बिल लटक गया। सरकार अब जो विधेयक संशोधन के साथ लाने वाली है उसके पास होने के बाद लोकपाल की परिकल्पना बदल चुकी होगी। दिसम्बर 2011 में ही समयबद्ध सेवाएं पाने और शिकायतों की सुनवाई के नागरिकों के अधिकार का विधेयक भी पेश किया गया था। कार्यस्थल पर यौन शोषण से स्त्रियों की रक्षा का विधेयक 2010 से अटका पड़ा है। ह्विसिल ब्लोवर कानून के खिलाफ विधेयक अटका पड़ा है। भोजन का अधिकार विधेयक अटका पड़ा है। यह संख्या बहुत बड़ी है।

Tuesday, January 29, 2013

विमर्श-विहीनता, विश्वरूपम से आशीष नन्दी तक



संयोग है कि आशीष नन्दी का प्रकरण तभी सामने आया, जब विश्वरूपमपर चर्चा चल रही थी। आशीष नंदी विसंगतियों को उभारते हैं। यह उनकी तर्क पद्धति है। वे मूलतः नहीं मानते कि पिछड़े और दलित भ्रष्ट हैं, जैसा कि उनकी बात के एक अंश को सुनने से लगता है। वे मानते हैं कि देश के प्रवर वर्ग का भ्रष्टाचार नज़र नहीं आता। यह जयपुर लिटरेरी फोरम के मंच पर कही गई गई थी। आशीष नन्दी से असहमति प्रकट करने के तमाम तरीके मौज़ूद हैं। पर सीधे एफआईआर का मतलब क्या है? एक मतलब यह कि विमर्श का नहीं कार्रवाई का विषय है। कार्रवाई होनी चाहिए। बेहतर हो कि इस बहस को आगे बढ़ाएं, पर उसके पहले वह माहौल तो बनाएं जिसमें कोई व्यक्ति कुछ कहना चाहे तो वह कह सके।

Monday, January 28, 2013

हेडली से ज्यादा हमें उसके सरपरस्तों की ज़रूरत है


अक्सर कुछ रहस्य कभी नहीं खुलते। कुछ में संकेत मिल जाता है कि वास्तव में हुआ क्या था। और कुछ में पूरी कहानी सामने होती, पर उसे साबित किया नहीं जा सकता। 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमलों के साथ ऐसा ही हुआ। पाकिस्तान के लश्करे तैयबा का इस मामले में हाथ होने और उसके कर्ता-धर्ताओं के नाम सामने हैं। भारत में अजमल कसाब को स्पष्ट प्रमाणों के आधार पर फाँसी दी जा चुकी है। और अब अमेरिकी अदालत ने पाकिस्तानी मूल के अमेरिकी नागरिक डेविड हेडली को 35 साल की सजा सुनाकर उन आरोपों की पुष्टि कर दी है। बावज़ूद इसके हम पाकिस्तान सरकार के सामने साबित नहीं कर सकते हैं कि हमलों के सूत्रधार आपके देश में बाइज़्ज़त खुलेआम घूम रहे हैं। अमेरिकी अदालत में डेविड हेडली को सजा सुनाने वाले डिस्ट्रिक्ट जज ने अभियोजन पक्ष द्वारा हेडली के लिए हल्की सजा की माँग किए जाने पर अपनी नाखुशी जाहिर की थी। सजा में पैरोल का कोई प्रावधान नहीं है और दोषी को कम से कम 85 फीसदी सजा पूरी करनी होगी। 52 वर्षीय हेडली जब जेल से बाहर आएगा तब उसकी उम्र 80 से 87 साल के बीच होगी। अमेरिकी अभियोजक उसके लिए मौत या उम्र कैद की सजा भी माँग सकते थे, पर हेडली के साथ एक समझौते के तहत उन्होंने यह सजा नहीं माँगी।
जज ने सजा सुनाते हुए कहा हेडली आतंकवादी हैं। उसने अपराध को अंजाम दिया, अपराध में सहयोग किया और इस सहयोग के लिए इनाम भी पाया। जज ने कहा, इस सजा से आतंकवादी रुकेंगे नहीं। वे इन सब बातों की परवाह नहीं करते। मुझे हेडली की इस बात में कोई विश्वास नहीं होता जब वह यह कहता है कि वह अब बदल गया। पर 35 साल की सजा सही सजा नहीं है। इसके पहले शिकागो की अदालत ने इसी महीने की 18 तारीख को मुंबई हमले में शामिल हेडली के सहयोगी पाकिस्तानी मूल के कनाडाई नागरिक 52 वर्षीय तहव्वुर राना को लश्कर-ए-तैयबा को साजो-सामान मुहैया कराने और डेनमार्क के अखबार पर हमले के लिए षड्यंत्र में शामिल होने के लिए 14 साल की सजा सुनाई गई थी। पर राना को मुम्बई मामले में शामिल होने के लिए सजा नहीं दी गई। इन दोनों मामलों का दुखद पहलू यह है कि हमारे देश में हुए अपराध के लिए हम इन अपराधियों पर मुकदमा नहीं चला सकते। हालांकि सरकार कह रही है कि हम हेडली और राना के प्रत्यर्पण की कोशिश करेंगे, पर लगता नहीं कि प्रत्यर्पण होगा। अमेरिकी सरकार के अभियोजन विभाग ने हैडली से सौदा किया था कि यदि वह महत्वपूर्ण जानकारियां देगा तो उसे भारत के हवाले नहीं किया जाएगा। राना के मामले में अभियोजन पक्ष ने 30 साल की सजा माँगी थी, पर अदालत ने कहा, सुनवाई के दौरान मिली जानकारियों और उपलब्ध कराई गई सामग्री को पढ़ने पर पता लगता है कि राना एक बुद्धिमान व्यक्ति है, जो लोगों का मददगार भी है। यह समझना मुश्किल है कि इस तरह का व्यक्ति कैसे इतनी गहरी साजिश में शामिल हो गया। दोनों मामलों में सजा देने वाले जज एक हैं शिकागो के डिस्ट्रिक्ट जज हैरी डी लेनिनवेबर। हेडली और तहव्वुर राना के भारत प्रत्यर्पण में 1997 में अमरीका से की गई संधि भी एक अड़चन है। यह संधि उस व्यक्ति की सुपुर्दगी की इजाजत नहीं देती जो पहले ही उस अपराध के लिए दोषी ठहराया जा चुका हो अथवा बरी  हो चुका हो। प्रत्यर्पण संधि के तहत राना को इसलिए सौंपा नहीं जा सकता, क्योंकि मुम्बई हमलों के लिए उसे  दोषी नहीं ठहराया गया है। हेडली इस दलील के साथ अपना बचाव करेगा कि उसे दोषी ठहराया जा चुका है और वह सजा पा रहा है।

Saturday, January 26, 2013

राजनीति का चिंताहरण दौर


भारतीय राजनीति की डोर तमाम क्षेत्रीय, जातीय. सामुदायिक, साम्प्रदायिक और व्यक्तिगत सामंती पहचानों के हाथ में है। और देश के दो बड़े राष्ट्रीय दलों की डोर दो परिवारों के हाथों में है। एक है नेहरू-गांधी परिवार और दूसरा संघ परिवार। ये दोनों परिवार इन्हें जोड़कर रखते हैं और राजनेता इनसे जुड़कर रहने में ही समझदारी समझते हैं। मौका लगने पर दोनों ही एक-दूसरे को उसके परिवार की नसीहतें देते हैं। जैसे राहुल गांधी के कांग्रेस उपाध्यक्ष बनने पर भाजपा ने वंशवाद को निशाना बनाया और जवाब में कांग्रेस ने संघ की लानत-मलामत कर दी। जयपुर चिंतन शिविर में उपाध्यक्ष का औपचारिक पद हासिल करने के बाद राहुल गांधी ने भावुक हृदय से मर्मस्पर्शी भाषण दिया। इसके पहले सोनिया गांधी ने पार्टी कार्यकर्ताओं को सलाह दी थी कि समय की ज़रूरतों को देखते हुए वे आत्ममंथन करें। नगाड़ों और पटाखों के साथ राहुल का स्वागत हो रहा था। पर उसके पहले गृहमंत्री सुशील कुमार शिन्दे के एक वक्तव्य ने विमर्श की दिशा बदल दी। इस हफ्ते बीजेपी के अध्यक्ष का चुनाव भी तय था। चुनाव के ठीक पहले गडकरी जी से जुड़ी कम्पनियों में आयकर की तफतीश शुरू हो गई। इसकी पटकथा भी किसी ने कहीं लिखी थी। इन दोनों घटनाओं का असर एक साथ पड़ा। गडकरी जी की अध्यक्षता चली गई। राजनाथ सिंह पार्टी के नए अध्यक्ष के रूप में उभर कर आए हैं। पर न तो राहुल के पदारोहण का जश्न मुकम्मल हुआ और न गडकरी के पराभव से भाजपा को कोई बड़ा धक्का लगा।

Friday, January 25, 2013

कोई बताए हमारा आर्थिक मॉडल क्या हो


समकालीन सरोकार, जनवरी 2013  में प्रकाशित 

सन 2013 का पहला सवाल है कि क्या इस साल लोकसभा चुनाव होंगे? लोकसभा चुनाव नहीं भी हों, आठ विधान सभाओं के चुनाव होंगे। इनमें मध्य प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली और कर्नाटक का अलग-अलग कारणों से राजनीतिक महत्व है। सवाल है क्या दिल्ली की गद्दी पर गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा सरकार आने की कोई सम्भावना बन रही है? संसद के शीतकालीन सत्र में सरकार ने एफडीआई के मोर्चे पर एक महत्वपूर्ण राजनीतिक सफलता हासिल की है। इसके अलावा बैंकिग विधेयक लोकसभा से पास भी करा लिया है। अभी इंश्योरेंस, पेंशन और भूमि अधिग्रहण कानूनों को पास कराना बाकी है। और जैसा कि नज़र आता है कांग्रेस और भाजपा आर्थिक उदारीकरण के एजेंडा को मिलकर पूरा कराने की कोशिश कर रहे हैं। यह बात विचित्र लगेगी कि एक दूसरे की प्रतिस्पर्धी ताकतें किस तरह एक-दूसरे का सहयोग कर रही है, पर बैंकिंग विधेयक में दोनों का सहयोग साफ दिखाई पड़ा। खुदरा बाज़ार में एफडीआई को लेकर सरकार पहले तो नियम 184 के तहत बहस कराने को तैयार नहीं थी, पर जैसे ही उसे यह समझ में आया कि सरकार गिराने की इच्छा किसी दल में नहीं है, वह न सिर्फ बहस को तैयार हुई, बल्कि उसपर मतदान कराया और जीत हासिल की। सीपीएम के नेता सीताराम येचुरी इसे मैन्युफैक्चरिंग मेजॉरिटी कहते हैं, पर संसदीय लोकतंत्र यही है। सन 1991 में आई पीवी नरसिंह राव की सरकार कई मानों में विलक्षण थी। हालांकि आज़ादी के बाद से हर दशक ने किसी न किसी किस्म के तूफानों को देखा है, पर नरसिंह राव की सरकार के सामने जो चुनौतियाँ थी वे आसान नहीं थीं। उनके कार्यकाल में बाबरी मस्जिद को गिराया गया, जिसके बाद देश भर में साम्प्रदायिक हिंसा का जबर्दस्त दौर चला। मुम्बई में आतंकी धमाकों का चक्र उन्ही दिनों शुरू हुआ। कश्मीर में सीमापार से आतंकवादी कार्रवाइयों का सबसे ताकतवर सिलसिला तभी शुरू हुआ। पर हम नरसिंह राव सरकार को उन आर्थिक उदारवादी नीतियों के कारण याद रखते हैं, जिनका प्रभाव आज तक है। भारत में वैश्वीकरण की गाड़ी तभी से चलनी शुरू हुई है। वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उस सरकार के वित्त मंत्री थे। जब पहली बार आर्थिक उदारीकरण की नीतियों को लागू किया गया था तब कई तरह की आशंकाएं थीं। मराकेश समझौते के बाद जब 1995 में भारत विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बना तब भी इन आशंकाओं को दोहराया गया। पिछले इक्कीस साल में इन अंदेशों को बार-बार मुखर होने का मौका मिला, पर आर्थिक उदारीकरण का रास्ता बंद नहीं हुआ। दिल्ली में कांग्रेस के बाद संयुक्त मोर्चा और एनडीए की सरकारें बनीं। वे भी उसी रास्ते पर चलीं। बंगाल और केरल में वाम मोर्चे की सरकारें आईं और गईं। उन्होंने भी उदारीकरण की राह ही पकड़ी। मुख्यधारा की राजनीति में उदारीकरण की बड़ी रोचक तस्वीर बनी है। ज्यादातर बड़े नेता उदारीकरण का खुला समर्थन नहीं करते हैं, बल्कि विरोध करते हैं। पर सत्ता में आते ही उनकी नीतियाँ वैश्वीकरण के अनुरूप हो जाती हैं। एफडीआई पर संसद में हुई बहस की रिकॉर्डिंग फिर से सुनें तो आपको परिणाम को लेकर आश्चर्य होगा, पर राजनीति इसी का नाम है। उदारीकरण के दो दशकों का अनुभव यह है कि हम न तो उसके मुखर समर्थक हैं और न व्यावहारिक विरोधी। इस अधूरेपन का फायदा या नुकसान भी अधूरा है।

Wednesday, January 23, 2013

शिन्दे जी ने यह क्या कह दिया?

हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून
कांग्रेस के साथ दिक्कत यह है कि कितनी भी अच्छी स्क्रिप्ट हो, कहानी के अंत में एंटी क्लाइमैक्स हो जाता है। जयपुर में राहुल गांधी के भावुक वक्तव्य और पार्टी की नई दिशा के सकारात्मक  इशारों के बावज़ूद सुशील कुमार शिन्दे के छोटे से वक्तव्य ने एजेंडा बदल दिया। चर्चा जिन बातों की होनी चाहिए थी, वे पीछे चली गईं और बीजेपी को अच्छा मसाला मिल गया। जैसे 2007 के गुजरात चुनाव में  सोनिया गांधी के मौत के सौदागर वक्तव्य ने काम किया लगभग वही काम शिन्दे जी के वक्तव्य ने किया है।

ऐसा नहीं कि शिन्दे जी नादान हैं। और न दिग्विजय सिंह अबोध है। भगवा आतंकवाद शब्द का प्रयोग इसके पहले तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदम्बरम भी कर चुके हैं। ये वक्तव्य कांग्रेस की योजना का हिस्सा हैं। पर इस बार तीर गलत निशाने पर जा लगा है। खासकर हाफिज सईद के बयान से इसे नया मोड़ मिल गया। जनार्दन द्विवेदी ने पार्टी की ओर से तत्काल सफाई पेश कर दी, पर नुकसान जो होना था वह हो गया। कांग्रेस इधर एक तरफ संगठित नज़र आ रही थी और दूसरी ओर गडकरी प्रकरण के कारण भाजपा का जहाज हिचकोले ले रहा था। पर भाजपा को इसके कारण सम्हलने का मौका मिल गया। इनकम टैक्स विभाग के छापों के बाद गडकरी के लिए टिके रहना और मुश्किल हो गया, पर इसका लाभ भाजपा को ही मिला। अब वह अपेक्षाकृत बेहतर संतुलित हो गई है, हालांकि उसका जहाज दिशाहीन है।

Monday, January 21, 2013

राहुल के पदारोहण से आगे नहीं गया जयपुर चिंतन


राहुल गांधी के उपाध्यक्ष बनने मात्र से कांग्रेस का पुनरोदय नहीं हो जाएगा, पर इतना ज़रूर नज़र आता है कि कांग्रेस अपनी खोई ज़मीन को फिर से हासिल करने की कोशिश कर रही है। राहुल चाहेंगे तो वे उन सवालों को सम्बोधित करेंगे जो आज प्रासंगिक हैं। राजनीति में इस बात का महत्व होता है कि कौन जनता के सामने अपनी इच्छा व्यक्त करता है। फिलहाल कांग्रेस के अलावा दूसरी कोई पार्टी दिल्ली में सरकार बनाने की इच्छा व्यक्त नहीं कर रहीं है। सम्भव है कल यह स्थिति न रहे, पर आज बीजेपी यह काम करती नज़र नहीं आती। बीजेपी ने राहुल गांधी के उपाध्यक्ष बनाए जाने पर वंशानुगत नेतृत्व का नाम लेकर जो प्रतिक्रिया व्यक्त की है, वह नकारात्मक है। कांग्रेस यदि वंशानुगत नेतृत्व चाहती है तो यह उसका मामला है। आप स्वयं को उससे बेहतर साबित करें। अलबत्ता कांग्रेस पार्टी ने जयपुर में वह सब नहीं किया, जिसका इरादा ज़ाहिर किया गया था। अभी तक ऐसा नहीं लगता कि यह पार्टी बदलते समय को समझने की कोशिश कर रही है। लगता है कि जयपुर शिविर केवल राहुल गांधी को स्थापित करने के वास्ते लगाया गया था। कांग्रेस को गठबंधन की राजनीति और देश के लिए उपयुक्त आर्थिक और प्रशासनिक नीतियों की ज़रूरत है। साथ ही उन नीतियों को जनता तक ठीक से पहुँचाने की ज़रूरत भी है। फिलहाल लगता है कि कांग्रेस विचार-विमर्श से भाग रही है। उसके मंत्री फेसबुक और सोशल मीडिया को नकारात्मक रूप में देख रहे हैं, जबकि सोशल मीडिया उन्हें मौका दे रहा है कि अपनी बातों को जनता के बीच ले जाएं। पर इतना ज़रूर ध्यान रखें कि देश के नागरिक और उनके कार्यकर्ता में फर्क है। नागरिक जैकारा नहीं लगाता। वह सवाल करता है। सवालों के जवाब जो ठीक से देगा, वह सफल होगा। 

Friday, January 18, 2013

डॉ सॉक ने कहा, कैसा पेटेंट?


जिस तरह रुक्सा खातून के नाम से बहुत कम लोग परिचित हैं उसी तरह  जोनास एडवर्ड सॉक (28 अक्टूबर1913-23 जून 1995) के नाम से भी बहुत ज्यादा लोग परिचित नहीं हैं। परिचित हैं भी तो इस बात से कि उन्होंने पोलियो का वैक्सीन तैयार किया। हालांकि आज इस वैक्सीन में सुधार हो चुका है, पर उन्हें श्रेय जाता है ऐसी बीमारी का टीका तैयार करने का जो 1955 के पहले तक सार्वजनिक स्वास्थ्य के सामने खड़े सबसे बड़े खतरे के रूप में पहचानी जाती थी।जोनास एडवर्ड सॉक के यहूदी माता-पिता ज्यादा पढ़े लिखे नहीं थे, पर उनकी तमन्ना थी कि उनका बेटा कोई अच्छा काम करे। न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन में सॉक ने डॉक्टरी की पढ़ाई की, पर वे विलक्षण इस बात में साबित हुए कि उन्होंने रिसर्च का रास्ता पकड़ा।

सन 2009 में बनी एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म के अनुसार सन 1952 में अमेरिका में पोलियो की महामारी ने तकरीबन 58,000 लोगों को निशाना बनाया। उस वक्त अमेरिकी लोगों के मन में एटम बम के बाद दूसरी सबसे खतरनाक चीज पोलियो की बीमारी थी। अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी रूज़वेल्ट इसके सबसे प्रसिद्ध शिकारों में एक थे। इसके सबसे ज्यादा पीड़ित बच्चे थे, जो बच भी जाते तो पूरा जीवन विकलांग के रूप में बिताते थे। सॉक की वैक्सीन बनने के बाद इसके फील्ड ट्रायल भी विलक्षण थे। अमेरिका के 20,000 डॉक्टरों और सार्वजनिक स्वास्थ्य कर्मियों, 64,000 स्कूल कर्मचारियों, 2,20,000 वॉलंटियरों और 18,00,000 बच्चों ने इसके परीक्षण में हिस्सा लिया। 12 अप्रेल 1955 को जब इस वैक्सीन की सफलता की घोषणा हुई तो सॉक को चमत्कारिक व्यक्ति के रूप में याद किया गया। वह दिन राष्ट्रीय अवकाश जैसा हो गया। और जब एक टीवी इंटरव्यू में सॉक से सवाल किया गया कि इस टीके का पेटेंट किसके नाम है, सॉक ने जवाब दिया, "कोई पेटेंट नहीं, क्या आप सूरज को पेटेंट करा सकते हैं?"("There is no patent. Could you patent the sun?")

सॉक के जीवन काल में ही एड्स की बीमारी दुनिया में प्रवेश कर चुकी थी और उन्होंने जीवन के अंतिम वर्ष उसकी वैक्सीन तैयार करने पर लगाए। वे यह काम पूरा कर नहीं पाए।

डॉ सॉक ने पेटेंट से इनकार क्यों किया
ओपन माइंड डॉ सॉक का इंटरव्यू

आपने रुक्सा खातून का नाम सुना है?


यह तस्वीर रुक्सा खातून की है। इस साल 12 जनवरी को भारत ने पोलियो की बीमारी से मुक्ति के दो साल पूरे कर लिए। हाल में खबर आई थी कि देश में पोलियो की आखिरी शिकार रुक्सा खातून नाम की छोटी सी लड़की को पैरों में सर्जरी की ज़रूरत है। पोलियों के कारण उसके दोनों पैर बराबर नहीं हैं। कुछ साल पहले तक पोलियो एक भयानक बीमारी थी। पल्स पोलियो अभियान केवल टीकाकरण के लिहाज से ही नहीं मानवीय प्रश्नों पर संचार माध्यमों के इस्तेमाल के लिहाज से दुनिया के सफलतम कार्यक्रमों में से एक है। पोलियो के टीके का विरोध भी हुआ, कोल्ड चेन से लेकर गाँव-गाँव जाने की दिक्कतें भी सामने आईं, पर भारत ने इसे सफल बनाकर दिखाया। दो साल पहले तक पाकिस्तान, अफगानिस्तान, भारत और नाइजीरिया अंग्रेजी में अपने नाम के पहले अक्षरों के आधार पर 'पेन'(PAIN) देश कहलाते थे। भारत का नाम इनमें से हट गया है। शेष देशों का नाम भी हट जाएगा। जब हम निश्चय करके एक बीमारी को खत्म कर सकते हैं तो क्या अपनी तमाम बीमारियों को, शारीरिक, मानसिक, सांस्कृतिक, खत्म नही कर सकते? कर सकते हैं। ज़रूर कर सकते हैं। नीचे कुछ जानकारियाँ देखें और विचार करें।

Tuesday, January 15, 2013

दोनों ओर गरज़ते लाउडस्पीकरों के गोले




हिन्दू में प्रकाशित सुरेन्द्र का कार्टून जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर व्याप्त तनाव को अच्छी तरह व्यक्त करता है। दोनों देशों के लाउडस्पीकर तोप के गोलों का काम कर रहे हैं। यह भी एक सच है कि दोनों देश तनाव के किसी भी मौके का फायदा उठाने से नहीं चूकते। बहरहाल जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर तनाव का पहला असर हॉकी इंडिया लीग पर पड़ा है। पाकिस्तानी खिलाड़ियों को खेलने से रोक दिया गया है। लगता है कुछ दिन तनाव दूर करने में लगेंगे। हमें इसे स्वीकार करना चाहिए कि हमारा मीडिया तमाम सही मसलों को उठाता है, पर हर बात के गहरे मतलब निकालने के चक्कर में असंतुलन पैदा कर देता है। भारत-पाक मसलों पर तो यों भी आसानी से तनाव पैदा किया जा सकता है। नियंत्रण रेखा पर तनाव कम होने में अभी कुछ समय लगेगा। बेशक हमारे सैनिकों की मौत शोक और नाराज़गी दोनों का विषय है। उससे ज्यादा परेशानी का विषय है सैनिक की गर्दन काटना। यह मध्य युगीन समझ है और पाकिस्तान को अपनी सेना के अनुशासन पर ध्यान देना चाहिए। अलबत्ता इस समय दोनों देशों के बीच झगड़े और तनाव का कोई कारण नहीं है। यह बात अगले दो-तीन हफ्ते में स्पष्ट हो जाएगी। भारत सरकार पर भी लोकमत का भारी दबाव है। 

जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर पिछले दस-बारह दिन से गोलियाँ चल रहीं हैं। भारत के दो सैनिकों की हत्या के बाद से देश में गुस्से की लहर है। सीमा पर तैनात सैनिक नाराज़ हैं। वे बदला लेना चाहते हैं। फेसबुक और ट्विटर पर कमेंट आ रहे हैं कि भारत दब्बू देश है। वह कार्रवाई करने से घबराता है। हालांकि भारत ने पाकिस्तान के सामने कड़े शब्दों में अपना विरोध व्यक्त किया है, पर जनता संतुष्ट नहीं है। सैनिकों की हत्या से ज्यादा फौजी की गर्दन काटने से जनता नाराज़ है। पर हमें समझना होगा कि यह घटना क्या जान-बूझकर की गई है? क्या पाकिस्तानी सेना या सरकार का इसमें हाथ है? या यह स्थानीय स्तर पर नासमझी में हुई घटना है? भारत को एक ज़िम्मेदार देश की भूमिका भी निभानी है। केवल आवेश और भावनाओं से काम नहीं होता।

Friday, January 11, 2013

भारत-पाकिस्तान संवाद जारी रहना चाहिए


                              

सीमा पर पिछले हफ्ते की घटनाओं के बावज़ूद भारत और पाकिस्तान के रिश्तों के बैरोमीटर से ऐसा कोई संकेत नहीं मिल रहा है जो कहे कि दोनों देशों के रिश्ते बिगड़ने चाहिए। इस मामले को दोनों देशों की सरकारों और सेना पर छोड़ देना चाहिए। न्यूज़ चैनलों के स्टूडियो इन मामलों पर बहस के लिए उपयुक्त नहीं हैं। आवेशों और भावनाओं को फिलहाल दबाकर रखना चाहिए। 

पिछले मंगलवार 8 जनवरी को जम्मू-कश्मीर के मेंढर सेक्टर में नियंत्रण रेखा पर 13 राजपूताना रायफल्स के दो जवानों की मौत के बाद देश में और खासतौर से सीमा पर तैनात फौजियों के भीतर उबाल है। सवाल है कि इसके बाद किया क्या जाए। पिछले दस दिन में सीमा पर चौथी बार जबर्दस्त फायरिंग गुरुवार 10 जनवरी को हुई। इस फायरिंग में पाकिस्तानी हवलदार मोहियुद्दीन के मारे जाने की खबर है। मंगलवार की घटना के पहले 6 जनवरी को एक पाकिस्तानी फौजी की गोलीबारी में मौत हुई थी। जवाबी गोलीबारी से समस्या का हल नहीं निकलता। सोशल मीडिया में भारतीय राष्ट्र राज्य के कमज़ोर होने की बात उलाहने के रूप में कही जा रही है। यह भी कहा जा रहा है कि अमेरिका या चीन के साथ ऐसा होता तो वे जवाब देते। ऐसा कहने वालों का जवाब से आशय क्या है? क्या फौज को हमला करने का आदेश दिया जाए? या कोई सर्जिकल स्ट्राइक किया जाए? सर्जिकल स्ट्राइक किसके खिलाफ? कहा जा रहा है कि इस मामले में लश्करे तैयबा जैसे संगठन का हाथ है। हाथ हो तब भी फौजी सहायता के बगैर यह सम्भव नहीं है, क्योंकि यह नियंत्रण रेखा का मामला है, जहाँ तक फौज की निगाह में पड़े बगैर नहीं पहुँचा जा सकता। पर पूरे तथ्यों को हासिल किए बगैर कोई बात कैसे कही जा सकती है।

Wednesday, January 9, 2013

नियंत्रण रेखा पर हिंसा का निहितार्थ

                        
जम्मू-कश्मीर के मेंढर इलाके में नियंत्रण रेखा पर पिछले कुछ दिनों की घटनाओं से लगता है कि भारत-पाक सम्बन्धों में सुधार की प्रक्रिया को धक्का लगेगा। यह धक्का सायास है या अनायास है, इसे समझने की ज़रूरत है। साथ ही यह समझने की ज़रूरत है कि इसके पीछे कोई योजना है तो वह किसकी है। टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार इसमें लश्करे तैयबा और पाक सेना की मिली-भगत है। सन 1999 में भारतीय सेना के कैप्टेन सौरभ कालिया को यंत्रणा देकर मारने और हत्या के बाद उनके शरीर को  मामला हाल में भारतीय अदालतों में भी गया है। करगिल युद्ध के दौरान सौरभ कालिया पेट्रोलिंग ड्यूटी पर थे। उस समय पाकिस्तानी सेना ने कालिया का अपहरण कर लिया। तीन हफ्ते तक इनके साथ अमानवीय व्यवहार चलता रहा। इनकी आंखें निकाल ली गई, इन पर यातनाएं हुई, इनके शरीर में सिगरेट से दागा गया, इसके बाद  इनका शव भारत सरकार को लौटा दिया गया। इसे लेकर भारत में जबर्दस्त रोष व्यक्त किया गया था।

Tuesday, January 8, 2013

दामिनी का नाम और मीडिया का दायित्व

People walk near a sand sculpture with the words "We Want Justice" created by Indian sand artist Sudarshan Patnaik, in solidarity with a gang rape victim who was assaulted in New Delhi, on a beach in the eastern Indian state of Odisha
पिछले रविवार को लंदन के मिरर अखबार ने दिल्ली के गैंगरेप पीड़ित लड़की के पिता की अनुमति से उसका नाम ज़ाहिर कर दिया। इसके बाद भारत के कुछ अखबारों ने उसका नाम छापा, पर यह सवाल विचार का विषय है कि ज़िम्मेदार मीडिया को क्या करना चाहिए। इस बीच उस लड़की के पिता का यह वक्तव्य आया कि मैने नाम ज़ाहिर करने की बात नहीं कही थी, सिर्फ इतना कहा था कि यदि सरकार उसके नाम पर कानून बनाना चाहती है तो हमें अच्छा लगेगा। मंगलवार के टाइम्स ऑफ इंडिया में  पिता के हवाले से समाचार प्रकाशित हुआ है कि नाम ज़ाहिर करने पर हमें आपत्ति नहीं है। पर क्या इतने मात्र से नाम ज़ाहिर कर देना चाहिए। 6 जनवरी के हिन्दू में उसके सम्पादक सिद्धार्थ वरदराजन का वक्तव्य छपा है, चूंकि पिता की सहमति लिखित नहीं है, इसलिए हम अभी उसका नाम ज़ाहिर नहीं कर रहे हैं। नीचे पढ़ें उनका पूरा वक्तव्यः-

Naming Delhi rape victim: a note to readers

As some of you may know, a foreign newspaper has published the name of the 23-year-old rape victim, apparently with the approval of her father. Section 228A of the Indian Penal Code, which prohibits publication of the name of a deceased rape victim without the permission of her next of kin, lays down a specific procedure by which this permission is to be accorded: it must be given in writing to a welfare organisation or institution recognised by the Central or State governments. To the best of my knowledge, this procedure, which was introduced into law as an added layer of protection for the victim and her family, has not yet been followed. We respect the father's wish to go public, if that is indeed what he wants, but unless he states the same in writing in the manner prescribed by statute, The Hindu will continue witholding the name of the victim.
Siddharth Varadarajan, Editor
पर क्या यह पत्रकारीय मर्यादाओं के खिलाफ है? हाल में लंदन के गार्डियन में एमर ओ टूल ने भी दिल्ली गैंग रेप को लेकर विचार प्रकट किए हैं। और बीबीसी ने भी गैग रेप पर आलेख पर प्रकाशित किए हैं। इन आलेखों  में भारत की बलात्कार संस्कृति को लेकर टिप्पणियाँ  मर्यादाओं पर विमर्श से जुड़ी वैबसाइट लिबरल कांस्पिरेसी ने Why a Guardian piece on Delhi gang-rape misleads on rape culture शीर्षक से भारतीय विसंगतियों और पश्चिमी समझ के अंतर की ओर इशारा किया है। दिल्ली गैंग रेप के बाद मीडिया की कवरेज पर ध्यान दें तो नज़र आता है कि बलात्कार के सवाल से ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल कानून-व्यवस्था और सरकार के प्रति आक्रोश को लेकर खड़े हुए। आशाराम बापू और राष्ट्रीय स्वयंसेवकसंघ के मोहन भागवत के बयानों से परम्परागत पुरुष-दृष्टिकोण सामने आया है। इस पर भी मीडिया में चर्चा नहीं हुई। 

बलात्कार-पीड़ित लड़की का नाम सामने न लाने के पीछे कानून की भावना क्या है? यही कि उसकी या उसके परिवार की बदनामी न हो। उन्हें समाज के सामने जाने में दिक्कत न हो। प्रायः बलात्कार की शिकार लड़की को कई प्रकार की मानसिक वेदनाओं का शिकार होना पड़ता है। पर इस मामले में समाज उसकी बहादुरी को लेकर उसका सम्मान करना चाहता है? क्या कानून की भावना समाज को उसका परिचय देने से रोकती है? इसका निर्णय शायद कोई अदालत करे। एक बात यह भी है कि तमाम प्रश्नों पर टीवी की लाइव कवरेज ने अनेक राजनीतिक, सामाजिक संस्थाओं को हास्यास्पद बना दिया है। इंटरनेट पर जिस तरह की शब्दावली का प्रयोग हो रहा है, वह मीडिया की भाषा नहीं थी। पर यह सामाजिक विमर्श है। इसकी विसंगतियों पर विचार होना चाहिए। 
Indian women offer prayers for a gang rape victim at Mahatma Gandhi memorial in New Delhi, Jan. 2, 2013.

Read more: http://world.time.com/2013/01/07/indias-gang-rape-case-as-accused-go-to-court-unease-settles-over-delhi/#ixzz2HOSFH44r

Monday, January 7, 2013

तुम्हारा नाम क्या था दामिनी?

हिन्दू में केशव का कार्टून

लंदन के डेली मिरर ने दिल्ली गैंग रेप की पीड़ित लड़की का नाम और पहचान उजागर कर दी। उसके पिता चाहते हैं कि नाम उजागर हो। कानून का जो उद्देश्य है मामला उससे आगे चला गया है। सारा देश उस लड़की को उसकी बहादुरी के लिए याद रखना चाहता है। यदि उसे याद रखना है तो उसका नाम क्यों न बताया जाए। उसका दर्जा शहीदों में है। बहरहाल रेप पर चर्चा कम होती जाएगी, पर उससे जुड़े मसले खत्म नहीं होंगे। 

दिल्ली पुलिस ने शुक्रवार की रात ज़ी न्यूज़ चैनल के खिलाफ एक मामला दर्ज किया, जिसमें आरोप है कि दिल्ली गैंगरेप के बाबत कुछ ऐसी जानकारियाँ सामने लाई गईं हैं, जिनसे पीड़िता की पहचान ज़हिर होती है। इसके पहले एक अंग्रेजी दैनिक के खिलाफ पिछले हफ्ते ऐसा ही मामला दर्ज किया गया था। भारतीय दंड संहिता की धारा 228-ए के तहत समाचार पत्र के संपादक, प्रकाशक, मुद्रक, दो संवाददाताओं और संबंधित छायाकारों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया है। सम्भव है ऐसे ही कुछ मामले और दर्ज किए गए हों। या आने वाले समय में दर्ज हों। बलात्कार की शिकार हुई लड़की के मित्र ने ज़ी न्यूज़ को इंटरव्यू दिया है जिसमें उसने उस दिन की घटना और उसके बाद पुलिस की प्रतिक्रिया और आम जनता की उदासीनता का विवरण दिया है। उस विवरण पर जाएं तो अनेक सवाल खड़े होते हैं। पर उससे पहले सवाल यह है कि जिस लड़की को लेकर देश के काफी बड़े हिस्से में रोष पैदा हुआ है, उसका नाम उजागर होगा तो क्या वह बदनाम हो जाएगी? उसकी बहादुरी की तारीफ करने के लिए उसका नाम पूरे देश को पता लगना चाहिए या कलंक की छाया से बचाने के लिए उसे गुमनामी में रहने दिया जाए? कुछ लोगों ने उसे अशोक पुरस्कार से सम्मानित करने का सुझाव दिया है। पर यह पुरस्कार किसे दिया जाए? पुरस्कार देना क्या उसकी पहचान बताना नहीं होगा

Sunday, January 6, 2013

अफगानिस्तान में तुर्की की पहल और भारत

 हामिद करज़ाई और तुर्की के राष्ट्रपति  अब्दुल्ला ग़ुल
और 
आसिफ अली ज़रदारी,

अमेरिकी सेना अफगानिस्तान से हटने के पहले भावी योजना में तुर्की को महत्वपूर्ण भूमिका देती नज़र आती है। इस योजना में कुछ पूर्व तालिबान नेता भी शामिल हैं, जिन्हें पाकिस्तान की जेलों से रिहा किया गया है। मोटे तौर पर इस प्रक्रिया में कोई असामान्य बात नहीं लगती, पर इसके पीछे भारत के महत्व को कम करने की कोशिश ज़रूर नज़र आएगी। सन 2012 में जून के पहले हफ्ते भारत-पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संदर्भ में दो महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं। पहली थी अमेरिका के रक्षामंत्री लियन पेनेटा का अफगानिस्तान और भारत का दौरा। और दूसरी थी शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की पेइचिंग में हुई बैठक। पेनेटा की भारत यात्रा के पीछे इस वक्त कोई बड़ा कार्यक्रम नहीं था, सिर्फ अमेरिका की नीति में एशिया को लेकर बन रहे ताज़ा मंसूबों से भारत सरकार को वाकिफ कराना था। इन मंसूबों के अनुसार भारत को आने वाले वक्त में न सिर्फ अफगानिस्तान में बड़ी भूमिका निभानी है, बल्कि हिन्द महासागर से लेकर चीन सागर होते हुए प्रशांत महासागर तक अमेरिकी सुरक्षा के प्रयत्नों में शामिल होना है। अमेरिका की यह सुरक्षा नीति चीन के लिए परेशानी का कारण बन रही है। वह नहीं चाहता कि भारत इतना खुलेआम अमेरिका के खेमे में शामिल हो जाए।

अमेरिकी रक्षामंत्री ने अफगानिस्तान में चल रही तालिबानी गतिविधियों को लेकर अपनी झुँझलाहट भी व्यक्त की और कहा कि उत्तरी वजीरिस्तान में हक्कानी नेटवर्क पर लगाम लगाने में पाकिस्तान लगातार विफल हो रहा है। पेनेटा ने कहा कि हमारे सब्र की सीमा खत्म हो रही है। पाकिस्तान को लेकर अमेरिका के कड़वे बयान अब नई बात नहीं रहे। जैसे-जैसे अमेरिका और नेटो सेनाओं की वापसी की समय सीमा नज़दीक आ रही है अमेरिकी व्यग्रता बढ़ती जा रही है। उधर शंघाई सहयोग संगठन की बैठक का एजेंडा कुछ और था, पर भीतर-भीतर उन परिस्थितियों को लेकर विचार-विमर्श भी था जब अफगानिस्तान से अमेरिका हटेगा तब क्या होगा। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि एससीओ का गठन 2001 में हुआ था, जिस साल अमेरिका ने अफगानिस्तान में तालिबान विरोधी युद्ध शुरू किया था। इस संगठन में चीन और रूस के अलावा ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान, कजाकिस्तान और किर्गीजिस्तान सदस्य देश हैं। मूल रूप से यह मध्य एशिया के देशों का आर्थिक सहयोग संगठन है, पर आने वाले समय में इसका सामरिक महत्व भी उजागर हो सकता है। इस संगठन में भारत, पाकिस्तान और ईरान पर्यवेक्षक हैं।

हालांकि अफगानिस्तान एससीओ का न तो सदस्य है और न पर्यवेक्षक, पर इस बार उसे विशेष रूप से आमंत्रित किया गया और उम्मीद है कि जल्द ही उसे पर्यवेक्षक का दर्जा मिल जाएगा। पाकिस्तान इस संगठन का पूर्णकालिक सदस्य बनना चाहता है। अफगानिस्तान और मध्य एशिया के देशों में पाकिस्तान की महत्वपूर्ण भूमिका है। इस लिहाज से भारत और ईरान की भूमिका भी है। तुर्की की भी इस इलाके में खासी दिलचस्पी है। खासतौर से कैस्पियन सागर से आने वाली तेल और गैस पाइप लाइनों के कारण यह इलाका आने वाले समय में महत्वपूर्ण होगा। चीन के पश्चिमी प्रांत इस इलाके से जुड़े हैं, पर वहाँ इस्लामी आतंकवाद का प्रभाव भी है। चीन का आरोप है कि पाकिस्तान में चल रहे ट्रेनिंग कैम्पों में आतंकवादियों को ट्रेनिंग दी जाती है। पाकिस्तान ने चीन के लिए गिलगित और बल्तिस्तान के दरवाजे खोल दिए हैं। वह चाहता है कि चीन की अफगानिस्तान में बड़ी भूमिका हो। ऐसा वह इसलिए भी चाहता है कि भारत को इस इलाके में ज्यादा सक्रिय होने का मौका न मिले।

पिछले साल दिल्ली आए अमेरिकी रक्षामंत्री पेनेटा ने कहा था कि पिछले दस साल में भारत ने अफगानिस्तान में सक्रिय भूमिका नहीं निभाई, पर हम चाहते है कि भारत यहाँ सक्रिय हो। यह बात पाकिस्तान में पसंद नहीं की जाएगा, पर सच यह है कि भारत और अफगानिस्तान के रिश्ते सैकड़ों साल पुराने हैं। भारत वहाँ तकरीबन 2 अरब डॉलर का निवेश करके सड़कें, अस्पताल और स्कूल बनवा रहा है। इसके अलावा अफगान सेना और पुलिस की ट्रेनिंग में भी भारत अपनी सेवा दे रहा है। अमेरिका इसे और बढ़ाना चाहता है। सवाल है क्या भविष्य में भारत इस इलाके में अमेरिकी हितों की रक्षा का काम करेगा? इसकी उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि भारत को अंततः अपने हितों के लिए ही काम करना है। चीन और रूस भारत के सहयोगी देश हैं। पर अंतरराष्ट्रीय राजनीति में दोस्त और दुश्मन बदलते रहते हैं।

पिछले साल 20-21 मई को अमेरिका के शिकागो शहर में हुए नेटो के शिखर सम्मेलन में अफगानिस्तान में 2015 के बाद की स्थितियों की समीक्षा की गई। यूरोप में आर्थिक संकट के कारण फ्रांस और जर्मनी भी जल्द से जल्द हट जाना चाहते हैं, पर उसके पहले वे ऐसी व्यवस्था कायम कर देना चाहते हैं जो तालिबान से लड़ सके। पाकिस्तान के वजीरिस्तान इलाके में तालिबान का हक्कानी नेटवर्क सक्रिय है। पाकिस्तानी सेना इसे परास्त करने में विफल रही है। अमेरिका की मान्यता है कि पाक सेना जान-बूझकर तालिबान को परास्त करना नहीं चाहती। अमेरिका की वापसी के बाद पाकिस्तान अपने प्रभाव को उसी तरह वापस लाना चाहता है जैसा 2001 से पहले था। पाकिस्तान में एक तबका ऐसा है जिसे लगता है कि अंततः अफगान कबीलों के हाथों में ताकत आएगी। अमेरिका ने वजारिस्तान में अल कायदा नेटवर्क को तकरीबन समाप्त कर दिया है। इसी 4 जून को सीआईए के एक ड्रोन हमले में अल कायदा का नम्बर दो अबू याह्या अल लीबी मारा गया। पाकिस्तानी सेना के विरोध के बावजूद अमेरिका के ड्रोन हमले जारी हैं। उधर सन 2011 में एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन की हत्या के बाद से दोनों देशों के रिश्तों में आई तल्खी कम हो रही है।

पाकिस्तानी सेना और सरकार दोनों अमेरिका से रिश्ते बनाए रखना चाहते हैं, पर वहाँ की जनता आमतौर पर अमेरिका-विरोधी है। उत्तरी वजीरिस्तान में अमेरिकी कर्रवाई से जनता नाराज़ है। मुख्यधारा के राजनेता भी कट्टरपंथियों से दबते हैं। पर पाकिस्तान की मजबूरी है अमेरिका से रिश्ते बनाए रखना। देश की आर्थिक स्थिति पूरी तरह अमेरिकी रहमो-करम पर है। इसी कारण सन 2001 में अमेरिकी फौजी कारवाई शुरू होने के बाद से पाकिस्तान नेटो सेनाओं की कुमुक के लिए रास्ता देता रहा है। शुरू में यह रास्ता मुफ्त में था, बाद में 250 डॉलर एक ट्रक का लेने लगा। 2011 के नवंबर में नेटो सेना के हैलिकॉप्टरों ने कबायली इलाके मोहमंद एजेंसी में पाकिस्तानी फौजी चौकियों पर हमला किया था, जिसमें 24 सैनिक मारे गए थे। उसके बाद पाकिस्तान ने सप्लाई पर रोक लगा दी थी। मई 2012 में शिकागो के नेटो सम्मेलन में राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी खुद गए थे। बहरहाल नेटो की रसद सप्लाई फिर से शुरू हो गई।

अब इधऱ वॉशिंगटन और इंग्लैंड की कोशिशों से तुर्की को बीच में लाया गया है। तुर्की नेटो देश है और पाकिस्तान के लिए अपेक्षाकृत मुफीद होगा। तुर्की ने पाकिस्तान की जेलों से रिहा हुए पुराने तालिबानियों की अफगान शासकों से बातचीत कराने की पेशकश भी की है। पर इस बातचीत में भारत को शामिल करने का विचार नहीं है। दिसम्बर 2012 में अंकारा में आसिफ अली ज़रदारी, हामिद करज़ाई और तुर्की के राष्ट्रपति  अब्दुल्ला ग़ुल की त्रिपक्षीय वार्ता हुई थी। इसके दौरान एक प्रस्ताव सामने आया कि तालिबान का एक दफ्तर तुर्की में खोला जाए। हाल में तुर्की की राजनीति में इस्लामी तत्व प्रभावशाली हुए हैं। मिस्र के इस्लामिक ब्रदरहुड को मदद देने में तुर्की का हाथ भी है। इका उद्देश्य मध्यमार्गी इस्लामी समूहों को आगे लाने का है, तो यह उपयोगी भी हो सकता है। अफगानिस्तान के भीतर भी तुर्की से परहेज़ रखने वाले अनेक समूह हैं। खासतौर से उज़्बेक और हाज़रा समुदाय।

तुर्की का इस मामले में प्रवेश अनायास नहीं है। सन 2010 में तुर्की की पहल पर अंकारा में हुई एक बैठक में अफगानिस्तान के भविष्य पर विचार हुआ था। पाकिस्तान का करीबी मित्र होने का फर्ज निभाते हुए तुर्की ने भारत को अंकारा में निमंत्रित ही नहीं किया था। पर उसके बाद नवम्बर 2011 में विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा "एशिया के केंद्र में सुरक्षा और सहयोग" विषय पर अफगानिस्तान के संबंध में इस्ताम्बुल सम्मेलन में शामिल हुए थे। इस प्रतिनिधिमंडल में प्रधानमंत्री के विशेष दूत एस.के. लांबा और विदेश सचिव रंजन मथाई शामिल थे।
सम्मेलन में अपने राष्ट्रपति करजई ने भारत और अफगानिस्तान के बीच अक्टूबर 2011 में हस्ताक्षरित सामरिक भागीदारी समझौते का उल्लेख करते हुए अफगानिस्तान में भारत की भूमिका की सराहना की। उन्होंने भारत को एक महान मित्र और इस क्षेत्र में एक प्रमुख खिलाड़ी बताया। सम्मेलन की घोषणा में, आतंकवादियों के सुरक्षित पनाह स्‍थलों को समाप्त करने की आवश्यकता का उल्लेख करते हुए, आतंकवाद के संबंध में भारत और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के अन्य सदस्यों की चिंताओं तथा अफगानिस्तान की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करते हुए उसके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का आग्रह स्पष्ट रूप से प्रदर्शित होता है। अफगानिस्तान में शांति और मेल-मिलाप की आवश्यकता के संबंध में यह दस्तावेज, रेड लाइन अर्थात हिंसा से बचने, आतंकवादी समूहों से संबंध विच्छेद करने, अफगानिस्तान के संविधान का सम्मान करने तथा क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग की संरचना में एशिया के मध्य, दक्षिण और अन्य भागों को जोड़ते हुए व्यापार, पारगमन, ऊर्जा, आर्थिक परियोजनाओं और निवेश का एक नेटवर्क बनाने की आवश्यकता के प्रति समझ-बूझ के महत्व पर बल देता है।

पाकिस्तान की कोशिश है कि तालिबान के मध्यमार्गी समूहों को वैधानिकता मिले ताकि वे अफगानिस्तान की राजनीति में सक्रिय हो सकें। इसके लिए तालिबान का एक दफ्तर किसी देश में खोलने की कोशिश हो रही है। यह दफ्तर सऊदी अरब में खोलने का विचार था, पर सऊदी अरब कट्टरपंथ और आतंकी गतिविधियों के प्रति सख्त रुख अख्तियार कर रहा है। इसलिए तुर्की बेहतर जगह लगती है। पाकिस्तानी सेना भी तुर्की के प्रति श्रद्धा का भाव रखती है। तुर्की पूरे इस्लामी देशों में सबसे आधुनिक है। और वह स्वयं को सफल इस्लामी लोकतंत्र साबित करना चाहता है। तुर्की और भारत के रिश्ते भी अच्छे हैं। ये रिश्ते आर्थिक हैं और आने वाले समय में तुर्की मध्य एशिया से दक्षिण एशिया को थल मार्ग से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। पर सन 2011 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में तुर्की के प्रधानमंत्री द्वारा जम्मू और कश्मीर का उल्लेख किए जाने पर भारत ने चिंता व्यक्त की थी, जिसमें यह स्पष्ट कहा गया था कि यह भारत और पाकिस्तान के बीच एक द्विपक्षीय मामला है तथा ऐसे सभी द्विपक्षीय मसलों से निपटने के लिए इन दोनों देशों के बीच उचित तंत्र हैं। हालांकि तुर्की ने इस बात को स्वीकार किया था, और स्पष्ट किया था कि उसके प्रधानमंत्री का आशय कश्मीर मुद्दे को उठाना नहीं था अपितु वह इस समय जारी भारत पाकिस्तान वार्ता के संबंध में पुराने विवादों का उल्लेख मात्र करना चाहते थे। उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि तुर्की का सत्ताधारी दल अर्थात जस्टिस एंड डिवलपमेंट पार्टी (एके पार्टी) ने भारत के साथ सामरिक संबंधों के निर्माण और उन्हें मजबूत बनाने का सामरिक निर्णय लिया है। अफगानिस्तान में बदलते हालात का जायज़ा लेने में तुर्की हमारा मददगार हो सकता है इसलिए भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन फरवरी में तुर्की जाएंगे। इस बात पर लगातार नज़र रखने की ज़रूरत है कि अमेरिकी सेना हटने के बाद अफगानिस्तान में भारत-विरोधी गतिविधियाँ सिर उठाने न पाएं। 

Saturday, January 5, 2013

आपकी उदासीनता??!!!?


     

सड़क पर फैला खून...
तैरकर या लांघकर निकल जाते हैं लोग
चुपचाप, बिना रुके...
कहां भीगता है कोई इस शहर में
-विजय किशोर 'मानव'


दिल्ली में बलात्कार का शिकार हुई लड़की के मित्र ने ज़ी न्यूज़ को इंटरव्यू में उस दिन की घटना और उसके बाद पुलिस की प्रतिक्रिया और आम जनता की उदासीनता का जो विवरण दिया है वह एक भयावह माहौल की ओर संकेत करता है। टीवी चैनल को दिए साक्षात्कार में पीड़ित लड़की के मित्र ने पूरी घटना का सिलसिलेवार ब्योरा दिया है। लड़के का कहना था कि पीड़ित ने 100 नंबर पर पुलिस कंट्रोल रूम को फोन करने की कोशिश की थी, लेकिन अभियुक्तों ने उसका मोबाइल फोन छीन लिया। उनकी दोस्त के शरीर से बहुत ज्यादा खून बह रहा था। जब उसे और पीड़ित लड़की को नग्न अवस्था में बस से फेंक दिया गया तो उन्होंने राह पर आते-जाते लोगों को रोकने की कोशिश की लेकिन 20-25 मिनट तक कोई नहीं रुका। करीब 45 मिनट बाद पुलिस की पीसीआर वैन्स घटनास्थल पर पहुंची लेकिन आपस में अधिकार क्षेत्र तय करने में उन्हें समय लगा। वह बार-बार कोई कपड़ा दिए जाने की गुहार लगाता रहा लेकिन किसी ने उसकी बात न सुनी और काफी देर बाद एक बेडशीट फाड़ कर दी गई जिससे उसने पहले अपनी मित्र को ढँका। शायद उन्हें डर था कि वे रुकेंगे तो पुलिस के चक्कर में फंस जाएंगे। अस्पताल पहुंचने पर भी ठीक से मदद नहीं मिली। वहां भी किसी ने तन ढकना जरूरी नहीं समझा। युवक के अनुसार, वह वारदात की रात से ही स्ट्रेचर पर था। 16 से 20 दिसंबर तक वह थाने में ही रहा। इस दौरान पुलिस ने उसका उपचार भी नहीं करवाया। 

क्या यह आम नागरिक की बेरुखी थी? या व्यवस्था से लगने वाला डर? 
दुष्यंत कुमार की इन पंक्तियों में शायद यही बात हैः-

इस शहर में वो कोई बारात हो या वारदात
अब किसी भी बात पर
खुलती नहीं हैं खिड़कियाँ 

सरकारी व्यवस्था की उदासीनता को कोस कर क्या होगा, जब सामान्य व्यक्ति भी उतना ही उदासीन है। सरकार किसकी है? आपकी ही तो है? 


कोई नहीं आया मदद के लिए बीबीसी समाचार
ज़ी न्यूज़ पर इंटरव्यू