Friday, December 14, 2012

गुजरात और गुजरात के बाद

येदुरप्पा का पुनर्जन्म

सतीश आचार्य का कार्टून
मोदी हवा-हवाई

हिन्दू में केशव का कार्टून
राजनीतिक लड़ाई और कानूनी बदलाव
दिल्ली की कुर्सी की लड़ाई कैसी होगी इसकी तस्वीर धीरे-धीरे साफ हो रही है। गुजरात में नरेन्द्र मोदी का भविष्य ही दाँव पर नहीं है, बल्कि भावी राष्ट्रीय राजनीति की शक्ल भी दाँव पर है। मोदी क्या 92 से ज्यादा सीटें जीतेंगे? ज्यादातर लोग मानते हैं कि जीतेंगे। क्या वे 117 से ज्यादा जीतेंगे, जो 2007 का बेंचमार्क है? यदि ऐसा हुआ तो मोदी की जीत है। तब अगला सवाल होगा कि क्या वे 129 से ज्यादा जीतेंगे, जो 2002 का बेंचमार्क है। गुजरात और हिमाचल के नतीजे 20 दिसम्बर को आएंगे, तब तक कांग्रेस पार्टी को अपने आर्थिक उदारीकरण और लोकलुभावन राजनीति के अंतर्विरोधी एजेंडा को पूरा करना है।

Monday, December 10, 2012

मालदीव में क्या चीनी चक्कर है?

खुदरा बाज़ार में एफडीआई के मसले और तेन्दुलकर की फॉर्म में मुलव्विज़ हमारे मीडिया ने हालांकि इस खबर को खास तवज्जो नहीं दी, पर मालदीव सरकार ने एक भारतीय कम्पनी को बाहर का रास्ता दिखाकर हमें महत्वपूर्ण संदेश दिया है। माले के इब्राहिम नासिर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे की देखरेख के लिए जीएमआर को दिया गया 50 करोड़ डॉलर का करार रद्द होना शायद बहुत बड़ी बात न हो, पर इसके पीछे के कारणों पर जाने की कोशिश करें तो हमारी चंताएं बढ़ेंगी। समझना यह है कि मालदीव में पिछले एक साल से चल रही जद्दो-जेहद सिर्फ स्थानीय राजनीतिक खींचतान के कारण है या इसके पीछे चीन और पाकिस्तान का हाथ है।

Friday, December 7, 2012

बड़े मौके पर काम आता है 'साम्प्रदायिकता' का ब्रह्मास्त्र

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मंजुल का कार्टून
हिन्दू में केशव और सुरेन्द्र के कार्टून

सतीश आचार्य का कार्टून
                                     
जब राजनीति की फसल का मिनिमम सपोर्ट प्राइस दे दिया जाए तो कुछ भी मुश्किल नहीं है। खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश पर संसद के दोनों सदनों में हुई बहस के बाद भी सामान्य व्यक्ति को समझ में नहीं आया कि हुआ क्या? यह फैसला सही है या गलत? ऊपर नज़र आ रहे एक कार्टून में कांग्रेस का पहलवान बड़ी तैयारी से आया था, पर उसके सामने पोटैटो चिप्स जैसा हल्का बोझ था। राजनेताओं और मीडिया की बहस में एफडीआई के अलावा दूसरे मसले हावी रहे। ऐसा लगता है कि भाजपा, वाम पंथी पार्टियाँ और तृणमूल कांग्रेस की दिलचस्पी एफडीआई के इर्द-गिर्द ही बहस को चलाने की है, पर उससे संसदीय निर्णय पर कोई अंतर पड़ने वाला नहीं। समाजवादी पार्टी और बसपा दोनों ने ही एफडीआई का विरोध किया है, पर विरोध का समर्थन नहीं किया। इसका क्या मतलब है? यही कि देश में 'साम्प्रदायिकता' का खतरा 'साम्राज्यवाद' से ज्यादा बड़ा है। 

Tuesday, December 4, 2012

राजनीति में खेल हैं या खेल में राजनीति?

खेलों की दुर्दशा दिखानी होती है तो हम इशारा राजनीति की ओर करते हैं। कहते हैं कि भाई बड़ी राजनीति है। और राजनीति की दुर्दशा होती है तो उसे खेल कहते हैं। कुछ लोग इसे राजनीति खेलना कहते हैं। संयोग है कि पिछले ढाई साल से हम अपनी राजनीति में जो हंगामा देख रहे हैं, उसकी शुरूआत कॉमनवैल्थ गेम्स की तैयारियों से हुई थी। राष्ट्रीय क्षितिज पर उन दिनों एक नया हीरो उभरा था, सुरेश कलमाडी। भारतीय ओलिम्पिक संघ के अध्यक्ष कलमाडी के साथ कॉमनवैल्थ गेम्स ऑर्गनाइज़िंग कमेटी के सेक्रेटरी जनरल ललित भनोत और डायरेक्टर जनरल वीके वर्मा की उस मामले में गिरफ्तारी भी हुई थी। बहरहाल दो साल के भीतर सारी चीजें बदल गई हैं। सुरेश कलमाडी की भारतीय ओलिम्पिक एसोसिएशन में वापसी तो नहीं हो पाई, पर दो दिन बाद यानी 5 दिसम्बर को होने वाले भारतीय ओलिम्पिक महासंघ (आईओए) के चुनाव में ललित भनोत निर्विरोध सेक्रेटरी जनरल चुन लिए जाएंगे। अध्यक्ष पद के लिए हरियाणा के राजनेता अभय चौटाला का नाम तय हो चुका है। पिछले एक हफ्ते की गहमागहमी में चौटाला-भनोत सहयोग उभर कर आया। आईओए के पूर्व सेक्रेटरी जनरल रणधीर सिंह और उनके साथियों के मैदान से हट जाने के बाद चुनाव अब सिर्फ औपचारिकता रह गए हैं। यह तब सम्भव हुआ है जब अंतरराष्ट्रीय ओलिम्पक कमेटी (आईओसी) की एथिक्स कमीशन ने कलमाडी, भनोत और वर्मा को उनके पदों से निलंबित करने का सुझाव दिया था। इसलिए माना जाता था कि भनोत चुनाव में नहीं उतरेंगे, पर जैसाकि स्वाभाविक है अभय चौटाला ने ही राजनीति से उदाहरण दिया है कि आरोप तो मुलायम सिंह यादव, लालू यादव और जे जयललिता पर भी हैं। ललित भनोत कहीं से दोषी तो साबित नहीं हुए हैं।

Sunday, December 2, 2012

क्या सुषमा स्वराज ने मोदी के लिए रास्ता खोल दिया?

नरेन्द्र मोदी के बाबत सुषमा स्वराज के वक्तव्य का अर्थ लोग अपने-अपने तरीके से निकाल रहे हैं। सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह है कि सुषमा स्वराज ने भी नामो का समर्थन कर दिया, जो खुद भाजपा संसदीय दल का नेतृत्व करती हैं और जब भी सरकार बनाने का मौका होगा तो प्रधानमंत्री पद की दावेदार होंगी। पर सुषमा जी के वक्तव्य को ध्यान से पढ़ें तो यह निष्कर्ष निकालना अनुचित होगा। हाँ इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि नामो के नाम पर उनका विरोध नहीं है। गुजरात की चुनाव सभाओं में अरुण जेटली ने भी इसी आशय की बात कही है।

यह दूर की बात है कि एनडीए कभी सरकार बनाने की स्थिति में आता भी है या नहीं, पर लोकसभा चुनाव में उतरते वक्त पार्टी सरकार बनाने के इरादों को ज़ाहिर क्यों नहीं करना चाहेगी? ऐसी स्थिति में उसे सम्भावनाओं के दरवाजे भी खुले रखने होंगे। अभी तक ऐसा लगता था कि पार्टी के भीतर नरेन्द्र मोदी को केन्द्रीय राजनीति में लाने का विरोध है। इस साल उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव में उन्हें नहीं आने दिया गया। नरेन्द्र मोदी ने मुम्बई कार्यकारिणी की बैठक के बाद से यह जताना शुरू कर दिया है कि मैं राष्ट्रीय राजनीति में शामिल होने का इच्छुक हूँ। उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर सीधे वार करने शुरू किए जो सहजे रूप से राष्ट्रीय समझ का प्रतीक है।