Wednesday, September 29, 2010

सलमान खान तो हमारे पास भी है


रविवार के इंडियन एक्सप्रेस का एंकर सलमान खान पर था। यह सलमान बॉलीवुड का सितारा नहीं है, पर अमेरिका में सितारा बन गया है। बंग्लादेशी पिता और भारतीय माता की संतान सलमान ने सिर्फ अपने बूते दुनिया का सबसे बड़ा ऑनलाइन स्कूल स्थापित कर लिया है। हाल में गूगल ने अपने 10100 कार्यक्रम के तहत सलमान को 20 लाख डॉलर की मदद देने की घोषणा की है। इस राशि पर ध्यान दें तो और सिर्फ सलमान के काम पर ध्यान दें तो उसमें दुनिया को बदल डालने का मंसूबा रखने वालों के लिए महत्वपूर्ण संदेश छिपे हैं।

सलमान खान की वैबसाइट खान एकैडमी पर जाएं तो आपको अनेक विषयों की सूची नज़र आएगी। इनमें से ज्यादातर विषय गणित, साइंस और अर्थशास्त्र से जुड़े हैं। सलमान ने अपने प्रयास से इन विषयों के वीडियो बनाकर यहाँ रखे हैं। छात्रों की मदद के लिए बनाए गए ये वीडियो बगैर किसी शुल्क के उपलब्ध हैं। सलमान ने खुद एमआईटी और हार्वर्ड बिजनेस स्कूल से डिग्रियाँ ली हैं। शिक्षा को लालफीताशाही की जकड़वंदी से बाहर करने की उसकी व्यक्तिगत कोशिश ने उसे गूगल का इनाम ही नहीं दिलाया, बिल गेट्स का ध्यान भी खींचा है। बिल गेट्स का कहना है कि मैने खुद और मेरे बच्चों ने इस एकैडमी में प्राप्त शिक्षा सामग्री मदद ली है। पिछले साल सलमान को माइक्रोसॉफ्ट टेक एवॉर्ड भी मिल चुका है।

सलमान की इस कहानी का हमारे जैसे देश में बड़ा अर्थ है। इसके पीछे दो बातें है। दूसरों को ज्ञान देना और निशुल्क देना। सलमान का अपना व्यवसाय पूँजी निवेश का था। उसने अपनी एक रिश्तेदार को कोई विषय समझाने के लिए एक वीडियो बनाया। उससे वह उत्साहित हुआ और फिर कई वीडियो बना दिए। और फिर अपनी वैबसाइट में इन वीडियो को रख दिय़ा। सलमान की वैबसाइट पर जाएं तो आपको विषय के साथ एक तरतीब से वीडियो-सूची मिलेगी। ये विडियो उसने माइक्रोसॉफ्ट पेंट, स्मूद ड्रॉ और कैमटेज़िया स्टूडियो जैसे मामूली सॉफ्टवेयरों की मदद से बनाए हैं। यू ट्यूब में उसके ट्यूटोरियल्स को हर रोज 35,000 से ज्यादा बार देखा जाता है।

गूगल ने उसे जो बीस लाख डॉलर देने की घोषणा की है उससे नए वीडियो बनाए जाएंगे और इनका अनुवाद दूसरी भाषाओं में किया जाएगा। सलमान ने सीएनएन को बताया कि स्पेनिश, मैंडरिन(चीनी), हिन्दी और पोर्चुगीज़ जैसी भाषाओं में इनका अनुवाद होगा। सलमान का लक्ष्य है उच्चस्तरीय शिक्षा हरेक को, हर जगह। शिक्षा किस तरह समाज को बदलती है इसका बेहतर उदाहरण यूरोप है। पन्द्रहवीं सदी के बाद यूरोप में ज्ञान-विज्ञान का विस्फोट हुआ। उसे एज ऑफ डिस्कवरी कहते हैं। इस दौरान श्रेष्ठ साहित्य लिखा गया, शब्दकोश, विश्वकोश, ज्ञानकोश और संदर्भ-ग्रंथ लिखे गए। उसके समानांतर विज्ञान और तकनीक का विकास हुआ।

दुनिया में जो इलाके विकास की दौड़ में पीछे रह गए हैं, उनके विकास के सूत्र केवल आर्थिक गतिविधियों में नहीं छिपे हैं। इसके लिए वैचारिक आधार चाहिए। और उसके लिए सूचना और ज्ञान। यह ज्ञान अपनी भाषा में होगा तभी उपयोगी है। हिन्दी के विस्तार को लेकर हमें खुश होने का पूरा अधिकार है। अपनी भाषा में दुनियाभर के ज्ञान का खजाना भी तो हमें चाहिए। हमारे भीतर भी ऐसे जुनूनी लोग होंगे, जो ऐसा करना चाहते हैं, पर बिल गेट्स और गूगल वाले हिन्दी नहीं पढ़ते हैं। हिन्दी पढ़ने वाले और हिन्दी का कारोबार करने वालों को इस बात की सुध नहीं है। यह साफ दिखाई पड़ रहा है कि हिन्दी के ज्ञान-व्यवसाय पर हिन्दी के लोग हैं ही नहीं। जो हैं उन्हें या तो अंग्रेजी 
आती है या धंधे की भाषा।

इंटरनेट के विकास के बाद उसमें हिन्दी का प्रवेश काफी देर से हुआ। हिन्दी के फॉण्ट की समस्या का आजतक समाधान नहीं हो पाया है। गूगल ने ट्रांसलिटरेशन की जो व्यवस्था की है वह पर्याप्त नहीं है। वहरहाल जो भी है, उसका इस्तेमाल करने वाले बहुत कम हैं। दुनिया में जिस गति से ब्लॉगिंग हो रही है, उसके मुकाबले हिन्दी में हम बहुत पीछे हैं। विकीपीडिया पर हिन्दी में लिखने वालों की तादाद कम है। अगस्त 2010 में विकीपीडिया में लिखने वाले सक्रिय लेखकों की संख्या 82794 थी। इनमें से 36779 अंग्रेजी में लिखते हैं। जापानी में लिखने वालों की संख्या 4053 है और चीनी में 1830। हिन्दी में 70 व्यक्ति लिखते हैं। इससे ज्यादा 82 तमिल में और 77 मलयालम में हैं। भारतीय भाषाओं के मुकाबले भाषा इंडोनेशिया में लिखने वाले 244, थाई लिखने वाले 256 और अरबी लिखने वाले 522 हैं।

करोड़ों लोग हिन्दी में बात करते हैं, फिल्में देखते हैं या न्यूज़ चैनल देखते हैं। इनमें से कितने लोग बौद्धिक कर्म में अपना समय लगाते हैं?  मौज-मस्ती जीवन का अनिवार्य अंग है। उसी तरह बौद्धिक कर्म भी ज़रूरी है। अपने भीतर जब तक हम विचार और ज्ञान-विज्ञान की लहर पैदा नहीं करेंगे, तब तक एक समझदार समाज बना पाने की उम्मीद न करें। बदले में हमें जो सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था मिल रही है उसे लेकर दुखी भी न हों। यह व्यवस्था हमने खुद को तोहफे के रूप में दी है।
प्रोजेक्ट गुटेनबर्ग में हिन्दी की किताबें खोजें। नहीं मिलेंगी। गूगल बुक्स में देखें। थोड़ी सी मिलेंगी। हिन्दी की कुछ वैबसाइटों में हिन्दी के कुछ साहित्यकारों की दस से पचास साल पुरानी किताबों का जिक्र मिलता है। कुछ पढ़ने को भी मिल जाती हैं। इनमें हनुमान चालीसा और सत्यनारायण कथा भी हैं। पुस्तकालयों का चलन कम हो गया है। स्टॉल्स पर जो किताबें नज़र आतीं हैं, उनमें आधी से ज्यादा अंग्रेजी में लिखे उपन्यासों, सेल्फ हेल्प या पर्सनैलिटी डेवलपमेंट की किताबों के अनुवाद हैं। सलमान खान के वीडियो देखें तो उनके संदर्भ अमेरिका के हैं। हमारे लिए तो भारतीय संदर्भ के वीडियो की ज़रूरत होगी।

समाज विज्ञान, राजनीति शास्त्र, इतिहास, मनोविज्ञान, मानव विज्ञान से लेकर प्राकृतिक विज्ञानों तक हिन्दी के संदर्भ में किताबें या संदर्भ सामग्री कहाँ है? नहीं है तो क्यों नहीं है? हिन्दी में शायद सबसे ज्यादा कविताएं लिखीं जाती हैं। हिन्दी के पाठक को विदेश व्यापार, अंतरराष्ट्रीय सम्बंध, वैज्ञानिक और तकनीकी विकास, यहाँ तक कि मानवीय रिश्तों पर कुछ पढ़ने की इच्छा क्यों नहीं होती है? हाल में मुझसे किसी ने हिन्दी में शोध परक लेख लिखने को कहा। उसका पारिश्रमिक शोध करने का अवसर नहीं देता। शोध की भी कोई लागत होती है। वह कीमत हबीब के यहाँ एक बार की हजामत और फेशियल से भी कम हो तो क्या कहें? सलमान खान तो हमारे पास भी है, पर वह मुन्नी बदनाम के साथ नाचता है।  

Friday, September 24, 2010

नया वाला जियो उठो बढ़ो जीतो

सुनिए क्या आपको यह पसंद आया?



ओ यारो ये इंडिया..बुला लिया..
दीवाना ये इंडिया बुला लिया..बुला लिया
ये तो खेल हैं, बड़ा मेल हैं
मिला दिया, मिला दिया


ओ रुकना रुकना रुकना
रुकना रुकना नहीं..
हारना हारना हारना
हारना हारना नहीं..
जुनून से कानून से मैदान मारो

लेट्स गो..लेट्स गो
प्ले ओ जियो हेयो लेट्स गो
प्ले ओ जियो हेयो लेट्स गो




ओ यारो ये इंडिया..बुला लिया..
दीवाना ये इंडिया बुला लिया..बुला लिया
पर्वत से ऊँचे हो तुम
तो ये दुनिया सलामी दे
सर्द इरादे न हो जाएं कहीं
दिल को वो सूरज दे
जियो उठो बढ़ो जीतो
jतेरा मेरा जहाँ लेट्स गो

कैसी सजी है सजी है देखों माटी अपनी
बनी रश्के जहाँ यारा हो
कई रंग हैं बोली हैं देश हैं मगर
यहीं जग है समाया सारा हो

लागी रे अब लागी रे लगन
जागी रे मन जीत की अगन
उठी रे अब इरादों में तपन
चली रे टोली चली बन ठन

द लांगर द नाइट
द लांगर अवर ड्रीम्स बी
फ्लो लाइक द विंड
लेट द गेम्स टेक ओवर मी
बी लाइक द टाइगर स्ट्रांग
लेट द फियर बी गॉन
फॉलो द विल टु विन टु थ्रिल टु थ्रल..
प्ले ओ जियो हेयो लेट्स गो

कदमों में एक भँवर
का है दिन..
जश्न का आज दिन है
सीनों में तूफान
का हैं दिन..
बाजू आजमा ये दिन है
ये दिन है तेरा दिन है
तू जोर लगा.. चल आँख मिला..
कल ना आए दिन ये!
जियो उठो बढ़ो जीतो
प्ले ओ जियो लेट्स गो


जियो उठो बढ़ो जीतो
तेरा मेरा जहाँ लेट्स गो


अयोध्या

कॉमनवैल्थ खेल के समांतर अयोध्या का मसला काफी रोचक हो गया है। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला टाल दिया है। इससे कुछ लोगों ने राहत की साँस ली है और कुछ ने कहा है कि इतने साल बाद फैसले की घड़ी आने पर दो-चार दिन टाल देने से कोई समझौता हो जाएगा क्या? बहरहाल आज के सभी अखबारों ने इस विषय पर सम्पादकीय लिखने की ज़रूरत नहीं समझी है। कहा जा सकता है कि वे लिखते भी तो क्या लिखते। 


अंग्रेजी में हिन्दू और इंडियन एक्सप्रेस ने इस विषय पर टिप्पणी की है। टाइम्स ऑफ इंडिया और हिन्दुस्तान टाइम्स ने नहीं की। हिन्दी में जागरण, अमर उजाला और हिन्दुस्तान ने टिप्पणी की है। भास्कर और नवभारत टाइम्स ने नहीं की। संयोग से तीनों का शीर्षक एक ही है। ऐसा शीर्षक को रोचक बनाने के लिए या आसानी से उपलब्ध एक शीर्षक का इस्तेमाल करने के लिए किया गया है। 




एक रुका हुआ फैसला
अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ की ओर से 24 सितंबर को आने वाले फैसले को लेकर जैसा तनावपूर्ण माहौल बना दिया गया था उसे देखते हुए उच्चतम न्यायालय का हस्तक्षेप तात्कालिक राहत देने वाला है। वैसे तो उच्चतम न्यायालय ने हाईकोर्ट के निर्णय सुनाने पर एक सप्ताह की ही रोक लगाई है, लेकिन देखना यह होगा कि वह सुलह-समझौते की अर्जी पर 28 सितंबर को क्या फैसला देता है? उसका फैसला कुछ भी हो, फिलहाल अयोध्या विवाद का समाधान आपसी सहमति से निकलने के आसार नजर नहीं आते। सुलह का मौका देने की गुहार लगाते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाने वाले याचिकाकर्ता को छोड़ दिया जाए तो न तो वादी-प्रतिवादी आपसी सहमति के रास्ते पर चलने को तैयार दिखते हैं और न ही प्रमुख राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक संगठन। राष्ट्रहित में इससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता कि अयोध्या विवाद को आपसी बातचीत के माध्यम से हल किया जाए, लेकिन यह निराशाजनक है कि इसके लिए किसी भी स्तर पर ठोस प्रयास नहीं हो रहे हैं। क्या यह उम्मीद की जाए कि उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप ने जो अवसर प्रदान किया है उसका उपयोग करने के लिए वे लोग आगे आएंगे जो अयोध्या विवाद का समाधान परस्पर सहमति से खोजने के लिए उपयुक्त माहौल बनाने में सहायक हो सकते हैं? यदि दोनों पक्षों के धर्माचार्य और प्रमुख राजनीतिक दल इस दिशा में कदम उठाएं तो अभीष्ट की पूर्ति हो सकती है। यह सही है कि अतीत में ऐसे जो प्रयास हुए वे नाकाम रहे, लेकिन आखिर और अधिक निष्ठा के साथ एक और कोशिश करने में क्या हर्ज है? यह विचित्र है कि जो लोग ऐसी कोशिश कर सकते हैं उनमें से ही अनेक 24 सितंबर के फैसले को लेकर गैर जिम्मेदाराना बयान दे रहे हैं। ऐसे राजनेता एक ओर शांति-सद्भाव बनाए रखने का आग्रह कर रहे हैं और दूसरी ओर अपने बयानों के जरिये ऐसा माहौल रच रहे जैसे 24 सितंबर को आसमान टूटने जा रहा हो। परिणाम यह हुआ कि देश के कुछ हिस्सों में दहशत पैदा हो गई। कुछ राज्यों में तो स्कूलों में छुट्टी करने की तैयारी कर ली गई थी। इसमें दो राय नहीं कि पूरा देश अयोध्या विवाद पर उच्च न्यायालय का अभिमत जानने को उत्सुक है, लेकिन धीरे-धीरे इस उत्सुकता में आशंका घुल गई। इसके लिए चाहे जो जिम्मेदार हो, 24 सितंबर के फैसले को लेकर जैसे माहौल का निर्माणकिया गया उससे एक परिपक्व राष्ट्र की हमारी छवि को धक्का लगा है। यह आश्चर्यजनक है कि जब यह स्पष्ट था कि उच्च न्यायालय का फैसला अंतिम नहीं होगा तब भी आम जनता के बीच यह संदेश क्यों जाने दिया गया कि अयोध्या मामले में कोई निर्णायक फैसला होने जा रहा है। जिन परिस्थितियों में अयोध्या विवाद पर उच्च न्यायालय का फैसला रुका वे सुरक्षा तैयारियों को विस्तार देने वाली हैं। चूंकि उच्च न्यायालय की ओर से फैसला सुनाने वाले तीन में से एक न्यायाधीश एक अक्टूबर को सेवानिवृत्त हो रहे हैं इसलिए उच्चतम न्यायालय का यह हस्तक्षेप फैसला टलने का कारण भी बन सकता है। यदि अयोध्या विवाद पर सुलह की कोशिश भी नहीं होती और उच्च न्यायालय का फैसला भी लंबे समय के लिए टलता है तो आम जनता खुद को ठगा हुआ महसूस कर सकती है।

Thursday, September 23, 2010

कश्मीर पर नई पहल

संसदीय टीम कश्मीर से वापस आ गई है। भाजपा और दूसरी पार्टियों के बीच अलगाववादियों से मुलाकात को लेकर असहमति के स्वर सुनाई पड़े हैं। मोटे तौर पर इस टीम ने अपने दोनों काम बखूबी किए हैं। कश्मीरियों से संवाद और उनके विचार को दर्ज करने का काम ही यह टीम कर सकती थी।

इंडियन एक्सप्रेस ने एक नई जानकारी दी है कि समाजवादी पार्टी के मोहन सिंह ने सबसे पहले अलगाववादियों से मुलाकात का विरोध किया था. मोहन सिंह का कहना था कि हम राष्ट्र समर्थक तत्वों का मनोबल बढ़ाने आए हैं। हमारे इस काम से अलगाववादियों का मनोबल बढ़ता है।

एक रोचक जानकारी यह है कि संसदीय टीम की मुलाकात हाशिम कुरैशी से भी हुई। हाशिम कुरैशी 30 जनवरी 1971 को इंडियन एयरलाइंस के प्लेन को हाईजैक करके लाहौर ले गया था। वहाँ उसे 14 साल की कैद हुई। सन 2000 में वह कश्मीर वापस आ गया। आज उसके विचार चौंकाने वाले हैं। हालांकि वह कश्मीर में भारतीय हस्तक्षेप के खिलाफ है, पर उसकी राय में भारत और पाकिस्तान में से किसी को चुनना होगा तो मैं भारत के साथ जाऊँगा। उसका कहना है मैने पाक-गिरफ्त वाले कश्मीर में लोगों की बदहाली देख ली है।

मेरा लेख पढ़ने के लिए कतरन पर क्लिक करें

Tuesday, September 21, 2010

टकराव के दौर में मीडिया

इस हफ्ते भारतीय मीडिया पर जिम्मेदारी का दबाव है। 24 सितम्बर को बाबरी मस्जिद मामले पर इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आएगा। उसके बाद कॉमनवैल्थ गेम्स शुरू होने वाले हैं, जिन्हें लेकर मस्ती कम अंदेशा ज्यादा है। पुरानी दिल्ली में इंडियन मुज़ाहिदीन ने गोली चलाकर इस अंदेशे को बढ़ा दिया है। कश्मीर में माहौल बिगड़ रहा है। नक्सली हिंसा बढ़ रही है और अब सामने हैं बिहार के चुनाव। भारत में मीडिया, सरकार और समाज का द्वंद हमेशा रहा है। इतने बड़े देश के अंतर्विरोधों की सूची लम्बी है। मीडिया सरकार को कोसता है, सरकार मीडिया को। और दर्शक या पाठक दोनों को।

न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन ने अयोध्या मसले को लेकर पहले से सावधानी बरतने का फैसला किया है। फैसले की खबर देते समय साथ में अपनी राय देने या उसका निहितार्थ निकालने की कोशिश नहीं की जाएगी। बाबरी विध्वंस की फुटेज नहीं दिखाई जाएगी। इसके अलावा फैसला आने पर उसके स्वागत या विरोध से जुड़े विज़ुअल नहीं दिखाए जाएंगे। यानी टोन डाउन करेंगे। हाल में अमेरिका में किसी ने पवित्र ग्रंथ कुरान शरीफ को जलाने की धमकी दी थी। उस मामले को भी हमारे मीडिया ने बहुत महत्व नहीं दिया। टकराव के हालात में मीडिया की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। मीडिया ने इसे समझा यह अच्छी बात है।  

6 दिसम्बर 1992 को देश में टीवी का प्रसार इस तरीके का नहीं था। प्राइवेट चैनल के नाम पर बीबीसी का मामूली सा प्रसारण केबल टीवी पर होता था। स्टार और एमटीवी जैसे चैनल थे। सब अंग्रेजी में। इनके बीच ज़ी का हिन्दी मनोरंजन चैनल प्रकट हुआ। अयोध्या ध्वंस के काफी बाद भारतीय न्यूज़ चैनल सामने आए। पर हम 1991 के इराक युद्ध की सीएनएन कवरेज से परिचित थे, और उससे रूबरू होने को व्यग्र थे। उन दिनों लोग न्यूज़ ट्रैक के कैसेट किराए पर लेकर देखते थे। आरक्षण-विरोधी आंदोलन के दौरान आत्मदाह के एक प्रयास के विजुअल पूरे समाज पर किस तरह का असर डालते हैं, यह हमने तभी देखा। हरियाणा के महम में हुई हिंसा के विजुअल्स ने दर्शकों को विचलित किया। अखबारों में पढ़ने के मुकाबले उसे देखना कहीं ज्यादा असरदार था। पर ज्यादातर मामलों में यह असर नकारात्मक साबित हुआ। 

बहरहाल दिसम्बर 1992 में मीडिया माने अखबार होते थे। और उनमें भी सबसे महत्वपूर्ण थे हिन्दी के अखबार। 1992 के एक साल पहले नवम्बर 1991 में बाबरी मस्जिद को तोड़ने की कोशिश हुई थी। तब उत्तर प्रदेश सरकार ने कहा, ऐसी घटना नहीं हुई। मुझे याद है लखनऊ के नव भारत टाइम्स ने बाबरी के शिखर की वह तस्वीर हाफ पेज में छापी। सबेरे उस अखबार की कॉपियाँ ढूँढे नहीं मिल रहीं थीं। उस ज़माने तक बहुत सी बातें मीडिया की निगाहों से दूर थीं। आज मीडिया की दृष्टि तेज़ है। पहले से बेहतर तकनीक उपलब्ध है। तब के अखबारों के फोटोग्राफरों के कैमरों के टेली लेंसों के मुकाबले आज के मामूली कैमरों के लेंस बेहतर हैं।

मीडिया के विकास के समानांतर सामाजिक-अंतर्विरोधों के खुलने की प्रक्रिया भी चल रही है। साठ के दशक तक मुल्क अपेक्षाकृत आराम से चल रहा था। सत्तर के दशक में तीन बड़े आंदोलनों की बुनियाद पड़ी। एक, नक्सली आंदोलन, दूसरा बिहार और गुजरात में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और तीसरा पंजाब में अकाली आंदोलन। तीनों आंदोलनों के भटकाव भी फौरन सामने आए। संयोग है कि भारतीय भाषाओं के, खासकर हिन्दी के अखबारों का उदय इसी दौरान हुआ। यह जनांदोलनों का दौर था। इसी दौरान इमर्जेंसी लगी और अखबारों को पाबंदियों का सामना करना पड़ा। इमर्जेंसी हटने के बाद देश के सामाजिक-सांस्कृतिक  अंतर्विरोधों ने और तेजी के साथ एक के बाद एक खुलना शुरू किया। यह क्रम अभी जारी है।

राष्ट्रीय कंट्राडिक्शंस के तीखे होने और खुलने के समानांतर मीडिया के कारोबार का विस्तार भी हुआ। मीडिया-विस्तार का यह पहलू ज्यादा महत्वपूर्ण साबित हुआ। इसके कारण मीडिया को अपनी भूमिका को लेकर बातचीत करने का मौका नहीं मिला। बाबरी-विध्वंस के बाद देशभर में विचार-विमर्श की लहर चली थी। अखबारों की भूमिका की खुलकर और नाम लेकर निंदा हुई। उस तरीके का सामाजिक संवाद उसके बाद नहीं हुआ। अलबत्ता उस संवाद का फायदा यह हुआ कि आज मीडिया अपनी मर्यादा रेखाएं तय कर रहा है। 

सामाजिक जिम्मेदारियों को किनारे रखकर मीडिया का विस्तार सम्भव नहीं है। मीडिया विचार-विमर्श का वाहक है, विचार-निर्धारक या निर्देशक नहीं। अंततः विचार समाज का है। यदि हम समाज के विचार को सामने लाने में मददगार होंगे तो वह भूमिका सकारात्मक होगी। विचार नहीं आने देंगे तो वह भूमिका नकारात्मक होगी और हमारी साख को कम करेगी। हमारे प्रसार-क्षेत्र के विस्तार से ज्यादा महत्वपूर्ण है साख का विस्तार। तेज बोलने, चीखने, कूदने और नाचने से साख नहीं बनती। धीमे बोलने से भी बन सकती है। शॉर्ट कट खोजने के बजाय साख बढ़ाने की कोशिश लम्बा रास्ता साबित होगी, पर कारोबार को बढ़ाने की बेहतर राह वही है।

खबर के साथ बेमतलब अपने विचार न देना, उसे तोड़ कर पेश न करना, सनसनी फैलाने वाले वक्तव्यों को तवज्जो न देना पत्रकारिता के सामान्य सूत्र हैं। पिछले बीस बरस में भारतीय मीडिया जातीय, साम्प्रदायिक और क्षेत्रीय मसलों से जूझ रहा है। इससे जो आम राय बनकर निकली है वह इस मीडिया को शत प्रतिशत साखदार भले न बनाती हो, पर वह उसे कूड़े में भी नहीं डालती। जॉर्ज बुश ने कहीं इस बात का जिक्र किया था कि अल-कायदा के नेटवर्क में भारतीय मुसलमान नहीं हैं। इसे मीडिया के परिप्रेक्ष्य में देखें। भारतीय मुसलमान के सामने तमाम दुश्वारियाँ हैं। वह आर्थिक दिक्कतों के अलावा केवल मुसलमान होने की सज़ा भी भुगतता है, पर भारतीय राष्ट्र राज्य पर उसकी आस्था है। इस आस्था को कायम रखने में मीडिया की भी भूमिका है, गोकि यह भूमिका और बेहतर हो सकती है। कश्मीर के मामले में भारतीय मुसलमान हमारे साथ है।

मीडिया सामजिक दर्पण है। जैसा समाज सोचेगा वैसा उसका मीडिया होगा। यह दोतरफा रिश्ता है। मीडिया भी समाज को समझदार या गैर-समझदार बनाता है। हमारी दिलचस्पी इस बात में होनी चाहिए कि हम किस तरह सकारात्मक प्रवृत्तियों को बढ़ा सकते हैं। साथ ही इस बात में कि हमारे किसी काम का उल्टा असर न हो। उम्मीद है आने वाला वक्त बेहतर समझदारी का होगा। पूरा देश हमें देखता, सुनता और पढ़ता है।