Wednesday, January 2, 2019

सेमी-फाइनल साल के सियासी-पेचोख़म


http://epaper.dainiktribuneonline.com/1957951/Dainik-Tribune-(Lehrein)/DM-30-December-2018#page/1/2
भारतीय राजनीति के नज़रिए से 2018 सेमी-फाइनल वर्ष था। फाइनल के पहले का साल। पाँच साल की जिस चक्रीय-व्यवस्था से हमारा लोकतंत्र चलता है, उसमें हर साल और हर दिन का अपना महत्व है। पूरे साल का आकलन करें, तो पाएंगे कि यह कांग्रेस के उभार और बीजेपी के बढ़ते पराभव का साल था। फिर भी न तो यह कांग्रेस को पूरी विजय देकर गया और न बीजेपी को निर्णायक पराजय। काफी संशय बाकी हैं। गारंटी नहीं कि फाइनल वर्ष कैसा होगा। कौन अर्श पर होगा और कौन फर्श पर।

इस साल नौ राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए और कुछ महत्वपूर्ण उपचुनाव हुए, जिनसे 2019 के राजनीतिक फॉर्मूलों की तस्वीर साफ हुई। राज्यसभा के चुनावों ने उच्च सदन में कांग्रेस के बचे-खुचे वर्चस्व को खत्म कर दिया। सदन के उप-सभापति के चुनाव में विरोधी दलों की एकता को एक बड़े झटके का सामना करना पड़ा। राजनीतिक गतिविधियों के बीच न्यायपालिका के कुछ प्रसंगों ने इस साल ध्यान खींचा। हाईकोर्ट जजों की नियुक्ति, ट्रिपल तलाक, आधार की अनिवार्यता, समलैंगिकता  को अपराध के बाहर करना, जज लोया, अयोध्या में मंदिर और राफेल विमान सौदे से जुड़े मामलों के कारण न्यायपालिका पूरे साल खबरों में रही। असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) को लेकर अदालत में और उसके बाहर भी गहमागहमी रही और अभी चलेगी।

Monday, December 31, 2018

उम्मीदों और अंदेशों से घिरा साल

http://inextepaper.jagran.com/1959798/Kanpur-Hindi-ePaper,-Kanpur-Hindi-Newspaper-InextLive/31-12-18#page/8/1
राजनीतिक दृष्टि से यह कांग्रेस की आंशिक वापसी और बीजेपी के आंशिक पराभव का साल था. न तो यह कांग्रेस को पूरी विजय देकर गया और न बीजेपी को स्थायी पराजय. अलबत्ता इस साल जो भी हुआ, उसे 2019 के संकेतक के रूप में देखा जा रहा है. हमारे जीवन पर राजनीति हावी है, इसलिए हम सामाजिक-सांस्कृतिक प्रश्नों पर ध्यान कम दे पाते हैं. यह साल गोरक्षा के नाम पर हुई बर्बरता और ‘मीटू आंदोलन’ के लिए याद रखा जाएगा. दोनों बातें हमारे अंतर्विरोधों पर रोशनी डालती हैं. यौन-शोषण की काफी कहानियाँ झूठी होती हैं, पर ज्यादा बड़ा सच है कि काफी कहानियाँ सामने नहीं आतीं. इस आंदोलन ने स्त्रियों को साहस दिया है.

हाल के वर्षों में हमारी अदालतों ने कुछ महत्वपूर्ण फैसले किए, जिनके सामाजिक निहितार्थ हैं. पिछले साल ‘प्राइवेसी’ को व्यक्ति का मौलिक अधिकार माना गया. दया मृत्यु के अधिकार को लेकर एक और फैसला हुआ था, जिसने जीवन के बुनियादी सवालों को छुआ. इस साल हादिया मामले में जीवन साथी को चुनने के अधिकार पर महत्वपूर्ण आया. धारा 377 के बारे में फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा, इतने साल तक समान अधिकार से वंचित करने के लिए समाज को एलजीबीटी समुदाय से माफी माँगनी चाहिए. 

Sunday, December 30, 2018

2019 की राजनीतिक प्रस्तावना

गुजर रहा साल 2018 भारतीय राजनीति के दृष्टिकोण से सेमी-फाइनल वर्ष था। अब हम फाइनल वर्ष में प्रवेश करने जा रहे हैं। अगला साल कुछ बातों को स्थायी रूप से परिभाषित करेगा। राजनीतिक स्थिरता आई तो देश आर्थिक स्थिरता की राह भी पकड़ेगा। जीडीपी की दरें धीरे-धीरे सुधर रहीं हैं, पर बैंकों की हालत खराब होने से पूँजी निवेश की स्थिति अच्छी नहीं है। सार्वजनिक क्षेत्र के सात बैंकों में सरकार पुनर्पूंजीकरण बांड के जरिए 28,615 करोड़ रुपये की पूंजी डाल रही है। इस तरह वे रिजर्व बैंक की त्वरित सुधारात्मक कार्रवाई (पीसीए) रूपरेखा से बाहर निकलेंगे और फिर से कर्ज बांटने लायक हो जाएंगे।
चुनाव की वजह से सरकार को लोकलुभावन कार्यक्रमों के लिए धनराशि चाहिए। राजस्व घाटा अनुमान से ज्यादा होने वाला है। जीएसटी संग्रह अनुमान से 40 फीसदी कम है। इसमें छूट देने से और कमी आएगी। केंद्र सरकार लोकसभा चुनावों से पहले किसानों के कल्याण के लिए कुछ बड़ी योजनाओं का ऐलान करेगी। हालांकि वह कर्ज माफी और सीधे किसानों के खाते में रकम डालने जैसी योजनाओं के पक्ष में नहीं हैं, पर खर्चे बढ़ेंगे। राजनीतिक और आर्थिक मोर्चों के बीच संतुलन बैठाने की चुनौती सरकार के सामने है। 

Saturday, December 29, 2018

गठबंधन का महा-गणित


http://epaper.navodayatimes.in/1957596/Navodaya-Times-Main/Navodaya-Times-Main#page/8/1
देश में गठबंधन राजनीति के बीज 1967 से पहले ही पड़ चुके थे, पर केन्द्र में उसका पहला तजुरबा 1977 में हुआ। फिर 1989 से लेकर अबतक इस दिशा में लगातार प्रयोग हो रहे हैं और लगता है कि 2019 का चुनाव गठबंधन राजनीति के प्रयोगों के लिए भी याद रखा जाएगा। सबसे ज्यादा रोचक होंगे, चुनाव-पूर्व और चुनाव-पश्चात इसमें आने वाले बदलाव। तीसरे मोर्चे या थर्ड फ्रंट का जिक्र पिछले चार दशक से बार-बार हो रहा है, पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि यह पूरी तरह बन गया हो और ऐसा भी कभी नहीं हुआ कि इसे बनाने की प्रक्रिया में रुकावट आई हो। फर्क केवल एक आया है। पहले इसमें एक भागीदार जनसंघ (और बाद में भाजपा) हुआ करता था। अब उसकी जगह कांग्रेस ने ले ली है। यानी तब मोर्चा कांग्रेस के खिलाफ होता था, अब बीजेपी के खिलाफ है। फिलहाल सवाल यह है कि गठबंधन होगा या नहीं? और हुआ तो एक होगा या दो?  

पिछले तीन दशक से इस फ्रंट के बीच से एक नारा और सुनाई पड़ता है। वह है गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस गठबंधन का। इस वक्त गैर-भाजपा महागठबंधन और गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस संघीय मोर्चे दोनों की बातें सुनाई पड़ रहीं हैं। अभी बना कुछ भी नहीं है और हो सकता है राष्ट्रीय स्तर पर एनडीए और यूपीए के अलावा कोई तीसरा गठबंधन राष्ट्रीय स्तर पर बने ही नहीं। अलबत्ता क्षेत्रीय स्तर पर अनेक गठबंधनों की सम्भावनाएं इस वक्त तलाशी जा रहीं हैं। साथ ही एनडीए और यूपीए के घटक दलों की गतिविधियाँ भी बढ़ रहीं हैं। सीट वितरण का जोड़-घटाना लगने लगा है और उसके कारण पैदा हो रही विसंगतियाँ सामने आने लगी हैं। कुछ दलों को लगता है कि हमारी हैसियत अब बेहतर हुई है, इसलिए यही मौका है दबाव बना लो, जैसाकि हाल में लोजपा ने किया।  

Monday, December 24, 2018

राजनीतिक अखाड़े में कर्ज-माफी

इस बारे में दो राय नहीं हैं कि देश के ग्रामीण क्षेत्रों में दशा खराब है, यह भी सच है कि बड़ी संख्या में किसानों को आत्महत्या करनी पड़ रही है, पर यह भी सच है कि इन समस्याओं का कोई जादुई समाधान किसी ने पेश नहीं किया है। इसकी वजह यह है कि इस संकट के कारण कई तरह के हैं। खेती के संसाधन महंगे हुए हैं, फसल के दाम सही नहीं मिलते, विपणन, भंडारण, परिवहन जैसी तमाम समस्याएं हैं। मौसम की मार हो तो किसान का मददगार कोई नहीं, सिंचाई के लिए पानी नहीं, बीज और खाद की जरूरत पूरी नहीं होती।

नब्बे के दशक में आर्थिक उदारीकरण के बाद से खासतौर से समस्या बढ़ी है। अचानक नीतियों में बदलाव आया। कई तरह की सब्सिडी खत्म हुई, विदेशी कम्पनियों का आगमन हुआ, खेती पर न तो पर्याप्त पूँजी निवेश हुआ और तेज तकनीकी रूपांतरण। वामपंथी अर्थशास्त्री सारा देश वैश्वीकरण के मत्थे मारते हैं, वहीं वैश्वीकरण समर्थक मानते हैं कि देश में आर्थिक सुधार का काम अधूरा है। देश का तीन चौथाई इलाका खेती से जुड़ा हुआ था। स्वाभाविक रूप से इन बातों से ग्रामीण जीवन प्रभावित हुआ। राष्ट्रीय अर्थ-व्यवस्था में अचानक खेती की हिस्सेदारी कम होने लगी। ऐसे में किसानों की आत्महत्या की खबरें मिलने लगीं।