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Wednesday, May 16, 2018

हाथी निकला, पूँछ रह गई

टी-20 क्रिकेट की तरह आखिरी ओवर में कहानी बदल गई. कर्नाटक के चुनाव परिणाम जब क्लाइमैक्स पर पहुँच रहे थे तभी उलट-फेर हो गया. बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनने में तो सफल हो गई, पर बहुमत से पाँच छह सीटें दूर रहने की वजह से पिछड़ गई. उसके पास कोई विकल्प नहीं बचा. पहले से अनुमान था जेडीएस किंगमेकरबनेगी. अब कोई पेच पैदा नहीं हुआ तो एचडी कुमारस्वामी के नेतृत्व में कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनेगी. कुमारस्वामी ने अपना दावा भी पेश कर दिया है. उधर येदियुरप्पा का भी दावा है. राज्यपाल के पास सबसे बड़े दल को बुलाने का विकल्प है, पर कुमारस्वामी बहुमत दिखा रहे हैं, तो सम्भव है कि उन्हें ही बुलाया जाए.  

Wednesday, May 9, 2018

संशय में कर्नाटक का मुस्लिम वोट


कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में लिंगायत और वोक्कालिगा वोट के अलावा जिस बड़े वोट आधार पर विश्लेषकों की निगाहें हैं, वह है मुसलमान। मुसलमान किसके साथ जाएगा? अलीगढ़ में जब मुहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर को लेकर घमासान मचा है, उसी वक्त कर्नाटक में कांग्रेस यह साबित करने की कोशिश में है कि वह मुसलमानों की सच्चे हितैषी है। पर कांग्रेस इस वोट को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं है। उसे डर है कि मुसलमानों का वोट कहीं बँट न जाए। इस वोट को लेकर उसका मुकाबला एचडी देवेगौडा की जेडीएस से है। कर्नाटक की सभाओं में राहुल गांधी मुसलमानों से कह रहे हैं कि जेडीएस बीजेपी की बी टीम है, उससे बचकर रहना।
कर्नाटक में दलित और मुस्लिम वोट कुल मिलाकर 30 फीसदी के आसपास है। इसमें 13-14 फीसदी वोट मुसलमानों का है। जेडीएस ने मायावती की बहुजन समाज पार्टी और असदुद्दीन ओवेसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के साथ गठबंधन किया है। सवाल है कि क्या जेडीएस इस वोट बैंक का लाभ उठा पाएगी?

Thursday, May 3, 2018

सामाजिक-टकराव के दौर में पत्रकारिता

मई की महीना वैश्विक और हिन्दी-पत्रकारिता की दो तारीखों के लिए याद किया जाता है. हर साल 3 मई को दुनिया प्रेस-फ्रीडम डे मनाती है. और 30 मई को हम हिन्दी पत्रकारिता दिवस मनाते हैं. मौका है कि हम अपने बारे में बात करें. वैश्विक-पत्रकारिता विसंगतियों से गुज़र रही है. संचार-तकनीक में क्रांतिकारी बदलाव आया है. सोशल मीडिया ने सबको अपनी बात कहने का मौका दिया है. वहीं फेक-न्यूज़ ने मीडिया के नकारात्मक पहलू को उजागर किया है. हाल में टाइम्स ऑफ इंडिया एमडी विनीत जैन ने फेक-न्यूज़ को लेकर कई ट्वीट किए.

फेक-न्यूज़ पर चर्चा चल ही रही थी कि किसी ने टाइम्स ऑफ इंडिया की एक खबर की हैडलाइन को नकारात्मक अर्थों में बदल कर सोशल मीडिया पर चला दिया. विनीत जैन ने इस छेड़छाड़ के मास्टर-माइंड को खोज निकालने की घोषणा की है. शायद वे सफल हो जाएं, पर इससे फेक-न्यूज़ का खतरा खत्म नहीं होगा. पिछले चार सौ साल में पत्रकारिता और लोकतंत्र का साथ-साथ विकास हुआ है. दोनों एक-दूसरे पूरक हैं. 

Tuesday, April 24, 2018

न्यायिक-मर्यादा पर हावी होती राजनीति

जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ विपक्ष के महाभियोग प्रस्ताव के नोटिस को उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने खारिज कर दिया है, पर यह विवाद जल्द ही खत्म नहीं होगा. पिछले हफ्ते के घटनाक्रम ने हमारी न्याय-व्यवस्था को धक्का पहुँचाया है. कपिल सिब्बल ने रविवार को कहा था कि उप राष्ट्रपति इस नोटिस को खारिज नहीं कर पाएंगे, क्योंकि इसका उन्हें अधिकार नहीं है. उनके अनुसार सदन के सभापति को तीन सदस्यों वाली एक जाँच समिति बनानी चाहिए, जिसकी राय मिलने के बाद इस प्रस्ताव पर विचार करने या उसे खारिज करने का फैसला होना चाहिए. यह बात उन्होंने राजनीतिक-पेशबंदी में कही थी, या विधिवेत्ता के रूप में, कहना मुश्किल है. विडंबना है कि दोनों के बीच विभाजक रेखा बहुत महीन रह गई है. यह बात दोनों राजनीतिक पक्षों के लिए कही जा सकती है. 

बहरहाल उप राष्ट्रपति ने इस नोटिस को पहले चरण पर ही अस्वीकार कर दिया है, इसलिए सम्बद्ध दूसरा पक्ष अब सुप्रीम कोर्ट जा सकता है. वह उप राष्ट्रपति के अधिकार को चुनौती देगा. कांग्रेस के प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा है कि उप राष्ट्रपति को इस प्रस्ताव पर फैसला करने का अधिकार नहीं है. ज़ाहिर है कि अब इस प्रक्रिया में कुछ समय लगेगा. कुछ नए सवाल भी खड़े होंगे. जितनी तेजी से उप राष्ट्रपति ने फैसला किया है, उससे लगता है कि सत्तारूढ़ दल ने पेशबंदी कर ली है. यह भी साफ है कि अब यह सीधे कांग्रेस और बीजेपी के बीच टकराव का मामला बन गया है. शुद्ध न्यायिक मसला नहीं रह गया, जिसका दावा कांग्रेस कर रही है.  

Monday, April 16, 2018

राजनीति के छींटे, कावेरी से आईपीएल तक

कावेरी नदी के पानी को लेकर तमिलनाडु में घमासान मचा है. आंदोलनकारियों ने आईपीएल मैचों को राज्य से बाहर खदेड़ दिया है. गुरुवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब रक्षा उत्पादों की प्रदर्शनी डेफ-एक्सपो का उद्घाटन करने चेन्नई पहुँचे तो उन्हें काले झंडे दिखाए गए. पानी के बंटवारे को लेकर पहले भी हिंसा होती रही है. ऐसी ही जवाबी हिंसा पड़ोसी राज्य कर्नाटक में भी होती रही है. यह हिंसा कई बार इतना खराब रूप धारण कर लेती है कि दो राज्यों के निवासी शत्रु-देशों जैसा बर्ताव करने लगते हैं. इस आँच में दोनों राज्यों की राजनीति रोटियाँ सेंकने लगती है. इसबार भी ऐसा ही हो रहा है. आंदोलनकारियों ने क्रिकेट को जिस तरह निशाना बनाया, उससे यह भी पता लगता है कि जीवन के नए क्षेत्रों में इसका प्रवेश होने जा रहा है.
करीब सवा सौ साल पुरानी इस समस्या का समाधान हमारी राजनीतिक-प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था खोज नहीं पाई है. इसमें किसका दोष है? देश के अनेक राज्य ऐसी समस्याओं से जूझ रहे हैं. कावेरी–विवाद इस बात को भी रेखांकित कर रहा है कि हमें पानी की समस्या के बेहतर समाधान के बारे में सोचना चाहिए. केवल बेहतर वितरण पानी की तंगी का स्थायी समाधान नहीं है. हमें विज्ञान-तकनीक और प्रबंधन के दूसरे तरीकों पर विचार करना चाहिए. पानी से सदुपयोग का रास्ता इस मसले से जुड़े राज्यों के आपसी सहयोग से निकलेगा, न कि टकराव से.  
मामले को भड़काने में तमिलनाडु सरकार की भूमिका भी रही है. आईपीएल मैचों की जगह बदलने की जरूरत इसलिए पैदा की गई ताकि देश का ध्यान इस तरफ जाए. सुप्रीम कोर्ट ने हाल में अंतरिम आदेश देते वक्त तमिलनाडु सरकार से कहा था कि जबतक अदालत इस मामले में कोई अंतिम फैसला नहीं कर लेती, तबतक राज्य में कानून-व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी उसकी है. मुख्य न्यायाधीश ने तमिलनाडु के वकील से कहा था कि 3 मई तक केन्द्र सरकार जल-वितरण की स्कीम तैयार करके देगी. तबतक जन-जीवन सामान्य बनाए रखने की जिम्मेदारी आपकी है.

Monday, March 19, 2018

क्षेत्रीय क्षत्रपों की राष्ट्रीय आकांक्षाएं

बीजेपी की राजनीति का पहला निशाना कांग्रेस है और कांग्रेस का पहला निशाना बीजेपी है. दोनों पार्टियों के निशान पर क्षेत्रीय पार्टियाँ नहीं हैं, बल्कि दोनों की दिलचस्पी क्षेत्रीय दलों से गठजोड़ की है. इसके विपरीत क्षेत्रीय दलों की दिलचस्पी राष्ट्रीय दलों को पीछे धकेलकर केन्द्र की राजनीति में प्रवेश करने की है. देश में क्षेत्रीय राजनीति का उदय 1967 में कांग्रेस की पराजय के साथ हुआ था. इस परिघटना के तीन दशक बाद जबतक बीजेपी का उदय नहीं हुआ, राष्ट्रीय पार्टी सिर्फ कांग्रेस थी. सन 2004 तक एनडीए और उसके बाद यूपीए और फिर एनडीए सरकार के बनने से ऐसा लगा कि राष्ट्रीय जनाधार वाले दो दल हमारे बीच हैं. पर, अब कांग्रेस के निरंतर पराभव से अंदेशा पैदा होने लगा है कि उसकी राष्ट्रीय पहचान कायम रह भी पाएगी या नहीं. उत्तर प्रदेश और बिहार में हिन्दी इलाके की राजनीति विराजती है, जो राष्ट्रीय राजनीति की धुरी है. दोनों राज्यों से कांग्रेस का सफाया हो चुका है.

हाल की घटनाओं पर नजर डालें तो दो बातें नजर आ रहीं है. एक, बीजेपी ने पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत में पैर पसारने की कोशिश की है. दूसरे दक्षिणी राज्यों समेत देश के दूसरे इलाकों की राजनीति केन्द्र की तरफ बढ़ रही है. तेलुगु देशम ने मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का बिगुल बजाकर केवल आंध्र के आर्थिक सवाल को ही नहीं उठाया है, बल्कि चंद्रबाबू नायडू की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं को भी उजागर किया है. इस अविश्वास प्रस्ताव से सरकार गिरेगी नहीं, पर क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं को सामने आने का मौका जरूर मिला है.

Saturday, February 17, 2018

राफेल पर गैर-वाजिब राजनीति

पिछले कुछ समय से कांग्रेस पार्टी राफेल विमान के सौदे को लेकर सवाल उठा रही है. वह मतदाता को मन में संशय के बीज बोकर राजनीतिक लाभ उठाना चाहती है. बेशक राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मसलों पर सवाल उठाइए, पर उसकी बुनियादी वजह को भी बताइए. सन 2001 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने 126 विमान खरीदने का फैसला किया था. इस फैसले को लागू करने की प्रक्रिया 2007 से शुरू हुई और 2012 में तय हुआ कि दासो का राफेल विमान खरीदा जाए. पर यूपीए सरकार ने समझौता नहीं किया. क्यों नहीं किया, यह कांग्रेस को बताना चाहिए.
यह सौदा दो देशों की सरकारों के बीच हुआ है, इसलिए इसमें बिचौलियों के कमीशन वगैरह का मसला नहीं है. कांग्रेस का कहना है कि यूपीए ने जो समझौता किया था, उसमें कीमत कम थी. अब ज्यादा है. मूल कार्यक्रम बदल चुका है. अब 126 के बजाय केवल 36 विमान जरूर खरीदे जा रहे हैं. पर विमानों के पूरे उपकरण और लम्बी अवधि का रख-रखाव भी इसमें शामिल है. यूपीए सरकार जिस समझौते को करना चाहती थी, उसमें केवल 18 विमान फ्रांस से आने थे. शेष 108 विमान भारत में ही बनने थे. वे फ्लाई अवे विमान थे, उनमें लाइफ साइकिल कॉस्ट शामिल नहीं थी.

Sunday, February 11, 2018

पाकिस्तानी सेना को अर्दब में लेना जरूरी

यह आलेख 10 फरवरी के inext में प्रकाशित हुआ था और इसमें जम्मू-कश्मीर के सुंजवान सैनिक शिविर पर हुए हमले का विवरण नहीं है. पिछले कुछ साल से हमले बढ़े हैं और दूसरी ओर भारतीय राजनीति में कश्मीर के घटनाक्रम को राजनीतिक नजरिए से देखने की प्रवृत्ति भी बढ़ी है. इसकी एक झलक जम्मू-कश्मीर विधानसभा में लगाए गए 'पाकिस्तान जिन्दाबाद' के नारे से मिलती है. जिस पार्टी के सदस्य ने ये नारे लगाए, उसके नेता फारुक अब्दुल्ला ने दूसरी तरफ पाकिस्तान को खरी-खोटी भी सुनाई है. बहरहाल पाकिस्तानी 'डीप स्टेट' योजनाबद्ध तरीके से हिंसा की मदद से कश्मीर समस्या का समाधान करने की कोशिश कर रही है. भारतीय राष्ट्र-राज्य के बरक्स इस तरीके से समस्या का समाधान नहीं हो सकता, पर इन तरीकों से वह आग सुलगती रह सकती है, जो 1947 में लगाई गई थी. बहरहाल हमें इस समस्या के दूरगामी हल और फौरी कदमों के बारे में सोचना चाहिए.  

हाल में जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर हुई गोलाबारी में चार भारतीय सैनिकों की मौत को लेकर पूरा देश बेचैन है. गोलाबारी लगातार बढ़ती जा रही है. सरकारी सूत्रों के अनुसार सन 2017 में 860 बार सीमा का उल्लंघन हुआ है. यह संख्या 2015 में 152 और 2016 में 228 की थी. पर इस बार अकेले जनवरी के महीने में ही ढाई सौ से ज्यादा बार उल्लंघन हो चुका है. बेशक यह खूँरेजी दुर्भाग्यपूर्ण है और इसमें मरने वालों में बड़ी संख्या सीमा के दोनों ओर रहने वाले निर्दोष नागरिकों की है. मौतों के अलावा खेत-खलिहान तबाह होते हैं. इसलिए दोनों देशों की जिम्मेदारी है कि इसे रोका जाए.
जैसी गोलाबारी इन दिनों हो रही है, लगभग वैसे ही हालात सन 2003 के पहले पैदा हो गए थे. 13 दिसम्बर 2001 को भारतीय संसद पर हमले के बाद यह गोलाबारी चरम पर पहुँच गई थी. सीमा के दोनों ओर रहने वालों की जीवन नर्क बन गया था और जन-जीवन ठप पड़ गया था. दोनों देशों की सरकारों को उस वक्त मिलकर गोलाबारी रोकने की बात ठीक लगी और 2003 में समझौता हुआ. उस वक्त पाकिस्तान में जनरल परवेज मुशर्रफ सर्वेसर्वा थे, इसलिए वह समझौता लागू हो गया. सन 2008 में मुशर्रफ के हटते-हटते मुम्बई कांड हो गया.  पाकिस्तान में बैठी कोई ताकत समाधान नहीं होने देना चाहती.

Friday, February 2, 2018

चुनावी बजट, जिसके पीछे महत्वाकांक्षा भी है

चुनाव से पहले मोदी सरकार के आखिरी बजट में गाँवों-किसानों और गरीबों के लिए कुछ खुश-खबरियाँ हैं. निश्चित रूप से यह चुनाव-बजट है, पर इसका दायरा बहुत व्यापक है. देश के 10 करोड़ गरीब परिवारों को दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य सुरक्षा देने का वायदा भारत सरकार ने किया है. इस स्वास्थ्य-इंश्योरेंस के साथ देश के गरीबों का स्वास्थ्य ही नहीं, स्वास्थ्य प्रणाली की गतिशीलता भी जुड़ी है. हैल्थ-सेक्टर के साथ रोजगार भी जुड़े हुए हैं. अब गरीब परिवारों को सरकारी अस्पतालों को सुविधा नहीं मिलेगी तो वे प्राइवेट अस्पतालों में जाकर इलाज करा सकेंगे. मोटे तौर पर इसके दायरे में करीब 50 करोड़ लोग आएंगे. हालांकि आलोचकों ने कहा है कि इस बजट में इस मद में केवल 2000 करोड़ रुपए ही रखे गए हैं. इस बात से इस कार्यक्रम की निरर्थकता साबित नहीं होती. इसका कार्यक्रम बनते-बनते छह महीने लगेंगे. एकबार यह कार्यक्रम लागू हो गया तो वह भविष्य के रास्ते खोलेगा. देश के कई राज्यों में ऐसे कार्यक्रम चल रहे हैं. इसके लिए साधन जुटाते समय केन्द्र-राज्य 60+40 का फॉर्मूला भी लागू होगा. इसे आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता. 
इसे मोदी सरकार का ड्रीम-इलेक्शन बजट कह सकते हैं. बावजूद इसके कि इसमें सरकारी खजाना खोला नहीं गया है. चालू वित्त वर्ष की विपरीत परिस्थितियों के बावजूद राजकोषीय घाटा जीडीपी के 3.5 फीसदी पर रहा. खासतौर से यह देखते हुए कि जीएसटी के कारण अप्रत्यक्ष करों की वसूली 11 महीने की है. अगले साल के लिए राजकोषीय घाटे का लक्ष्य 3.3 फीसदी रखा गया है. चूंकि आने वाले वक्त में संवृद्धि की दर बढ़ने की आशा है, इसलिए राजस्व के लक्ष्य भी पूरे होंगे. चालू वित्त वर्ष में प्रत्यक्ष करों में 18.7 फीसदी की वृद्धि हुई है. कर-दाताओं की संख्या और धनराशि दोनों में वृद्धि बता रही है कि अर्थ-व्यवस्था का रुझान सकारात्मक है. इस साल सरकार ने विनिवेश से 80,000 करोड़ हासिल करने का लक्ष्य भी रखा है. बजट की महीन पंक्तियों के बीच काफी बातें छिपी हैं, जिनके निहितार्थ व्यापक है.

Monday, January 29, 2018

बजट के केंद्र में होगा गाँव और गरीब

संसद के बजट सत्र का कार्यक्रम घोषित होते ही पहला सवाल ज़ेहन में आता है कि कैसा होगा इस साल का बजट? अगले लोकसभा चुनाव के पहले सरकार का यह आखिरी बजट होगा. पिछले साल का बजट ऐसे दौर में आया था, जब देश कैशलैश अर्थ-व्यवस्था की ओर कदम बढ़ा रहा था. नोटबंदी के कारण अर्थ-व्यवस्था की गति धीमी पड़ रही थी और सरकार जीएसटी के लिए तैयार हो रही थी. अब अर्थ-व्यवस्था ने सिर उठाना शुरू कर दिया है. क्या यह बजट इस बात का इशारा करेगा?  
बजट सत्र राष्ट्रपति के अभिभाषण से 29 जनवरी को शुरू होगा और उसी दिन आर्थिक सर्वेक्षण पेश किया जाएगा. यह दस्तावेज बताता अर्थ-व्यवस्था की सेहत कैसी है. केंद्रीय बजट में राज्यों के लिए भी कुछ संकेत होते हैं. केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी 14वें वित्तीय आयोग की संस्तुतियों के आधार पर बढ़ गई है. सन 2014-15 में राज्यों को जीडीपी के प्रतशत के रूप में 2.7 फीसदी की हिस्सेदारी मिल रही थी, जो पिछले साल के बजट अनुमानों में 6.4 फीसदी हो गई थी. केंद्रीय राजस्व में वृद्धि राज्यों के स्वास्थ्य के लिए अच्छी खबर होती है. जीएसटी के कारण अप्रत्यक्ष करों और नोटबंदी के कारण प्रत्यक्ष करों में किस दर से वृद्धि हुई है, इसका पता अब लगेगा.

Friday, January 19, 2018

हज सब्सिडी का राजनीतिकरण न करें

भारत सरकार ने हज सब्सिडी खत्म करने का जो फैसला किया है, वह अनायास नहीं हुआ. इसके लिए मई 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिए थे. उसके पहले से भी यह बहस चल रही थी कि यह सब्सिडी धार्मिक रूप से उचित है भी या नहीं. मुसलमानों के ज्यादातर बड़े नेताओं ने इसे खत्म करने का समर्थन किया है. अलबत्ता धार्मिक तुष्टीकरण को लेकर बहस फिर से शुरू हो गई है. कहा जा रहा है कि बीजेपी ने अपने मतदाताओं को इस फैसले के मार्फत कोई संदेश दिया है.
जमीनी सच यह है कि हिन्दुओं और मुसलमानों को एक-दूसरे के धार्मिक रीति-रिवाजों को लेकर कोई आपत्ति नहीं है. आपत्तियाँ धार्मिक मसलों के राजनीतिकरण को लेकर हैं. हज यात्रा में सुधारों पर पिछले एक साल से विचार चल रहा है. पिछले साल बनी एक कमेटी की रिपोर्ट के संदर्भ में यह फैसला हुआ है. अल्पसंख्यक मामलों के केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नक़वी के अनुसार इस साल 1.75 लाख मुसलमान बिना सब्सिडी के हज यात्रा करेंगे. पिछले साल 1.25 लाख लोग गए थे. हाल में सऊदी अरब सरकार ने भारत से हज यात्रा पर आने वालों के कोटे में वृद्धि भी की है.

Monday, January 15, 2018

राष्ट्रीय एकीकरण की धुरी भी है हमारी सेना

आज हम 70वाँ सेना दिवस मना रहे हैं. सन 1949 में 15 जनवरी को सेना के पहले भारतीय कमांडर-इन-चीफ लेफ्टिनेंट जनरल केएम करियप्पा ने आखिरी ब्रिटिश सी-इन-सी जनरल सर फ्रांसिस बूचर से कार्यभार संभाला था. सेना दिवस मनाने के पीछे केवल इतनी सी बात नहीं है कि भारतीय जनरल ने अंग्रेज जनरल के हाथों से कमान अपने हाथ में ले ली. देश स्वतंत्र हुआ था, तो यह कमान भी हमें मिलनी थी. महत्वपूर्ण था भारतीय सेना की भूमिका में बदलाव. 
अंग्रेजी शासन की सेना और स्वतंत्र भारत की सेना में गुणात्मक अंतर है. इस बदलाव को हमें देखना चाहिए. सेना केवल देश की रक्षा ही नहीं करती, बल्कि जीवन और समाज में भी उसकी भूमिका है. इस सेना की एक बड़ी विशेषता है, इसकी अ-राजनीतिक प्रकृति. तीसरी दुनिया के ज्यादातर देशों की सेनाओं की राजनीतिक भूमिका रही है. वे सत्ता चाहती हैं. हमारी सेना पूरी तरह अ-राजनीतिक है. अपने आप में यह विविध-विशाल भारत का लघु रूप है. यह देश की धार्मिक, जातीय और भाषागत विविधता का कुशलता और सफलता के साथ समन्वय करती है.  

Monday, January 8, 2018

टकराव के मुहाने पर असम

असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का मामला विवादों से घिरता जा रहा है. इसे लेकर राज्य में ही नहीं, पूरे देश में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण बढ़ रहा है. इस मामले की छाया 2019 के चुनावों पर भी पड़ेगी. इधर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की एक टिप्पणी ने आग में घी का काम किया है. असम पुलिस ने गुरुवार को उनके खिलाफ एफआईआर भी दर्ज की है, जिससे मामले ने दो राज्यों के बीच की राजनीतिक जंग का रूप भी ले लिया है.

ममता बनर्जी ने आरोप लगाया था कि असम में एनआरसी अपडेट के बहाने केंद्र सरकार वहां से बंगालियों को बाहर निकालने की साजिश रच रही है. इस टिप्पणी के बाद दोनों राज्यों में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं और इसकी गूँज संसद में भी सुनाई पड़ी है. ममता बनर्जी के बयान में बंगालियों की तरफदारी से ज्यादा मुसलमानों की पीड़ा है. उनके बयान को लेकर बीजेपी की बंगाल शाखा ने ममता पर यह कहकर हमला बोला है कि वे पश्चिम बंगाल को जिहादियों की पनाहगाह बना रही हैं.

Wednesday, January 3, 2018

दक्षिण में रजनीकांत का उदय

तमिल सिनेमा के सुपरस्टार रजनीकांत ने अपने वायदे के अनुसार साल के आखिरी दिन राजनीति में आने की घोषणा कर दी. उनकी पार्टी की रूपरेखा, विचारधारा और तौर-तरीकों का पता अब आने वाले दिनों में लगेगा, पर इतना तय है कि तमिलनाडु आने वाले वक्त की राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा. अभी हमें दूसरे सुपरस्टार कमलहासन की राजनीति का इंतज़ार भी करना होगा. इन दोनों गतिविधियों के बरक्स परम्परागत द्रविड़ राजनीति यानी डीएमके और एआईडीएमके के घटनाचक्र पर भी गौर करना होगा.
जिस तरह से उत्तर भारत में ओबीसी राजनीति उतार पर है, उसी तरह तमिलनाडु में 60 साल से प्रभावी द्रविड़-राजनीति ढलान पर है. उसके स्थान पर रजनीकांत हिन्दू रूपकों को वापस लेकर आ रहे हैं. रविवार को उन्होंने कई बार भगवत गीता के उद्धरण दिए और कहा, हमारी आध्यात्मिक राजनीति होगी. द्रविड़-राजनीति ने धार्मिक प्रतीकों का उपहास उड़ाया था. वह 60 साल तक सफल भी रही. उस राजनीति के भीतर से दूसरी द्रविड़ राजनीति भी निकली. पर एमजी रामचंद्रन से लेकर जयललिता तक किसी ने आध्यात्मिक राजनीति का दावा नहीं किया.

Monday, January 1, 2018

2017 में भी कायम रहा मोदी का रसूख

घरेलू राजनीति, सांस्कृतिक टकरावों, आर्थिक उतार-चढ़ाव और विदेश नीति के गूढ़-प्रश्नों के लिहाज से यह साल कुछ बड़े सबक देकर जा रहा है. पिछले डेढ़-दो साल से अर्थ-व्यवस्था में नजर आने वाला गिरावट का रुख थमा जरूर है, पर नाव अभी डगमग है. शायद जीएसटी के पेच आने वाले साल में कम हो जाएंगे. गुजरात के चुनावों का सबक लेकर सरकार आने वाले वर्ष में गाँवों और किसानों के लिए कुछ बड़ी घोषणाएं करेगी. दूसरी ओर सरकार के ऊपर राजकोषीय घाटे को काबू में रखने का दबाव भी है. इसलिए परीक्षा की घड़ी है.
राष्ट्रीय राजनीति के संकेतक बता रहे हैं कि नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता फिर भी बदस्तूर है. दूसरी ओर उनके प्रतिस्पर्धी के रूप में राहुल गांधी कमर कस रहे हैं. अब अगला मुकाबला मार्च-अप्रेल में कर्नाटक में है. इस साल मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी विधानसभा चुनाव हैं. इसलिए बीजेपी और कांग्रेस को दम-खम परखने के कई मौके मिलेंगे. नरेन्द्र मोदी को सत्ता संभाले साढ़े तीन साल से ज्यादा का वक्त हो चुका है, पर लोगों का भरोसा अभी कायम है. प्यू रिसर्च सेंटर के इस साल के सर्वे का निष्कर्ष है कि 10 में से 9 भारतीय नरेंद्र मोदी के प्रति सकारात्मक राय रखते हैं, जबकि 2015 में यह 10 में से 7 का था.

Tuesday, December 19, 2017

बीजेपी ने गुजरात बचा तो लिया, पर...

गुजरात और हिमाचल के परिणामों से पहली बात यह साबित हुई कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता अभी कायम है और बीजेपी 2019 के चुनावों को अपनी मुट्ठी में रखने को कृतसंकल्प है. तमाम कोशिशों के बावजूद कांग्रेस पार्टी के लिए गुजरात सबसे बड़ा काँटा साबित हुआ है. राहुल गांधी के पदारोहण के बाद पहली खबर अच्छी नहीं आई है. उन्हें संतोष हो सकता है कि लम्बे अरसे बाद कांग्रेस ने एक ऐसे राज्य में अपनी स्थिति सुधारी है, जो बीजेपी का गढ़ माना जाता है. पर इस सुधार का श्रेय कांग्रेस पार्टी या संगठन को नहीं जाता. श्रेय जाता है हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी और अल्पेश ठाकोर की तिकड़ी को या गुजरात के ग्रामीण क्षेत्रों में किसानों के बीच बढ़ते असंतोष को.

Friday, December 8, 2017

स्थानीय निकाय चुनाव से तो साबित नहीं हुए ईवीएम-संदेह

इन दिनों उत्तर प्रदेश के शहरी निकायों के हाल में हुए चुनावों के राजनीतिक निहितार्थ खोजने की कोशिशें हो रहीं हैं. लम्बे अरसे तक पार्टियों के बीच इस बात पर सहमति रही है कि स्थानीय निकाय चुनावों को व्यक्तिगत आधार पर ही लड़ना चाहिए, क्योंकि उनके मुद्दे अलग होते हैं. निचले स्तर पर वोटर और जन-प्रतिनिधि के बीच दूरी कम होती है. इन परिणामों पर नजर डालें तो यह बात साफ नजर आती है. इसबार के चुनाव परिणाम इसलिए महत्वपूर्ण थे, क्योंकि यह माना गया कि इनसे योगी सरकार के बारे में वोटर की राय सामने आएगी. अलबत्ता इस चुनाव ने ईवीएम को लेकर खड़े किए संदेहों को पूरी तरह ध्वस्त किया है.

प्रदेश के राजनीतिक मिजाज की बात करें, तो प्रदेश के महानगरों के परिणाम बता रहे हैं कि बीजेपी की पकड़ कायम है, पर जैसे-जैसे नीचे जाते हैं वह कमजोर होती दिखाई पड़ती है. पर यह बीजेपी की कमजोरी नहीं है, बल्कि इस बात की पुष्टि है कि छोटे शहरों में राजनीतिक पहचान वैसी ही नहीं है, जैसी महानगरों में है.

Friday, November 24, 2017

राहुल के आने से क्या बदलेगी कांग्रेस?

अब जब राहुल गांधी का पार्टी अध्यक्ष बनना तय हो गया है, पहला सवाल जेहन में आता है कि इससे भारतीय राजनीति में क्या बड़ा बदलाव आएगा? क्या राहुल के पास वह दृष्टि, समझ और चमत्कार है, जो 133 साल पुरानी इस पार्टी को मटियामेट होने से बचा ले? पिछले 13 साल में राहुल की छवि बजाय बनने के बिगड़ी ज्यादा है. क्या वे अपनी छवि को बदल पाएंगे?
सितम्बर 2012 में प्रतिष्ठित ब्रिटिश पत्रिका इकोनॉमिस्ट ने द राहुल प्रॉब्लमशीर्षक आलेख में लिखा, उन्होंने नेता के तौर पर कोई योग्यता नहीं दिखाई है. वे मीडिया से बात नहीं करते, संसद में भी अपनी आवाज़ नहीं उठाते हैं. उन्हें प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी कैसे माना जाए? यह बात आज से पाँच साल पहले लिखी गई थी. इस बीच राहुल की विफलता-सूची और लम्बी हुई है.

Monday, November 20, 2017

खतरनाक हैं अभिव्यक्ति पर हमले

संजय लीला भंसाली की पद्मावती पहली फिल्म नहीं है, जो विवाद का विषय बनी हो. इस फिल्म का राजपूत संगठन विरोध कर रहे हैं. उनका कहना है कि इतिहास के साथ छेड़छाड़ कर फिल्म को बनाया गया है. फिल्मों, साहित्यिक कृतियों, नाटकों और अभिव्यक्ति के दूसरे माध्यमों का विरोध यदि शब्दों और विचारों तक सीमित रहे तो उसे स्वीकार किया जा सकता है. पर यदि विरोध में हिंसा का तत्व शामिल हो जाए, तो सोचना पड़ता है कि हम आधुनिकता की ओर बढ़ रहे हैं या पीछे जा रहे हैं. विरोध के इस तरीके के कारण फिल्म की ऐतिहासिकता का सवाल पीछे चला गया है. चिंता का विषय यह है कि जैसे-जैसे हम आधुनिक होते जा रहे हैं, हमारे तौर-तरीके मध्य युगीन होते जा रहे हैं. फ्रांस की कार्टून पत्रिका 'शार्ली एब्दो' पर हमला गलत था, तो इस हमले की धमकी भी गलत है. 

Wednesday, November 8, 2017

नोटबंदी के सभी पहलुओं को पढ़ना चाहिए


करेंट सा झटका 


इस साल अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार शिकागो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रिचर्ड एच थेलर को दिया गया है. उनका ज्यादातर काम सामान्य लोगों के आर्थिक फैसलों को लेकर है. अक्सर लोगों के फैसले आर्थिक सिद्धांत पर खरे नहीं होते. उन्हें रास्ता बताना पड़ता है. इसे अंग्रेजी में नज कहते हैं. इंगित या आश्वस्त करना. पिछले साल जब नरेन्द्र मोदी ने नोटबंदी की घोषणा की, तब प्रो थेलर ने इस कदम का स्वागत किया था. जब उन्हें पता लगा कि 2000 रुपये का नोट शुरू किया जा रहा है, तो उन्होंने कहा, यह गलत है. नोटबंदी को सही या गलत साबित करने वाले लोग इस बात के दोनों मतलब निकाल रहे हैं.


सौ साल पहले हुई बोल्शेविक क्रांति को लेकर आज भी अपने-अपने निष्कर्ष हैं.  वैसे ही निष्कर्ष नोटबंदी को लेकर हैं. वैश्विक इतिहास का यह अपने किस्म का सबसे बड़ा और जोखिमों के कारण सबसे बोल्ड फैसला था. अरुण शौरी कहते हैं कि बोल्ड फैसला आत्महत्या का भी होता है. पर यह आत्महत्या नहीं थी. हमारी अर्थव्यवस्था जीवित है. पचास दिन में हालात काबू में नहीं आए, पर आए.