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Sunday, March 22, 2020

कोरोना-युद्ध और राष्ट्रीय संकल्प


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से किए गए रविवार के 'जनता कर्फ्यू' के आह्वान का देश और विदेश में बड़ी संख्या में लोगों ने समर्थन किया है। इस अपील को राष्ट्रीय ‘संकल्प और संयम’ के रूप में देखा जा रहा है। करीब-करीब ऐसी ही अपीलें महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में की थीं। गांधी के चरखा यज्ञ की सामाजिक भूमिका पर आपने ध्यान दिया है? देशभर के लाखों लोग जब चरखा चलाते थे, तब कपड़ा बनाने के लिए सूत तैयार होता था साथ ही करोड़ों लोगों की ऊर्जा एकाकार होकर राष्ट्रीय ऊर्जा में तब्दील होती थी। ऐसी ही प्रतीकात्मकता का इस्तेमाल लाल बहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान, जय किसान’ के नारे के साथ किया था।  
यह एकता केवल संकटों का सामना करने के लिए ही नहीं चाहिए, बल्कि राष्ट्रीय निर्माण के लिए भी इसकी जरूरत है। स्वच्छ भारत और बेटी बचाओ जैसे अभियानों को राष्ट्रीय संकल्प के रूप में देखना चाहिए और रविवार के ‘जनता कर्फ्यू’ को भी। यह कार्यक्रम पूरे देश के संकल्प और मनोबल को प्रकट करेगा। प्रधानमंत्री के राष्ट्र के नाम संदेश के बाद ज्यादातर प्रतिक्रियाएं सकारात्मक रही हैं। इनमें शशि थरूर और पी चिदंबरम जैसे राजनेता, शेहला रशीद जैसी युवा नेता, सागरिका घोष, राजदीप सरदेसाई और ट्विंकल खन्ना जैसे पत्रकार और लेखक तथा शबाना आज़मी और महेश भट्ट जैसे सिनेकर्मी भी शामिल हैं, जो अक्सर मोदी के खिलाफ टिप्पणियाँ करते रहे हैं।

Sunday, March 15, 2020

अपनी बखिया उधेड़ती कांग्रेस


ज्योतिरादित्य सिंधिया के पलायन पर शुरुआती चुप्पी रखने के बाद गुरुवार को राहुल गांधी ने कहा, ज्योतिरादित्य भले ने अलग विचारधारा का दामन थाम लिया है, पर वास्तविकता यह है कि वहां उनको न सम्मान मिलेगा न संतोष मिलेगा। वे जल्द ही इसे समझ भी जाएंगे। राहुल ने एक और बात कही कि यह विचारधारा की लड़ाई है। सिंधिया को अपने राजनीतिक भविष्य का डर लग गया। इसीलिए उन्होंने अपनी विचारधारा को जेब में रख लिया और आरएसएस के साथ चले गए।
राहुल गांधी की इस बात से कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। पहला यह कि सिंधिया को कांग्रेस में कुछ मिलने वाला था नहीं। आने वाले खराब समय को देखते हुए उन्होंने पार्टी छोड़ दी। दूसरा यह कि कांग्रेस पार्टी विचारधारा की लड़ाई लड़ रही है। तीसरी बात उन्होंने यह कही कि बीजेपी में (भी) उन्हें सम्मान और संतोष नहीं मिलेगा। राहुल के इस बयान के अगले रोज ही भोपाल में ज्योतिरादित्य ने कहा, मैंने अतिथि विद्वानों की बात उठाई, मंदसौर में किसानों के ऊपर केस वापस लेने की बात उठाई। मैंने कहा कि अगर इनके मुद्दे पूरे नहीं हुए तो मुझे सड़क पर उतरना होगा, तो मुझसे कहा गया उतर जाओ। जब सिंधिया परिवार को ललकारा जाता है तो वह चुप नहीं रहता।

Sunday, March 8, 2020

संसदीय मर्यादा को बचाओ


गुरुवार को कांग्रेस के सात लोकसभा सदस्यों के निलंबन के बाद संसदीय मर्यादा को लेकर बहस एकबार फिर से शुरू हुई है। सातों सदस्यों को सदन का अनादर करने और ‘घोर कदाचार' के मामले में सत्र की शेष अवधि के लिए निलंबित किया गया है। इस निलंबन को कांग्रेस ने बदले की भावना से उठाया गया कदम करार दिया और दावा किया,यह फैसला लोकसभा अध्यक्ष का नहीं, बल्कि सरकार का है। जबकि पीठासीन सभापति मीनाक्षी लेखी ने कहा कि कांग्रेस सदस्यों ने अध्यक्षीय पीठ से बलपूर्वक कागज छीने और उछाले। ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण आचरण संसदीय इतिहास में संभवतः पहली बार हुआ है।

Monday, March 2, 2020

किसका दंगा, किसकी साजिश?


शुक्रवार को सुप्रीम के एक पीठ ने उत्तराखंड हाईकोर्ट में वकीलों की हड़ताल से जुड़े एक मामले में टिप्पणी की कि संविधान विरोध और असंतोष व्यक्त करने का अधिकार सबको देता है, पर यह अधिकार दूसरे नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन नहीं कतर सकता। हालांकि इस टिप्पणी का दिल्ली की हिंसा से सीधा रिश्ता नहीं है, पर प्रकारांतर से है। पिछले ढाई महीने से एक सड़क रोककर शाहीनबाग का आंदोलन चल रहा है। इस आंदोलन की भावना को लेकर अलग बहस है, पर इसे चलाने वालों के अधिकार को लेकर किसी को आपत्ति नहीं है। आखिरकार यह हमारे उस लोकतंत्र की ताकत है, जिसकी बुनियाद में आंदोलनों का लंबा इतिहास है।
महात्मा गांधी ने इन आंदोलनों का संचालन किया और चौरीचौरा की तरह जब भी मर्यादा का उल्लंघन हुआ, उन्होंने आंदोलन वापस ले लिया। सवाल है कि क्या आधुनिक राजनीति उन नैतिक मूल्यों के साथ खड़ी है? इन दंगों ने दिल्ली को दहला कर रख दिया है। एक से एक अमानवीय क्रूर-कृत्यों की कहानियाँ सामने आ रही हैं। लंबे समय से सामाजिक जीवन में घुलता जा रहा जहर बाहर निकलने को आतुर था, और वह निकला। स्थानीय कारणों ने उसे भड़कने में मदद की। मस्जिद पर हमले हुए और स्कूल भी जलाए गए। कई तरह की पुरानी रंजिशों को भुनाया गया। निशाना लगाकर दुकानें फूँकी गईं, गाड़ियाँ जलाई गईं। यह सब अनायास नहीं हुआ। क्रूरता की कहानियाँ इतनी भयानक हैं कि उन्हें सुनकर किसी का भी दिल दहल जाएगा।  

Wednesday, February 26, 2020

अमेरिका से रिश्तों की नई ऊँचाई


अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दौरे के बाद भारत-अमेरिका संबंध एक नई ऊँचाई पर पहुँचे हैं। इन रिश्तों का असर दूर तक और देर तक देखने को मिलेगा। बेशक राजनयिक संबंध इंस्टेंट कॉफी की तरह नहीं होते कि किसी एक यात्रा से रिश्तों में नाटकीय बदलाव आ जाए, पर ऐसी यात्राएं मील के पत्थर का काम जरूर करती हैं। दोनों देशों ने मंगलवार को तीन समझौतों पर हस्ताक्षर किए। उम्मीद है आने वाले वर्षों में ऐसे तमाम समझौते और होंगे। इस यात्रा से यह निष्कर्ष जरूर निकाला जा सकता है कि आने वाले वर्षों में यह गठबंधन क्रमशः मजबूत होता जाएगा।
ट्रंप की यात्रा के पहले दिन अहमदाबाद और आगरा में ये रिश्ते सांस्कृतिक धरातल पर थे और दिल्ली में दूसरे दिन के कार्यक्रमों में इनका राजनयिक महत्व खुलकर सामने आया। दोनों नेताओं की संयुक्त प्रेस वार्ता में ट्रंप ने घोषणा की कि अमेरिका ने तीन अरब डॉलर के रक्षा समझौतों पर मुहर लगाई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बताया कि ट्रेड डील को लेकर दोनों देशों के बीच बातचीत जारी रखने पर सहमति बनी है। इसके अलावा पेट्रोलियम और नाभिकीय ऊर्जा से जुड़े तथा अंतरिक्ष अनुसंधान और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी कुछ समझौते हुए हैं। अमेरिका भारत को 5-जी से भी आगे की टेली-तकनीक से जोड़ना चाहता है।

Sunday, February 23, 2020

ट्रंप-यात्रा का राजनयिक महत्व


अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की इस हफ्ते हो रही भारत-यात्रा का पहली नजर में विशेष राजनीतिक-आर्थिक महत्व नजर नहीं आ रहा है, क्योंकि आधिकारिक रूप से कहा गया है कि दोनों देशों के बीच बहु-प्रतीक्षित व्यापार समझौते पर दस्तखत अभी नहीं होंगे, बल्कि इस साल हो रहे राष्ट्रपति चुनाव के बाद होंगे। अहमदाबाद और आगरा की यात्रा का कार्यक्रम जिस प्रकार से तैयार किया गया है, उससे लगता है कि यह सैर-सपाटे वाली यात्रा ज्यादा है। ट्रंप चाहते हैं कि इसका जमकर प्रचार किया जाए। चुनाव के साल में वे दिखाना चाहते हैं कि मैं देश के बाहर कितना लोकप्रिय हूँ। 
बावजूद इसके यात्रा के राजनयिक महत्व को कम नहीं किया जा सकता। अंततः यह अमेरिकी राष्ट्रपति की ‘स्टैंड एलोन’ यात्रा है। आमतौर पर ट्रंप द्विपक्षीय यात्राओं पर नहीं जाते। उनके साथ वाणिज्य मंत्री बिलबर रॉस, ऊर्जा मंत्री डैन ब्रूले, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रॉबर्ट सी ओ’ब्रायन और ह्वाइट हाउस चीफ ऑफ स्टाफ मिक मलवेनी भी आ रहे हैं। वे वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल, पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल से मुलाकात करेंगे। कुछ समझौते तो होंगे ही, जिनमें आंतरिक सुरक्षा, आतंकवाद के खिलाफ साझा मुहिम, ऊर्जा सुरक्षा और रक्षा तकनीक से जुड़े मसले शामिल हैं।

Sunday, February 16, 2020

‘आप’ की जीत पर कांग्रेस की कैसी खुशी?


दिल्ली में आम आदमी पार्टी की भारी जीत के बाद कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम ने ट्वीट किया, 'आप की जीत हुई, बेवकूफ बनाने तथा फेंकने वालों की हार। दिल्ली के लोग, जो भारत के सभी हिस्सों से हैं, ने बीजेपी के ध्रुवीकरण, विभाजनकारी और खतरनाक एजेंडे को हराया है। मैं दिल्ली के लोगों को सलाम करता हूं जिन्होंने 2021 और 2022 में अन्य राज्यों के लिए, जहां चुनाव होंगे मिसाल पेश की है।' इस ट्वीट के निहितार्थ को समझने के पहले कांग्रेस प्रवक्ता और पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की पुत्री शर्मिष्ठा मुखर्जी के दो ट्वीट पर भी ध्यान देना चाहिए।
चिदंबरम के ट्वीट के पहले उन्होंने ट्वीट किया, ''हम फिर से एक भी सीट नहीं जीत पाए. आत्ममंथन बहुत हो गया अब एक्शन लेने की ज़रूरत है। शीर्ष के नेताओं ने फ़ैसले लेने में बहुत देरी की। हमारे पास कोई रणनीति नहीं थी और न ही एकता थी। कार्यकर्ताओं में निराशा थी और ज़मीन से कोई जुड़ाव नहीं था। कांग्रेस पार्टी के संगठन का हिस्सा होने के नाते मेरी भी ज़िम्मेदारी है।''

Thursday, February 13, 2020

दिल्ली चुनाव का राजनीतिक संदेश


दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणाम आने के एक दिन पहले आम आदमी पार्टी के सोशल मीडिया सेल की एक कार्यकर्ता ने ट्वीट किया, जिसका भावार्थ था कि अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में जो शुरुआत की है, उसपर दूसरे राज्यों ने भी चलना शुरू कर दिया है। इस ट्वीट को अरविंद केजरीवाल ने रिट्वीट किया और अपनी टिप्पणी लगाई जिसका आशय था कि दिल्ली ने सस्ती बिजली ने राष्ट्रीय राजनीतिक विमर्श को दिशा दी है और साबित किया है कि इससे वोट भी मिलते हैं।
इस ट्वीट श्रृंखला की शुरुआत इस खबर के साथ हुई थी कि केजरीवाल के फॉर्मूले से प्रभावित होकर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने महाराष्ट्र में सस्ती बिजली देने का कार्यक्रम बनाया है। दिल्ली में फिर से भारी विजय के बाद आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता फिर से कहने लगे हैं कि हमें राष्ट्रीय राजनीति में फिर से प्रवेश करना चाहिए। पार्टी की प्रवक्ता प्रीति शर्मा मेनन ने कहा है कि हम आने वाले समय में महाराष्ट्र के सभी चुनाव लड़ेंगे। सन 2022 में बृहन्मुम्बई महानगरपालिका के चुनाव हैं।

Sunday, February 9, 2020

क्या बताने वाले हैं दिल्ली के परिणाम?


दिल्ली विधानसभा चुनाव का शोर-शराबा खत्म हो चुका है, अब परिणाम का इंतजार है। पहली उत्सुकता परिणामों को लेकर ही है। किसकी जीत होगी और किसकी हार? एक्ज़िट पोल बता रहे हैं कि परिणाम कमोबेश 2015 जैसे होंगे, शायद बीजेपी कुछ सीटें बढ़ाने में कामयाब होगी। चुनाव की घोषणा के पहले से कहा जा रहा था कि आम आदमी पार्टी की बढ़त है, पर अंतिम क्षणों में खबरें आईं कि परिणाम आश्चर्यजनक होंगे। वे उतने एकतरफा नहीं होंगे, जितने समझे जा रहे हैं। यानी कि भारतीय जनता पार्टी भी मुकाबले में है। उधर कांग्रेस पार्टी सायास या अनायास इस मुकाबले से बाहर नजर आ रही है। वह मुकाबले में क्यों नहीं है?
तमाम सवालों के जवाब इन परिणामों में छिपे हैं, पर ज्यादा बड़ा सवाल है कि क्या नागरिकता कानून के कारण साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ है? क्या 2024 के लोकसभा चुनाव का यह प्रस्थान-बिंदु है? दिल्ली पूरी तरह राज्य भी नहीं है। राष्ट्रीय राजनीति में उसकी कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं है, फिर भी पिछले कुछ वर्षों से किसी न किसी वजह से दिल्ली की राजनीति राष्ट्रीय चर्चा में रहती है। इसका एक बड़ा कारण सन 2011 का अन्ना आंदोलन है, जिसने भ्रष्टाचार को राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में खड़ा कर दिया था। उसकी परिणति आम आदमी पार्टी के रूप में एक राजनीतिक दल में हुई, जिसे 2013 के चुनाव में पहले आंशिक सफलता मिली और फिर 2015 में भारी। इन दोनों परिघटनाओं के बीच आम आदमी पार्टी और उसकी राजनीति के अंतर्विरोध सामने आते चले गए।

Sunday, February 2, 2020

पुरज़ोर इरादों का बजट


पहली नजर में निर्मला सीतारमण का बजट अर्थव्यवस्था की जड़ता और निराशा को दूर करने का प्रयास करता नजर आता है। इसमें जीडीपी की सुस्ती तोड़ने के सभी फॉर्मूलों को एकसाथ लागू करने की कोशिश की गई है। इसमें उपभोक्ता की क्रय शक्ति को बढ़ाने, बाजार में उपलब्ध की माँग बढ़ाने, कारोबारियों को निवेश बढ़ाने और आयात तथा निर्यात दोनों की माँग बढ़ाने का प्रयास है। सरकार चाहती है कि मेक इन इंडिया के साथ-साथ असेम्बल इन इंडिया की अवधारणा को अपना संबल बनाया जाए। विदेशी माल खरीदें और मूल्य-वर्धन कर उसका निर्यात करें। यह उम्मीदों भरा बजट है, फिर भी सवाल अपनी जगह है कि तब शेयर बाजार ने डुबकी क्यों लगाई? शायद शेयर बाजार की दिलचस्पी रियलिटी और विनिर्माण सेक्टर के सिलसिले में बड़ी घोषणाओं तक सीमित थी।
बजट का सकारात्मक प्रभाव होगा, तो सोमवार के बाद शेयर बाजार में भी बदलाव नजर आने लगेगा। बजट को दो नजरियों से देखना चाहिए। एक, सामान्य आर्थिक गतिविधियों और नीतियों के संदर्भ में और दूसरे अर्थव्यवस्था के दीर्घकालीन स्वास्थ्य को पुष्ट करने में इसके योगदान के नजरिए से। छह महीनों से देश में आर्थिक संवृद्धि को लेकर बहस है। पिछली दो तिमाहियों में जीडीपी के आंकड़ों में तेज गिरावट है। अब इस बजट में अगले साल जीडीपी की निवल (नॉमिनल) संवृद्धि 10 फीसदी होने का अनुमान है। आर्थिक समीक्षा में सकल संवृद्धि 6 से 6.5 फीसदी होने का अनुमान बताया गया है। वापसी हुई, तो मतलब होगा कि सरकार नैया को मँझधार से बाहर निकालने में कामयाब हुई है।

Monday, January 27, 2020

बजट जो भरोसा बहाल करे


वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण आगामी 1 फरवरी को जो बजट पेश करेंगी, वह मोदी सरकार का सबसे महत्त्वपूर्ण बजट होगा। हरेक क्षेत्र को कुछ फैसलों की आशा है। औद्योगिक माहौल ठंडा है, गाँवों में निराशा है और नौजवान चेहरों की चमक गायब हो रही है। फिर भी देश को आशा है। बेशक अर्थव्यवस्था पटरी से उतरी नहीं है, पर उसकी गति भरोसा पैदा करने वाली भी नहीं है। अर्थशास्त्री कहते हैं कि माँग और निवेश दोनों बढ़ाने की जरूरत है। दोनों ही मोर्चों पर संकट है।
बावजूद इसके निराश होने और हारकर बैठ जाने की जरूरत भी नहीं है। बजट ऐसा होना चाहिए जो देश की अर्थव्यवस्था में भरोसा बहाल करे और निवेशकों तथा देश के उद्यमी जगत को आश्वस्त करे। उन्हें भरोसा होना चाहिए कि सुधार सरकार की प्राथमिकता में हैं। चिंता इसलिए बढ़ी, क्योंकि हाल में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने चालू वित्त वर्ष की आर्थिक संवृद्धि दर का अपना अनुमान घटाकर 4.8 प्रतिशत कर दिया है। यह अनुमान भारत सरकार के आधिकारिक अग्रिम वृद्धि अनुमान 5 प्रतिशत से भी कम है। भारत की संवृद्धि में कमी के असर से विश्व की संवृद्धि दर नीचे जा रही है।  

Sunday, January 19, 2020

शाहीन बाग और दिल्ली का चुनाव


दिल्ली का शाहीन बाग राष्ट्रीय सुर्खियों में है। पिछले महीने की 15 तारीख से वहाँ दिन-रात एक धरना चल रहा है। यह धरना नागरिकता कानून और जामिया मिलिया और अलीगढ़ विवि के छात्रों के खिलाफ पुलिस कार्रवाई के विरोध में शुरू हुआ था। इसे नागरिकता कानून के खिलाफ सबसे बड़ा शांतिपूर्ण प्रदर्शन बताया जा रहा है। इस आंदोलन के साथ प्रतिरोध से जुड़ी कविताएं, चित्र, नाटक और तमाम तरह की रचनात्मक अभिव्यक्तियाँ देखने को मिल रही हैं। दूसरी तरफ इस धरने के कारण दिल्ली और नोएडा को जोड़ने वाला महत्वपूर्ण मार्ग बंद है, जिससे बड़ी संख्या में लोगों को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। संयोग से दिल्ली विधानसभा के चुनाव नजदीक हैं और लगता नहीं कि यह आंदोलन चुनाव परिणाम आने से पहले खत्म होगा।
यह धरना 14-15 दिसम्बर को इस इलाके में रहने वाली 15-20 महिलाओं ने शुरू किया था। देखते ही देखते यह राष्ट्रीय सुर्खियों में आ गया है। दिल्ली पुलिस ने पिछले शुक्रवार को प्रदर्शनकारियों से अनुरोध किया कि वे सार्वजनिक हित में इस रास्ते को खाली कर दें, ताकि यातायात शुरू हो सके। यह रास्ता दिल्ली को नोएडा से जोड़ता है। स्कूली बच्चों, रोज कामकाज और दूसरे जरूरी काम के लिए आने-जाने लोगों को परेशानी है। इस क्षेत्र में काफी बड़े शो रूम हैं, जो एक महीने से ज्यादा समय से बंद पड़े हैं। काम करने वाले कर्मचारियों की दिहाड़ी की समस्या खड़ी हो गई है। सरिता विहार रेज़ीडेंट वेलफेयर एसोसिएशन ने इस रास्ते को खुलवाने के लिए दिल्ली हाईकोर्ट में अपील की तो शुक्रवार को अदालत ने दिल्ली पुलिस से कहा कि वह रास्ता बंद होने की समस्या की ओर ध्यान दे।

Sunday, January 12, 2020

जेएनयू की हिंसा से उठते सवाल


जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी कैंपस में हुई हिंसा के मामले में दिल्ली पुलिस ने जो जानकारियाँ दी हैं, उन्हें देखते हुए किसी को भी देश की शिक्षा-व्यवस्था की दुर्दशा पर अफसोस होगा। जरूरी नहीं कि पुलिस की कहानी पर यकीन किया जाए, पर हिंसा में शामिल पक्षों की कहानियों के आधार पर भी कोई धारणा नहीं बनाई जानी चाहिए। लम्बे अरसे से लगातार होते राजनीतिकरण के कारण भारतीय शिक्षा-प्रणाली वैश्विक मीडिया के लिए उपहास का विषय बन गई है। सन 1997 में उत्तर प्रदेश विधानसभा में हुई हिंसा का भी दुनिया के मीडिया ने इसी तरह उपहास उड़ाया था। सन 1973 में लखनऊ विवि के छात्र आंदोलन के दौरान ही पीएसी का विद्रोह हुआ था। हालांकि तब न तो आज का जैसा मीडिया था और राजनीतिक स्तर पर इतनी गलाकाट प्रतियोगिता थी, जैसी आज है। आज जो हो रहा है वह राजनीतिक विचार-वैषम्य नहीं अराजकता है।

विश्वविद्यालय अध्ययन के केंद्र होते हैं। बेशक छात्रों के सामने देश और समाज के सारे सवाल होते हैं। उनकी सामाजिक जागरूकता की भी जरूरत है, पर यह कैसी जागरूकता है? यह कहानी केवल जेएनयू की ही नहीं है। देश के दूसरे विश्वविद्यालयों से भी जो खबरें आ रही हैं, उनसे संकेत मिलता है कि छात्रों के बीच राजनीति की गहरी पैठ हो गई है। छात्र-नेता जल्द से जल्द राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित करना चाहते हैं। जेएनयू के पूर्व छात्रों में नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री हैं, लीबिया और नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री हैं। तमाम बड़े नेता, राजनयिक, कलाकार और समाजशास्त्री हैं। यह विवि भारत की सर्वोच्च रैंकिंग वाले संस्थानों में से एक है। आज भी यहाँ आला दर्जे का शोध चल रहा है, पर हालात ऐसे ही रहे तो क्या इसकी यह तारीफ शेष रहेगी?

Sunday, December 29, 2019

कांग्रेस के आत्मघात का साल


कांग्रेस पार्टी हर साल 28 दिसंबर को अपना स्थापना दिवस मनाती है। इस साल पार्टी का 135 वाँ जन्मदिन शनिवार को मनाया गया। आज रविवार को पार्टी झारखंड की नई सरकार में शामिल होने जा रही है, पर वह इसका नेतृत्व नहीं कर रही है। इस सरकार के प्रमुख होंगे झारखंड मुक्ति मोर्चा के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन। जिस पार्टी को देश के राष्ट्रीय आंदोलन के संचालन का श्रेय दिया जाता है, वह आज अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष कर रही है। झारखंड के नतीजों ने पार्टी का उत्साह बढ़ाया जरूर है, पर भीतर-भीतर पार्टी के भीतर असमंजस है। यह असमंजस इस साल अपने चरम पर जा पहुँचा है।
कांग्रेस के जीवन में यह 134वाँ साल सबसे भारी पराजय का साल रहा है। पिछले हफ्ते पार्टी के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने एक इंटरव्यू में कहा कि यह हमारे लिए संकट की घड़ी है। ऐसा संकट पिछले 134 साल में कभी नहीं आया। पाँच साल पहले हमारे सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हुआ था, जो आज भी है। कोई जादू की छड़ी हमारी पार्टी का उद्धार करने वाली नहीं है। पार्टी का नेतृत्व सोनिया गांधी के हाथों में है। ऐसा इसलिए करना पड़ा, क्योंकि इस साल की हार के बाद राहुल गांधी ने इस्तीफा दे दिया। यह भी एक प्रकार का संकट है। अभी तक यह तय नहीं है कि पार्टी का भविष्य का नेतृत्व कैसा होगा।

Sunday, December 22, 2019

क्यों डरा रहे हैं मुसलमानों को?


तीन तरह की ताकतें मुसलमानों को डरा रहीं हैं। एक, सत्ता की राजनीति। इसमें दोनों तरह के राजनीतिक दल शामिल हैं। जो सत्ता में हैं और जो सत्ता हासिल करना चाहते हैं। दूसरे, मुसलमानों के बीच अपने नेतृत्व को कायम करने की कोशिश करने वाले लोग। और तीसरे कुछ न्यस्त स्वार्थी तत्व, जिनका हित अराजकता पैदा करने से सधता है। समाज को सांप्रदायिक आधार पर विभाजित करने के बाद ये लोग अपनी रोटियाँ सेंकते हैं। नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध में जब पूर्वोत्तर का आंदोलन थमने लगा था, दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों का आंदोलन अचानक शुरू हुआ। और अब दिल्ली और उत्तर प्रदेश में एक लहर सी उठी है, जिसमें आधिकारिक रूप से 6 और गैर-सरकारी सूत्रों के अनुसार इससे कहीं ज्यादा लोगों की मौत हुई है। असम और पूर्वोत्तर के आंदोलनों के पीछे के कारण वही नहीं हैं, जो दिल्ली, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश में नजर आ रहे हैं। यह आंदोलन मुसलमानों के मन में भय बैठाकर खड़ा किया गया है। उन्हें भरोसा दिलाने की जरूरत है कि उनका अहित नहीं होगा। पर उन्हें डराया गया है। कहीं न कहीं राजनीतिक ताकतें सक्रिय हैं। क्या वजह है कि राजस्थान, छत्तीसगढ़, पंजाब और मध्य प्रदेश में आंदोलन खड़े नहीं हुए?
भारत के मुसलमानों की हिफाजत की जिम्मेदारी बहुसंख्यक समुदाय की है। उनके साथ अन्याय नहीं होना चाहिए, पर यह भी देखना होगा कि कोई ताकत है, जो हमें भीतर से कमजोर करना चाहती है। क्या वजह है कि जो आंदोलनकारी नागरिकता संशोधन विधेयक और नागरिकता रजिस्टर के बारे में कुछ नहीं जानते, वे रटी-रटाई बातें बोल रहे हैं कि सीएए+एनआरसी से मुसलमानों को खतरा है। शुक्रवार को दिन में जब मीडिया प्रतिनिधि दिल्ली में जामा मस्जिद के पास जमा भीड़ से बात कर रहे थे, तब लोग कह रहे थे कि 370 हटाया गया, हमसे तीन तलाक छीन लिया गया और बाबरी मस्जिद पर कब्जा कर लिया गया। अब हमें निकालने की साजिश की जा रही है।

Sunday, December 15, 2019

पूर्वोत्तर को शांत करना जरूरी


संसद से नागरिकता संशोधन विधेयक पास होने के बाद पूर्वोत्तर के राज्यों में आंदोलन खड़े हो गए हैं। ज्यादा उग्र आंदोलन असम में है। उसके अलावा त्रिपुरा और मेघालय में भी घटनाएं हुई हैं, पर अपेक्षाकृत हल्की हैं। असम में अस्सी के दशक के बाद ऐसा आंदोलन अब खड़ा हुआ है। दिलचस्प यह है कि दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया या अलीगढ़ विश्वविद्यालय के छात्र जो विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं, उसके पीछे वही कारण नहीं हैं, जो असम के आंदोलनकारियों के हैं। मुसलमान छात्र मानते हैं कि यह कानून मुसलमान-विरोधी है, जबकि पूर्वोत्तर के राज्यों में माना जा रहा है कि उनके इलाकों में विदेशियों की घुसपैठ हो जाएगी। खबरें हैं कि असम में आंदोलन शांत हो रहा है, पर बंगाल में उग्र हो रहा है। दोनों राज्यों के आंदोलनों में बुनियादी अंतर है। असम वाले किसी भी विदेशी के प्रवेश के विरोधी हैं, वहीं बंगाल वाले मुसलमानों को देश से निकाले जाने के अंदेशे के कारण उत्तेजित हैं। यह अंदेशा इसलिए है, क्योंकि अमित शाह ने घोषणा की है कि पूरे देश के लिए भी नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) बनाया जाएगा। 

लगता है कि सरकार को पूर्वोत्तर की प्रतिक्रिया का आभास नहीं था। सरकार ने इस कानून को छठी अनुसूची में रखा है, जिसके तहत इनर लाइन परमिट वाले राज्यों में नागरिकता नहीं मिल सकेगी, फिर भी आंदोलनों को देखते हुए लगता है कि सरकारी तंत्र अपने संदेश को ठीक से व्यक्त करने में असमर्थ रहा है। सरकार ने इंटरनेट पर रोक लगाकर आंदोलन को दूसरे इलाकों तक फैलने से रोकने की कोशिश जरूर की है, पर इस बात का जनता तक गलत संदेश भी गया है। यह बात सामने आ रही है कि सरकार ने पहले से तैयारियां नहीं की थीं और इस कानून के उपबंधों से इस इलाके के लोगों को ठीक समय पर परिचित नहीं कराया था। अब सरकार ने राज्य के डीजी पुलिस को बदल दिया है और संचार-संपर्क को भी बढ़ाया है।

Monday, December 9, 2019

न्याय में देरी से नाराज है जनता


हैदराबाद बलात्कार मामले के चारों अभियुक्तों की हिरासत में हुई मौत के बाद ट्विटर पर एक प्रतिक्रिया थी, लोग भागने की कोशिश में मारे गए, तो अच्छा हुआ। पुलिस ने जानबूझकर मारा, तो और भी अच्छा हुआ। किसी ने लिखा, ऐसे दस-बीस एनकाउंटर और होंगे, तभी अपराधियों के मन में दहशत पैदा होगी। ज्यादातर राजनीतिक नेताओं और सार्वजनिक जीवन से जुड़े लोगों ने इस एनकाउंटर का समर्थन किया है। जया बच्चन सबसे आगे रहीं, जिन्होंने हाल में राज्यसभा में कहा था कि रेपिस्टों को लिंच करना चाहिए। अब उन्होंने कहा-देर आयद, दुरुस्त आयद।
कांग्रेसी नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने, जो खुद वकील हैं ट्वीट किया, हम जनता की भावनाओं का सम्मान करें। यह ट्वीट बाद में हट गया। मायावती ने कहा, यूपी की पुलिस को तेलंगाना से सीख लेनी चाहिए। कांग्रेस के नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी समर्थन में ट्वीट किया, जिसे बाद में हटा लिया। दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल ने परोक्ष रूप से इसका समर्थन किया। पी चिदंबरम और शशि थरूर जैसे नेताओं ने घूम-फिरकर कहा कि एनकाउंटर की निंदा नहीं होनी चाहिए।

Sunday, December 1, 2019

राजनीति का गड़बड़झाला


राजनीति की विडंबनाओं और अंतर्विरोधों को समझना आसान नहीं है। पश्चिमी मूल्यों और मान्यताओं का तड़का लगने के बाद भारतीय राजनीति बड़ा गड़बड़झाला बनकर उभरी है। महाराष्ट्र के घटनाक्रम से यही साबित हुआ है। यह परिघटना नई सोशल इंजीनियरी का संकेत है या लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता जैसे पुराने मूल्यों की रक्षा का प्रयास है? या ठाकरे, पवार और गांधी-नेहरू परिवार के हितों की रक्षा का प्रयास? इसके पीछे कोई गम्भीर योजना है या फिर पाखंड, जो राजनीति के शिखर पर है? सोनिया, राहुल और मनमोहन का शपथ ग्रहण समारोह में शामिल नहीं होना पाखंड नहीं तो क्या है? दूसरी तरफ शिवसेना की धर्मनिरपेक्षता को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं, यह जाने बगैर कि इस शब्द से आपका आशय क्या है।

ऐसी क्या बात थी, जिसके कारण तीन दशक का वैचारिक गठबंधन देखते ही देखते ढह गया? इस बात में रंचमात्र भी संदेह नहीं कि भाजपा+शिवसेना गठबंधन के नाम जनादेश था, एनसीपी+कांग्रेस+शिवसेना के नाम नहीं। सरकार बनने के पहले का नाटकीय घटनाक्रम भी देश की राजनीति को लेकर तमाम सवाल खड़े करता है। देवेंद्र फडणवीस और अजित पवार की सरकार बनाने के प्रयास जितने विस्मयकारी थे, उतनी ही हैरत भरी इन प्रयासों की आलोचना थी। उद्धव ठाकरे भी सांविधानिक मर्यादाओं की बात करने लगे। सन 1966 में जबसे बाल ठाकरे ने इसका गठन किया है, शिवसेना पर सांविधानिक मर्यादाओं के उल्लंघन के न जाने कितने आरोप लगे हैं। स्वयं बाल ठाकरे के लोकतांत्रिक अधिकार छह साल के लिए छीने गए थे। उसकी पृष्ठभूमि में कांग्रेस पार्टी थी। अब यह मान लिया गया है कि मौकापरस्ती और सब कुछ भूल जाने का नाम राजनीति है। इसमें सिद्धांतों, विचारधाराओं और मूल्यों-मर्यादाओं का कोई मतलब नहीं है।

Sunday, November 24, 2019

क्यों उठा नागरिकता का सवाल?


असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) पर चली करीब चार साल की वरजिश के बावजूद असम में विदेशी नागरिकों की घुसपैठ का मामला सुलझा नहीं। अब केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने बुधवार को संसद में कहा कि पूरे देश में एनआरसी को लागू किया जाएगा और असम में इसकी नए सिरे से शुरूआत की जाएगी। इस साल 31 अगस्त को जारी की गई असम की एनआरसी से करीब 19 लाख लोग बाहर रह गए हैं। इस सूची से बाहर रह गए लोगों के पास अभी चुनौती देने के विकल्प हैं, पर इस प्रक्रिया से पूरे पूर्वोत्तर में कई प्रकार के भय पैदा हो गए हैं। इस एनआरसी को भारतीय जनता पार्टी ने भी अस्वीकार कर दिया है। सवाल है कि इसे तार्किक परिणति तक कैसे पहुँचाया जाएगा?
भारत के सांप्रदायिक विभाजन से उपजी इस समस्या के समाधान के लिए गंभीर विमर्श की जरूरत है। इसके कारण पिछले कई दशकों से असम में अस्थिरता है। बेशक इसकी जड़ों में असम है, पर यह समस्या पूरे देश को परेशान करेगी। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के दौर में चाय बागान में काम के लिए पूर्वी बंगाल से बड़ी संख्या में मुसलमान यहाँ आए। मारवाड़ी व्यापारियों के साथ भी काफी बड़ी संख्या में मजदूर आए, जिनमें बड़ी संख्या मुसलमानों की थी। विभाजन के समय मुस्लिम लीग की कोशिश थी कि असम को पूर्वी पाकिस्तान में शामिल किया जाए, पर स्थानीय नेता गोपीनाथ बोरदोलोई के प्रतिरोध के कारण ऐसा सम्भव नहीं हुआ। बोरदोलोई को सरदार पटेल और महात्मा गांधी का समर्थन हासिल था।

Monday, November 18, 2019

राफेल-राजनीति को विदा कीजिए


राफेल विमान सौदे को लेकर दायर किए गए मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला सुनाया है, उसके बाद इस विवाद को खत्म हो जाना चाहिए या कम से कम इसे राजनीतिक विवाद का विषय नहीं बनाना चाहिए। पर फैसले के बाद आई कुछ प्रतिक्रियाओं से लगता है कि ऐसा होगा नहीं। इस मामले में न तो किसी प्रकार की धार बची और न जनता की दिलचस्पी इसके पिष्ट-पेषण में है। अदालत ने कहा कि हमें ऐसा नहीं लगता है कि इस मामले में कोई एफआईआर दर्ज होनी चाहिए या फिर किसी तरह की जांच की जानी चाहिए।
अदालत ने केंद्र सरकार के हलफनामे में हुई एक भूल को स्वीकार किया है, पर उससे कोई महत्वपूर्ण निष्कर्ष नहीं निकाला है। बुनियादी तौर पर कांग्रेस पार्टी की दिलचस्पी लोकसभा कि पिछले चुनाव में थी। चुनाव में यह मुद्दा सामने आया ही नहीं। इस मामले में उच्चतम न्यायालय के 14 दिसंबर 2018 के आदेश पर प्रशांत भूषण समेत अन्य लोगों की ओर से पुनर्विचार के लिए याचिका दाखिल की गई थी।
याचिका में कुछ 'लीक' दस्तावेजों के हवाले से आरोप लगाया गया था कि डील में पीएमओ ने रक्षा मंत्रालय को बगैर भरोसे में लिए अपनी ओर से बातचीत की थी। कोर्ट ने अपने पिछले फैसले में कहा था कि बिना ठोस सबूतों के हम रक्षा सौदे में कोई भी दखल नहीं देंगे। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, जस्टिस एसके कौल और जस्टिस केएम जोसफ ने पाया कि पुनर्विचार याचिकाओं में मेरिट यानी कि दम नहीं है।