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Sunday, July 29, 2018

इमरान के इस ताज में काँटे भी कम नहीं

पाकिस्तान के चुनाव परिणामों से यह बात साफ हुई कि मुकाबला इतना काँटे का नहीं था, जितना समझा जा रहा था। साथ ही इमरान खान की कोई आँधी भी नहीं थी। उन्हें नए होने का फायदा मिला, जैसे दिल्ली में आम आदमी पार्टी को मिला था। जनता नए को यह सोचकर मौका देती है कि सबको देख लिया, एकबार इन्हें भी देख लेते हैं। ईमानदारी और न्याय की आदर्श कल्पनाओं को लेकर जब कोई सामने आता है तो मन कहता है कि क्या पता इसके पास जादू हो। इमरान की सफलता में जनता की इस भावना के अलावा सेना का समर्थन भी शामिल है।
पाकिस्तान के धर्म-राज्य की प्रतीक वहाँ की सेना है, जो जनता को यह बताती है कि हमारी बदौलत आप बचे हैं। सेना ने नवाज शरीफ के खिलाफ माहौल बनाया। यह काम पिछले तीन-चार साल से चल रहा था। पाकिस्तान के इतिहास में यह पहला मौका था, जब सेना ने खुलकर चुनाव में हिस्सा लिया और नवाज शरीफ का विरोध और इमरान खान का समर्थन किया। वह खुद पार्टी नहीं थी, पर इमरान खान उसकी पार्टी थे। देश के मीडिया का काफी बड़ा हिस्सा उसके प्रभाव में है। नवाज शरीफ ने देश के सत्ता प्रतिष्ठान से पंगा ले लिया था, जिसमें अब न्यायपालिका भी शामिल है।

Sunday, July 22, 2018

हमला अग्निवेश पर नहीं, देश पर है


शुक्रवार की राज संसद में लाए गए अविश्वास प्रस्ताव का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तमाम बातों के अलावा मॉब लिंचिंग की घटनाओं का जिक्र भी किया है। उन्होंने कहा, मॉब लिंचिंग की घटनाएं निंदनीय हैं। इसके पहले गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने लोकसभा में कहा कि यह सच है कि देश के कई भागों में लिंचिंग के घटनाओं में कई लोगों की जान गई, लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। लिंचिंग के कारण जिनकी भी मौत हुई उसकी मैं सरकार की ओर से कड़ी निंदा करता हूं।
अखबारों के पन्नों में लगभग रोज मॉब लिंचिंग की खबरें दिखाई पड़ रहीं हैं। पर सामाजिक कायर्कर्ता स्वामी अग्निवेश पर झारखंड में हुए हमले ने परेशान कर दिया है। यह हमला निजी रंजिश के कारण नहीं, वैचारिक कारणों से हुआ था। ज्यादातर हिंसा अफवाहों के कारण हो रहीं हैं, पर यह हिंसा अफवाह के कारण नहीं थी। इस मामले में पुलिस की बेरुखी भी चिंता का बड़ा कारण है। हमले के बाद अग्निवेश ने कहा कि उनके आने की सूचना पुलिस और प्रशासन को दी गई थी। 79 साल के एक बुजुर्ग व्यक्ति की पगड़ी उतार कर पीटा गया। कपड़े तार-तार कर दिए गए। यह कैसा देश है और कैसी संस्कृति और समाज है, जो यह सब होते हुए देख रहा है? 

Sunday, July 15, 2018

रास्ते से भटक क्यों रहा है हमारा लोकतंत्र?

लोकतांत्रिक व्यवस्था की पारदर्शिता को लेकर हाल में दो खबरों से दो तरह के निष्कर्ष निकलते हैं। पिछले हफ्ते तरह केन्द्र ने उच्चतम न्यायालय को बताया कि देश भर में अदालती कार्यवाही का सीधा प्रसारण किया जा सकता है। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर और न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड़ की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने सभी पक्षकारों से कहा कि वे अदालत की कार्यवाही के सीधे प्रसारण के लिए दिशा निर्देश तैयार करने के बारे में अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल को अपने सुझाव दें। अटार्नी जनरल ने इससे पहले न्यायालय से कहा था कि अदालती कार्यवाही का सीधा प्रसारण दुनिया के अनेक देशों में एक स्वीकार्य परंपरा है। शीर्ष अदालत ने न्यायिक कार्यवाही में पारदर्शिता लाने के इरादे से पिछले साल प्रत्येक राज्य की निचली अदालतों और न्यायाधिकरणों में सीसीटीवी लगाने का निर्देश दिया था।

इस खबर के विपरीत  राज्यसभा के निवृत्तमान उप-सभापति पीजे कुरियन ने कहा कि संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण बंद कर देना चाहिए, क्योंकि इससे सदन की छवि खराब होती है। कुरियन का कहना था कि सदन की कार्यवाही के दौरान भले ही पीठासीन अध्यक्ष असंसदीय शब्दों को रिकॉर्ड के बाहर कर देते हों, लेकिन डिजिटल मीडिया के इस दौर में ये बातें आसानी से जनता तक पहुंच जाती हैं। इस वजह से सदन में शालीनता और व्यवस्था कायम रखने की कोशिशें बेमतलब हो जाती हैं। उपरोक्त दोनों बातों को मिलाकर पढ़ें, तो क्या निष्कर्ष निकलता है?

Sunday, July 8, 2018

कैंसर, एक रोग और एक लक्षण


हाल में खबर मिली है कि फिल्म अभिनेत्री सोनाली बेंद्रे कैंसर की बीमारी से जूझ रही हैं। उन्होंने अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर इस बारे में जानकारी दी है कि मुझे हाईग्रेड मेटास्टेटिस कैंसर है। उनकी इस पोस्ट के बाद काफी लोग जानना चाहते हैं कि यह कैसा कैंसर है और कितना खतरनाक है। मेटास्टेटिस कैंसर का मतलब यह है कि शरीर में किसी एक जगह कैंसर के सेल मौजूद नहीं हैं। जहां से कैंसर की उत्पत्ति हुई, उससे शरीर के दूसरे अंग में वह फैल चुका है। सोनाली न्यूयॉर्क में अपना इलाज करवा रही हैं। बॉलीवुड एक्टर इरफान खान भी कैंसर से जूझ रहे हैं। वे कुछ महीनों से लंदन में इलाज करा रहे हैं। अमेरिकी कंप्यूटर कंपनी एपल के सह-संस्थापक स्टीव जॉब्स का कैंसर से लम्बी लड़ाई लड़ने के बाद कुछ साल पहले निधन हो गया।

हॉलीवुड अभिनेत्री जेन फोंडा से लेकर सीएनएन के मशहूर शो के प्रस्तोता लैरी किंग तक इस बीमारी के शिकार हुए हैं। बॉलीवुड के अभिनेता राजेश खन्ना और विनोद खन्ना इसके शिकार थे। हाल में संजय दत्त पर बनी बायोपिक फिल्म संजू में कैंसर से लड़ती नर्गिस दत्त का जिक्र था। संयोग से फिल्म में नर्गिस की भूमिका में फिल्म अभिनेत्री मनीषा कोईराला भी कैंसर से पीड़ित रही हैं। फिल्म निर्देशक अनुराग बसु, अभिनेत्री लीजा रे और मुमताज से लेकर क्रिकेटर युवराज सिंह भी कैंसर से पीड़ित हो चुके हैं। बहुत से मामलों में लोग कैंसर के खिलाफ लड़ाई में जीतकर वापस लौटे हैं, पर यह बीमारी ऐसी है, जिसका नाम सुनते ही दिल काँपता है।

Sunday, June 17, 2018

शुजात बुखारी की हत्या के मायने

राइजिंग कश्मीर के सम्पादक शुजात बुखारी की हत्या,जिस रोज हुई, उसी रोज सेना के एक जवान औरंगजेब खान की हत्या की खबर भी आई थी। इसके दो-तीन दिन पहले से कश्मीर में अचानक हिंसा का सिलसिला तेज हो गया था। नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तानी गोलीबारी से बीएसएफ के चार जवानों की हत्या की खबरें भी इसी दौरान आईं थीं। हिंसा की ये घटनाएं कथित युद्ध-विराम के दौरान तीन हफ्ते की अपेक्षाकृत शांति के बाद हुई हैं। कौन है इस हिंसा के पीछे?भारतीय विशेषज्ञों का अनुमान है कि इसमें लश्कर या हिज्बुल मुजाहिदीन का हाथ है।

Sunday, June 10, 2018

नागपुर में किसे, क्या मिला?

लालकृष्ण आडवाणी इसे अपने नज़रिए से देखते हैं, पर उनकी इस बात से सहमति व्यक्त की जा सकती है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मंच से पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का भाषण ऐतिहासिक था। एक अरसे से देश में राष्ट्रवाद, देशभक्ति और विविधता में एकता की बातें हो रहीं हैं, पर किसी एक मंच से दो अंतर्विरोधी-दृष्टिकोणों का इतने सहज-भाव से आमना-सामना नहीं हुआ होगा। इन भाषणों में नई बातें नहीं थीं, और न ऐसी कोई जटिल बात थी, जो लोगों को समझ में नहीं आती हो। प्रणब मुखर्जी और सरसंघचालक मोहन भागवत के वक्तव्यों को गहराई से पढ़ने पर उनका भेद भी समझा जा सकता है, पर इस भेद की कटुता नजर नहीं आती। सवाल यह है कि इस चर्चा से हम क्या निष्कर्ष निकालें? क्या संघ की तरफ से अपने विचार को प्रसारित करने की यह कोशिश है? या प्रणब मुखर्जी के मन में कोई राजनीतिक भूमिका निभाने की इच्छा है? 

Sunday, June 3, 2018

बंगाल में राजनीतिक हिंसा

हाल में जब कर्नाटक विधानसभा चुनाव का प्रचार चल रहा था, पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव हो रहे थे। मीडिया पर कर्नाटक छाया था, बंगाल पर ध्यान नहीं था। अब खबरें आ रहीं हैं कि बंगाल में लोकतंत्र के नाम हिंसा का तांडव चल रहा था। पिछले हफ्ते पुरुलिया जिले में बीजेपी कार्यकर्ता की हत्या का मामला सामने आने पर इसकी वीभत्सता का एहसास हुआ है। 20 साल के त्रिलोचन महतो की लाश घर के पास ही नायलन की रस्सी ने लटकती मिली। महतो ने जो टी-शर्ट पहनी थी, उसपर एक पोस्टर चिपका मिला जिसपर लिखा था, बीजेपी के लिए काम करने वालों का यही अंजाम होगा। जाहिर है कि इस हत्या की प्रतिक्रिया भी होगी। वह बंगाल, जो भारत के आधुनिकीकरण का ध्वजवाहक था। जहाँ रवीन्द्रनाथ ठाकुर और शरत चन्द्र जैसे साहित्यकारों ने शब्द-साधना की। कला, संगीत, साहित्य, रंगमंच, विज्ञान, सिनेमा जीवन के तमाम विषयों पर देश का ऐसा कोई श्रेष्ठतम कर्म नहीं है, जो बंगाल में नहीं हुआ हो। क्या आपने ध्यान दिया कि उस बंगाल में क्या हो रहा है? 

Sunday, May 27, 2018

विरोधी-एकता के पेचो-ख़म



कर्नाटक विधान सौध के मंच पर विरोधी दलों की जो एकता हाल में दिखाई पड़ी है, उसमें नयापन कुछ भी नहीं था। यह पहला मौका नहीं था, जब कई दलों के नेताओं ने हाथ उठाकर अपनी एकता का प्रदर्शन करते हुए फोटो खिंचाई है। एकता के इन नए प्रयासों में सोशल इंजीनियरी की भूमिका ज्यादा बड़ी है। यह भूमिका भी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और हरियाणा जैसे उत्तर भारत के कुछ राज्यों पर केन्द्रित है। लोकसभा की सीटें भी इसी इलाके में सबसे ज्यादा हैं। चुनाव-केन्द्रित इस एकता के फौरी फायदे भी मिले हैं। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर, फूलपुर चुनावों में यह एकता नजर आई और सम्भव है कि अब कैराना में इस एकता की विजय हो। इतना होने के बावजूद इस एकता को लेकर कई सवाल हैं।

कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद बनी विरोधी-एकता ने कुछ प्रश्नों और प्रति-प्रश्नों को जन्म दिया है। बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन की सफलता के बाद पूरे देश में ऐसा ही गठबंधन बनाने की कोशिशें चल रहीं हैं। पिछले साल राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद पर गठबंधन के प्रत्याशियों ने चुनाव लड़ा भी था। बावजूद इसके पिछले डेढ़ साल में तीन महत्वपूर्ण राज्यों में चुनाव हुए, जिनमें ऐसा गठबंधन मैदान में नहीं उतरा। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का गठबंधन बना, पर उसमें बहुजन समाज पार्टी नहीं थी। गुजरात में कांग्रेस के साथ एनसीपी नहीं थी। कर्नाटक में चुनाव परिणाम आने के दिन बारह बजे तक गठबंधन नहीं था। फिर अचानक गठबंधन बन गया।

Sunday, May 20, 2018

कर्नाटक में हासिल क्या हुआ?

येदियुरप्पा की पराजय के बाद सवाल है कि क्या कर्नाटक-चुनाव की तार्किक परिणति यही थी? एचडी कुमारस्वामी की सरकार बन जाने के बाद क्या मान लिया जाए कि कर्नाटक की जनता उन्हें राज्य की सत्ता सौंपना चाहती थी?  इस सवाल का जवाब मिलने में कुछ समय लगेगा, क्योंकि राजनीति में तात्कालिक परिणाम ही अंतिम नहीं होते।


बीजेपी की दृष्टि से देखें तो कांग्रेस और जेडीएस का गठबंधन अपवित्र है। येदियुरप्पा ने कांग्रेस और जेडीएस के विधायकों से अंतरात्मा की आवाज पर समर्थन माँगा था, जिसमें विफल रहने के बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया। उधर कांग्रेस-जेडीएस के नज़रिए से देखें, तो दो धर्मनिरपेक्ष दलों ने साम्प्रदायिक भाजपा को रोकने के लिए गठबंधन किया। यह राजनीति अब से लेकर 2019 के चुनाव तक चलेगी। बीजेपी के विरोधी दल एक साथ आएंगे।


उपरोक्त दोनों दृष्टिकोणों के अंतर्विरोध हैं। बीजेपी का पास स्पष्ट बहुमत नहीं था। निर्दलीयों और अन्य दलों के सदस्यों की संख्या इतनी नहीं थी कि बहुमत बन पाता। ऐसे में सरकार बनाने का दावा करने की कोई जरूरत नहीं थी। अंतरात्मा की जिस आवाज पर वे कांग्रेस और जेडीएस के विधायकों को तोड़ने की उम्मीद कर रहे थे, वह संविधान-विरोधी है। संविधान की दसवीं अनुसूची का वह उल्लंघन होता। दल-बदल कानून अब ऐसी तोड़-फोड़ की इजाजत नहीं देता। कांग्रेस और जेडीएस ने समझौता कर लिया था, तो राज्यपाल को उन्हें ही बुलाना चाहिए था। बेशक अपने विवेकाधीन अधिकार के अंतर्गत वे सबसे बड़े दल को भी बुला सकते हैं, पर येदियुरप्पा सरकार के बहुमत पाने की कोई सम्भावना थी ही नहीं। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप सही हुआ।


कर्नाटक के बहाने राज्यपाल, स्पीकर और सुप्रीम कोर्ट की भूमिकाओं को लेकर, जो विचार-विमर्श शुरू हुआ है, वह इस पूरे घटनाक्रम की उपलब्धि है। कांग्रेस की याचिका पर अदालत में अब सुनवाई होगी और सम्भव है कि ऐसी परिस्थिति में राज्यपालों के पास उपलब्ध विकल्पों पर रोशनी पड़ेगी कि संविधान की मंशा क्या है। हमने ब्रिटिश संसदीय पद्धति को अपनाया जरूर है, पर उसकी भावना को भूल चुके हैं। राज्यपालों और पीठासीन अधिकारियों की राजनीतिक भूमिका को लेकर सवाल उठते रहे हैं। कर्नाटक के राज्यपाल पहले नहीं हैं, जिनपर राजनीतिक तरफदारी का आरोप लगा है। सन 1952 से लेकर अबतक अनेक मौके आए हैं, जब यह भूमिका खुलकर सामने आई है।


विधायिका के पीठासीन अधिकारियों के मामले में आदर्श स्थिति यह होती है कि वे अपना दल छोड़ें। आदर्श संसदीय व्यवस्था में जब स्पीकर चुनाव लड़े तो किसी राजनीतिक दल को उसके खिलाफ प्रत्याशी खड़ा नहीं करना चाहिए। हमारी संसद में चर्चा के दौरान जो अराजकता होती है, वह भी आदर्शों से मेल नहीं खाती। कर्नाटक प्रकरण हमें इन सवालों पर विचार करने का मौका दे रहा है। कर्नाटक का यह चुनाव सारे देश की निगाहों में था। इसके पहले शायद ही दक्षिण के किसी राज्य की राजनीति पर पूरे देश की इतनी गहरी निगाहें रहीं हों। इस चुनाव की यह उपलब्धि है। मेरा यह आलेख दैनिक हरिभूमि में प्रकाशित हुआ है। इसका यह इंट्रो मैंने 20 मई की सुबह लिखा है। इस प्रसंग को ज्यादा बड़े फलक पर देखने का मौका अब आएगा। 
हमें कोशिश करनी चाहिए कि यथा सम्भव तटस्थ रहकर देखें कि इस चुनाव में हमने क्या खोया और क्या पाया। राजनीतिक शब्दावली में हमारे यहाँ काफी प्रचलित शब्द है जनादेश। तो कर्नाटक में जनादेश क्या था? कौन जीता और कौन हारा? चूंकि किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला, तो किसी की जीत नहीं है। पर क्या हार भी किसी की नहीं हुई? चुनाव में विजेता की चर्चा होती है, हारने वाले की चर्चा भी तो होनी चाहिए। गठबंधन की सरकार बनी, पर यह चुनाव बाद का गठबंधन है। 

Sunday, May 13, 2018

राहुल गांधी का पहला इम्तहान

कर्नाटक की रैलियों में नरेन्द्र मोदी ने कहा कि इस चुनाव के बाद कांग्रेस पीपीपी (पंजाब, पुदुच्चेरी और परिवार) पार्टी बनकर रह जाएगी। उधर राहुल गांधी ने कहा, हम मुद्दों पर चुनाव लड़ रहे हैं और राज्य में अपनी जीत को लेकर आश्वस्त हैं। दो दिन बाद पता चलेगा कि किसकी बात सच है। बीजेपी के मुकाबले यह चुनाव कांग्रेस के लिए न केवल प्रतिष्ठा का बल्कि जीवन-मरण का सवाल है। कांग्रेस को अपनी 2013 की जीत को बरकरार रख पाई, तभी साल के अंत में चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में सिर उठाकर खड़ी हो सकेगी।

2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से कांग्रेस के सिर पर पराजय का साया है। बेशक उसने इस बीच पंजाब में जीत हासिल की है, पर एक दर्जन से ज्यादा राज्यों से हाथ धोया है। सन 2015 में बिहार के महागठबंधन को चुनाव में मिली सफलता पिछले साल हाथ से जाती रही। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन के बावजूद पार्टी सात सीटों पर सिमट गई। पिछले साल गुजरात के चुनाव में पार्टी तैयारी से उतरी थी, पर सफलता नहीं मिली। 

Sunday, May 6, 2018

हमारे ‘हीरो’ नहीं हैं जिन्ना


अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय छात्रसंघ के हॉल में लगी मुहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर के विवाद की रोशनी में हम अपने साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के कुछ स्रोतों को देख सकते हैं। एक दलील है कि जिन्ना की वजह से देश का विभाजन हुआ। स्वतंत्र भारत में उनकी तस्वीर के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। यह माँग बीजेपी के एक सांसद ने की है, इसलिए एक दूसरा पक्ष भी खड़ा हो गया है। वह कहता है कि तस्वीर नहीं हटेगी। जिन्ना भारतीय इतिहास का हिस्सा हैं। आजादी के बाद से अब तक इस तस्वीर के लगे रहने से भारतीय राष्ट्रवाद को कोई ठेस नहीं लगी, तो अब क्या लगेगी?

इस बीच सोशल मीडिया पर संसद भवन में लगी एक तस्वीर वायरल हुई है। इस तस्वीर में देश के कुछ महत्वपूर्ण राजनेताओं के साथ जिन्ना भी नजर आ रहे हैं। वायरल-कर्ताओं का सवाल है कि संसद भवन से भी क्या जिन्ना की तस्वीर हटाओगे? इस तस्वीर में जिन्ना के साथ जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी नज़र आते हैं। जिन्ना की तस्वीर हटती या नहीं हटती, उसकी खबर मीडिया में नहीं आई होती, तो हंगामा नहीं होता। अब हंगामा हो चुका है। अब फैसला कीजिए कि करें क्या? पहली बार में ही इसे हटा देना चाहिए था। सोचिए कि इस हंगामे से किसका भला हुआ? कुछ लोग हिन्दुओं के एक वर्ग को यह समझाने में कामयाब हुए हैं कि मुसलमानों का तुष्टीकरण हो रहा है और दूसरी ओर मुसलमानों के एक तबके के मन में यह बैठाया जा रहा है कि भारत में उनका रहना दूभर है। 

Sunday, April 29, 2018

कर्नाटक-चुनाव के राष्ट्रीय निहितार्थ


कर्नाटक विधानसभा चुनाव के लिए नाम वापसी के बाद अब मुकाबले साफ हो गए हैं। वहाँ दो नहीं तीन राजनीतिक शक्तियाँ मुकाबले में हैं। कांग्रेस, बीजेपी और जेडीएस। जेडीएस के साथ बहुजन समाज पार्टी भी चुनाव मैदान में है, जिसके 18 प्रत्याशी मैदान में है। जेडीएस और बसपा-गठबंधन के निहितार्थ चुनाव परिणाम आने के बाद बेहतर समझ में आएंगे, क्योंकि मुकाबला केवल उन 18 सीटों पर ही महत्वपूर्ण नहीं होगा, जहाँ बसपा चुनाव लड़ रही है। कर्नाटक में दलित-वोटरों की संख्या सबसे ज्यादा है, तकरीबन उतनी ही, जितनी उत्तर प्रदेश में है। कई मानों में कर्नाटक की सामाजिक-संरचना उत्तर प्रदेश जैसी है। बीएसपी वहाँ प्रवेश करना चाहती है।

राज्य में ही नहीं राष्ट्रीय राजनीति में अबकी बार बीजेपी के हिन्दुत्व की परीक्षा है। दक्षिण भारत के इस हिस्से में अतीत में काफी धर्मांतरण हुआ है। खाड़ी देशों में रोजगार के कारण यहाँ का मुस्लिम-समुदाय समृद्ध है। राज्य में तीन राजनीतिक शक्तियों के कारण चुनाव-परिणामों को लेकर संदेह है कि वह किसी एक पक्ष में जाएंगे भी या नहीं। राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से ये चुनाव कांग्रेस और बीजेपी दोनों के लिए जीवन और मरण का सवाल बने हुए हैं। यह चुनाव इस साल राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव परिणामों को प्रभावित ही नहीं करेगा, बल्कि सन 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए भी महत्वपूर्ण साबित होगा। बीजेपी जीती तो तीनों हिन्दी राज्यों में बीजेपी के चुनाव-प्रचार में जान पड़ेगी। नहीं जीती तो सम्भव है कि लोकसभा चुनाव समय से पहले हो जाएं।

Sunday, April 22, 2018

खतरे में न्यायिक-मर्यादा


सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग लाए जाने के पक्ष में एक दलील यह दी जा रही है कि महाभियोग सांविधानिक-व्यवस्था है और संविधान में बताए गए तरीके से ही इसका नोटिस दिया गया है. दूसरी बात यह कही जा रही है कि इसके पीछे राजनीतिक उद्देश्य नहीं हैं, यह शुद्ध न्यायिक-मर्यादा की रक्षा में उठाया गया कदम है. संसद में इस विषय पर विचार होगा या नहीं यह बाद की बात है, इस समय यह विषय आम चर्चा में है. सवाल है कि न्यायालय की भावना को लेकर इस किस्म की सार्वजनिक चर्चा करना क्या न्यायिक मर्यादा के पक्ष में है? कहा जाता है कि महाभियोग लाने वालों का उद्देश्य इस चर्चा को बढ़ावा देने का ही है. वे चाहते हैं कि सन 2019 के चुनाव तक यह चर्चा चलती रहे. संसद में संख्या-बल को देखते हुए तो यह प्रस्ताव पास होने की संभावना यों भी कम है.
एक सवाल यह भी है कि क्या यह प्रस्ताव पार्टियों की तरफ से रखा गया है या 64 सदस्यों की व्यक्तिगत हैसियत से लाया गया है? तब इस सिलसिले में शुक्रवार को हुई प्रेस कांफ्रेंस का आयोजक किसे माना जाए? सात दलों को या 64 सदस्यों के प्रतिनिधियों को?  इस प्रेस कांफ्रेंस में जो बातें कही गईं, उन्हें चर्चा माना जाए या नहीं? हमारे संविधान ने संसद सदस्यों को कई तरह के विशेषाधिकार दिए हैं. सार्वजनिक हित में वे ऐसे विषयों पर भी चर्चा कर सकते हैं, जिनपर सदन के बाहर बातचीत सम्भव नहीं (अनुच्छेद 105). मसलन वे सदन के भीतर मानहानिकारक बातें भी कह सकते हैं, जिनके लिए उन्हें उत्तरदायी नहीं माना जाता है. सामान्य नागरिक का वाक्-स्वातंत्र्य अनुच्छेद 19(2) में निर्दिष्ट निबंधनों के अधीन है. मानहानि-कानून के अधीन. पर सांसद को संसद या उसकी समिति में कही गई किसी बात के लिए न्यायालय में उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता.
इसके बावजूद न्यायपालिका की मर्यादा की रक्षा के लिए संसद में भीतर भी वाक्-स्वातंत्र्य सीमित है. उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश के अपने कर्तव्यों के निर्वहन में किए गए, आचरण के विषय में संसद में कोई चर्चा, उस न्यायाधीश को हटाने की प्रार्थना करने वाले आवेदन को राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत करने के प्रस्ताव पर सदन में विचार की अनुमति मिलने के बाद ही होगी, अन्यथा नहीं (अनुच्छेद 121). सवाल है कि इन दिनों हम जो विमर्श देख-सुन रहे हैं, वह इस दायरे में आएगा या नहीं? यह विषय भी अब अदालत के सामने है. इस सिलसिले में बीजेपी और कांग्रेस के अलावा दूसरे दलों के जो राजनीतिक बयान आ रहे हैं, उनसे नहीं लगता कि किसी की दिलचस्पी न्यायिक मर्यादा में है. देश में वकीलों और कानून के जानकारों के बीच भी जबर्दस्त विभाजन देखने को मिल रहा है, जबकि जरूरत इस बात की है कि कम से कम कुछ मामलों पर सर्वानुमति हो. 


इतिहास के कुछ लम्हे ऐसे होते हैं, जिनका असर सदियों तक होता है। उनका निहितार्थ बरसों बाद समझ में आता है। दुनिया में लोकतांत्रिक-व्यवस्था सदियों के अनुभव से विकसित हुई है। बेशक यह पूर्ण और परिपक्व नहीं है, पर जैसी भी है उसका विकल्प नहीं है। उसकी सीमाओं और सम्भावनाओं को लेकर हमारे मन के द्वार हमेशा खुले रहने चाहिए। इसी रोशनी में और ठंडे दिमाग से सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ रखे गए महाभियोग प्रस्ताव को देखना चाहिए। 

Sunday, April 15, 2018

न्याय-व्यवस्था की चुनौतियाँ

अक्सर कहा जाता है कि भारत में न्यायपालिका का ही आखिरी सहारा है। पर पिछले कुछ समय से हमारी न्यायपालिका को लेकर उसके भीतर और बाहर से सवाल उठने लगे हैं। उम्मीदों के साथ कई तरह के अंदेशे हैं। कई बार लगता है कि सरकार नहीं सुप्रीम कोर्ट के हाथ में देश की बागडोर है। पर न्यायिक जवाबदेही को लेकर हमारी व्यवस्था पारदर्शी नहीं बन पाई है। लम्बे विचार-विमर्श के बाद सन 2014 में संसद ने जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम की व्यवस्था के स्थान पर न्यायिक नियुक्ति आयोग या एनजेएसी कानून को बनाया, जिसे 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया।

इसमें दो राय नहीं कि न्यायपालिका को स्वतंत्र होना चाहिए और उसे सरकारी दबाव से बाहर रखने की जरूरत है। संविधान ने कानून बनाने और न्यायिक नियुक्तियों के अधिकार विधायिका और कार्यपालिका को दिए हैं। पर, न्यायपालिका जजों की नियुक्ति अपने हाथ में रखना चाहती है। दोनों बातों का व्यावहारिक निहितार्थ है कार्यपालिका का निर्द्वंद होना। यह भी ठीक नहीं है। घूम-फिरकर सारी बातें राजनीति पर आती हैं, जिसकी गैर-जिम्मेदारी भी जाहिर है। सांविधानिक व्यवस्था और पारदर्शिता के मसलों पर जबतक राजनीतिक सर्वानुमति नहीं होगी, हालात सुधरेंगे नहीं। 

Sunday, April 8, 2018

मज़ाक तो न बने संसदीय-कर्म

लोकतांत्रिक गतिविधियों में दो सबसे महत्वपूर्ण कार्य हैं, जिनके कारण यह व्यवस्था सफल है। एक, चुनाव और दूसरे संसदीय कर्म। जनता की भागीदारी सुनिश्चित करने और देश के सामने उपस्थित सवालों के जवाब खोजने में दोनों की जबर्दस्त भूमिका है। दुर्भाग्य से दोनों के सामने सवालिया निशान खड़े हो रहे हैं। चुनाव के दौरान सामाजिक-जीवन की विसंगतियाँ भड़काई जाने लगी हैं। लोकतंत्र की तमाम नकारात्मक भूमिकाएं उभर रहीं हैं। समाज को तोड़ने का काम चुनाव करने लगे हैं।
उधर संसदीय-कर्म को लेकर जो सवाल उभरे हैं, वे उससे भी ज्यादा निराश कर रहे हैं। संसदीय गतिरोधों के कारण जनता का विश्वास अपनी व्यवस्था पर से उठ रहा है। सामान्य नागरिक को समझ में नहीं आ रहा है कि इस सर्वोच्च लोकतांत्रिक मंच पर यह सब क्या होने लगा है? इस हफ्ते संसद के बजट सत्र का समापन बेहद निराशाजनक स्थितियों में हुआ है। पिछले 18 वर्षों का यह न्यूनतम उत्पादक सत्र था। इस सत्र के दौरान लोकसभा ने अपने मुकर्रर समय के 21 फीसदी और राज्यसभा ने 27 फीसदी समय में काम किया। बाकी वक्त बरबाद हो गया।

Sunday, April 1, 2018

राजनीति ने नागरिक को ‘डेटा पॉइंट’ बनाया

पिछले साल जब सुप्रीम कोर्ट ने व्यक्ति की निजता को उसका मौलिक अधिकार माना, तबसे हम निजी सूचनाओं को लेकर चौकन्ने हैं। परनाला सबसे पहले आधारपर गिरा, जिसके राजनीतिक संदर्भ ज्यादा थे। सामान्य व्यक्ति अब भी निजता के अधिकार के बारे में ज्यादा नहीं जानता। वह डेटा पॉइंट बन गया है, जबकि उसे जागरूक नागरिक बनना है। दूसरी तरफ हमारे वंचित और साधनहीन नागरिक अपनी अस्तित्व की रक्षा में ऐसे फँसे हैं कि ये सब बातें विलासिता की वस्तु लगती हैं। बहरहाल कैम्ब्रिज एनालिटिका के विसिल ब्लोवर क्रिस्टोफर वायली ने ब्रिटिश संसदीय समिति को जो जानकारियाँ दी हैं, उनके भारतीय निहितार्थों पर विचार करना चाहिए। विचार यह भी करना चाहिए कि हमारे विचारों और भावनाओं का दोहन कितने तरीकों से किया जा सकता है और इसकी सीमा क्या है। एक तरफ हम मशीनों में कृत्रिम मेधा भर रहे हैं और दूसरी तरफ इंसानों के मन को मशीनों की तरह काबू में करने की कोशिश कर रहे हैं। 

इस मामले के तीन अलग-अलग पहलू हैं, जिन्हें एकसाथ देखने की कोशिश संशय पैदा कर रही है। पिछले कुछ समय से हम आधार को लेकर बहस कर रहे हैं। आधार बुनियादी तौर पर एक पहचान संख्या है, जिसका इस्तेमाल नागरिक को राज्य की तरफ से मिलने वाली सुविधाएं पहुँचाने के लिए किया जाना था, पर अब दूसरी सेवाओं के लिए भी इस्तेमाल होने लगा है। इसमें दी गई सूचनाएं लीक हुईं या उनकी रक्षा का इंतजाम इतना मामूली था कि उन्हें लीक करके साबित किया गया कि जानकारियों पर डाका डाला जा रहा है। चूंकि व्यक्तिगत सूचनाओं का व्यावसायिक इस्तेमाल होता है, इसलिए आधार विवाद का विषय बना और अभी उसका मामला सुप्रीम कोर्ट के सामने है। 

Sunday, March 25, 2018

पत्रकारिता माने मछली-बाजार नहीं

पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा ने जय शाह मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि मीडिया को और ज्यादा जिम्मेदार होने की जरूरत है। उन्होंने अपनी बात को स्पष्ट करते हुए कहा, हम प्रेस की आवाज को नहीं दबा रहे हैं, लेकिन कभी-कभी पत्रकार कुछ ऐसी बातें लिखते हैं जो पूर्ण रूप से अदालत की अवमानना होती हैं। उन्होंने यह भी कहा कि कुछ उच्च पदों पर बैठे पत्रकार कुछ भी लिख सकते हैं। क्या यह वाकई पत्रकारिता है? हम हमेशा प्रेस की आजादी के पक्षधर रहे हैं, लेकिन किसी के बारे में कुछ भी बोल देना और कुछ भी लिख देना गलत है। इसकी भी एक सीमा होती है।

Monday, March 19, 2018

क्षेत्रीय क्षत्रपों में हलचल

तेलुगु देशम पार्टी ने अपने चार साल पुराने गठबंधन को खत्म करके एनडीए से अलग होने का फैसला अचानक ही नहीं किया होगा। पार्टी ने बहुत तेजी से मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश करने का फैसला भी कर लिया। आंध्र की ही वाईएसआर कांग्रेस ने इसके पहले अविश्वास प्रस्ताव पेश किया था, जिसके नोटिस को स्पीकर स्वीकार नहीं किया। सब जानते हैं कि सरकार गिरने वाली नहीं है, पर अचानक इस प्रस्ताव को समर्थन मिलने लगा है। इसके साथ कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, एआईएमआईएम और वामपंथी पार्टियाँ नजर आ रहीं हैं। याद करें, पिछले लोकसभा चुनाव के पहले आंध्र प्रदेश और तेलंगाना राजनीतिक कारणों से खबरों में रहते थे।

Sunday, March 11, 2018

गठबंधनों का गणित, गठजोड़ों की आहटें


राजनीतिक-बेताल फिर से डाल पर वापस चला गया है। पूर्वोत्तर के चुनाव परिणाम आने के साथ राजनीतिक घटनाक्रम तेजी से बदलने लगा है। इस वक्त एक बड़ा सवाल है कि लोकसभा के चुनाव कब होंगे? अब सारी निगाहें कर्नाटक के चुनाव पर हैं। वहाँ के नतीजे अगले आम-चुनाव की दशा-दिशा तट करेंगे। कांग्रेस जीती तो बीजेपी लोकसभा चुनाव जल्दी कराने पर जोर नहीं देगी, क्योंकि इससे न केवल कांग्रेस के हौसले बुलंद होंगे, बीजेपी के हौसले धराशायी हो जाएंगे।

बीजेपी की रणनीति फिलहाल निरंतर सफल होते जाने में है। इसलिए यदि बीजेपी कर्नाटक में जीत गई तो राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनावों के साथ लोकसभा चुनाव कराने पर जरूर विचार करेगी। वह राजस्थान और मध्य प्रदेश की एंटी इनकम्बैंसी का जोखिम नहीं उठाएगी और जीत की लहर पैदा करने की कोशिश करेगी, जिसमें हिन्दी भाषी इन तीनों राज्यों को बहा लेने की कोशिश होगी। उधर पृष्ठभूमि में चुनाव-पूर्व के गठबंधनों की गहमागहमी भी शुरू हो चुकी है। आंध्र प्रदेश में तेदेपा और बीजेपी गठबंधन का गठबंधन टूटने के बाद कुछ नए गठजोड़ों की आहट मिल रही है।  

Tuesday, March 6, 2018

चिदम्बरम को घेर पाएगी सरकार?

पिछले हफ्ते जब सारे टीवी चैनल श्रीदेवी के निधन की खबरों से घिरे थे, अचानक सुबह कार्ति चिदम्बरम की गिरफ्तारी की खबर आई। इसके साथ इस आशय की खबरें भी आईं कि सरकार आर्थिक अपराधों के खिलाफ एक मजबूत कानून संसद के इसी सत्र में पेश करने जा रही है। पंजाब नेशनल बैंक घोटाले के कारण अर्दब में आई सरकार अचानक आक्रामक मुद्रा में दिखाई पड़ने लगी है। नोटबंदी के दौरान चार्टर्ड अकाउंटेंटों और बैंकों की भूमिका को लेकर काफी लानत-मलामत हुईं थी। अब दोनों तरफ से घेराबंदी चल रही है। देखना होगा कि सरकर विपक्षी घेरे में आती है या पलटवार करती है।

पी चिदम्बरम के बेटे कार्ति चिदम्बरम की गिरफ्तारी के कई मायने हैं। इसे एक आपराधिक विवेचना की तार्किक परिणति, देश में सिर उठा रहे आर्थिक अपराधियों को एक चेतावनी, राजनीतिक बदले और नीरव मोदी प्रकरण की पेशबंदी के रूप में अलग-अलग तरीके से देखा जा रहा है। सभी बातों का कोई न कोई आधार है, पर इसका सबसे बड़ा निहितार्थ राजनीतिक है। पूर्वोत्तर के चुनाव-परिणामों से प्रफुल्लित भारतीय जनता पार्टी पूरे वेग के साथ अब कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनावों में उतरेगी, जहाँ निश्चित रूप से यह मामला बार-बार उठेगा।