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Tuesday, October 2, 2018

मजबूरी नहीं, जरूरी हैं गांधी

श्रेष्ठ विचारों की झंडी बनाकर उससे सजावट करने में हमारा जवाब नहीं है। गांधी इसके उदाहरण हैं। लम्बे अरसे तक देश में कांग्रेस पार्टी का शासन रहा। पार्टी खुद को गांधी का वारिस मानती है, पर उसके शासनकाल में ही गांधी सजावट की वस्तु बने। हमारी करेंसी पर गांधी हैं और अब नए नोटों में उनका चश्मा भी है। पर हमने गांधी के विचारों पर आचरण नहीं किया। उनके विचारों का मजाक बनाया। कुछ लोगों ने कहा, मजबूरी का नाम महात्मा गांधी। लम्बे अरसे तक देश के कम्युनिस्ट नेता उनका मजाक बनाते रहे, पर आज स्थिति बदली हुई है। गांधी का नाम लेने वालों में वामपंथी सबसे आगे हैं।
उनके जन्मदिन को राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाने और तमाम शहरों की सड़कों को महात्मा गांधी मार्ग बनाने के बावजूद हमें लगता है कि उनकी जरूरत 1947 के पहले तक थी। अब होते भी तो क्या कर लेते?  वस्तुतः गांधी की जरूरत केवल आजादी की लड़ाई तक सीमित नहीं थी। सन 1982 में रिचर्ड एटनबरो की फिल्म गांधीने दुनियाभर का ध्यान खींचा, तब इस विषय पर एकबार फिर चर्चा हुई कि क्या गांधी आज प्रासंगिक हैं? वह केवल भारत की बहस नहीं थी। और आज गांधी की उपयोगिता शिद्दत से महसूस की जा रही है।

Saturday, September 1, 2018

लोकतांत्रिक ‘सेफ्टी वॉल्वों’ पर वार

मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी और उसके बाद शुरू हुई ‘बहस’ और ‘अदालती कार्यवाही’ कई मानों में लोकतंत्र के लिए शुभ लक्षण है। एक तरफ देश में फासीवाद, नाजीवाद के पनपने के आरोप हैं, वहीं हमारे बीच ऐसे व्यक्ति और संगठन हैं, जो रात-रात भर अदालतों में गुहार लगा सकते हैं। ऐसे में इस व्यवस्था को फासिस्ट कैसे कहेंगे? हमारी अदालतें नागरिक अधिकारों के पक्ष में हस्तक्षेप कर रहीं हैं। मीडिया पर तमाम तरह के आरोप हैं, पर ऐसा नहीं कि इस मामले में सामाजिक कार्यकर्ताओं के पक्ष को सामने रखा न गया हो। 

इस मामले का 2019 की चुनावी राजनीति से कहीं न कहीं सीधा रिश्ता है। बीजेपी की सफलता के पीछे दलित और ओबीसी वोट भी है। बीजेपी-विरोधी राजनीति उस वोट को बीजेपी से अलग करना चाहती है। रोहित वेमुला प्रकरण एक प्रतीक है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ लम्बे अरसे से दलितों और खासतौर से जनताजातीय इलाकों में सक्रिय है। यह इस प्रकरण का आंतरिक पक्ष है। सवाल यह है कि बीजेपी ने उन लोगों पर कार्रवाई क्यों की जो सीधे उसके राजनीतिक प्रतिस्पर्धी नहीं हैं? दूसरा सवाल यह है कि यदि ये ताकतें बीजेपी को परास्त करने की योजना में शामिल हैं, तो यह योजना किसकी है? इन बातों पर अलग से विचार करने की जरूरत है। 

फिलहाल इस प्रकरण का सीधा वास्ता हमारी राजनीतिक-व्यवस्था और लोकतांत्रिक संस्थाओं से है, जो परेशान करने वाला है। साथ ही भारतीय राष्ट्र-राज्य की एकता और अखंडता के सवाल भी हैं, जिनकी तरफ हम देख नहीं पा रहे हैं। बदलते भारत और उसके भीतर पनपने वाले उदार लोकतांत्रिक समाज की परिकल्पना के बरक्स कई प्रकार की अंतर्विरोधी धाराओं का टकराव भी देखने को मिल रहा है।

अधिकारों की रक्षा और नागरिकों की सुरक्षा के सवाल बेहद महत्वपूर्ण हैं, पर यह मामला ज्यादा बड़े राजनीतिक विमर्श से जुड़ा है। इसके साथ 1947 की आजादी के बाद राष्ट्र-राज्य के गठन की प्रक्रिया और विकास की धारा से कटे आदिवासियों, दलितों और वंचितों के सवाल भी हैं। इस मामले के कानूनी, राजनीतिक और राष्ट्र-राज्य के संरक्षण से जुड़े तीन अलग-अलग पहलू हैं। तीनों गड्ड-मड्ड हो रहे हैं। उन्हें सही परिप्रेक्ष्य में समझने के जरूरत है।

सेफ्टी वॉल्व

इन दिनों शब्द चल रहा है अर्बन नक्सली। सच यह है कि बड़ी संख्या में लोग माओवादी, कम्युनिस्ट, नक्सवादी, लिबरल और वामपंथी वगैरह के अर्थ नहीं जानते। अक्सर सबको एक मानकर चलते हैं। सामाजिक जीवन से जुड़े वकील, अध्यापक, साहित्यकार या दूसरे कार्यकर्ता काफी खुले तरीके से सोचते हैं। क्या उनकी राजनीतिक असहमतियों को देश-द्रोह का दर्जा देना चाहिए? इस मामले के कुछ पहलुओं की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में हो रही है। जिस बेंच में सुनवाई हो रही है उसके एक सदस्य जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा है, ‘असहमति, लोकतंत्र का सेफ्टी वॉल्व है। असहमति को अनुमति नहीं दी गई तो प्रेशर कुकर फट सकता है।’

पिछले 71 वर्षों में भारतीय लोकतंत्र ऐसे सेफ्टी वॉल्वों की वजह से सुरक्षित है। इसमें राष्ट्र-राज्य की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है। क्या वर्तमान राजनीतिक सत्ता-प्रतिष्ठान के फैसले चरमपंथी हैं? क्या उसके पहले के सत्ता-प्रतिष्ठान की रीति-नीति फर्क थी? इस चर्चा के दौरान तथ्य सामने आएंगे। जिनके आधार पर हमें आमराय बनाने का मौका मिलेगा। लोकतांत्रिक विकास का यह भी एक दौर है। जरूरी है कि इस बहस को राष्ट्रीय स्तर पर आगे बढ़ाएं।

Sunday, July 22, 2018

राजनीतिक अंताक्षरी राउंड वन


अविश्वास प्रस्ताव ने देश की राजनीति में अचानक करेंट पैदा कर दिया। बहरहाल उसकी औपचारिकता पूरी हो गई, अब इसके निहितार्थ के बारे में सोचिए। पहला सवाल है कि इसे लाया ही क्यों गया? लोकसभा चुनाव के पहले विरोधी-एकता की यह पहली बड़ी कोशिश है। सरकार के खिलाफ पिछले चार साल से पैदा हो रही शिकायतों को मुखर करने और बीजेपी के अंतर्विरोधों पर प्रहार करने का यह अच्छा मौका था। इस प्रस्ताव के सहारे इन पार्टियों को आपसी समन्वय स्थापित करने में सफलता मिलेगी। कांग्रेस इस मुहिम के साथ है, इसलिए उसे भी इसका राजनीतिक लाभ मिलना चाहिए।
सवाल है कि क्या ऐसा हुआ? इस मुहिम लाभ किसे मिला? कांग्रेस को, शेष विपक्ष को या बीजेपी को? जवाब फौरन देने में दिक्कतें हैं, पर इतना साफ है कि इसके परिणाम का पता सबको पहले से था। सबकी दिलचस्पी इस बात में थी कि माहौल कैसा बनता है। यह भी कि शेष सत्र में सत्तारूढ़ दल और विपक्ष की रणनीति क्या होगी। कहीं लोकसभा चुनाव वक्त से पहले न हो जाएं। उधर साल के अंत में राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में चुनाव हैं। सत्रावसान के बाद नेताओं और विश्लेषकों की निगाहें इधर मुड़ जाएंगी। इस लिहाज से मॉनसून सत्र और खासतौर से अविश्वास प्रस्ताव की बहस देर तक और दूरतक याद रखी जाएगी।  

Sunday, July 1, 2018

'हवा का बदलता रुख' और कांग्रेस


हाल में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के धरने के वक्त विरोधी दलों की एकता के दो रूप एकसाथ देखने को मिले। एक तरफ ममता बनर्जी समेत चार राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने धरने का समर्थन किया, वहीं कांग्रेस पार्टी ने न केवल उसका विरोध किया, बल्कि सार्वजनिक रूप से अपनी राय को व्यक्त भी किया। इसके बाद फिर से यह सवाल हवा में है कि क्या विरोधी दलों की एकता इतने प्रभावशाली रूप में सम्भव होगी कि वह बीजेपी को अगले चुनाव में पराजित कर सके।

सवाल केवल एकता का नहीं नेतृत्व का भी है। इस एकता के दो ध्रुव नजर आने लगे हैं। एक ध्रुव है कांग्रेस और दूसरे ध्रुव पर ममता बनर्जी के साथ जुड़े कुछ क्षेत्रीय क्षत्रप। दोनों में सीधा टकराव नहीं है, पर अंतर्विरोध है, जो दिल्ली वाले प्रसंग में मुखर हुआ। इसके अलावा कर्नाटक सरकार की कार्यशैली को लेकर भी मीडिया में चिमगोइयाँ चल रहीं हैं। स्थानीय कांग्रेस नेताओं और जेडीएस के मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी के बीच मतभेद की बातें हवा में हैं। पर लगता है कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी कर्नाटक में किसी किस्म की छेड़खानी करने के पक्ष में नहीं है। उधर बिहार से संकेत मिल रहे हैं कि नीतीश कुमार और कांग्रेस पार्टी के बीच किसी स्तर पर संवाद चल रहा है।

Thursday, June 21, 2018

विरोधी-एकता के अंतर्विरोध

पिछले शनिवार को चार गैर-भाजपा राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने दिल्ली के मुख्यमंत्री और उनकी कैबिनेट के सदस्यों के धरने का समर्थन करके कांग्रेस पार्टी के नाम बड़ा संदेश देने की कोशिश की थी। इस कोशिश ने विरोधी-एकता के अंतर्विरोधों को भी खोला है। नीति आयोग की बैठक में शामिल होने आए, इन चार मुख्यमंत्रियों में केवल एचडी कुमारस्वामी का कांग्रेस के साथ गठबंधन है। ममता बनर्जी, पिनाराई विजयन और चंद्रबाबू नायडू अपने-अपने राज्यों में कांग्रेस के प्रतिस्पर्धी हैं। इतना ही नहीं, पिनाराई विजयन की पार्टी बंगाल में ममता बनर्जी की मुख्य प्रतिस्पर्धी है। सवाल है कि क्या इन पार्टियों ने अपने परस्पर टकरावों पर ध्यान क्यों नहीं दिया? क्या उन्हें यकीन है कि वे इन अंतर्विरोधों को सुलझा लेंगे?

हालांकि इस तरफ किसी ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया है, पर वस्तुतः इन चारों ने दिल्ली में कांग्रेस की प्रतिस्पर्धी पार्टी का समर्थन करके बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है। विरोधी दलों की एकता के दो आयाम हैं। एक, कांग्रेस-केंद्रित एकता और दूसरी क्षेत्रीय क्षत्रप-केंद्रित एकता। दिल्ली में आम आदमी पार्टी खुद को गैर-भाजपा विपक्ष की महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में स्थापित कर रही है, वहीं कांग्रेस उसे बीजेपी की ‘बी’ टीम मानती है। दोनों बातों में टकराव है।

Saturday, June 9, 2018

दादा किसे दिखा गए आईना?

पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मंच पर जाकर क्या बोला, उससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि वे उस मंच पर गए। यह बात अब इतिहास के पन्नों पर दर्ज हो चुकी है। इस सिलसिले में जो भ्रम पहले था, वह अब भी कायम है। प्रणब दा इस कार्यक्रम में क्यों गए? उनकी मनोकामना क्या है? क्या इसके पीछे कोई राजनीति है या सदाशयता? राष्ट्रवाद पर उनके विचारों का प्रसार करने के लिए क्या यह उपयोगी मंच था? था भी तो कुल मिलाकर क्या निकला?
प्रणब दा ने भारतीय समाज की बहुलता, विविधता, सहिष्णुता और अनेकता में एकता जैसी बातें कहीं। मोहन भागवत ने कहा, यह हमारे हिन्दू समाज की विशेषता है। हम तो अनेकता के कायल हैं। उनके भाषण में गांधी हत्या का उल्लेख होता, गोडसे का नाम होता और गोरक्षकों के उत्पात का जिक्र होता, तो इस वक्तव्य का स्वरूप राजनीतिक हो जाता। पर प्रणब मुखर्जी ने सायास ऐसा नहीं होने दिया।

Saturday, May 5, 2018

वोट मुसलमान का, सियासत किसी और की...

कर्नाटक विधानसभा चुनावों के प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने पहले तो एचडी देवगौड़ा की तारीफ की और फिर अगले ही रोज कहा कि जेडीएस को वोट देने का मतलब है वोट की बरबादी। क्या उनके इन उल्टे-सीधे बयानों के पीछे कोई गहरी राजनीति है? वे वोटर को बहका रहे हैं या अपने प्रतिस्पर्धियों को? क्या बीजेपी और जेडीएस का कोई छिपा समझौता है? क्या बीजेपी ने कांग्रेस को हराने के लिए जेडीएस को ढाल बनाया है? भारतीय राजनीति में सोशल इंजीनियरी का स्वांग तबतक चलेगा, जबतक वोटर को अपने हितों की समझ नहीं होगी। मुसलमान वोटर पर भी यही बात लागू होती है।
कर्नाटक की सोशल इंजीनियरी उत्तर भारत के राज्यों से भी ज्यादा जटिल है। ऐसे में देवेगौडा की तारीफ या आलोचना मात्र से कुछ फीसदी वोट इधर से उधर हो जाए, तो हैरत नहीं होनी चाहिए। इस इंजीनियरी में सिद्धरमैया और अमित शाह में से किसका दिमाग सफल होगा, इसका पता चुनाव परिणाम आने पर लगेगा। इतना समझ में आ रहा है कि बीजेपी की कोशिश है कि दलितों और मुसलमानों के एकमुश्त वोट कांग्रेस को मिलने न पाएं। इसमें जेडीएस मददगार होगी।
सोशल इंजीनियरी का स्वांग
क्या जेडीएस खुद को चारे की तरह इस्तेमाल होने देगी? उसका बीएसपी और असदुद्दीन ओवेसी की एआईएमआईएम के साथ समझौता है और उसका अपना भी वोट-आधार है। उसके गणित को भी समझना होगा। सन 2015 में जबसे ओवेसी बिहार में चुनाव लड़ने गए हैं, उनकी साख घटी है। माना जाता है कि वे कांग्रेस को मिलने वाला मुसलमान वोट काटने के लिए जाते हैं।
राज्य में दलित और मुसलमान दो सबसे बड़े सामाजिक वर्ग हैं। ये दोनों एक साथ आ जाएं, तो बड़ी ताकत बन सकते हैं, पर क्या ऐसा सम्भव है? प्रश्न है कि दलित और मुसलमान क्या टैक्टिकल वोटिंग करेंगे? दलित ध्रुवीकरण अभी राज्य में नहीं है, पर मुसलमान वोट सामान्यतः बीजेपी को हराने वाली पार्टी को जाता है। सिद्धरमैया भी चाहते हैं कि बीजेपी और जेडीएस का याराना नजर आए। इससे मुसलमानों की जेडीएस से दूरी बढ़ेगी। हाल में कांग्रेस ने जेडीएस के कुछ मुस्लिम नेताओं को अपनी तरफ तोड़ा भी है।

Friday, April 27, 2018

निराशाराम!!!

एक नाबालिग लड़की से बलात्कार के मामले में जोधपुर कोर्ट ने बाबा आसाराम को उम्र कैद की सज़ा सुनाई है। उनके साथियों को भी सजाएं हुईं हैं। आसाराम बापू का नाम उन बाबाओं में लिया जाता है, जिनका गहरा राजनीतिक रसूख रहा है। देश के बड़े-बड़े नेता उनके दरबार में मत्था टेकते रहे हैं। कांग्रेस पार्टी ने एक वीडियो जारी किया है, जिसमें नरेन्द्र मोदी के साथ आसाराम नजर आ रहे हैं। सच यह है कि बीजेपी ही नहीं, कांग्रेस के बड़े नेता भी उनके भक्त रहे हैं। भक्तों की बड़ी संख्या राजनीति को इस धंधे की तरफ खींचती है।  

संयोग है कि पिछले दो-तीन साल में एक के बाद अनेक कथित संतों का भंडाफोड़ हुआ है। बाबा रामपाल, आसाराम बापू और फिर गुरमीत राम रहीम की जेल-यात्रा ने भारत की बाबा-संस्कृति को लेकर बुनियादी सवाल खड़े किए हैं। क्या बात है, जो इन बाबाओं के पीछे इतनी बड़ी संख्या में भक्त खड़े हो जाते हैं? आसाराम बापू के संगठन का दावा है कि दुनियाभर में उनके चार करोड़ भक्त हैं। वे यह मानने को तैयार नहीं कि बाबा पर लगे आरोप सही हैं। वे मानते हैं कि उन्हें फँसाया गया है।

Saturday, March 31, 2018

कांग्रेस है कहाँ, एकता-चिंतन के केन्द्र में या परिधि में?


बीजेपी-विरोधी दलों की लामबंदी के तीन आयाम एकसाथ उभरे हैं। एक, संसद में पेश विश्वास प्रस्ताव, दूसरा सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग लाने की मुहिम और तीसरा, लोकसभा चुनाव से पहले विरोधी दलों का मोर्चा बनाने की कोशिश। इन तीनों परिघटनाओं को कांग्रेसी नेतृत्व की दरकार है। अभी साफ नहीं है कि कांग्रेस इन परिघटनाओं का संचालन कर रही है या बाहरी ताकतें कांग्रेस को चलाने की कोशिश कर रही हैं? सवाल यह भी है कि क्या देश की राजनीति ने बीजेपी और शेष के फॉर्मूले को मंजूर कर लिया है?

इस मुहिम के केन्द्र में कांग्रेस के होने का एक मतलब होगा। और परिधि में रहने का मतलब दूसरा होगा। संयोग से इसी दौर में कांग्रेस के भीतर बदलाव चल रहा है। राहुल गांधी कांग्रेस को बदलने के संकल्प के साथ खड़े हुए हैं, पर उन्होंने अभी तक नई कार्यसमिति की घोषणा नहीं की है। विरोधी-एकता की मुहिम के केन्द्र में कांग्रेस को लाने के लिए जरूरी होगा कि उसका मजबूत संगठन जल्द से जल्द तैयार होकर खड़ा हो। संसद का यह सत्र खत्म होने वाला है। राजनीतिक दृष्टि से इस दौरान कोई उल्लेखनीय बात हुई। यह शून्य वैचारिक संकट की ओर इशारा कर रहा है।  

ममता-सोनिया संवाद

बुधवार को जब ममता बनर्जी ने दिल्ली में सोनिया गांधी से मुलाकात की, तो इस बात की सम्भावनाएं बढ़ गईं कि विरोधी दलों का महागठबंधन बनाया जा सकता है। अभी तक विरोधी एकता के दो ध्रुव नजर आ रहे थे। अब एक ध्रुव की उम्मीदें पैदा होने लगी हैं। पर, ममता-सोनिया संवाद ने जितनी उम्मीदें जगाईं, उतने सवाल भी खड़े किए हैं। यूपीए की ओर से पिछले कुछ समय से विरोधी-एकता की जो भी कोशिशें हुईं हैं, उनमें तृणमूल कांग्रेस के प्रतिनिधि शामिल हुए हैं, पर ममता बनर्जी उनमें नहीं आईं। अब ममता खुद सोनिया के दरवाजे पर आईं और भाजपा-विरोधी फ्रंट में साथ देने का न्योता दिया। ममता के मन में भी द्वंद्व है क्या?

Tuesday, March 20, 2018

फिर से खड़ी होती कांग्रेस

कांग्रेस महासमिति का 84 वां अधिवेशन दो बातों से महत्वपूर्ण रहा। पार्टी में लम्बे अरसे बाद नेतृत्व परिवर्तन हुआ है। इस अधिवेशन में राहुल गांधी की अध्यक्षता की पुष्टि हुई। दूसरे यह ऐसे दौर में हुआ है, जब पार्टी लड़खड़ाई हुई है। अब कयास हैं कि पार्टी निकट या सुदूर भविष्य में किस रास्ते पर जाएगी। अध्यक्ष पद की सर्वसम्मति से पुष्टि के अलावा अधिवेशन के अंतिम दिन राज्यों से आए प्रतिनिधियों और एआईसीसी के सदस्यों ने फैसला किया कि कांग्रेस कार्यसमिति के मनोनयन का पूरा अधिकार अध्यक्ष को सौंप दिया जाए। अटकलें यह भी थीं कि शायद राहुल गांधी कार्यसमिति के आधे सदस्यों का चुनाव करा लें। ऐसा हुआ नहीं और एक दीर्घ परम्परा कायम रही। बहरहाल इस महाधिवेशन के साथ कांग्रेस ने एक नए दौर की तरफ कदम बढ़ा दिए हैं। इतना नजर आता है कि कांग्रेस नरेन्द्र मोदी को राष्ट्रीय आपदा साबित करेगी और पहले के मुकाबले और ज्यादा वामपंथी जुमलों का इस्तेमाल करेगी। पार्टी की अगली कतार में अब नौजवानों की एक नई पीढ़ी नजर आएगी।  

Saturday, March 17, 2018

कांग्रेस अपनी ताकत तो साबित करे


पूर्वोत्तर में सफलता से भाजपा के भीतर जो जोश पैदा हुआ था, वह उत्तर प्रदेश और बिहार के तीन लोकसभा उपचुनावों में हार से ठंडा पड़ गया होगा। पर इन परिणामों से कोई नई बात साबित नहीं हुई। विपक्षी एकता का यह टेम्पलेट 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में तैयार हुआ था। उत्तर प्रदेश के लिए यह नई बात थी, क्योंकि 1993 के बाद पहली बार सपा और बसपा ने मिलकर चुनाव लड़ा था। संदेश साफ है कि यूपी में दोनों या कांग्रेस को भी जोड़ लें, तो तीनों मिलकर बीजेपी को हरा सकते हैं। पर इस फॉर्मूले को निर्णायक मान लेना जल्दबाजी होगी। बेशक 2019 के चुनावों के लिए उत्तर प्रदेश में विरोधी दलों की एकता को रोशनी मिली है, पर संदेह के कारण भी मौजूद हैं।  

बिहार में 2015 की सफलता राजद और जेडीयू की एकता का परिणाम थी। उसमें कांग्रेस की बड़ी भूमिका नहीं थी। उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस हाशिए की पार्टी है। सफलता मिली भी तो सपा-बसपा एकता की बदौलत। इसमें कांग्रेस की क्या भूमिका है? कांग्रेस को इस बात से संतोष हो सकता है कि इस एकता ने उसके मुख्य शत्रु को परास्त कराने में भूमिका निभाई। पर राजनीति में सबके हित अलग-अलग होते हैं। पहला सवाल है कि गोरखपुर-फूलपुर विजय से कांग्रेस को क्या हासिल हुआ या हासिल होगा? दूसरा यह कि क्या उत्तर प्रदेश के सामाजिक गठजोड़ की बिना पर क्या कांग्रेस राष्ट्रीय गठजोड़ खड़ा कर सकती है? इसके उलट सवाल यह भी है कि क्या वह सपा-बसपा और राजद की पिछलग्गू बनकर नहीं रह जाएगी?

कांग्रेसी नेतृत्व में विपक्ष?

बिहार की अररिया लोकसभा और जहानाबाद विधानसभा सीट राष्ट्रीय जनता दल की रही है। इस जीत से लालू और तेजस्वी यादव की बिहार में लोकप्रियता का अनुमान लगाना मुश्किल है। महत्वपूर्ण है उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री के चुनाव क्षेत्रों में बीजेपी की पराजय। इससे योगी आदित्यनाथ को ठेस लगी है। लोकसभा चुनाव करीब हैं, इसलिए राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में इसके निहितार्थ को समझने की जरूरत है। जिस रोज ये परिणाम आए उसके पहले दिन दिल्ली में कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी के रात्रि भोज में 20 विरोधी दलों की शिरकत का सांकेतिक महत्व भी है। कांग्रेस का कोशिश है कि सोनिया गांधी को राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष के नेता के रूप में प्रदर्शित किया जाए।

Saturday, February 10, 2018

कांग्रेस को 'सिर्फ' गठबंधन का सहारा

खबरें मिल रहीं हैं कि इस साल के अंत में होने वाले कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव के साथ लोकसभा चुनाव भी कराए जा सकते हैं। चालू बजट सत्र के पहले दिन अपने अभिभाषण में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी इस बात का संकेत किया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी इस बात का समर्थन किया। कांग्रेस सहित प्रमुख विरोधी दल इस बात के पक्ष में नजर नहीं आते हैं। कांग्रेस की कोशिश है कि अगले लोकसभा चुनाव के पहले समान विचारधारा वाले दलों की एकता कायम कर ली जाए, ताकि बीजेपी को हराया जा सके। पिछले साल राष्ट्रपति के चुनाव के पहले पार्टी ने इस एकता को कायम करने की कोशिश की थी। उसमें सफलता भी मिली, पर उसी दौर में बिहार का महागठबंधन टूटा और जेडीयू फिर से वापस एनडीए के साथ चली गई।
देश की राजनीति में सबसे लम्बे अरसे तक कांग्रेस का वर्चस्व रहा है। गठबंधन की राजनीति उसकी दिलचस्पी का विषय तभी बनता है जब वह गले-गले तक डूबने लगती है। तीन मौकों पर उसने गठबंधन सरकारें बनाईं। दो मौकों पर उसने बाहर से गठबंधन सरकारों को समर्थन दिया। हर बार सहयोगी दलों को कांग्रेस से शिकायतें रहीं। जब उसने बाहर से समर्थन दिया तो बैमौके समर्थन वापस लेकर सरकारें गिराईं। सन 2004 में पहली बार यूपीए बना, तो 2008 में वामदलों के हाथ खींच लेने के कारण सरकार गिरते-गिरते बची। यूपीए-2 के दौर में उसे लगातार ममता बनर्जी, शरद पवार और करुणानिधि के दबाव में रहना पड़ा।

Saturday, January 13, 2018

कांग्रेस के लिए दिल्ली अभी दूर है

देश की राजनीति में बीजेपी के विकल्प की जरूरत शिद्दत से महसूस की जा रही है। राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस उस विकल्प को देने की दिशा में उत्सुक भी लगती है। कांग्रेस का यह उत्साह 2019 के चुनाव तक बना भी रहेगा या नहीं, अभी यह कहना मुश्किल है। पार्टी ने अभी तक ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है, जिससे लगे कि अब उसकी बारी है। संसद के शीतसत्र में ऐसा नया कुछ नहीं हुआ, जिससे लगे कि यह बदली हुई कांग्रेस पार्टी है। पार्टी ने शीत सत्र देर से बुलाने को लेकर सत्तारूढ़ पक्ष पर जोरदार प्रहार किए थे। यदि यह सत्र एक महीने पहले भी हो जाता तो कांग्रेस किन बातों को उठाती?
कांग्रेस ने गुजरात चुनाव के दौरान नरेन्द्र मोदी के एक बयान को लेकर संसद में जो गतिरोध पैदा किया, उससे लगता नहीं कि कांग्रेस की किसी चमकदार राजनीति का राष्ट्रीय मंच पर उदय होने वाला है। शीत सत्र में संसद के दोनों सदनों का काफी समय नष्ट हुआ। पीआरएस रसर्च के अनुसार इसबार के शीत सत्र में लोकसभा के लिए निर्धारित समय में से 60.9 फीसदी और राज्यसभा में 40.9 फीसदी समय में काम हुआ। इस वक्त भी राज्यसभा में कांग्रेस और विपक्ष का दबदबा है। समय का सदुपयोग नहीं हो पाने का मतलब है कि ज्यादातर समय विरोध व्यक्त करने में खर्च हुआ। दोनों सदनों की उत्पादकता क्रमशः 78 और 54 फीसदी रही।

Saturday, December 9, 2017

बारह घोड़ों वाली गाड़ी पर राहुल

गुजरात विधानसभा चुनाव का पहला दौर शुरू होने के डेढ़ दिन पहले मणिशंकर के बयान और उसपर राहुल गांधी की प्रतिक्रिया और पार्टी की कार्रवाई को राहुल गांधी के नेतृत्व में आए सकारात्मक बदलाव के रूप में देखा जा सकता है। राहुल ने हाल में कई इस कहा है कि हम अपनी छवि अनुशासित और मुद्दों और मसलों पर केंद्रित रखना चाहते हैं। सवाल है कि मणिशंकर अय्यर को इतनी तेजी से निलंबित करना और उन्हें ट्विटर के मार्फत माफी माँगने का आदेश देना क्या बताता है? क्या यह पार्टी के अनुशासन-प्रिय होने का संकेत है या चुनावी आपा-धापी का?
राहुल गांधी के नेतृत्व की परीक्षा शुरू हो चुकी है। कांग्रेस बारह घोड़ों वाली गाड़ी है, जिसमें गर क्षण डर होता है कि कोई घोड़ा अपनी दिशा न बदल दे। बहरहाल गुजरात राहुल की पहली परीक्षा-भूमि है और मणिशंकर एपिसोड पहला नमूना। पार्टी के भीतर तमाम स्वर हैं, जो अभी सुनाई नहीं पड़ रहे हैं। देखना होगा कि वे मुखर होंगे या मौन रहेंगे। गुरुवार की शाम जैसे ही राहुल गांधी का ट्वीट आया कांग्रेसी नेताओं के स्वर बदल गए। जो लोग तबतक मणिशंकर अय्यर का समर्थन कर रहे थे, उन्होंने रुख बदल लिया।

Saturday, November 25, 2017

‘ग्रहण’ से बाहर निकलती कांग्रेस

कांग्रेस पार्टी के भीतर उत्साह का वातावरण है। एक तरफ राहुल गांधी के पदारोहण की खबरें हैं तो दूसरी ओर गुजरात में सफलता की उम्मीदें हैं। मीडिया की भाषा में राहुल गांधी ने फ्रंटफुट पर खेलना शुरू कर दिया है।  उनके भाषणों को पहले मुक़ाबले ज़्यादा कवरेज मिल रही है। अब वे हँसमुख, तनावमुक्त और तेज-तर्रार नेता के रूप में पेश हो रहे हैं। उनके रोचक ट्वीट आ रहे हैं। उनकी सोशल मीडिया प्रभारी दिव्य स्पंदना के अनुसार कि ये ट्वीट राहुल खुद बनाते हैं।
राहुल के पदारोहण के 14 दिन बाद गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव परिणाम आएंगे। ये परिणाम कांग्रेस के पक्ष में गए तो खुशियाँ डबल हो जाएंगी। और नहीं आए तो? कांग्रेस पार्टी हिमाचल में हारने को तैयार है, पर वह गुजरात में सफलता चाहती है। सफलता माने स्पष्ट बहुमत। पर आंशिक सफलता भी मिली तो कांग्रेस उसे सफलता मानेगी। कांग्रेस के लिए ही नहीं बीजेपी के नजरिए से भी गुजरात महत्वपूर्ण है। वह आसानी से इसे हारना नहीं चाहेगी। पर निर्भर करता है कि गुजरात के मतदाता ने किस बात का मन बनाया है। गुजरात के बाद कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे महत्वपूर्ण राज्य 2018 की लाइन में हैं। ये सभी चुनाव 2019 के लिए बैरोमीटर का काम करेंगे।

Saturday, November 18, 2017

चुनाव के अलावा कुछ और भी जुड़ा है अयोध्या-पहल के साथ

अयोध्या मसले पर अचानक चर्चा शुरू होने के पीछे कारण क्या है? पिछले कुछ साल से यह मसला काफी पीछे चला गया था। इस पर बातें केवल औपचारिकता के नाते ही की जाती थीं। सन 2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद से न्याय व्यवस्था ने भी इस दिशा में सक्रियता कम कर दी थी। तब यह अचानक सामने क्यों आया?
अयोध्या पर चर्चा की टाइमिंग इसलिए महत्वपूर्ण है कि गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभाओं के चुनाव सामने हैं। गुजरात में कांग्रेस पार्टी ने दलितों, ओबीसी और पाटीदारों यानी हिन्दू जातियों के अंतर्विरोध को हथियार बनाया है, जिसका सहज जवाब है हिन्दू अस्मिता को जगाना। गुजरात में बीजेपी दबाव में आएगी तो वह ध्रुवीकरण के हथियार को जरूर चलाएगी। पर अयोध्या की गतिविधियाँ केवल चुनावी पहल नहीं लगती।
भाजपा का ब्रह्मास्त्र
सन 2018 में कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनाव भी होंगे। कर्नाटक में कांग्रेस ने कन्नड़ अस्मिता और लिंगायतों का सहारा लेना शुरू कर दिया है। इसलिए लगता है कि बीजेपी अपने ब्रह्मास्त्र का इस्तेमाल करने जा रही है। यह बात आंशिक रूप से सच हो सकती है। शायद चुनाव में भाजपा को मंदिर की जरूरत पड़ेगी, पर यह केवल वहीं तक सीमित नहीं लगता। हाँ इतना लगता है कि इस अभियान के पीछे भाजपा का हाथ भी है, भले ही वह इससे इनकार करे।

Saturday, October 14, 2017

राहुल के पुराने तरकश से निकले नए तीर


कुछ महीने पहले तक माना जा रहा था कि मोदी सरकार मजबूत जमीन पर खड़ी है और वह आसानी से 2019 का चुनाव जीत ले जाएगी। पर अब इसे लेकर संदेह भी व्यक्त किए जाने लगे हैं। बीजेपी की लोकप्रियता में गिरावट का माहौल बन रहा है। खासतौर से जीएसटी लागू होने के बाद जो दिक्कतें पैदा हो रहीं हैं, उनके राजनीतिक निहितार्थ सिर उठाने लगे हैं। संशय की इस बेला में गुजरात दौरे पर गए राहुल गांधी की टिप्पणियों ने मसालेदार तड़का लगाया है।

पिछले कुछ दिन से माहौल बनने लगा है कि 2019 के चुनाव मोदी बनाम राहुल होंगे। राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष बनने को तैयार हैं। पहली बार लगता है कि वे खुलकर सामने आने वाले हैं। पर उसके पहले कुछ किन्तु-परन्तु बाकी हैं। सबसे बड़ा सवाल है कि क्या गुजरात में कांग्रेसी अभिलाषा पूरी होगी? यदि हुई तो उसका परिणाम क्या होगा और नहीं हुई तो क्या होगा?

Saturday, September 30, 2017

यशवंत सिन्हा का वार


यशवंत सिन्हा ने मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों की बखिया उधेड़ कर दो बातों की ओर इशारा किया है। पहली नजर में यह पार्टी के नेतृत्व और सरकार की रीति-नीति की आलोचना है और आर्थिक मोर्चे पर आ रहे गतिरोध की ओर इशारा। पर यह सामान्य ध्यानाकर्षण नहीं है। इसके पीछे गहरी वेदना को भी हमें समझना होगा। आलोचना के लिए उन्होंने पार्टी का मंच नहीं चुना। अख़बार चुना, जहाँ पी चिदंबरम हर हफ्ते अपना कॉलम लिखते हैं। सरकार की आलोचना के साथ प्रकारांतर से उन्होंने यूपीए सरकार की तारीफ भी की है।

पार्टी-इनसाइडरों का कहना है कि यह आलोचना दिक्कत-तलब जरूर है, पर पार्टी इसे अनुशासनहीनता का मामला नहीं मानती। इसका जवाब देकर मामले की अनदेखी की जाएगी। उन्हें पहला जवाब रेलमंत्री पीयूष गोयल ने दिया है। उन्होंने कहा कि नोटबंदी और जीएसटी जैसे कदम देश की अर्थ-व्यवस्था में सुधार के चरण हैं। ऐसे में कुछ दिक्कतें आती हैं, पर हालात न तो खराब हैं और न उनपर चिंता करने की कोई वजह है। इन कदमों से अर्थ-व्यवस्था में अनुशासन आएगा और गति भी बढ़ेगी। स्वाभाविक रूप से यह देश की आर्थिक दशा-दिशा की आलोचना है। उनके लेख के जवाब में उनके बेटे जयंत सिन्हा ने भी एक लेख लिखा है, जो उनके लिए बदमज़गी पैदा करने वाला है।

Saturday, September 16, 2017

बर्कले द्वार से राहुल का आगमन

कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धरमैया का कहना है कि कांग्रेस की वापसी अगले साल होने वाले कर्नाटक विधानसभा चुनाव से होगी। उनका यह भी कहना है कि देश की जनता राहुल गांधी को अपने नेता के रूप में स्वीकार करती है। सिद्धरमैया का यह बयान आम राजनेता का बयान है, पर इसके दो महत्वपूर्ण तथ्यों का सच समय पर ही सामने आएगा। पहला, कि क्या कांग्रेस की वापसी होगी? और दूसरा, क्या राहुल गांधी पूरे देश का नेतृत्व करेंगे, यानी प्रधानमंत्री बनेंगे?

राहुल गांधी ने अमे‍रिका के बर्कले विश्वविद्यालय में जो बातें कहीं हैं, उन्हें कई नजरियों से देखा जाएगा। राष्ट्रीय राजनीति की प्रवृत्तियों, संस्कृति-समाज और मोदी सरकार वगैरह के परिप्रेक्ष्य में। पर कांग्रेस की समग्र रीति-नीति को अलग से देखने की जरूरत है। राहुल ने बर्कले में दो बातें ऐसी कहीं हैं, जिनसे उनकी व्यक्तिगत योजना और पार्टी के भविष्य के कार्यक्रम पर रोशनी पड़ती है। उन्होंने कहा, मैं 2019 के आम चुनावों में पार्टी का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने के लिए पूरी तरह से तैयार हूँ।

असमंजस के 13 साल

पहली बार राहुल गांधी ने सार्वजनिक रूप से ऐसी बात कही है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि मेरी तरफ से इसे सार्वजनिक करना उचित नहीं है, क्योंकि पहले पार्टी को इसे मंजूर करना है। राहुल ने कश्मीर के संदर्भ में एक और बात कही, जिसका वास्ता उनकी राजनीतिक-प्रशासनिक दृष्टि से जुड़ा है। उन्होंने कहा कि मैंने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, पी चिदंबरम और जयराम रमेश के साथ मिलकर नौ साल तक जम्मू-कश्मीर में शांति स्थापना पर काम किया। यानी सन 2004 से प्रशासन में वे सक्रिय थे।

Friday, September 8, 2017

इस कट्टरता का स्रोत कहाँ है?


पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या के कारण देश के उदारमना लोगों के मन में दहशत है। विचार अभिव्यक्ति के सामने खड़े खतरे नजर आने लगे हैं। पिछले तीन साल से चल रही असहिष्णु राजनीति की बहस ने फिर से जोर पकड़ लिया है। हत्या के फौरन बाद मुख्यधारा के मीडिया और सोशल मीडिया में खासतौर से दो अंतर्विरोधी प्रतिक्रियाएं प्रकट हुईं हैं। हत्या किसने की और क्यों की, इसका इंतजार किए बगैर एक तबके ने मोदी सरकार को कोसना शुरू कर दिया। दूसरी ओर कुछ लोग सोशल मीडिया पर अभद्र तरीके से इस हत्या पर खुशी जाहिर कर रहे हैं।  

हम आधुनिकता की ओर बढ़ रहे हैं, जिसकी बुनियाद में उदारता को होना चाहिए। कट्टरपंथी समाज आधुनिक नहीं हो सकता। सवाल केवल गौरी लंकेश की हत्या का नहीं है। हमारे बौद्धिक विमर्श की दिशा क्या है? इस हत्या के बाद हमारी साख और घटी है। सवाल यह है कि क्या यह भारतीय जनता पार्टी और उसके हिंदुत्व एजेंडा की देन है? क्या यह हत्या कर्नाटक में कुछ महीने बाद होने वाले विधानसभा चुनाव से जुड़ी तो नहीं है?  कर्नाटक में कांग्रेस पार्टी की सरकार है। वह इस हत्याकांड का पर्दाफाश क्यों नहीं करती?