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Friday, September 8, 2017

इस कट्टरता का स्रोत कहाँ है?


पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या के कारण देश के उदारमना लोगों के मन में दहशत है। विचार अभिव्यक्ति के सामने खड़े खतरे नजर आने लगे हैं। पिछले तीन साल से चल रही असहिष्णु राजनीति की बहस ने फिर से जोर पकड़ लिया है। हत्या के फौरन बाद मुख्यधारा के मीडिया और सोशल मीडिया में खासतौर से दो अंतर्विरोधी प्रतिक्रियाएं प्रकट हुईं हैं। हत्या किसने की और क्यों की, इसका इंतजार किए बगैर एक तबके ने मोदी सरकार को कोसना शुरू कर दिया। दूसरी ओर कुछ लोग सोशल मीडिया पर अभद्र तरीके से इस हत्या पर खुशी जाहिर कर रहे हैं।  

हम आधुनिकता की ओर बढ़ रहे हैं, जिसकी बुनियाद में उदारता को होना चाहिए। कट्टरपंथी समाज आधुनिक नहीं हो सकता। सवाल केवल गौरी लंकेश की हत्या का नहीं है। हमारे बौद्धिक विमर्श की दिशा क्या है? इस हत्या के बाद हमारी साख और घटी है। सवाल यह है कि क्या यह भारतीय जनता पार्टी और उसके हिंदुत्व एजेंडा की देन है? क्या यह हत्या कर्नाटक में कुछ महीने बाद होने वाले विधानसभा चुनाव से जुड़ी तो नहीं है?  कर्नाटक में कांग्रेस पार्टी की सरकार है। वह इस हत्याकांड का पर्दाफाश क्यों नहीं करती?

Saturday, August 5, 2017

अब दाँव पर कांग्रेस का सर्वस्व

कांग्रेस अपने इतिहास के सबसे मुश्किल दौर में प्रवेश कर गई है। अगले साल यानी 24 मार्च 2018 को सोनिया गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बने 20 साल पूरे हो जाएंगे। एक जमाने में पार्टी अध्यक्ष एक-एक साल के लिए बनते थे। फिर एक ही अध्यक्ष एक साल से ज्यादा वक्त तक काम करने लगा। इंदिरा गांधी 1978 से 1984 तक रहीं तो वह लंबी अवधि थी। फिर 1992 से 1996 तक पीवी नरसिंहराव अध्यक्ष रहे।
सोनिया गांधी का इतनी लंबी अवधि तक अध्यक्ष बने रहने से उनकी ताकत और प्रभाव का पता लगता है। साथ ही यह भी कि उनका विकल्प तैयार नहीं है। उम्मीद थी कि इस साल अक्तूबर तक राहुल गांधी पूरी तरह अध्यक्ष पद संभाल लेंगे, पर अब यह बात पूरी होती लग नहीं रही है। इसका मतलब है कि 2019 का चुनाव पार्टी सोनिया जी की अध्यक्षता में ही लड़ेंगी।
क्या फर्क पड़ता है, सोनिया हों या राहुल? औपचारिक रूप से यह इस बात का संकेतक कि पार्टी करवट ले भी रही है या नहीं। यह सवाल मई 2014 से पूछा जा रहा है कि कांग्रेस को पुनर्जीवन कैसे मिलेगा? जवाब है कि हम बाउंस-बैक करेंगे, पहले भी किया है। पर कैसे? संगठन में कोई जुंबिश नहीं, बुनियादी बदलाव नहीं, नारों और कार्यक्रमों में कोई नयापन नहीं और नेतृत्व में ठहराव।

Friday, August 4, 2017

क्या कांग्रेस को रास्ता दिखाएंगे प्रणब?

प्रणब मुखर्जी बड़े विकट समय में राष्ट्रपति रहे। यूपीए सरकार के अंतिम दो साल राजनीतिक संकट से भरे थे। सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे थे, अर्थ-व्यवस्था अचानक ढलान पर उतर गई थी और सत्तारूढ़ दल अचानक नेतृत्व विहीन नजर आने लगा था। यूपी सरकार के जाने के बाद एक ताकतवर राजनेता प्रधानमंत्री के रूप में दिल्ली आया तो राजनीति में जबर्दस्त बदलाव की लहरें उठने लगीं। ऐसे में राष्ट्रपति के रूप में प्रणब मुखर्जी ने जिस संयम और धैर्य के साथ काम किया, वह कम महत्वपूर्ण नहीं है।   

प्रणब मुखर्जी कांग्रेस के वरिष्ठतम राजनेताओं में से एक हैं। उनके सामने पिछले दो साल में ऐसे अनेक मौके आए होंगे, जब उनके निर्णयों को लेकर राजनीतिक निहितार्थ निकाले जा सकते थे। ऐसा हुआ नहीं। उनके पहले दो साल के कार्यकाल में इस बात की संभावना नहीं थी, पर अंतिम तीन साल में थी। पर वे अत्यंत संतुलित, सुलझे हुए राष्ट्रपति साबित हुए। संसदीय व्यवस्था के सुदीर्घ अनुभव का पूरा इस्तेमाल करते हुए उन्होंने हर मौके पर वही किया, जिसकी एक राजपुरुष यानी स्टेट्समैन से अपेक्षा की जाती है। संविधान में लिखे अक्षरों और उनके पीछे की भावना का पूरा सम्मान और अपने विवेक का इस्तेमाल। उनकी सेवानिवृत्ति के बाद एक सवाल आया है कि क्या वे वापस जाकर कांग्रेस की सेवा करेंगे?

Saturday, July 15, 2017

राजनीति नहीं चाहती सीबीआई को स्वतंत्र बनाना

इस साल मई में लालू यादव के पारिवारिक ठिकानों पर जब सीबीआई की छापा-मारी हुई तो लालू यादव ने ट्वीट किया,बीजेपी में हिम्मत नहीं कि लालू की आवाज को दबा सकेलालू की आवाज दबाएंगे तो देशभर में करोड़ों लालू खड़े हो जाएंगे। यह राजनीतिक बयान था। उन छापों के बाद यह भी समझ में आने लगा कि लालू और नीतीश कुमार के बीच खलिश काफी बढ़ चुकी है। छापों की खबर आते ही लालू ने अपने ट्वीट में एक ऐसी बात लिखी जिसका इशारा नीतीश कुमार की तरफ़ था। उन्होंने लिखा, बीजेपी को उसका नया एलायंस पार्टनर मुबारक हो। बात का बतंगड़ बनने के पहले ही लालू ने बात बदल दी। उन्होंने कहा बीजेपी के पार्टनर माने आयकर विभाग और सीबीआई।

लालू ने एक तीर से दो शिकार कर लिए। वे जो कहना चाहते थे, वह हो गया। उधर नीतीश कुमार ने कहा, बीजेपी जो आरोप लगा रही है, उसमें सच्चाई है तो केंद्र सरकार अपनी एजेंसियों से जांच या कार्रवाई क्यों नहीं कराती? पिछले साल नवंबर में नोटबंदी का नीतीश कुमार ने स्वागत किया था। उसके साथ उन्होंने कहा था कि प्रधानमंत्री को बेनामी संपत्ति के ख़िलाफ़ भी कार्रवाई करनी चाहिए। लालू यादव के परिवार की जिस सम्पत्ति को सीबीआई ने छापे डाले हैं, उसका मामला नीतीश की पार्टी ने ही सन 2008 में उठाया था। तब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी। आज बीजेपी सरकार है और बेनामी सम्पत्ति कानून में बदलाव हो चुका है। लालू की बड़ी बेटी मीसा भारती और उनके पति इन दिनों सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय के घेरे में हैं।

Friday, June 16, 2017

राष्ट्रपति चुनाव के पेचोख़म

राष्ट्रपति चुनाव में राजनीतिक शक्ति परीक्षण हो जाता है और गठबंधनों के दरवाजे भी खुलते और बंद होते हैं। गुरुवार को चुनाव की अधिसूचना जारी होने के साथ राजनीतिक गतिविधियाँ तेज हो गईं हैं। अब अगले हफ्ते यह तय होगा कि मुकाबला किसके बीच होगा। और यह भी कि मुकाबला होगा भी या नहीं। सरकार ने विपक्ष की तरफ हाथ बढ़ाकर इस बात का संकेत किया है कि क्यों न हम मिलकर एक ही प्रत्याशी का नाम आगे बढ़ाएं।

बीजेपी अध्‍यक्ष अमित शाह ने प्रत्याशी चयन के लिए तीन सदस्यीय समिति का गठन किया है। समिति में वेंकैया नायडू, अरुण जेटली और राजनाथ सिंह शामिल हैं। यह समिति विपक्ष सहित ज्यादातर राजनीतिक दलों से बातचीत करेगी। बुधवार को बीजेपी की समिति की बैठक हुई, जिसमें तय हुआ कि एनडीए के प्रत्याशी के नाम का ऐलान 23 जून को किया जाएगा। शुक्रवार को यह समिति कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात करेगी। इसके बाद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के महासचिव सीताराम येचुरी के साथ बातचीत होगी।

Saturday, April 1, 2017

किसके पास है ‘नए भारत’ के सपने का कॉपीराइट?

इसे 'आइडिया ऑफ इंडिया' कहते हैं। अपने अतीत और वर्तमान के आधार पर हम अपने समाज की दशा-दिशा के बारे में सोचते हैैं। कुछ को इसमें राष्ट्रवाद दिखाई पड़ता है और कुछ को अंतरराष्ट्रीयतावाद। पर सपने पूरा समाज देखता है, तभी वे पूरे होते हैं। नेता उन सपनों के सूत्रधार बनते हैं। आधुनिक भारत का सपना आजादी के आंदोलन के दौरान इस देश ने देखना शुरू कर दिया था। क्योंकि आजादी एक सपना थी। पिछले महीने इंडिया टुडे कॉनक्लेव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, आजादी के आंदोलन के कालखंड में व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं पर राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाएं भारी पड़ती थीं। उनकी तीव्रता इतनी थी कि वह देश को सैकड़ों सालों की गुलामी से बाहर निकाल लाई। पर अब समय की मांग है-आजादी के आंदोलन की तरह विकास का आंदोलन- जो व्यक्तिगत आकांक्षाओं का सामूहिक आकांक्षाओं में विस्तार करे और देश का सर्वांगीण विकास हो।

Thursday, February 23, 2017

जहर घोलती राजनीति

राजनीति यदि समाज के धवल पक्ष को उजागर करती है तो सबसे गंदे पहलू पर भी रोशनी डालती है। चुनाव में इन दोनों बातों के दर्शन होते हैं। जैसे-जैसे उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव का रथ आगे बढ़ रहा है वैसे-वैसे माहौल में जहर घुल रहा है और नेताओं की शब्दावली घटिया होती जा रही है। चुनाव प्रचार में प्रतिस्पर्धी पर आरोप लगना अस्वाभाविक नहीं, पर इसकी आड़ में जैसा जहर जीवन और समाज में घुलने लगा है, वह खतरनाक सीमा पर पहुँचा जा रहा है।  

Friday, February 10, 2017

मर्यादा एक तरफ से नहीं टूटी

लोकसभा राज्यसभा में प्रधानमंत्री के भाषण और उन्हें लेकर कांग्रेसी प्रतिक्रिया के साथ संसदीय मर्यादा के सवाल खड़े हुए हैं। राजनीतिक शब्दावली को लेकर संयम बरतने की जरूरत है। वोट की राजनीति ने समाज के ताने-बाने में कड़वाहट भर दी है। उसे दूर करने की जरूरत है। इस घटनाक्रम पर गौर करें तो पाएंगे कि इन बातों में क्रमबद्धता है। क्रिया की प्रतिक्रिया है। दोनों पक्ष एक-दूसरे को जवाब देना चाहते हैं। सवाल है कि क्या संसद इसी काम के लिए बनी है? 

प्रधानमंत्री ने राज्यसभा में मनमोहन सिंह पर ‘रेनकोट पहन कर नहाने’ के जिस रूपक इस्तेमाल किया, उसे कांग्रेस ने ‘तल्ख और बेहूदा’ करार दिया है। कांग्रेस चाहती है कि पूर्व प्रधानमंत्री की मर्यादाएं हैं। उनका सम्मान होना चाहिए। पर क्या कांग्रेस प्रधानमंत्री के पद की गरिमा को मानती है? राज्यसभा में मोदी के भाषण के दौरान विरोधी कुर्सियों से जिस तरह से टिप्पणियाँ हो रहीं थी क्या वह उचित था? संभव है कि यह किसी योजना के तहत नहीं हुआ हो, पर माहौल में उत्तेजना पहले से थी। बीच में एकबार वेंकैया नायडू ने उठकर कहा भी कि क्या यह ऐसे ही चलता रहेगा? क्या रनिंग कमेंट्री चलती रहेगी?

Saturday, February 4, 2017

चुनाव में बजट भी बनेगा मुद्दा

बजट हो या कोई भी सरकारी नीति उसका संबंध चुनाव से नहीं हो, ऐसा संभव नहीं। इसमें कोई निराली बात नहीं है। सरकारें चुनाव जीतने के लिए ही काम करती हैं। खुद को देश का सबसे बड़ा हितैषी साबित करने की कोशिश की जाती है। पाँच राज्यों के चुनाव के ठीक पहले बजट लाने का कांग्रेस ने विरोध ही इसलिए किया था कि सरकार कहीं खुद को ज्यादा बड़ा देश-हितैषीसाबित न कर दे। इसलिए सरकार की कोशिशों पर नजर डालनी चाहिए और इसपर भी कि विपक्ष इन कोशिशों पर पानी कैसे डालेगा।

Saturday, January 28, 2017

बेदम हैं यूपी में कांग्रेसी महत्वाकांक्षाएं

सुदीर्घ अनिश्चय के बाद कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को राजनीति के सक्रिय मैदान में उतारने का फैसला कर लिया है। प्रियंका अभी तक निष्क्रिय नहीं थीं, पर पूरी तरह मैदान में कभी उतर कर नहीं आईं। अभी यह साफ नहीं है कि वे केवल उत्तर प्रदेश में सक्रिय होंगी या दूसरे प्रदेशों में भी जाएंगी। उत्तर प्रदेश का चुनाव कांग्रेस के लिए बड़ा मैदान जीतने का मौका देने वाला नहीं है। वह दूसरी बार चुनाव-पूर्व गठबंधन के साथ उतर रही है। यह गठबंधन भी बराबरी का नहीं है। गठबंधन की जीत हुई भी तो मुख्यमंत्री अखिलेश यादव बनेंगे। कांग्रेस के लिए इतनी ही संतोष की बात होगी। और उससे बड़ा संतोष तब होगा, जब उसके विधायकों की संख्या 50 पार कर जाए। बाकी सब बोनस।   

Saturday, January 14, 2017

‘गरीब-मुखी’ राजनीति: मोदी कथा का दूसरा अध्याय

पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव एक तरह से मध्यावधि  जनादेश का काम करेंगे। सरकार के लिए ही नहीं विपक्ष के लिए भी। चूंकि सोशल मीडिया की भूमिका बढ़ती जा रही है, इसलिए इन चुनावों में आभासी माहौल की भूमिका कहीं ज्यादा होगी। कहना मुश्किल है कि छोटी से छोटी घटना का किस वक्त क्या असर हो जाए। दूसरे राजनीति उत्तर प्रदेश की हो या मणिपुर की सोशल मीडिया पर वह वैश्विक राजनीति जैसी महत्वपूर्ण बनकर उभरेगी। इसलिए छोटी सी भी जीत या हार भारी-भरकम नजर आने लगेगी।
बहरहाल इस बार स्थानीय सवालों पर राष्ट्रीय प्रश्न हावी हैं। ये राष्ट्रीय सवाल दो तरह के हैं। एक, राजनीतिक गठबंधन के स्तर पर और दूसरा मुद्दों को लेकर। सबसे बड़ा सवाल है कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ क्या कहता है? लोकप्रियता बढ़ी है या घटी? दूसरा सवाल है कि कांग्रेस का क्या होने वाला है? उसकी गिरावट रुकेगी या बढ़ेगी? नई ताकत के रूप में आम आदमी पार्टी की भी परीक्षा है। क्या वह गोवा और पंजाब में नई ताकत बनकर उभरेगी? और जनता परिवार का संगीत मद्धम रहेगा या तीव्र?

Tuesday, December 20, 2016

राहुल के तेवर इतने तीखे क्यों?

राहुल गांधी के तेवर अचानक बदले हुए नजर आते हैं। उन्होंने बुधवार को नरेंद्र मोदी पर सीधा हमला बोलकर माहौल को विस्फोटक बना दिया है। उन्हें विपक्ष के कुछ दलों का समर्थन भी हासिल हो गया है। इनमें तृणमूल कांग्रेस और एनसीपी शामिल हैं। हालांकि बसपा भी उनके साथ नजर आ रही है, जबकि दूसरी ओर यूपी में कांग्रेस और सपा के गठबंधन की अटकलें भी हैं। बड़ा सवाल फिलहाल यह है कि राहुल ने इतना बड़ा बयान किस बलबूते दिया और वे किस रहस्य पर से पर्दा हटाने वाले हैं? क्या उनके पास ऐसा कोई तथ्य है जो मोदी को परेशान करने में कामयाब हो? 
बहरहाल संसद का सत्र खत्म हो चुका है और राजनीति का अगला दौर शुरू हो रहा है। नोटबंदी के कारण पैदा हुई दिक्कतें भी अब क्रमशः कम होती जाएंगी। अब सामने पाँच राज्यों के चुनाव हैं। देखना है कि राहुल इस दौर में अपनी पार्टी को किस रास्ते पर लेकर जाते हैं।  

Saturday, December 10, 2016

अद्रमुक का दामन थामेगी कांग्रेस

जयललिता के निधन के बाद तमिलनाडु की राजनीति में पहला सवाल अद्रमुक की सत्ता-संरचना को लेकर है। यानी कौन होगा उसका नेता? कैसे चलेगा उसका संगठन और सरकार? फिलहाल ओ पन्‍नीरसेल्‍वम को मुख्यमंत्री बनाया गया है। सवाल है क्या वे मुख्यमंत्री बने रहेंगे? पार्टी संगठन का सबसे बड़ा पद महासचिव का है। अभी तक जयललिता महासचिव भी थीं। एमजीआर और जयललिता दोनों के पास मुख्यमंत्री और महासचिव दोनों पद थे। अब क्या होगा?

Saturday, November 26, 2016

कांग्रेस एक पायदान नीचे

नोटबंदी के दो हफ्ते बाद राष्ट्रीय राजनीति में विपक्ष की भावी रणनीति भी सामने आने लगी है। इसमें सबसे ज्यादा तेजी दिखाई है ममता बनर्जी ने, जिन्होंने जेडीयू, सपा, एनसीपी और आम आदमी पार्टी के साथ सम्पर्क करके आंदोलन खड़ा करने की योजना बना ली है। इसकी पहली झलक बुधवार को दिल्ली में दिखाई दी। जंतर-मंतर की रैली के बाद अचानक ममता बनर्जी का कद मोदी की बराबरी पर नजर आने लगा है। पर ज्यादा महत्वपूर्ण है कांग्रेस का विपक्षी सीढ़ी पर एक पायदान और नीचे चले जाना। नोटबंदी के खिलाफ एक आंदोलन ममता ने खड़ा किया है और दूसरा आंदोलन कांग्रेस चला रही है। बावजूद संगठनात्मक लिहाज से ज्यादा ताकतवर होने के कांग्रेस के आंदोलन में धार नजर नहीं आ रही है। राहुल गांधी अब मुलायम सिंह, मायावती और नीतीश कुमार के बराबर के नेता भी नजर नहीं आते हैं।

Tuesday, October 11, 2016

समस्या ‘हाथी’ से ज्यादा बड़ी है

नब्बे के दशक में जब लखनऊ में पहली बार आम्बेडकर उद्यान का निर्माण शुरू हुआ था, तब यह सवाल उठा था कि सार्वजनिक धन के इस्तेमाल को लेकर क्या राजनीतिक दलों पर मर्यादा लागू नहीं होती? जवाब था कि चुनाव के वक्त यह जनता तय करेगी कि सरकार का कार्य उचित है या नहीं? आम्बेडकर स्मारक काफी बड़ी योजना थी। उसे दलितों के लिए प्रेरणा स्थल के रूप में पेश किया गया।
देश में इसके पहले भी बड़े नेताओं के स्मारक बने हैं। सार्वजनिक धन से भी बने हैं। उसपर भी बात होनी चाहिए कि देश में एक ही प्रकार के नेताओं के स्मारकों की भरमार क्यों है। पर हाथी राजनीतिक प्रतीक है और बीएसपी का चुनाव चिह्न। यह सरासर ज्यादती है। लखनऊ में और उत्तर प्रदेश के कुछ दूसरे स्थानों पर भी हाथियों की बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ खड़ी की गईं। क्या यह चुनाव प्रचार में मददगार नहीं?

Saturday, October 8, 2016

‘सर्जिकल स्ट्राइक’ पर कांग्रेसी दुविधा

कांग्रेस पार्टी ने कहा है कि हम सर्जिकल स्ट्राइक के मामले में भारतीय जवानों के साथ हैं, लेकिन इसे लेकर क्षुद्र राजनीति नहीं की जानी चाहिए। रणदीप सुरजेवाला का कहना है, ‘ हम सर्जिकल स्ट्राइक पर कोई सवाल नहीं उठा रहे हैं, लेकिन यह कोई पहला सर्जिकल स्ट्राइक नहीं है। कांग्रेस के शासनकाल में 1 सितंबर 2011, 28 जुलाई 2013 और 14 जनवरी 2014 को 'शत्रु को मुंहतोड़ जबाव' दिया गया था। परिपक्वता, बुद्धिमत्ता और राष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनज़र कांग्रेस सरकार ने इस तरह कभी हल्ला नहीं मचाया।
भारतीय राजनीति में युद्ध की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सन 1962 की लड़ाई से नेहरू की लोकप्रियता में कमी आई थी। जबकि 1965 और 1971 की लड़ाइयों ने लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी का कद काफी ऊँचा कर दिया था। करगिल युद्ध ने अटल बिहारी वाजपेयी को लाभ दिया। इसीलिए 28-29 सितम्बर की सर्जिकल स्ट्राइक के निहितार्थ ने देश के राजनीतिक दलों एकबारगी सोच में डाल दिया। सोच यह है कि क्या किसी को इसका फायदा मिलेगा? और क्या कोई घाटे में रहेगा?

Saturday, September 24, 2016

अरुणाचल की फूहड़ कॉमेडी

अरुणाचल में उठा-पटक ने नए किस्म की राजनीति का मुज़ाहिरा किया है। इसके अच्छे या बुरे परिणामों के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। बीजेपी को खुशी होगी कि उसने एक और प्रदेश को कांग्रेस मुक्त कर दिया, पर यह ढलान पर उतरती राजनीति का एक पड़ाव है। अभी तक बीजेपी इसमें प्रत्यक्ष रूप से शामिल नहीं है और इसे कांग्रेस की गलतियों का परिणाम बता रही है, पर वह अपने हाथ को छिपा नहीं पाएगी। इससे पूर्वोत्तर में बीजेपी का रास्ता और आसान हो गया है, पर जिस हास्यास्पद तरीके से यह हुआ है, उससे भविष्य को लेकर शंकाएं पैदा होती हैं।

Sunday, August 21, 2016

क्या राष्ट्रीय बनेगा दलित प्रश्न?

गुजरात में 15 अगस्त को पूर्ण हुई दलित अस्मिता यात्रा ने राष्ट्रीय राजनीति में एक नई ताकत के उभरने का संकेत किया है। दलितों और मुसलमानों को एक मंच पर लाने की कोशिशें की जा रहीं है। राजनीति कहने पर हमारा पहला ध्यान वोट बैंक पर जाता है। गुजरात में दलित वोट लगभग 7 फीसदी है। इस लिहाज से यह गुजरात में तो बड़ी राजनीतिक ताकत नहीं बनेगी, पर राष्ट्रीय ताकत बन सकती है। बेशक इससे गुजरात के चुनाव पर असर पड़ेगा, पर फौरी तौर पर रैली का राष्ट्रीय निहितार्थ ज्यादा बड़ा है। 
इस ताकत को खड़ा करने के पहले कई किन्तु-परन्तु भी हैं। सच यह है कि सभी दबी-कुचली जातियाँ किसी एक मंच पर या किसी एक नेता के पीछे खड़ी नहीं होतीं। उनकी वर्गीय चेतना पर जातीय चेतना हावी रहती है। सभी जातियों के मसले एक जैसे नहीं हैं। प्रायः सभी दलित जातियाँ भूमिहीन हैं। उनकी समस्या रोजी-रोटी से जुड़ी है। दूसरी समस्या है उत्पीड़न और भेदभाव। जैसे मंदिर में प्रवेश पर रोक वगैरह। इन दोनों के समाधान पीछे रह जाते हैं और राजनीतिक दल इन्हें वोट बैंक से ज्यादा नहीं समझते।  

Saturday, July 9, 2016

ज़ाकिर नाइक उर्फ मीठा ज़हर

बांग्लादेश में एक के बाद एक आतंकी हिंसा की दो बड़ी घटनाएं न हुईं होतीं तो शायद ज़ाकिर नाइक पर हम ज्यादा ध्यान नहीं देते। वे सामान्य इस्लामी प्रचारक से अलग नजर आते हैं। हालांकि वे इस्लाम का प्रचार करते हैं, पर सबसे ज्यादा मुसलमान ही उनके नाम पर लानतें भेजते हैं। पिछले वर्षों में वे कई बार खबरों में रहे। सन 2009 में उत्तर प्रदेश के उनके कार्यक्रमों पर रोक लगाई गई थी। जनवरी 2011 में इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर में उनके एक कार्यक्रम का जबर्दस्त विरोध हुआ।

भारत और पाकिस्तान में दारुल उलूम उनके खिलाफ फतवा जारी कर चुका है। इतने विरोध के बावजूद उनकी लोकप्रियता भी कम नहीं है। क्यों हैं वे इतने लोकप्रिय? ताजा खबर यह है कि श्रीनगर में उनके समर्थन में पोस्टर लगे हैं। कश्मीरी आंदोलन को उनकी बातों में ऐसा क्या मिल गया? पर उसके पहले सवाल है कि बांग्लादेश के नौजवानों को उनके भाषणों में प्रेरक तत्व क्या मिला?

Sunday, June 19, 2016

बहुत देर कर दी हुज़ूर आते-आते

 दिल्ली के सियासी हलकों में खबर गर्म है कि कांग्रेस पार्टी उत्तर प्रदेश में शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद की प्रत्याशी के रूप में पेश कर सकती हैं। शुक्रवार को उनकी सोनिया गांधी के साथ मुलाकात के बाद इस सम्भावना को और बल मिला है। इसमें असम्भव कुछ नहीं। शीला दीक्षित कांग्रेस के पास बेहतरीन सौम्य और विश्वस्त चेहरा है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को जैसा चेहरा चाहिए वैसा ही। गुलाम नबी आजाद को उत्तर प्रदेश का गुलाम प्रभारी बनाना पार्टी का सूझबूझ भरा कदम है।