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Sunday, December 29, 2013

राहुल बनाम मोदी बनाम 'आप'

सन 2013 में साल की शुरुआत नौजवानों, खासकर महिलाओं की नाराजगी के साथ हुई थी। दिल्ली गैंगरेप के खिलाफ वह आंदोलन किसी भी नज़रिए से राजनीतिक नहीं था। पर उस आंदोलन ने बताया कि भारतीय राजनीति में युवाओं और महिलाओं की उपस्थिति बढ़ रही है। राजनीति का समुद्र मंथन निरंतर चलता रहता है। साल का अंत होते-होते सागर से लोकपाल रूपी अमृत कलश निकल कर आया है। रोचक बात यह है कि पार्टियों की कामधेनु बने वोटर को यह अमृत तब मिला जब वह खुद इसके बारे में भूल चुका था। संसद के इस सत्र में लोकपाल विधेयक पास करने की योजना नहीं थी। पर उत्तर भारत की चार विधानसभाओं के चुनाव परिणामों ने सरकार को इतना भयभीत कर दिया कि आनन-फानन यह कानून पास हो गया।

बावजूद इसके इस साल की सबसे बड़ी राजनीतिक घटना लोकपाल विधेयक का पास होना नहीं है। बल्कि आम आदमी पार्टी का उदय है। विडंबना है कि जिस लोकपाल कानून के नाम पर आप का जन्म हुआ, वही इसकी सबसे बड़ी विरोधी है। आप किसी सकारात्मक राजनीति का परिणाम न होकर विरोध की देन है। दिसंबर 2011 के अंतिम सप्ताह में लोकपाल विधेयक को लोकसभा से पास करके जिस तरह राज्यसभा में अटका दिया गया, उससे अन्ना हजारे को नहीं देश की जनता के मन को ठेस लगी थी। अन्ना के आंदोलन के साथ यों भी पूरा देश नहीं था। वह आंदोलन दिल्ली तक केंद्रित था और मीडिया के सहारे चल रहा था। पर भ्रष्टाचार को लेकर जनता की नाराजगी अपनी जगह थी। इस साल मार्च में पवन बंसल और अश्विनी कुमार को अलग-अलग कारणों से जब पद छोड़ने पड़े तब भी ज़ाहिर हुआ कि जनता के मन में यूपीए सरकार के खिलाफ नाराज़गी घर कर चुकी है। उन्हीं दिनों सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को तोता नाम से विभूषित किया था।

Tuesday, December 24, 2013

'आप' ने ओखली में सिर दिया

 मंगलवार, 24 दिसंबर, 2013 को 06:38 IST तक के समाचार
आम आदमी पार्टी के नेता
हिंदी की कहावत है 'ओखली में सिर दिया तो मूसल से क्या डरना?' आम आदमी पार्टी ने जोखिम उठाया है तो उसे इस काम को तार्किक परिणति तक पहुँचाना भी होगा.
यह तय है कि उसे समर्थन देने वाली पार्टी ने उसकी 'कलई खोलने' के अंदाज़ में ही उसे समर्थन दिया है और 'आप' के सामने सबसे बड़ी चुनौती है इस बात को गलत साबित करना और परंपरागत राजनीति की पोल खोलना.
'आप' सरकार की पहली परीक्षा अपने ही हाथों होनी है. यह पार्टी परंपरागत राजनीति से नहीं निकली है.
देखना होगा कि इसका आंतरिक लोकतंत्र कैसा है, प्रशासनिक कार्यों की समझ कैसी है और दिल्ली की समस्याओं के कितने व्यावहारिक समाधान इसके पास हैं?
इससे जुड़े लोग पद के भूखे नहीं हैं लेकिन वे सरकारी पदों पर कैसा काम करेंगे? सादगी, ईमानदारी और भलमनसाहत के अलावा सरकार चलाने के लिए चतुराई की जरूरत भी होगी, जो प्रशासन के लिए अनिवार्य है.

Thursday, December 19, 2013

'आप' के सामने जोखिम अनेक हैं, पर सफल हुई तो भारत बदल जाएगा

 गुरुवार, 19 दिसंबर, 2013 को 11:27 IST तक के समाचार
आम आदमी पार्टी रविवार तक जनता के बीच जाकर उससे पूछेगी कि पार्टी को दिल्ली में सरकार बनानी चाहिए या नहीं. इसके बाद सोमवार को पता लगेगा कि पार्टी सरकार बनाने के लिए तैयार है या नहीं. भारत में यह जनमत संग्रह अभूतपूर्व घटना है. यूनानी नगर राज्यों के प्रत्यक्ष लोकतंत्र की तरह.
‘आप’ की पेचदार निर्णय प्रक्रिया जनता को पसंद आएगी या नहीं, लेकिन पार्टी जोखिम की राह पर बढ़ रही है. पार्टी को दुबारा चुनाव में ही जाना था, तो इस सब की ज़रूरत नहीं थी. इस प्रक्रिया का हर नतीजा जोखिम भरा है. पार्टी का कहना है कि हमने किसी से समर्थन नहीं माँगा था, पर उसने सरकार बनाने के लिए ही तो चुनाव लड़ा था.
‘आप’ अब तलवार की धार पर है. सत्ता की राजनीति के भंवर ने उसे घेर लिया है. इस समय वह जनाकांक्षाओं के ज्वार पर है. यदि पार्टी इसे तार्किक परिणति तक पहुँचाने में कामयाब हुई तो यह बात देश के लोकतांत्रिक इतिहास में युगांतरकारी होगी.
एक सवाल यह है कि इस जनमत संग्रह की पद्धति क्या होगी? पार्टी का कहना है कि 70 विधानसभा क्षेत्रों में जनसभाएं की जाएंगी, 25 लाख पर्चे छापे जाएंगे. फेसबुक, ट्विटर और एसएमएस की मदद भी ली जाएगी.

Sunday, December 15, 2013

नई राजनीति की आहट

अभी तक राजनीति का मतलब हम पार्टियों के गठबंधन, सरकार बनाने के दावों और आरोपों-प्रत्यारोपों तक सीमित मानते थे। एक अर्थ में राजनीति के मायने चालबाज़ी, जोड़तोड़ और जालसाज़ी हो गए थे। पर राजनीति तो राजव्यवस्था से जुड़ा सबसे महत्वपूर्ण कर्म है। पिछले एक हफ्ते में अचानक भारतीय राजनीति की परिभाषा में कुछ नई बातें जुड़ीं हैं। चार राज्यों के विधान सभा चुनाव का यह निष्कर्ष साफ है कि यह कांग्रेस के पराभव का समय है। यह आने वाले तूफान की आहट है। पर इस चुनाव के कुछ और निष्कर्ष भी हैं। पहला यह कि ‘आप’ के रूप में नए किस्म की राजनीति की उदय हो रहा है। यह राजनीति देश के शहरों और गाँवों तक जाएगी। दिल्ली की प्रयोगशाला में इसका परीक्षण हुआ। अब बाकी देश में यह विकसित होगी।

Wednesday, September 11, 2013

चुनाव-महोत्सव की 'फॉर्मूला रेस'

कृषि-प्रधान होने के साथ-साथ भारत मनोरंजन-प्रधान देश भी है. मनोरंजन के तीन साधन हैं. सिनेमा, क्रिकेट और राजनीति. तीनों को जोड़ता है टीवी, जो सब कुछ है. इन सबके तड़के से तैयार होता है द ग्रेट इंडियन रियलिटी शो. कभी सोचा है कि राजनीति वाला सिनेमा में सिनेमा वाला खेल मे और खेल वाला राजनीति में क्यों है? तीनों की अपनी फॉर्मूला रेस है और अपना सीजन. राजनीति का सीजन आ रहा है और उसके साथ आने वाला है उसका अपना कॉमेडी सर्कस. कुछ विधानसभाओं के चुनाव सिर पर हैं और इनके तीन महीने बाद लोकसभा के. इस लोकतांत्रिक-महोत्सव के बरक्स देश की अर्थनीति, राजनीति और प्रजानीति पर नजर डालनी चाहिए.

    

तीन-चार हफ्ते से देश आर्थिक संकट को लेकर बिलबिला रहा था. पिछले हफ्ते रिजर्व बैंक के गवर्नर का पद सम्हालने के दिन ही रघुराम राजन ने कुछ घोषणाएं कीं और वित्तीय बाजारों की धारणा बदलने लगी. रुपए की कीमत जो डॉलर के मुकाबले 68 रुपए के पार थी वह 65 के आसपास आ गई. शेयर बाजार में गिरावट रुक गई. बहरहाल हमारे पास विदेशी मुद्रा भंडार इतना है कि लम्बे अरसे तक किसी किस्म की परेशानी नहीं होगी. अब कहा जा रहा है कि फंडामेंटल्स मजबूत है. अच्छे मॉनसून के कारण अनाज और खेती से जुड़ी वस्तुओं के दाम गिरेंगे और मुद्रास्फीति पर रोक लगेगी. एचडीएफसी बैंक के चेयरमैन दीपक पारेख संजीदा व्यक्ति हैं. उनका कहना है कि भारत खराब दौर से बाहर आ गया है. इस साल की पहली तिमाही में अर्थव्यवस्था की विकास दर 4.4 प्रतिशत पर आ गई, जो पिछले दशक की सबसे धीमी गति है. इसे बॉटम आउट मानें तो अब इससे बेहतर समय आएगा.

Thursday, August 29, 2013

यूपीए का आर्थिक राजनीति शास्त्र

देश का राजनीतिक अर्थशास्त्र या आर्थिक राजनीति शास्त्र एक दिशा में चलता है और व्यावहारिक अर्थ व्यवस्था दूसरी दिशा में जाती है। सन 1991 में हमने जो आर्थिक दिशा पकड़ी थी वह कम से कम कांग्रेस की विचारधारात्मक देन नहीं थी। मनमोहन सिंह ने विश्व बैंक के 'वॉशिंगटन कंसेंसस' के अनुरूप ही अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाया। वह दौर वैश्वीकरण का शुरूआती दौर था। ऐसा कहा जा रहा था कि भारत इस दौड़ में चीन से तकरीबन डेढ़ दशक पीछे है, जापान और कोऱिया से और भी ज्यादा पिछड़ गया है। बहरहाल तमाम आलोचनाओं के उदारीकरण की गाड़ी चलती रही। एनडीए सरकार भी इसी रास्ते पर चली। सन 2004 में यूपीए सरकार ने दो रास्ते पकड़े। एक था सामाजिक कल्याण पर खर्च बढ़ाने की राह और दूसरी उदारीकरण की गाड़ी को आगे बढ़ाने की राह। 2009 के बाद यूपीए का यह अंतर्विरोध और बढ़ा। आज जिस पॉलिसी पैरेलिसिस का आरोप मनमोहन सिंह पर लग रहा है वह वस्तुतः सोनिया गांधी के नेतृत्व के कारण है। यदि वे मानती हैं कि उदारीकरण गलत है तो प्रधानमंत्री बदलतीं। आज का आर्थिक संकट यूपीए के असमंजस का संकट भी है। यह असमंजस एनडीए की सरकार में भी रहेगा। भारत की राजनीति और राजनेताओं के पास या तो आर्थिक दृष्टि नहीं है या साफ कहने में वे डरते हैं। 

जिस विधेयक को लेकर राजनीति में ज्वालामुखी फूट रहे थे वह खुशबू के झोंके सा निकल गया. लेफ्ट से राइट तक पक्षियों और विपक्षियों में उसे गले लगाने की ऐसी होड़ लगी जैसे अपना बच्चा हो. उसकी आलोचना भी की तो जुबान दबाकर. ईर्ष्या भाव से कि जैसे दुश्मन ले गया जलेबी का थाल. यों भी उसे पास होना था, पर जिस अंदाज में हुआ उससे कांग्रेस का दिल खुश हुआ होगा. जब संसद के मॉनसून सत्र के पहले सरकार अध्यादेश लाई तो वृन्दा करात ने कहा था, हम उसके समर्थक हैं पर हमारी आपत्तियाँ हैं. हम चाहते हैं कि इस पर संसद में बहस हो. खाद्य सुरक्षा सार्वभौमिक होनी चाहिए. सबके लिए समान. मुलायम सिंह ने कहा, यह किसान विरोधी है. नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी कि मुख्यमंत्रियों से बात कीजिए. पर लगता है उन्होंने अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से बात नहीं की. भाजपा के नेता इन दिनों अलग-अलग सुर में हैं. दिल्ली में विधान सभा चुनाव होने हैं और पार्टी संग्राम के मोड में है. बिल पर संसद में जो बहस हुई, उसमें तकरीबन हरेक दल ने इसे चुनाव सुरक्षा विधेयक मानकर ही अपने विचार व्यक्त किए. सोमवार की रात कांग्रेसी सांसद विपक्ष के संशोधनों को धड़ाधड़ रद्द करने के चक्कर में सरकारी संशोधन को भी खारिज कर गए. इस गेम चेंजर का खौफ विपक्ष पर इस कदर हावी था कि सुषमा स्वराज को कहना पड़ा कि हम इस आधे-अधूरे और कमजोर विधेयक का भी समर्थन करते हैं. जब हम सत्ता में आएंगे तो इसे सुधार लेंगे.  

Sunday, August 18, 2013

सदाचार भी इसी राजनीति में है

जोनाथन स्विफ्ट ने लिखा है, 'दुनिया जिसे राजनीति के नाम से जानती है वह केवल भ्रष्टाचार है और कुछ नहीं।' सत्रहवीं-अठारहवीं सदी के इंग्लैंड में राजनीतिक व्यवस्था बन ही रही थी। पत्रकारिता जन्म ले रही थी। उन दिनों विमर्श पैम्फलेट्स के मार्फत होता था। आपने गुलीवर की यात्राएं पढ़ी होंगी, उसके लेखक जोनाथन स्विफ्ट। स्विफ्ट अपने दौर के श्रेष्ठ पैम्फलेटीयर थे। वह भी नई विधा थी। स्विफ्ट ने उस दौर की दोनों महत्वपूर्ण पार्टियों टोरी और ह्विग के लिए पर्चे लिखे थे। वे श्रेष्ठ व्यंग्य लेखक थे। अखबारों में सम्पादकीय लेखन के सूत्रधार थे, बल्कि पहले सम्पादकीय लेखक थे। तकरीबन तीन सौ साल पहले उनकी राजनीति के बारे में ऐसी राय थी।

सत्ता-केन्द्र कांग्रेस-भाजपा ही रहेंगे

हमारे देश में चुनाव पूर्व सर्वेक्षण तमाम कारणों से विश्वसनीय नहीं होते। फिर भी वे सच के करीब होते हैं। सर्वेक्षणों के संचालक अक्सर अपने दृष्टिकोण आरोपित करते हैं। फिर भी धीरे-धीरे यह राय बन रही है कि सन 2014 के चुनाव परिणामों कैसे होंगे। मोटा निष्कर्ष है कि न तो यूपीए को और न एनडीए को कोई खास फायदा होगा। शायद क्षेत्रीय दलों को कुछ लाभ हो। वह भी कितना और कैसा होगा इसे लेकर भ्रम है। इस साल जनवरी में हुए इंडिया टुडे-नील्सन और एबीपी न्यूज-नील्सन के 'मूड ऑफ द नेशन' सर्वे के अनुसार देश में आज चुनाव हों तो भाजपा की अगुआई वाला एनडीए कांग्रेस के नेतृत्व में सत्तारूढ़ यूपीए-2 पर भारी पड़ेगा। फिर मई में कुछ सर्वेक्षणों से यह बात उभर कर आई कि कांग्रेस हार जाएगी। मतलब नहीं कि भाजपा जीत जाएगी। मतलब सिर्फ इतना है कि जनता आज के हालात से नाराज़ है।

Wednesday, August 14, 2013

शोर संसदीय कर्म है, पर कितना शोर?

 बुधवार, 14 अगस्त, 2013 को 08:29 IST तक के समाचार
भारतीय संसद
संसद में होने वाले शोर को लेकर अकसर सवाल उठाए जाते हैं
सभी दलों की बैठक शांति से होती है. सदन को ठीक से चलाने पर आम राय भी बनती है. पर जैसे ही सुबह 11 बजे सदन शुरू होता है काम-काज अस्त-व्यस्त हो जाता है.
राजनीतिक विरोध के प्रश्नों पर टकराव स्वाभाविक है, पर वह भी ढंग से नहीं हो पाता. क्लिक करेंमानसून सत्र की अब तक की छह दिन की कार्यवाहियों में सबसे ज्यादा अवरोध तेलंगाना मसले के कारण हुआ.
इसका शिकार कोई न कोई महत्वपूर्ण मसला ही हुआ.क्लिक करेंतेलंगाना का मूल मसला भी इस विरोध प्रदर्शन के चलते पीछे चला गया. सोमवार को राज्यसभा ने विवाह के पंजीकरण को अनिवार्य बनाने वाले संशोधन विधेयक को पास कर दिया.
संसद में अब 16 अगस्त को अवकाश रहेगा. इसके बदले 24 अगस्त को संसद की बैठक होगी. 14 अगस्त के बाद संसद की अगली बैठक 20 अगस्त को होगी. उसके बदले 21 को अवकाश रहेगा.
शोर भी संसदीय कर्म है. पिछले साल कोयला खानों के आवंटन को लेकर संसद में व्यवधान पैदा करने वाले भाजपा नेताओं का यही कहना था. पर कितना शोर?
अंततः संसद विमर्श का फोरम है जिसके साथ विरोध-प्रदर्शन चलता है. पर संसद केवल विरोध प्रदर्शन का मंच नहीं है.

'अराजकता का संघ'

शोर के अलावा मर्यादा का मसला भी है. पिछले साल दिसंबर में राज्य सभा के सभापति हामिद अंसारी को लेकर बसपा नेता मायावती की टिप्पणी के कारण राज्य सभा में में असमंजस की स्थिति पैदा हो गई थी.
"हरेक नियम, हरेक शिष्टाचार का उल्लंघन हो रहा है. अगर माननीय सदस्य इसे ‘अराजकता का संघ’ बनाना चाहते हैं तो दीगर बात है."
हामिद अंसारी, राज्यसभा के सभापति
मंगलवार को भी सभापति हामिद अंसारी को कड़ी टिप्पणी करनी पड़ी, जिसे भाजपा के वरिष्ठ सदस्यों ने पसंद नहीं किया, बल्कि उन्होंने वो टिप्पणी वापस लेने की माँग की.
सदन में भाजपा सांसद सभापति के आदेशों की अनसुनी कर रहे थे. तभी हामिद अंसारी ने कहा, "हरेक नियम, हरेक शिष्टाचार का उल्लंघन हो रहा है. अगर माननीय सदस्य इसे ‘अराजकता का संघ’ बनाना चाहते हैं तो दीगर बात है."
इसके बाद भी हंगामा रुका नहीं और सदन स्थगित हो गया. बाद में जब फिर से सदन शुरू हुआ तो भाजपा के नेता अरुण जेटली और रविशंकर प्रसाद ने कहा कि सभापति यह टिप्पणी बिना शर्त वापस लें.

Tuesday, August 13, 2013

मोदी के 'वी कैन' माने क्या?

नरेन्द्र मोदी की सार्वजनिक सभाओं के लाइव टीवी प्रसारण के पीछे क्या कोई साजिश, योजना या रणनीति है? और है तो उसकी जवाबी योजना और रणनीति क्या है? इसमें दो राय नहीं कि समाज को बाँटने वाले या ध्रुवीकरण करने वाले नेताओं की सूची तैयार करने लगें तो नरेन्द्र मोदी का नाम सबसे ऊपर ऊपर की ओर होगा. उनकी तुलना में भाजपा के ही अनेक नेता सेक्यूलर और सौम्य घोषित हो चुके हैं. मोदी के बारे में लिखने वालों के सामने सबसे बड़ा संकट या आसानी होती है कि वे खड़े कहाँ हैं. यानी उनके साथ हैं या खिलाफ? किसी एक तरफ रहने में आसानी है और बीच के रास्ते में संकट. पर अब जब बीजेपी के लगभग नम्बर एक नेता के रूप में मोदी सामने आ गए हैं, उनके गुण-दोष को देखने-परखने की जरूरत है. जनता का बड़ा तबका मोदी के बारे में कोई निश्चय नहीं कर पाया है. पर राजनेता और आम आदमी की समझ में बुनियादी अंतर होता है. राजनेता जिसकी खाता है, उसकी गाता है. आम आदमी को निरर्थक गाने और बेवजह खाने में यकीन नहीं होता.

Sunday, August 11, 2013

पाकिस्तान के बारे में राष्ट्रीय आमराय बने

भारत से रिश्तों को सुधारने के लिए नवाज शरीफ के विशेष दूत शहरयार खान ने एक दिन पहले कहा कि दाऊद इब्राहीम पाकिस्तान में था, पर उसे वहाँ से खदेड़कर बाहर कर दिया गया है। अगले रोज वे अपने बयान से मुकर गए। भारत-पाकिस्तान रिश्तों में ऐसे क्षण आते हैं जब लगता है कि हम काफी पारदर्शी हो चले हैं, पर तभी झटका लगता है। इसी तरह जनवरी 2009 में पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार महमूद दुर्रानी को इस बात के लिए फौरन बर्खास्त कर दिया गया जब उन्होंने कहा कि मुम्बई पर हमला करने वाला अजमल कसाब पाकिस्तानी है। दोनों देशों के बीच रिश्तों को बेहतर बनाना इस इलाके की बेहतरी में हैं, पर जल्दबाजी के तमाम खतरे हैं। 

इसी शुक्रवार को सेना, खुफिया एजेंसियों और नागरिक प्रशासन के 40 पूर्व प्रमुख अधिकारियों ने एक वक्तव्य जारी करके कहा है कि भारत को पाकिस्तान के साथ नरमी वाली नीति खत्म कर देनी चाहिए। अब हमें ऐसा इंतजाम करना चाहिए कि हरेक आतंकवादी गतिविधि की कीमत पाकिस्तान को चुकानी पड़े। भले ही भारत पाकिस्तान के अधिकारियों के साथ बातचीत जारी रखे, पर अब नए सिरे से सोचना शुरू करे। अब अति हो गई है। उनका आशय है कि हमें उसके साथ संवाद फिर से शुरू करने की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए।

पुंछ में पाँच भारतीय सैनिकों की हत्या के बाद भारत-पाकिस्तान रिश्तों में फिर से तनाव है। दोनों के रिश्ते खुशनुमा तो कभी नहीं रहे। पर जैसा तनाव इस साल जनवरी में पैदा हुआ था और और अब फिर पैदा हो गया है, वह परेशान करता है। पाकिस्तान के भीतर कोई तत्व ऐसा है जो दक्षिण एशिया में शांति-स्थापना की किसी भी कोशिश को फेल करने पर उतारू है। पर वहाँ ऐसे लोग भी हैं जो रिश्तों को ठीक करना चाहते हैं। कम से कम सरकारी स्तर पर तल्खी घटी है। इसका कारण शायद यह भी है कि पाकिस्तान में पिछले पाँच साल से लोकतांत्रिक सरकार कायम है। यह पहला मौका है, जब वहाँ सत्ता का हस्तांतरण शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक तरीके से हुआ है। क्या यह सिर्फ संयोग है कि वहाँ नई सरकार के आते ही भारतीय सैनिकों पर हमला हुआ? सन 2008 में जब दोनों देश कश्मीर पर सार्थक समझौते की ओर बढ़ रहे थे मुम्बई कांड हो गया? क्या वजह है कि दाऊद इब्राहीम के पाकिस्तान में रहने का इंतजाम किया है और वहाँ की सरकार इस बात को मानती नहीं? इन सवालों का जवाब खोजने के पहले हमें पाकिस्तान के पिछले दो साल के घटनाचक्र पर नजर डालनी चाहिए।

Sunday, August 4, 2013

वेंटीलेटर पर लोकतंत्र

हालांकि चार अलग-अलग प्रसंग हैं, पर सूत्र एक है। लगता है हम लोकतंत्र से भाग रहे हैं। या फिर हम अभी लोकतंत्र के लायक नहीं हैं। या लोकतंत्र हमारे लायक नहीं है। या लोकतंत्र को हम जितना पाक-साफ समझते हैं, वह उतना नहीं हो सकता। उसकी व्यावहारिक दिक्कतें हैं। वह जिस समाज में है, वह खुद पाक-साफ नहीं है। दो साल पहले इन्हीं दिनों जब अन्ना हजारे का आंदोलन चल रहा था तब बार-बार यह बात कही जाती थी कि कानून बनाने से भ्रष्टाचार नहीं खत्म नहीं होगा। इसके लिए बड़े स्तर पर सामाजिक बदलाव की जरूरत है। सामाजिक बदलाव बाद में होगा, कानून ही नहीं बना। किसने रोका उसे? और कैसे होगा बदलाव?

Saturday, July 13, 2013

नरेन्द्र मोदी की बात पर हंगामा है क्यों...

 शनिवार, 13 जुलाई, 2013 को 13:55 IST तक के समाचार
नरेंद्र मोदी
मोदी के "कुत्ते के पिल्ले के मरने पर भी दुख होता है" बयान के बाद हंगामा मच गया है
नरेन्द्र मोदी भारत के ध्रुवीकारी नेताओं में सबसे आगे हैं, इसे मान लिया जाना चाहिए. उनका समर्थन और विरोध लगभग समान आक्रामक अंदाज़ में होता है. इस वजह से उन्हें ख़बरों में बने रहने के लिए अब कुछ नहीं करना पड़ता.
ख़बरों को उनकी तलाश रहती है. इसमें आक्रामक समर्थकों से ज़्यादा उनके आक्रामक विरोधियों की भूमिका होती है.
दूसरी बात यह कि उनसे जुड़ी हर बात घूम फिर कर सन 2002 पर जाती है. रॉयटर्स के रॉस कॉल्विन और श्रुति गोत्तीपति का पहला सवाल इसी से जुड़ा था. वे जानना चाहते थे कि नरेन्द्र मोदी को क्या घटनाक्रम पर कोई पछतावा है.

पिल्ले का रूपक

मोदी का वही जवाब था जो अब तक देते रहे हैं. उनका कहना था, "फ्रस्टेशन तब आएगा जब मैने कोई ग़लती की होगी. मैंने कुछ ग़लत किया ही नहीं."

विपक्ष का ‘गेम चेंजर’ भी हो सकता है खाद्य सुरक्षा अध्यादेश

खाद्य सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा विधेयक और खाद्य सुरक्षा अध्यादेश एक सिक्के के तीन पहलू हैं। खाद्य सुरक्षा पर सिद्धांततः राष्ट्रीय सवार्नुमति है। किसी पार्टी में हिम्मत नहीं कि वह खुद को जन-विरोधी साबित करे।
भले ही अर्थशास्त्रीय दृष्टि कहती हो कि अंततः इसकी कीमत गरीब जनता को चुकानी होगी। पर खाद्य सुरक्षा विधेयक को लेकर गहरी असहमतियाँ हैं। वामपंथी दल चाहते हैं कि खाद्य सुरक्षा सार्वभौमिक होनी चाहिए। सबके लिए समान। 
भाजपा बहस चाहती है। अध्यादेश के रास्ते इसे लागू करने का समर्थन किसी ने नहीं किया है। पर क्या विपक्ष इस अध्यादेश को रोकेगा? और रोका तो क्या कांग्रेस को इसका राजनीतिक लाभ मिलेगा? और क्या विपक्ष इस मामले में कांग्रेस का पर्दाफाश कर पाएगा?
 दुनिया की सबसे बड़ी सामाजिक-कल्याण योजना क्या बगैर संसदीय विमर्श के लागू हो जाएगी? कांग्रेस क्या अर्दब में है या विपक्ष एक मास्टर स्ट्रोक में मारा गया?

Friday, July 5, 2013

क्या भाजपा चेहरा बदल रही है?

 शुक्रवार, 5 जुलाई, 2013 को 06:49 IST तक के समाचार
भाजपा की अंदरूनी राजनीति
मीडिया रिपोर्टों पर भरोसा करें तो इशरत जहाँ मामले में क्लिक करेंचार्जशीटदाखिल होने के बाद सीबीआई और आईबी के भीतर व्यक्तिगत स्तर पर गंभीर चर्चा है.
ये न्याय की लड़ाई है या राजनीतिक रस्साकसी, जिसमें दोनों संगठनों का क्लिक करेंइस्तेमाल हो रहा है?
जावेद शेख उर्फ प्रणेश पिल्लै के वकील मुकुल सिन्हा हैरान हैं कि आईबी के स्पेशल डायरेक्टर राजेन्द्र कुमार का नाम सीबीआई की पहली चार्जशीट में क्यों नहीं है.
उन्हें लगता है कि राजेन्द्र कुमार का नाम न आने के पीछे क्लिक करेंराजनीतिक दबाव है.
इसका मतलब है कि जिस रोज सरकार सुप्रीम कोर्ट में सीबीआई को आजाद पंछी बनाने का हलफनामा दे रही थी उसी रोज सीबीआई ऐसा आरोप-पत्र पेश कर रही थी, जिसके कारण उसपर सरकारी दबाव में काम करने का आरोप लगता है.
राजेन्द्र कुमार का नाम होता तो भाजपा को आश्चर्य होता. नहीं है तो मुकुल सिन्हा को आश्चर्य है.
अभी क्लिक करेंतफ्तीश ख़त्म नहीं हुई है. सीबीआई सप्लीमेंट्री यानि पूरक चार्जशीट भी दाखिल करेगी लेकिन इस मामले में अभी कई विस्मय बाकी हैं.

Sunday, June 16, 2013

सबका पेट भरने से रोकता कौन है?

खाद्य सुरक्षा विधेयक सरकार के गले की हड्डी बन गया है। बजट सत्र के दूसरे दौर में जब अश्विनी कुमार और पवन बंसल को हटाने का शोर हो रहा था, खाद्य सुरक्षा विधेयक पेश होने की खबरें सुनाई पड़ीं। ऐसा नहीं हो पाया। इसके बाद सुनाई पड़ा कि सरकार अध्यादेश लाएगी, पर वैसा भी सम्भव नजर नहीं आता। सच यह है कि इतने लम्बे अरसे से इस कानून को बनाने की चर्चा के बावज़ूद इसके प्रावधानों को लेकर आम सहमति नहीं है। सत्तारूढ़ दल और विपक्ष की असहमतियों की बात अलग है, सरकार के भीतर असहमति है। सरकार ने विधेयक का जो रूप तैयार किया है उससे खाद्य मंत्री केवी थॉमस तक सहमत नहीं हैं। कृषि मंत्री शरद पवार इसके पक्ष में नहीं हैं। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी इसे चाहती हैं, पर सरकार अनमनी है।

Friday, June 14, 2013

'जिन्हें इमरजेंसी याद है वे वीसी शुक्ल को नहीं भूल सकते'

'जिन्हें इमरजेंसी याद है वे वीसी शुक्ल को नहीं भूल सकते'

 गुरुवार, 13 जून, 2013 को 18:58 IST तक के समाचार
विद्या चरण शुक्ल
छत्तीसगढ़ में हुए नक्सली हमले में शुक्ल की मौत हो गई थी
जिस रोज़ माओवादी हमले में विद्या चरण शुक्ल के क्लिक करेंघायल होने की ख़बर मिली, काफी लोगों की पहली प्रतिक्रिया थी, कौन से वीसी शुक्ल इमरजेंसी वाले. वीसी शुक्ल पर इमरजेंसी का जो दाग लगा वह कभी मिट नहीं सका.
विद्याचरण शुक्ल मध्यप्रदेश के ताकतवर राजनेताओं में गिने जाते थे. उनके परिवार की ताकत और सम्मान का लाभ उन्हें मिला, पर उन्हें जिस बात के लिए याद रखा जाएगा वो ये कि वो ज्यादातर सत्ता के साथ रहे. ख़ासतौर से जीतने वाले के साथ.
इमरजेंसी के बाद शाह आयोग की सुनवाई के दौरान चार नाम सबसे ज्यादा ख़बरों में थे. इंदिरा गांधी, संजय गांधी, वीसी शुक्ल और बंसी लाल. इमरजेंसी के कारण उन्हें जेल जाना पड़ा और सज़ा भी मिली, पर इमरजेंसी ने ही उन्हें बड़े कद का राजनेता बनाया.
क्लिक करेंवीसी शुक्ल का राजनीतिक जीवन शानदार रहा. उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि शानदार थी. वे देश के सबसे कम उम्र के सांसदों में से एक थे. 28 साल की उम्र में वे लोकसभा के सदस्य बने, राजसी ठाठ से जुड़े 'विलासों' के प्रेमी.