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Tuesday, October 2, 2012

न्यूयॉर्कर में समीर जैन और टाइम्स ऑफ इंडिया



बुनियादी तौर पर अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर के जीवन और संस्कृति पर केन्द्रित पत्रिका न्यूयॉर्कर निबंध लेखन, फिक्शन, व्यंग्य लेखन, कविता और खासतौर से कार्टूनों के लिए विशिष्ट है। किसी ज़माने में हिन्दी में भी ऐसी पत्रिकाएं थीं, पर आधुनिकता की दौड़ में हमने सबको खत्म होने दिया। इधर पिछले कुछ वर्षों में भारत केन्द्रित लेख भी प्रकाशित हुए हैं। पत्रिका के ताज़ा अंक (8अक्टूबर,2012) में भारत के समीर जैन, विनीत जैन और टाइम्स ऑफ इंडिया के बारे में इसके प्रसिद्ध मीडिया क्रिटिक केन ऑलेटा का नौ पेज का आलेख छपा है। ऑलेटा 1992 से एनल्स ऑव कम्युनिकेशंस कॉलम लिख रहे हैं। सिटिज़ंस जैन शीर्षक आलेख में उन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया के विस्तार का विवरण दिया है। आलेख के पहले सफे के सबसे नीचे इसका सार इन शब्दों में दिया गया है, "Their success is a product of an unorthodox philosophy." 

Sunday, September 23, 2012

आनन्द बाज़ार का एबेला


शायद यह टाइम्स ऑफ इंडिया के बांग्ला बाज़ार में प्रवेश की पेशबंदी है या नए पाठकों की तलाश। आनन्द बाज़ार पत्रिका ने एबेला नाम से नया दैनिक पत्र शुरू किया है, जिसका लक्ष्य युवा पाठक हैं। यह पूरी तरह टेब्लॉयड है। रूप और आकार दोनों में। हिन्दी में जागरण के आई नेक्स्ट, अमर उजाला के कॉम्पैक्ट, भास्कर के डीबी भास्कर और हिन्दुस्तान के युवा की तरह। पर इन सबके मुकाबले बेहतर नियोजित।

बेनेट कोलमैन का इरादा इस साल के अंत तक बांग्ला अखबार शुरू करने का है। किसी ज़माने में कोलकाता से नवभारत टाइम्स भी निकलता था। पर टाइम्स ग्रुप हिन्दी के बजाय बांग्ला में जाना चाहता है। टाइम्स हाउस का बांग्ला अखबार कैसा होगा, वह किस वर्ग को टार्गेट करेगा और कब आएगा इस पर कयास हीं हैं। बीसीसीएल के चीफ मार्केटिंग राहुल कंसल को उद्धृत करते हुए जो खबरें आई हैं उनके अनुसार टाइम्स हाउस इस अखबार की सम्भावनाओं को समझ रहा है। पहले अनुमान था कि यह 15 अगस्त तक आ जाएगा और इसका नाम समय होगा। बहरहाल उससे पहले एबेला आ गया है।

Wednesday, September 12, 2012

अदालतों की मीडिया कवरेज

मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट के संविधानिक पीठ ने अदालती सुनवाई की कवरेज के एक नए संविधानिक सिद्धांत  को लागू किया। अदालत ने इस संवेदनशील मामले पर पहली नज़र में कोई गाइडलाइन ज़ारी नहीं की। पर फेयर ट्रायल के सिद्धांत की रक्षा के लिए मीडिया पर पाबंदी का रास्ता खोल दिया है। यह एक महत्वपूर्ण खबर थी। खासतौर से पिछले दिनों कई मामलों में मीडिया ट्रायल शब्द का इस्तेमाल होने लगा। उसे देखते हुए लगता था कि शायद अदालत कोई व्यापक गाइडलाइन ज़ारी करेगी, पर वैसा नहीं हुआ। पर अदालत के इस फैसले पर काफी कुछ विवेचन बाकी है। हिन्दी अखबारों में यह विवेचन कहीं दिखाई नहीं दिया। देश के पहले दस अखबारों में से कितने हिन्दी के अखबार हैं, यह अखबारों के विज्ञापनों में हर तीसरे महीने दिखाई पड़ता है। पर इन अखबारों की कवरेज कैसी है, यह रोज़ नज़र आता है। बहरहाल ऐसे सवालों पर विचार करने वाले दो-तीन अखबार अंग्रेज़ी में दिखाई पड़ते हैं। सम्भव है बांग्ला, मलयालम और किसी दूसरी भारतीय भाषा में सांविधानिक सवालों पर विवचन होता हो, हिन्दी में नहीं होता।

सुप्रीम कोर्ट के इस नए सिद्धांत पर कुछ अखबारों के सम्पादकीय क्या कहते हैं, इसे पढ़ें। इन सम्पादकीयों में चिन्ता के स्वर हैं।

Tuesday, July 3, 2012

मसाज़ तक ठीक, मज़ाक तो न बने मीडिया

अखबार के दफ्तरों में हाल में नए आए पत्रकारों में एक बुनियादी फर्क उनके काम की शैली का है। आज के पत्रकार को जो तकनीक उपलब्ध है वह बीस साल पहले उपलब्ध नहीं थी। बीस साल पहले फोटो टाइप सैटिंग शुरू हो गई थी, पर सम्पादकों ने पेज बनाने शुरू नहीं किए थे। कम से कम हमारे देश में नहीं बनते थे। 1985 में ऑल्डस कॉरपोरेशन ने जब अपने पेजमेकर का पहला वर्ज़न पेश किया तब इरादा किताबों के पेज तैयार करने का था। उन्हीं दिनों पहली एपल मैकिंटॉश मशीनें तैयार हो रहीं थीं। 1987 में माइक्रोसॉफ्ट की विंडोज़ 1.0 आ गई थी। 1987 में ही क्वार्क इनकॉरपोरेटेड ने क्वार्कएक्सप्रेस का मैक और विंडो संस्करण पेश कर दिया। यह पेज बनाने का सॉफ्टवेयर था, पर सूचना और संचार की तकनीक का विस्तार उसके पहले से चल रहा था। टेलीप्रिंटर, लाइनो-मोनो टाइपसैटिंग, फैक्स और जैरॉक्स जैसी तमाम तकनीकों का वैश्विक-संवाद में क्या स्थान है इसे समझने की कोशिश ज़रूर करनी चाहिए। आज से तीस साल पहले वेस्ट इंडीज़ में हो रहे क्रिकेट मैच की खबर तीसरे रोज़ अखबारों में पढ़ने को मिलती थी। कुछ समर्थ अखबार ब्लैक एंड ह्वाइट फोटो भी छापते थे। पर 1996 के एटलांटा ओलिम्पिक के रंगीन टीवी प्रसारण से फोटो ग्रैब करके एक हिन्दी अखबार ने जब छापे तब लगा कि क्रांति तो हो गई। पर इस लेख का उद्देश्य अखबारों की तकनीकी क्रांति पर रोशनी डालना नहीं है।

Tuesday, June 19, 2012

तरुण सहरावत और ब्रेक से ब्रेक के बीच की पत्रकारिता

तरुण सहरावत
 दो जानकारियाँ तकरीबन साथ-साथ प्राप्त हुईं। दोनों में कोई सीधा सम्बन्ध नहीं, सिवाय मूल्यों और मर्यादाओं के जो एक कर्म से जुड़ी हैं, जिसे पत्रकारिता कहते हैं। तहलका पत्रिका के पत्रकार तरुण सहरावत का देहांत हो गया। उनकी उम्र मात्र 22 साल थी। अबूझमाड़ के आदिवासियों के साथ सरकारी संघर्षों की रिपोर्टिंग करने तरुण सहरावत बस्तर गए थे। जंगल में मच्छरों के काटने और तालाब का संक्रमित पानी पीने के कारण उन्हें टाइफाइड और सेरिब्रल मलेरिया हुआ और वे बच नहीं पाए। दूसरी खबर यह कि मुम्बई प्रेस क्लब ‘पब्लिक रिलेशनशिप और मीडिया मैनेजमेंट’ पर एक सर्टिफिकेट कोर्स शुरू करने जा रहा है। 23 जून से शुरू हो रहे तीन महीने के इस कोर्स के विज्ञापन में प्लेसमेंट का आश्वासन दिया गया है। साथ ही फीस में डिसकाउंट की व्यवस्था है। यह विज्ञापन प्राइम कॉर्प के लोगो के साथ लगाया गया है, जो मीडिया रिलेशंस और कंसलटेंसी की बड़ी कम्पनी है। पहली खबर की जानकारी और दूसरी को लेकर परेशानी शायद बहुत कम लोगों को है।

Tuesday, May 15, 2012

पाठ्य पुस्तकों में कार्टून क्या गलत हैं?


कार्टून विवाद हालांकि एक या दो रोज की खबर बनकर रह गया। इसकी बारीकियों पर जाने की कोशिश ज्यादा लोगों ने नहीं की। मुझे इधर-उधर जो भी पढ़ने को मिल रहा है उसके आधार पर कुछ बिन्दु उभरते हैं जो इस प्रकार हैं:-

  • दलित राजनीति से जुड़े एक मामूली से संगठन ने इस सवाल को उठाया। महाराष्ट्र के इस संगठन को इसके बहाने  अपने आप को आगे लाने का मौका नज़र आया। सुहास पालसीकर के घर पर तोड़फोड़ के पीछे भी इस संगठन की मंशा अपने को बढ़ाने की है। 
  • संसद में यह सवाल उठने के पहले मानव संसाधन मंत्री के साथ कुछ सांसदों ने चर्चा की थी। कार्टून को हटाने का फैसला भी हो गया। 
  • यह भी समझ में आता है कि सांसदों का एक ग्रुप बड़े दबाव समूह के रूप में उभर कर आया है। सरकार और विपक्ष से जुड़े बहुसंख्यक सांसद राजनीति लेकर जनता के बढ़ते रोष से परेशान हैं। अन्ना हजारे आंदोलन के दौरान यह रोष मुखर होकर सामने आया। 
  • सरकार केवल आम्बेडकर वाले कार्टून को ही नहीं हटा रही है बल्कि किसी भी प्रकार के कार्टून को पाठ्य पुस्तकों से हटाना चाहती है। 
  • सवाल यह है कि क्या किशोर मन को राजनीति की बारीकियाँ समझ में नहीं आएंगी। या उसे यह सब नही बताया जाना चाहिए। उसके मन में क्या राजनीति के प्रति अनादर का भाव है? 

Sunday, May 13, 2012

कार्टून विवाद पर फेसबुक से कुछ पोस्ट

हिमांशु पांड्या की यह पोस्ट मैने उनके फेसबुक नोट्स से ली है। इस चर्चा को आगे बढ़ाने में यह मददगार होगी।

अप्रश्नेय कोई नहीं है - गांधी , नेहरू , अम्बेडकर , मार्क्स....
by Himanshu Pandya on Saturday, May 12, 2012 at 1:17pm ·

जिस किताब में छपे कार्टून पर विवाद हो रहा है, उसमें कुल बत्तीस कार्टून हैं। इसके अतिरिक्त दो एनिमेटेड बाल चरित्र भी हैं - उन्नी और मुन्नी। मैं सबसे पहले बड़े ही मशीनी ढंग से इनमें से कुछ कार्टूनों का कच्चा चिट्ठा आपके सामने प्रस्तुत करूँगा, फिर अंत में थोड़ी सी अपनी बात।

Friday, May 11, 2012

कितने सच सामने लाएंगे आमिर खान?

सतीश आचार्य का कार्टून साभार
नए रविवारी सीरियल ‘सत्यमेव जयते’ के प्रसारण के साथ ही लाखों-लाख लोगों ने आमिर खान से सम्पर्क किया है। इनमें राजस्थान के मुख्यमंत्री भी शामिल हैं। सत्यमेव जयते की वैबसाइट पर जाकर आप एक पोल में शामिल हो सकते हैं। इसमें पूछा गया है कि क्या राजस्थान में स्त्री भ्रूण हत्या के मामलों के लिए फास्ट ट्रैक अदालतों की स्थापना की जानी चाहिए? कुछ लोगों का कहना है कि यह सीरियल नहीं आंदोलन है। इसकी मार्केटिंग पर 20 करोड़ से ज्‍यादा खर्च हुआ है। आखिरी मिनट तक सामान्य दर्शक को नहीं पता था कि इस सीरियल में क्या है। मीडिया विशेषज्ञ इस बात पर निहाल हैं कि कितनी चतुराई से दूरदर्शन द्वारा वर्षों पहले तैयार किए गए स्लॉट का इस्तेमाल कर लिया गया। सीरियल प्रसारण के अगले रोज दिल्ली के एक अंग्रेजी अखबार के सम्पादकीय पेज पर आमिर खान का स्त्री भ्रूण हत्या विषय पर लेख प्रकाशित हुआ। अब हर सोमवार को उनका लेख पढ़ने को मिलेगा। शायद यह भी यह सीरियल की मार्केटिंग रणनीति का हिस्सा है। अखबारों को भी आईबॉल्स जमा करने के लिए के लिए टीवी स्टार चाहिए।

Wednesday, May 2, 2012

क्या मीडिया ने भी आरुषी मामले को उलझाया?




ऐसा लगता है कि आरुषी मामले में मीडिया ने तलवार परिवार को दोषी मान लिया है।बेशक  इस मामले को जटिल और विकृत बनाने में पुलिस और सीबीआई की भूमिका सबसे बड़ी है, पर मीडिया को रिपोर्ट करते वक्त समझदारी से काम भी करना चाहिए।

Friday, February 10, 2012

हाइपर मीडिया और हमारे स्टार


अभी पिछले दिनों यह खौफनाक खबर आई कि युवराज के सीने में कैंसर पनप रहा है। साथ में दिलासा भी थी कि इस बीमारी का इलाज संभव है। एक बेहतरीन खिलाड़ी, जिसने देश का सम्मान कई बार बनाया और बचाया अचानक संकट में आ गया। हम सब हैरान और परेशान हैं। इस हैरानी के बरक्स अचानक युवराज खबरों में आ गए। युवराज ही नहीं उनके फिजियो, फिजियो की डिगरी, युवराज के पिताजी, जोकि खुद भी क्रिकेटर रह चुके हैं और डॉक्टर तमाम लोग टीवी पर शाम के शो में उतर आए। और उसके बाद? उत्तर प्रदेश में मतदान की खबरें आने लगीं। कैमरा पैन कर दिया गया। विषय बदल गया, सरोकार बदल गए। युवराज की खबर पीछे चली गई, और सियासी समर की खबरें परवान चढ़ने लगीं।

Wednesday, November 30, 2011

मीडिया अपनी साख के बारे में सोचे, लोकपाल से न घबराए

हमारे देश में प्रेस की आज़ादी नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिस्सा है। अमेरिकी संविधान के पहले संशोधन की तरह प्रेस नाम की संस्था को मिले अधिकार से यह कुछ अलग है। पहली नज़र में यह अधिकार अपेक्षाकृत कमज़ोर लगता है, पर व्यावहारिक रूप से देखें तो जनता का अधिकार होने के नाते यह बेहद प्रभावशाली है। संविधान निर्माताओं ने इस अधिकार पर पाबंदियों के बारे में नहीं सोचा था। पर 1951 में हुए पहले संविधान संशोधन के माध्यम से इन स्वतंत्रताओं पर अनुच्छेद 19(2) के अंतर्गत युक्तियुक्त पाबंदियाँ भी लगाईं गईं। ये पाबंदियाँ अलग-अलग कानूनों के रूप में मौज़ूद हैं। भारत की प्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ रिश्तों, लोक-व्यवस्था, शिष्टाचार और सदाचार, अश्लीलता, न्यायालय की अवमानना, मानहानि और अपराध उद्दीपन को लेकर कानून बने हैं। इसी तरह पत्रकारों की हित-रक्षा का कानून वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट बना है। इन कानूनों को लागू करने में कोई दिक्कत नहीं तो दायरा लोकपाल का हो या उच्चतम न्यायालय का इससे फर्क क्या पड़ता है?

Thursday, November 3, 2011

बयानबाज़ी के बजाय मीडिया आत्ममंथन करे

हर आज़ादी की सीमा होती है। पर हर सीमा की भी सीमा होती है। हमारे संविधान ने जब अनुच्छेद 19(1)(क) के तहत व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार दिया था, तब सीमाओं का उल्लेख नहीं किया गया था। पर 1951 में संविधान के पहले संशोधन में इस स्वतंत्रता की युक्तियुक्त सीमाएं भी तय कर दी गईं। पिछले साठ वर्ष में सुप्रीम कोर्ट के अनेक फैसलों से इस स्वतंत्रता ने प्रेस की स्वतंत्रता की शक्ल ली। अन्यथा ‘प्रेस की स्वतंत्रता’ शब्द संविधान में नहीं था और न है। उसकी ज़रूरत भी नहीं। पर अब प्रेस की जगह मीडिया शब्द आ गया है। ‘प्रेस’ शब्द ‘पत्रकारिता’ के लिए रूढ़ हो गया है। टीवी वालों की गाड़ियों पर भी मोटा-मोटा प्रेस लिखा होता है। अखबारों के मैनेजरों की गाड़ियों पर उससे भी ज्यादा मोटा प्रेस छपा रहता है।

इन दिनों हम पत्रकारिता को लेकर संशय में हैं। पिछले 400 वर्ष में पत्रकारिता एक मूल्य के रूप में विकसित हुई है। इस मूल्य(वैल्यू) की कीमत(प्राइस) या बोली लगा दी जाए लगा दी जाए तो क्या होगा? प्रेस काउंसिल के नए अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू की कुछ बातों को लेकर मीडिया जगत में सनसनी है। जस्टिस काटजू ने मीडिया की गैर-ज़िम्मेदारियों की ओर इशारा किया है। वे प्रेस काउंसिल के दांत पैने करना चाहते हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर मीडिया काउंसिल बनाने का सुझाव दिया है। ताकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को भी इसमें शामिल किया जा सके। वे चाहते हैं कि मीडिया के लाइसेंस की व्यवस्था भी होनी चाहिए। वे सरकारी विज्ञापनों पर भी नियंत्रण चाहते हैं। उनकी किसी बात से असहमति नहीं है। महत्वपूर्ण है मीडिया की साख को बनाए रखना। प्रेस काउंसिल की दोहरी भूमिका है। उसे प्रेस पर होने वाले हमलों से उसे बचाना है और साथ ही उसके आचरण पर भी नज़र रखनी होती है। प्रेस की आज़ादी वास्तव में लोकतांत्रिक-व्यवस्था के लिए बेहद महत्वपूर्ण है, पर जब किसी न्यूज़ चैनल का हैड कहे कि दर्शक जो माँगेगा वह उसे दिखाएंगे, तब उसकी भूमिका पर नज़र कौन रखेगा? मीडिया काउंसिल का विचार पिछले कुछ साल से हवा में है। यह बने या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए अलग काउंसिल बने, इसके बारे में अच्छी तरह विचार की ज़रूरत है।

Saturday, October 29, 2011

फॉर्मूला-1 बनाम श्रीलाल शुक्ल

स्टीव जॉब्स इस दौर के के श्रेष्ठतम उद्यमियों में से एक थे, पर भारत के लोगों से उनका परिचय बहुत ज्यादा नहीं था। एपल के उत्पाद भारत में बहुत प्रचलित नहीं हैं, पर भारतीय मीडिया ने उनके निधन पर जो कवरेज की उससे लगता था कि हम प्रतिभा की कद्र करना चाहते हैं।  पर हिन्दी के किसी अखबार में फॉर्मूला-1 की रेस के उद्घाटन की खबर टॉप पर हो और श्रीलाल शुक्ल के निधन की छोटी सी खबर  छपी हो तो बात समझ में आती है कि दुनिया बदल चुकी है। जिस कॉलम में श्रीलाल शुक्ल की खबरहै उसके टॉप की खबर है नताशा के हुए गंभीर

Wednesday, October 19, 2011

एक अखबार जो साखदार है और आर्थिक रूप से सबल भी

19 अक्टूबर के हिन्दू में वरिष्ठ पत्रकार खुशवंत सिंह का पत्र छपा है, जो मैने नीचे उद्धृत किया है। खुशवंत सिंह ने अखबार की तारीफ की है और उसे देश का ही नहीं दुनिया का सबसे विश्वसनीय अखबार माना है। आज जब हम अखबारों की साख को लेकर परेशान हैं तब हिन्दू की इस किस्म की तारीफ विस्मय पैदा करती है।

Friday, October 7, 2011

स्टीव जॉब्स

स्टीव जॉब्स को हम इतनी अच्छी तरह जानते थे यह मुझे पता नहीं था। पर मीडिया की कवरेज से पता लगता है कि दुनियाभर के लोग इनोवेशन, लगन और सादगी को पसंद करते हैं। आज के अखबारों पर नजर डालने के बाद और नेट पर खोज करने के बाद मुझे काफी सामग्री नजर आई। सब कुछ एक साथ देना सम्भव नहीं है। कुछ अखबारों के पहले सफे और कुछ कार्टून पेश हैं। चित्रों को बड़ा करने के लिए उन्हें क्लिक करें



Saturday, September 24, 2011

मीडिया-भ्रष्टाचार के खिलाफ बंद !!!

ऐसा पहली बार सुनाई पड़ा है। कर्नाटक के एक कस्बे में जनता ने मीडिया के भ्रष्टाचार के विरोध में बंद रखा। आमतौर पर कन्नड़ पत्रकारों से जुड़े मीडिया ब्लॉग सैंस सैरिफ ने यह खबर कन्नड़ अखबार प्रजा वाणी के मार्फत दी है। बहरहाल अब यह पता लगाने की ज़रूरत है कि मीडिया के किस तरह के काम से जनता नाराज़ है।  एक शिकायत पक्षपात की होती है, यहाँ तो बात वसूली और आरटीआई के दुरुपयोग वगैरह की है।

सैंस सैरिफ के अनुसार उत्तरी कर्नाटक के मुधोल शहर में यह बंद पूरी तरह सफल रहा। इस बंद में दुकानदार, कर्मचारी राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ता, यहाँ तक कि पत्रकार भी शामिल हुए। सैंस सैरिफ की रपट इस प्रकार हैः-


A town shuts down to protest media corruption!24 September 2011Unbelievable as it may sound, residents of the town of Mudhol in North Karnataka observed a bandh (shutdown) on Tuesday, September 20, to protest “blackmail journalism” and the growing number of imposters masquerading as journalists to extort money.
According to a report in the Kannada daily Praja Vani, the bandhin the town of 100,000 residents was a “complete success”.
Shops and business establishments downed their shutters for a few hours, and vehicles were off the roads.
The protestors included politicians, farmers, even journalists, and a host of other organisations. They marched to thetahsildar‘s office and presented a memorandum.
One protestor slammed weekly newspapers for bringing a bad name to the entire profession, and another targetted the misuse of the right to information (RTI) Act to ferret out information that was later used for extortion.
Mudhol town is famous for its country-bred hounds used for hunting.

सैंस सैरिफ पढ़ने के लिए क्लिक करें

Sunday, September 11, 2011

यह मीडिया का आतंकवाद है



आतंकवादी हिंसा, साम्प्रदायिक हिंसा और दूसरे किस्म के टकरावों की कवरेज को लेकर विचार करने का समय आ गया है। नवम्बर 2008 के मुम्बई हमलों के दौरान कई दिन तक चली धारावाहिक कवरेज का फायदा हमलावरों के आकाओं ने उठाया। जब तक हम समझ पाते नुकसान हो चुका था। हिंसा की कवरेज और उसके संदर्भ में होने वाले स्टूडियो डिस्कशन अक्सर माहौल को सम्हालने के बजाय बिगाड़ देते हैं। आतंवादियों का उद्देश्य हमारे मनोबल पर हमला करना होता है। अक्सर उसके इस इरादे को मीडिया से मदद मिलती है।

Saturday, July 9, 2011

NoW का अंत

न्यूज़ ऑफ द वर्ल्ड यानी Now ऐसा कोई बड़ा सम्मानित अखबार नहीं था। पर 168 साल पुराने इस अखबार को एक झटके में बन्द करने की ऐसी मिसाल नहीं मिलेंगी। रूपर्ट मर्डोक ने युनाइटेड किंगडम की पत्रकारिता को लगभग बदल कर रख दिया। अखबारों की व्यावसायिकता को इस हद तक सम्माननीय बना दिया कि कमाई के नाम पर कुछ भी करने का उनका हौसला बढ़ा। तुर्रा यह कि पत्रकारिता के प्रवचन भी वह लपेट कर देते थे। बहरहाल इंग्लैंड में पत्रकारिता, अपराध और सरकार के रिश्तों पर नई रोशनी पड़ने वाली है। हमारे देश के लिए भी इसमें कुछ संकेत छिपे हैं बशर्ते उन्हें समझा जाए।

Friday, July 1, 2011

प्रधानमंत्री का सम्पादक सम्मेलन

मंजुल का कार्टून साभार
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह या दूसरे शब्दों में कहें यूपीए-2 सरकार अब पीआर एक्सरसाइज़ कर रही है। प्रधानमंत्री का यह संवाद किसी किस्म का विचार-विमर्श नहीं था। एक प्रकार का संवाददाता सम्मेलन था। जनता से जुड़ने के लिए सम्पादकों की ज़रूरत नहीं होती। खासतौर से जब सम्पादकों का तटस्थता भाव क्रमशः कम हो रहा हो। फिर भी किसी बात पर सफाई देना गलत नहीं है। प्रधानमंत्री ने जो भी कहा, वह पहले भी वे किसी न किसी तरह कहते रहे हैं। 


उनकी तमाम बातों में एक तो मीडिया की शिकायत और सीएजी की भूमिका पर उनकी टिप्पणी विचारणीय है। उन्हें शिकायत है, पर मेरी धारणा है कि मीडिया की भूमिका शिकायतकर्ता, अभियोजक और जज की है और होनी चाहिए। जनता की शिकायतें सामने लाना उसका काम है। उसे कोई आरोप समझ में आए तो उसे लगाना भी चाहिए और जज की तरह निष्पक्ष, तटस्थ और न्यायप्रिय उसे होना चाहिए। पर इस जज के फैसले कार्यपालिका लागू नहीं करती, जनता लागू करती है। साथ ही इस जज को जिन मूल्यों, नियमों और सिद्धांतों के आधार पर निर्णय करने होते हैं उनकी पर्याप्त समझ होनी चाहिए। 

Monday, June 6, 2011

रामदेव और मीडिया

एक अरसे बाद भारतीय मीडिया को राजनैतिक कवरेज़ के दौरान किसी दृष्टिकोण को अपनाने का मौका मिल रहा है। अन्ना हज़ारे और अब रामदेव के आंदोलन के बाद राष्ट्रीय क्षितिज पर युद्ध के बादल नज़र आने लगे हैं। साख खोने के बावजूद इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की कवरेज और प्रिंट मीडिया का दृष्टिकोण आज भी  प्रासंगिक है। सत्ता के गलियारे में पसंदीदा चैनल और पत्रकारों की कमी नहीं है। वस्तुतः बहुसंख्यक पत्रकार सरकार से बेहतर वास्ता रखना चाहते हैं। हमारे यहाँ खुद को निष्पक्ष कहने का चलन है। फिर भी पत्रकार सीधे स्टैंड लेने से घबराते हैं। बहरहाल रामदेव प्रसंग पर आज के अखबारों पर नज़र डालें तो दिखाई पड़ेगा कि जितनी दुविधा में सरकार है उससे ज्यादा दुविधा में पत्रकार हैं। दिल्ली से निकलने वाले आज के ज्यादातर अखबारों ने रामदेव प्रकरण पर सम्पादकीय नहीं लिखे हैं या लिखे हैं तो काफी संभाल कर। हाथ बचाकर लिखे गए आलेख संस्थानों के राजनैतिक दृष्टिकोण और पत्रकारों के संशय को भी व्यक्त करते हैं।

द यूपीए'ज़ पोलिटिकल बैंकरप्सी शीर्षक से अपने सम्पादकीय में द हिन्दू ने लिखा है कि बाबा रामदेव के शिविर पर आधी रात को पुलिस कार्रवाई निरंकुश, बर्बर और अलोकतांत्रिक है। हिन्दू ने इस बात पर ज़ोर दिया है कि एक ओर प्रणब मुखर्जी के नेतृत्व में चार मंत्री जिस व्यक्ति के स्वागत में हवाई अड्डे पहुँचे उसे ही कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने ठग घोषित कर दिया। ...रामदेव की माँगों पर ध्यान दें तो वे ऊटपटाँग लगती हैं और कई माँगें तो भारतीय संविधान के दायरे में फिट भी नहीं होतीं।...रामदेव मामले ने यूपीए सरकार का राजनैतिक दिवालियापन साबित कर दिया है।