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Tuesday, August 13, 2013

मोदी के 'वी कैन' माने क्या?

नरेन्द्र मोदी की सार्वजनिक सभाओं के लाइव टीवी प्रसारण के पीछे क्या कोई साजिश, योजना या रणनीति है? और है तो उसकी जवाबी योजना और रणनीति क्या है? इसमें दो राय नहीं कि समाज को बाँटने वाले या ध्रुवीकरण करने वाले नेताओं की सूची तैयार करने लगें तो नरेन्द्र मोदी का नाम सबसे ऊपर ऊपर की ओर होगा. उनकी तुलना में भाजपा के ही अनेक नेता सेक्यूलर और सौम्य घोषित हो चुके हैं. मोदी के बारे में लिखने वालों के सामने सबसे बड़ा संकट या आसानी होती है कि वे खड़े कहाँ हैं. यानी उनके साथ हैं या खिलाफ? किसी एक तरफ रहने में आसानी है और बीच के रास्ते में संकट. पर अब जब बीजेपी के लगभग नम्बर एक नेता के रूप में मोदी सामने आ गए हैं, उनके गुण-दोष को देखने-परखने की जरूरत है. जनता का बड़ा तबका मोदी के बारे में कोई निश्चय नहीं कर पाया है. पर राजनेता और आम आदमी की समझ में बुनियादी अंतर होता है. राजनेता जिसकी खाता है, उसकी गाता है. आम आदमी को निरर्थक गाने और बेवजह खाने में यकीन नहीं होता.

Friday, July 5, 2013

क्या भाजपा चेहरा बदल रही है?

 शुक्रवार, 5 जुलाई, 2013 को 06:49 IST तक के समाचार
भाजपा की अंदरूनी राजनीति
मीडिया रिपोर्टों पर भरोसा करें तो इशरत जहाँ मामले में क्लिक करेंचार्जशीटदाखिल होने के बाद सीबीआई और आईबी के भीतर व्यक्तिगत स्तर पर गंभीर चर्चा है.
ये न्याय की लड़ाई है या राजनीतिक रस्साकसी, जिसमें दोनों संगठनों का क्लिक करेंइस्तेमाल हो रहा है?
जावेद शेख उर्फ प्रणेश पिल्लै के वकील मुकुल सिन्हा हैरान हैं कि आईबी के स्पेशल डायरेक्टर राजेन्द्र कुमार का नाम सीबीआई की पहली चार्जशीट में क्यों नहीं है.
उन्हें लगता है कि राजेन्द्र कुमार का नाम न आने के पीछे क्लिक करेंराजनीतिक दबाव है.
इसका मतलब है कि जिस रोज सरकार सुप्रीम कोर्ट में सीबीआई को आजाद पंछी बनाने का हलफनामा दे रही थी उसी रोज सीबीआई ऐसा आरोप-पत्र पेश कर रही थी, जिसके कारण उसपर सरकारी दबाव में काम करने का आरोप लगता है.
राजेन्द्र कुमार का नाम होता तो भाजपा को आश्चर्य होता. नहीं है तो मुकुल सिन्हा को आश्चर्य है.
अभी क्लिक करेंतफ्तीश ख़त्म नहीं हुई है. सीबीआई सप्लीमेंट्री यानि पूरक चार्जशीट भी दाखिल करेगी लेकिन इस मामले में अभी कई विस्मय बाकी हैं.

Monday, June 17, 2013

अकेली पड़ती भाजपा

इधर जेडीयू ने भाजपा से नाता तोड़ा, उधर कांग्रेस ने चुनाव के लिए अपनी टीम में फेरबदल किया। कांग्रेस ने पिछले साल नवम्बर से चुनाव की तैयारियाँ शुरू कर दी थीं। राहुल गांधी को चुनाव अभियान का प्रमुख बनाया गया। पार्टी के कुशल कार्यकर्ता चुनाव के काम में लगाए जा रहे हैं। इनका चुनाव राहुल गांधी के साथ करीबी रिश्तों को देखकर किया गया है। उधर भाजपा की चुनाव तैयारी आपसी खींचतान के कारण अस्त-व्यस्त है। सबसे बड़ी परेशानी जेडीयू के साथ गठबंधन टूटने के कारण हुई है। इसमें दो राय नहीं कि वह अकेली पड़ती जा रही है।

भाजपा और जेडीयू गठबंधन टूटने के कारणों पर वक्त बर्वाद करने के बजाय अब यह देखने की ज़रूरत है कि इस फैसले का भारतीय राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ेगा। पिछले हफ्ते ही जेडीयू की ओर से कहा गया था कि मोदी के बारे में फैसला भाजपा का अंदरूनी मामला है। यानी इस बीच कुछ हुआ, जिसने जेडीयू के फैसले का आधार तैयार किया। बहरहाल अब राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया तेज़ होगी। जेडीयू क्या कांग्रेस के साथ जाएगी? या ममता बनर्जी के संघीय मोर्चे के साथ? या अकेले मैदान में रहेगी? इन सवालों के फौरी जवाब शायद आज मिल जाएं, पर असल जवाब 2014 के परिणाम आने के बाद मिलेंगे। बहरहाल भानुमती का पिटारा खुल रहा है।

Monday, June 10, 2013

अब तो शुरू हुई है मोदी की परीक्षा

रविवार की शाम नरेन्द्र मोदी ने नए दायित्व की प्राप्ति के बाद ट्वीट किया : 'आडवाणी जी से फोन पर बात हुई. अपना आशीर्वाद दिया. उनका आशीर्वाद और सम्मान प्राप्त करने के लिए अत्यंत आभारी.' पर अभी तक आडवाणी जी ने सार्वजनिक रूप से मोदी को आशीर्वाद नहीं दिया है। यह व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं का टकराव है या कोई सैद्धांतिक मतभेद है? उमा भारती, सुषमा स्वराज और यशवंत सिन्हा ने सार्वजनिक रूप से मोदी को स्वीकार कर लिया है। इसके बाद क्या लालकृष्ण आडवाणी अलग-थलग पड़ जाएंगे? या राजनाथ सिंह उन्हें मनाने में कामयाब होंगे? और यह भी समझना होगा कि पार्टी किस कारण से मोदी का समर्थन कर रही है? 


भारतीय जनता पार्टी को एक ज़माने तक पार्टी विद अ डिफरेंस कहा जाता था। कम से कम इस पार्टी को यह इलहाम था। आज उसे पार्टी विद डिफरेंसेज़ कहा जा रहा है। मतभेदों का होना यों तो लोकतंत्र के लिए शुभ है, पर क्या इस वक्त जो मतभेद हैं वे सामान्य असहमति के दायरे में आते हैं? क्या यह पार्टी विभाजन की ओर बढ़ रही है? और क्या इस प्रकार के मतभेदों को ढो रही पार्टी 2014 के चुनाव में सफल हो सकेगी?

Monday, May 20, 2013

पराजय-बोध से ग्रस्त भाजपा




कर्नाटक चुनाव के नतीजे आने के बाद पिछले हफ्ते लालकृष्ण आडवाणी ने अपने ब्लॉग में लिखा कि यह हार न होती तो मुझे आश्चर्य होता। पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येद्दियुरप्पा के प्रति उनकी कुढ़न का पता इस बात से लगता है कि उन्होंने उनका पूरा नाम लिखने के बजाय सिर्फ येद्दी लिखा है। 

वे इतना क्यों नाराज़ हैं? उनके विश्वस्त अनंत कुमार ने घोषणा की है कि येद्दियुरप्पा की वापसी पार्टी में संभव नहीं है। पर क्या कोई वापसी चाहता है?

उससे बड़ा सवाल है कि भाजपा किस तरह से पार्टी विद अ डिफरेंस नज़र आना चाहती है। उसके पास नया क्या है, जिसके सहारे वोटर का मन जीतना चाहती है? और उसके पास कौन ऐसा नेता है जो उसे चुनाव जिता सकता है?

भाजपा अभी तक कर्नाटक, यूपी और बिहार की मनोदशा से बाहर नहीं आ पाई है। उसके भीतर कहा जा रहा है कि सन 2008 में जब कर्नाटक में सरकार बन रही थी तब बेल्लारी के खनन माफिया रेड्डी बंधुओं को शामिल कराने का दबाव तो केन्द्रीय नेताओं ने डाला। क्या वे उनकी पृष्ठभूमि नहीं जानते थे? आडवाणी जी कहते हैं कि हमने भ्रष्टाचार में मामले में समझौता नहीं किया, पर क्या उन्होंने रेड्डी बंधुओं के बारे में अपनी आपत्ति दर्ज कराई थी?

यह सिर्फ संयोग नहीं है कि पिछले साल जब मुम्बई में पार्टी कार्यकारिणी में पहली बार नरेन्द्र मोदी भाग लेने आए तो येद्दियुरप्पा भी आए थे। पार्टी की भीतरी कलह कुछ नहीं केवल राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व का झगड़ा है। और इस वक्त यह झगड़ा नरेन्द्र मोदी बनाम आडवाणी की शक्ल ले चुका है। पिछले हफ्ते कर्नाटक के एमएलसी लहर सिंह सिरोया ने आडवाणी जी को चार पेज की करारी चिट्ठी लिखी है, जिसमें कुछ कड़वे सवाल हैं। सिरोया को पार्टी कोषाध्यक्ष पद से फौरन हटा दिया गया, पर क्या सवाल खत्म हो गए?

Monday, May 13, 2013

अब दलदल में हैं मनमोहन


कांग्रेस ने स्पष्ट किया है कि पवन बंसल और अश्विनी कुमार को पद से हटाने का फैसला पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का संयुक्त निर्णय था केवल सोनिया गांधी का नहीं। इस स्पष्टीकरण की ज़रूरत इसलिए पड़ी, क्योंकि मीडिया में इस बात का चर्चा था कि सोनिया गांधी के हस्तक्षेप से मंत्री हटे। आडवाणी जी ने अपने ब्लॉग में मनमोहन सिंह को उलाहना भी दिया कि अब पद पर बने रहने के क्या माने हैं? बहरहाल इतना ज़रूर स्पष्ट हो रहा है कि विपक्ष का निशाना अब सीधे मनमोहन सिंह बनेंगे।

पवन बंसल और अश्विनी कुमार की छुट्टी के बाद भी यूपीए-2 का संकट खत्म नहीं होगा। मंत्रियों के इस्तीफों के पीछे सोनिया गांधी का हाथ होने की बात मीडिया में आने के कारण जहाँ पार्टी अध्यक्ष की स्थिति बेहतर हुई है वहीं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की स्थिति बिगड़ी है। 

कोल ब्लॉक आबंटन तब हुआ जब कोयला मंत्रालय का प्रभार भी प्रधानमंत्री के पास था। इसलिए कोयले की कालिख अब सीधे प्रधानमंत्री पर लगेगी। सुप्रीम कोर्ट के सामने सीबीआई की जो स्टेटस रिपोर्ट पेश हुई है उसके अनुसार सन 2006 से 2009 के बीच कोल ब्लॉक आबंटनों के सिलसिले में अनाम अधिकारियों के खिलाफ 11 एफआईआर दायर की गई हैं।

कौन हैं वे अधिकारी? उनका नाम पता  लगाने के पहले यह बताना ज़रूरी होगा कि उस वक्त कोयला मंत्रालय मनमोहन सिंह के पास था।

Sunday, May 12, 2013

आडवाणी जी का टेलपीस


आज भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कर्नाटक में भाजपा की पराजय पर अपने ब्लॉग में लिखा है कि मुझे इस हार पर विस्मय नहीं हुआ, बल्कि भाजपा जीतती तो विस्मय होता। उनका कहना है कि भाजपा ने नैतिक दृष्टि से भ्रष्टाचार को स्वीकार नहीं किया इसलिए यह पराजय हुई।


उनके ब्लॉग का रोचक हिस्सा था उसका टेलपीस, जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री को उलाहना दिया था कि अब मंत्रियों को हटाने का फैसला भी ऊपर से होता है। इतनी ही नहीं सोनिया गांधी अब मंत्रिमंडल विस्तार के बारे में भी फैसले करेंगी। इस टेलपीस ने कांग्रेसी नेृतृत्व को व्यथित कर दिया है। पहले इस टेलपीस को पढ़ें :-

TAILPIECE

Today’s PIONEER carries on its front page a highlighted box item captioned : SNUB TO PM?  It goes on to say that Smt. Sonia Gandhi will be meeting senior party leaders soon to discuss the Cabinet reshuffle.

Has the Prime Minister abdicated his right even to decide about his own cabinet? Today’s news reports about the removal of two Union Ministers generally emphasise that it is Soniaji who has sacked ‘two PM’s men.’

Sheer self-respect demands that the PM calls it a day, and orders an early general election.

इस टेलपीस का असर था कि कांग्रेस को वक्तव्य जारी करके सफाई देनी पड़ी कि यह फैसला अकेले सोनिया गांधी का नहीं था, संयुक्त फैसला था। हिन्दू की वैबसाइट में इस खबर को इस तरह दिया गया:-

Dropping of P.K. Bansal and Ashwani Kumar from the Union Cabinet was the “joint decision” of Prime Minister Manmohan Singh and Sonia Gandhi, the Congress said on Sunday dismissing reports that the action was at the insistence of the party president.
“It has appeared in a section of the media that it was at the insistence of Congress president Sonia Gandhi that the two Ministers were dropped. This perception is not correct.
“The correct position is that it was the joint decision of the Congress president and Prime Minister Manmohan Singh,” party general secretary Janardan Dwivedi said in New Delhi.
The statement of Mr. Dwivedi, the AICC Media Department chief, is significant as reports had suggested that Mr. Bansal and Mr. Kumar, seen to be close to the Prime Minister, were made to resign by him late on Friday after the Congress president expressed her displeasure over their continuance in office.


Friday, May 10, 2013

कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के कुछ ‘गैर-कांग्रेसी’ कारण


Photo: Shikari Rahul!
(Fake Encounter in Karnataka)

ऊपर सतीश आचार्य का कार्टून नीचे हिन्दू में केशव का कार्टून
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अनुसार कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के सूत्रधार हैं राहुल गांधी
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अनुसार कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के सूत्रधार हैं राहुल गांधी. राहुल गांधी से पूछें तो शायद वे मधुसूदन मिस्त्री को श्रेय देंगे. या कहेंगे कि पार्टी संगठन ने अद्भुत काम किया.

कांग्रेस संगठन जीता ज़रूर पर पार्टी अध्यक्ष परमेश्वरन खुद चुनाव हार गए. कमल नाथ के अनुसार यह कांग्रेस की नीतियों की जीत है.

कांग्रेस की इस शानदार जीत के लिए वास्तव में पार्टी संगठन, उसके नेतृत्व और नीतियों को श्रेय मिलना चाहिए.

पर उन बातों पर भी गौर करना चाहिए, जिनका वास्ता कांग्रेस पार्टी से नहीं किन्ही और ‘चीजों’ से हैं.

राज्यपाल की भूमिका
सन 1987 में जस्टिस आरएस सरकारिया आयोग ने राज्यपाल की नियुक्तियों को लेकर दो महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे. पहला, घनघोर राजनीतिक व्यक्ति को जो सक्रिय राजनीति में हो, उसे राज्यपाल नहीं बनाना चाहिए.

दूसरा यह कि केंद्र में जिस पार्टी की सरकार हो, उसके सदस्य की विपक्षी पार्टी के शासन वाले राज्य में राज्यपाल के रूप में नियुक्ति न हो.

30 मई 2008 को येदियुरप्पा सरकार बनी और उसके एक साल बाद 25 जून 2009 को हंसराज भारद्वाज कर्नाटक के राज्यपाल बने, जो संयोग से इन योग्यताओं से लैस थे.

विधि और न्याय मंत्रालय में भारद्वाज ने नौ वर्षों तक राज्यमंत्री के रूप में और पांच साल तक कैबिनेट मंत्री रहकर कार्य किया. वे देश के सबसे अनुभवी कानून मंत्रियों में से एक रहे हैं.

वे तभी खबरों में आए जब उन्होंने यूपीए-1 के दौर में कई संवेदनशील मुद्दों में हस्तक्षेप किया. प्रायः ये सभी मामले 10 जनपथ से जुड़े थे.

बीबीसी हिंदी डॉटकॉम में पूरा लेख पढ़ने के लिए क्लिक करें

Saturday, January 26, 2013

राजनीति का चिंताहरण दौर


भारतीय राजनीति की डोर तमाम क्षेत्रीय, जातीय. सामुदायिक, साम्प्रदायिक और व्यक्तिगत सामंती पहचानों के हाथ में है। और देश के दो बड़े राष्ट्रीय दलों की डोर दो परिवारों के हाथों में है। एक है नेहरू-गांधी परिवार और दूसरा संघ परिवार। ये दोनों परिवार इन्हें जोड़कर रखते हैं और राजनेता इनसे जुड़कर रहने में ही समझदारी समझते हैं। मौका लगने पर दोनों ही एक-दूसरे को उसके परिवार की नसीहतें देते हैं। जैसे राहुल गांधी के कांग्रेस उपाध्यक्ष बनने पर भाजपा ने वंशवाद को निशाना बनाया और जवाब में कांग्रेस ने संघ की लानत-मलामत कर दी। जयपुर चिंतन शिविर में उपाध्यक्ष का औपचारिक पद हासिल करने के बाद राहुल गांधी ने भावुक हृदय से मर्मस्पर्शी भाषण दिया। इसके पहले सोनिया गांधी ने पार्टी कार्यकर्ताओं को सलाह दी थी कि समय की ज़रूरतों को देखते हुए वे आत्ममंथन करें। नगाड़ों और पटाखों के साथ राहुल का स्वागत हो रहा था। पर उसके पहले गृहमंत्री सुशील कुमार शिन्दे के एक वक्तव्य ने विमर्श की दिशा बदल दी। इस हफ्ते बीजेपी के अध्यक्ष का चुनाव भी तय था। चुनाव के ठीक पहले गडकरी जी से जुड़ी कम्पनियों में आयकर की तफतीश शुरू हो गई। इसकी पटकथा भी किसी ने कहीं लिखी थी। इन दोनों घटनाओं का असर एक साथ पड़ा। गडकरी जी की अध्यक्षता चली गई। राजनाथ सिंह पार्टी के नए अध्यक्ष के रूप में उभर कर आए हैं। पर न तो राहुल के पदारोहण का जश्न मुकम्मल हुआ और न गडकरी के पराभव से भाजपा को कोई बड़ा धक्का लगा।

Wednesday, January 23, 2013

शिन्दे जी ने यह क्या कह दिया?

हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून
कांग्रेस के साथ दिक्कत यह है कि कितनी भी अच्छी स्क्रिप्ट हो, कहानी के अंत में एंटी क्लाइमैक्स हो जाता है। जयपुर में राहुल गांधी के भावुक वक्तव्य और पार्टी की नई दिशा के सकारात्मक  इशारों के बावज़ूद सुशील कुमार शिन्दे के छोटे से वक्तव्य ने एजेंडा बदल दिया। चर्चा जिन बातों की होनी चाहिए थी, वे पीछे चली गईं और बीजेपी को अच्छा मसाला मिल गया। जैसे 2007 के गुजरात चुनाव में  सोनिया गांधी के मौत के सौदागर वक्तव्य ने काम किया लगभग वही काम शिन्दे जी के वक्तव्य ने किया है।

ऐसा नहीं कि शिन्दे जी नादान हैं। और न दिग्विजय सिंह अबोध है। भगवा आतंकवाद शब्द का प्रयोग इसके पहले तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदम्बरम भी कर चुके हैं। ये वक्तव्य कांग्रेस की योजना का हिस्सा हैं। पर इस बार तीर गलत निशाने पर जा लगा है। खासकर हाफिज सईद के बयान से इसे नया मोड़ मिल गया। जनार्दन द्विवेदी ने पार्टी की ओर से तत्काल सफाई पेश कर दी, पर नुकसान जो होना था वह हो गया। कांग्रेस इधर एक तरफ संगठित नज़र आ रही थी और दूसरी ओर गडकरी प्रकरण के कारण भाजपा का जहाज हिचकोले ले रहा था। पर भाजपा को इसके कारण सम्हलने का मौका मिल गया। इनकम टैक्स विभाग के छापों के बाद गडकरी के लिए टिके रहना और मुश्किल हो गया, पर इसका लाभ भाजपा को ही मिला। अब वह अपेक्षाकृत बेहतर संतुलित हो गई है, हालांकि उसका जहाज दिशाहीन है।

Wednesday, December 26, 2012

मोदी के शपथ ग्रहण समारोह के संकेत


नरेन्द्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह का एक राजनीतिक संदेश साफ है कि पार्टी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मोदी के महत्व को महसूस कर रही है। पिछली 20 दिसम्बर को चुनाव परिणाम आने के बाद अनंत कुमार की प्रतिक्रिया में जोश नहीं था। लाल कृष्ण आडवाणी जैसे नेता की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई, जबकि वे गांधीनगर से सांसद हैं। पर बुधवार के शपथ समारोह में पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी और वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी के अतिरिक्त सुषमा स्वराज और अरुण जेटली, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह शामिल हुए। राजनाथ सिंह और वैंकेया नायडू भी इस अवसर पर मौज़ूद थे। झारखंड के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा, गोवा मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर, राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया, पूर्व क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू, हेमा मालिनी, किरण खेर, सुरेश व विवेक ऑबेराय भी समारोह में मौज़ूद थे। पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल, इंडियन नेशनल लोकदल के नेता ओमप्रकाश चौटाला, शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे, उनके चेचेरे भाई एवं महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे और आरपीआई नेता रामदास अठावले भी शपथ ग्रहण समारोह में मौजूद थे।  बिहार बीजेपी के अध्यक्ष सीपी ठाकुर समारोह में शामिल हुए।

Sunday, December 2, 2012

क्या सुषमा स्वराज ने मोदी के लिए रास्ता खोल दिया?

नरेन्द्र मोदी के बाबत सुषमा स्वराज के वक्तव्य का अर्थ लोग अपने-अपने तरीके से निकाल रहे हैं। सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह है कि सुषमा स्वराज ने भी नामो का समर्थन कर दिया, जो खुद भाजपा संसदीय दल का नेतृत्व करती हैं और जब भी सरकार बनाने का मौका होगा तो प्रधानमंत्री पद की दावेदार होंगी। पर सुषमा जी के वक्तव्य को ध्यान से पढ़ें तो यह निष्कर्ष निकालना अनुचित होगा। हाँ इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि नामो के नाम पर उनका विरोध नहीं है। गुजरात की चुनाव सभाओं में अरुण जेटली ने भी इसी आशय की बात कही है।

यह दूर की बात है कि एनडीए कभी सरकार बनाने की स्थिति में आता भी है या नहीं, पर लोकसभा चुनाव में उतरते वक्त पार्टी सरकार बनाने के इरादों को ज़ाहिर क्यों नहीं करना चाहेगी? ऐसी स्थिति में उसे सम्भावनाओं के दरवाजे भी खुले रखने होंगे। अभी तक ऐसा लगता था कि पार्टी के भीतर नरेन्द्र मोदी को केन्द्रीय राजनीति में लाने का विरोध है। इस साल उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव में उन्हें नहीं आने दिया गया। नरेन्द्र मोदी ने मुम्बई कार्यकारिणी की बैठक के बाद से यह जताना शुरू कर दिया है कि मैं राष्ट्रीय राजनीति में शामिल होने का इच्छुक हूँ। उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर सीधे वार करने शुरू किए जो सहजे रूप से राष्ट्रीय समझ का प्रतीक है।

Monday, October 1, 2012

बीजेपी को चाहिए हाजमोला

लाल कृष्ण आडवाणी ने अपने ब्लॉग में 15 सितम्बर को फ्रांसिस फुकुयामा की इतिहास का अंत अवधारणा का हवाला देते हुए भारतीय राजनीति के युगांतरकारी मोड़ का ज़िक्र किया है। उनके अनुसार 1989 भारत के राजनीतिक इतिहास का निर्णायक मोड़ रहा। इस वर्ष के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने एक लम्बी छलांग लगाते हुए 1984 की दयनीय दो सीटों के मुकाबले 86 सीटों का सम्मानजनक स्थान प्राप्त किया। भाजपा राष्ट्रीय राजनीति पर कांग्रेस पार्टी के एकाधिकार को चुनौती देने वाले मुख्य दल के रुप में उभरी। अगले दशक में भाजपा 1996 तक, तेजी से बढ़ती रही और कांग्रेस पार्टी सिकुड़ती गई, जब भाजपा लोक सभा में सर्वाधिक बड़े दल के रुप में उभरी, और 1998-1999 में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए ने केंद्र सरकार का पूर्ण नियंत्रण संभाल लिया। आडवाणी जी ने लिखा, तब से, जब भी कोई मुझसे पूछता है: राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा के मुख्य योगदान को आप कैसे निरूपित करेंगें; तो सदैव मेरा उत्तर रहता है: भारत की एकदलीय प्रभुत्व वाली राजनीति को द्विध्रुवीय राजनीति में परिवर्तित करना। यह उपलब्धि न केवल भाजपा अपितु कांग्रेस और निस्संदेह देश तथा इसके लोकतंत्र के लिए वरदान सिध्द हुई है। दुर्भाग्य से कांग्रेस पार्टी इसे इस रुप में नहीं लेती, भाजपा को एक मुख्य विपक्ष मानकर जिसके साथ सतत् सवांद करना शासन के लिए लाभकारी हो सकता है के बजाय इसे एक शत्रु के रुप में मानती है जिसे हटाना और किसी भी कीमत पर मिटाना उसका लक्ष्य है। प्रणव मुखर्जी अपवाद थे। नेता लोकसभा के रुप में यूपीए के अधिकांश कार्यकाल में उन्होंने मुख्य विपक्ष के नेतृत्व से निरंतर संवाद बनाए रखा।