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Wednesday, May 4, 2016

कैसे होगा कांग्रेस का ‘बाउंसबैक?’

कितना कठिन है कांग्रेस की वापसी का रास्ता


सोनिया, राहुल गांधीImage copyrightReuters
बीजेपी की विजय के पिछले दो साल कांग्रेस की पराजय के साल भी रहे हैं. अगस्ता वेस्टलैंड मामले को लेकर बीजेपी ने कांग्रेस को अपनी पकड़ में ले रखा है. कांग्रेस पलटवार करती भी है, पर अभी तक उसकी वापसी के आसार नजर नहीं आते हैं.
लोकसभा चुनाव में हार के बाद कार्यसमिति की बैठक में कहा गया था कि पार्टी के सामने इससे पहले भी चुनौतियाँ आई हैं और उसका पुनरोदय हुआ है. वह ‘बाउंसबैक’ करेगी. पर कैसे और कब?
देखना चाहिए कि पार्टी ने पिछले दो साल में ऐसा क्या किया, जिससे लगे कि उसकी वापसी होगी. या अगले तीन साल में वह ऐसा क्या करेगी, जिससे उसका संकल्प पूरा होता नज़र आए.
इस महीने पांच विधानसभाओं के चुनाव परिणाम कांग्रेस की दशा और दिशा को जाहिर करेंगे. खासतौर से असम, बंगाल और केरल में उसकी बड़ी परीक्षा है. ये परिणाम भविष्य का संदेश देंगे.
सोनिया, राहुल गांधीImage copyrightReuters
कांग्रेस इतिहास के सबसे नाज़ुक दौर में है. दस से ज्यादा राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों से लोकसभा में उसका कोई प्रतिनिधि नहीं है. जनता से यह विलगाव कुछ साल और चला तो मुश्किल पैदा हो जाएगी.
तकरीबन आठ साल के बनवास के बाद कांग्रेस की 2004 में सत्ता में वापसी हुई थी. तभी वामपंथी दलों से उसके सहयोग का एक प्रयोग शुरू हुआ था, जो 2008 में टूट गया. उसके बनने और टूटने के पीछे कांग्रेस से ज्यादा सीपीएम के राजनीतिक चिंतन की भूमिका थी.
2004 में सीपीएम के महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत थे. अप्रैल 2005 में प्रकाश करात ने इस पद को संभाला और वे अप्रैल 2015 तक अपने पद पर रहे. उनके दौर में कांग्रेस और वामदलों के रिश्तों की गर्माहट कम हो गई थी.
कम्युनिस्ट पार्टियों में व्यक्तिगत नेतृत्व खास मायने नहीं रखता, लेकिन कांग्रेस को लेकर सीपीआई-सीपीएम नेतृत्व की भूमिका की अनदेखी भी नहीं की जा सकती. इस साल पहली बार कांग्रेस और वाम दल बंगाल में चुनाव-पूर्व गठबंधन के साथ उतरे हैं.
यह गठबंधन केरल में नहीं है, जो अंतर्विरोध को बताता है. लेकिन राजनीतिक धरातल पर कांग्रेस का झुकाव वामदलों की ओर है. बीजेपी की काट उसे वामपंथी नीतियों में दिखाई पड़ती है.

Friday, April 29, 2016

अब तीन साल चलेगी अगस्ता की आतिशबाजी

बीजेपी को राहत, कांग्रेस पर दबाव



नरेंद्र मोदी अमित शाह Image copyrightReuters

अगस्ता वेस्टलैंड केस 'उत्तराखंड गेट' से घिरे दिख रहे भारतीय जनता पार्टी को सांस लेने का मौक़ा देगा, साथ ही अगले तीन साल तक भारतीय राजनीति को गरमा कर रखेगा.
भले ही नतीजा वैसा ही फुस्स हो, जैसा अब तक होता रहा है.
चिंता की बात यह है कि इससे सामान्य नागरिक के मन में प्रशासन और राजनीति के प्रति नफ़रत बढ़ेगी.
इसे घटनाक्रमों के साथ जोड़ें तो सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय, राष्ट्रीय जांच एजेंसी और दूसरी ख़ुफ़िया एजेंसियों की साख मिट्टी में मिलती नज़र आ रही है.
बिचौलिए क्रिश्चियन माइकेल ने अगस्ता वेस्टलैंड के भारत में सक्रिय अधिकारियों को जो दिशा-निर्देश दिए हैं, उनसे सवाल उठता है कि क्या कारण है कि नामी उत्पादक भी भारत में ‘घूस’ को ज़रूरी मानते हैं? और मीडिया को मैनेज करने की बात सोचते हैं?

Image copyright

भारतीय जनता पार्टी की दिलचस्पी व्यक्तिगत रूप से सोनिया गांधी और राहुल गांधी में है. उसका गणित है कि कांग्रेस को ध्वस्त करना है तो 'परिवार' को निशाना बनाओ.
भ्रष्टाचार के इस प्रकार के आरोपों से रक्षा में कांग्रेस को जेडीयू, आरजेडी, सपा और वाम मोर्चा का समर्थन नहीं मिलेगा. जिनके साथ मिलकर पार्टी बीजेपी के ख़िलाफ़ मोर्चा बनाना चाहती है.
फ़िलहाल इस वर्चुअल मोर्चे को बीजेपी के साथ कांग्रेस की भी आलोचना करनी होगी.
उत्तराखंड मामले को लेकर सरकार संसद के चालू सत्र में घिरी हुई थी. अब उसे कांग्रेस पर जवाबी हमला बोलने का मौक़ा मिला है.

Thursday, March 31, 2016

संसदीय गतिरोध भी साकारात्मक हो सकता है

'बहस इतनी लंबी खींचो, कोई फ़ैसला ही न हो'

  • 28 मार्च 2016
Image copyrightGetty
संसदीय राजनीति में जब कोई विचार, अवधारणा या गतिविधि असाधारण गति पकड़ ले तो उसे धीमी करने के लिए क्या करें? या किसी पक्ष का बहुमत प्रबल हो जाए तो अल्पमत की रक्षा कैसे की जाए?
दुनियाभर की संसदीय परंपराओं ने ‘फिलिबस्टरिंग’ की अवधारणा विकसित की है. इसे सकारात्मक गतिरोध कह सकते हैं. बहस को इतना लम्बा खींचा जाए कि उस पर कोई फ़ैसला ही न हो सके, या प्रतिरोध ज़ोरदार ढंग से दर्ज हो वगैरह.
संयोग से ये सवाल पिछले कुछ समय से भारतीय संसद में जन्मे गतिरोध के संदर्भ में भी उठ रहे हैं. इसका एक रोचक विवरण दक्षिण कोरिया की संसद में देखने को मिलता है, जो भारत के लिए भी प्रासंगिक है.
Image copyrightAP
दक्षिण कोरिया की संसद में उत्तर कोरिया की आक्रामक गतिविधियों को देखते हुए आतंक विरोधी विधेयक पेश किया गया. इस विधेयक पर 192 घंटे लम्बी बहस चली. नौ दिनों तक लगातार दिन-रात...
विपक्षी सांसदों का कहना था कि यह विधेयक यदि पास हुआ तो नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और निजता ख़तरे में पड़ जाएगी. इस बिल के ख़िलाफ़ 38 सांसदों ने औसतन पाँच-पाँच घंटे लम्बे वक्तव्य दिए. सबसे लम्बा भाषण साढ़े बारह घंटे का था, बग़ैर रुके.
इतने लंबे भाषण का उद्देश्य केवल यह था कि सरकार इस प्रतिरोध को स्वीकार करके अपने हाथ खींच ले. सरकारी विधेयक फिर भी पास हुआ. अलबत्ता एक रिकॉर्ड क़ायम हुआ. साथ ही विधेयक के नकारात्मक पहलुओं को लेकर जन-चेतना पैदा हुई.
‘फिलिबस्टरिंग’ संसदीय अवधारणा है. पर यह नकारात्मक नहीं सकारात्मक विचार है. तमाम प्रौढ़ लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में फिलिबस्टरिंग की मदद ली जाती है.

Tuesday, February 23, 2016

क्या मोदी सरकार ने बर्र के छत्ते में हाथ डाला?

प्रमोद जोशी


भारतीय संसदImage copyrightAP
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से जादवपुर विश्वविद्यालय तक छात्र आंदोलन और जींद से झज्जर तक जाट आंदोलन ने केंद्र सरकार को बड़े नाजुक मौके पर साँसत में डाल दिया है.
संसद का बजट सत्र शुरू हो रहा है और चार राज्यों में चुनाव के नगाड़े बज रहे हैं.
जेएनयू के आंदोलन को देखकर लगता है कि मोदी सरकार ने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है.
Image copyrightTarendra
Image caption'रष्ट्रद्रोह' बनाम 'राष्ट्रभक्ति' का मुद्दा उठा सकती है भाजपा
राष्ट्रवाद और देश-द्रोह की बहस में मोदी सरकार अपने फ़ायदे का सौदा देख रही है, पर पार्टी के भीतर की एकता सुनिश्चित नहीं है.
जब भी नरेंद्र मोदी-अमित शाह नेतृत्व बैकफुट पर आया है, पार्टी के ‘दिलजलों’ ने खुशियाँ मनाई हैं.
साल 2002 के बाद से ही नरेंद्र मोदी अपने विरोधियों के निशाने पर हैं. पर पहले उन्हें अपने राज्य और राष्ट्रीय नेताओं का समर्थन मिलता था.
उनकी आज की रणनीति यही है कि ‘कोर वोटर’ उनकी ढाल बने. पर मामला पूरे देश का है, एक प्रदेश का नहीं.
Image copyrightAP
Image captionरोहित वेमुला के समर्थन में रैली
बहरहाल मोदी ने ‘विरोधियों की साजिश’ की ओर इशारा किया है.
कन्हैया के मुक़ाबले रोहित वेमुला की आत्महत्या से पार्टी ज्यादा घबराई हुई है. उसे उत्तर प्रदेश के दलित वोटरों की फ़िक्र है. दलित वैसे उसके पारंपरिक वोटर नहीं हैं, पर उनके एक हिस्से को वह अपनी ओर खींचना चाहती है.
उधर जम्मू-कश्मीर में महबूबा मुफ्ती के साथ बिगड़ती बात एक बार फिर ढर्रे पर आ रही है.
यह सत्र कांग्रेस को आख़िरी मौका देगा. उसके पास ज्यादा समय नहीं है.
बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंजImage copyrightGetty
इस साल जून के बाद राज्यसभा की 76 सीटों पर चुनाव होंगे. समझा जाता है कि कांग्रेस की स्थिति पहले के मुक़ाबले कमज़ोर होगी. यह आने वाले वर्षों में और क़मजोर हो सकती है.
भाजपा को फ़ायदा हुआ भी तो इस बजट सत्र में तो नहीं होगा.
मोदी सरकार युवा उम्मीदों की जिस लहर पर सवार थी, वह लहर अब उतार पर है.

Thursday, December 24, 2015

राजनीतिक दलों की दिलचस्पी होमवर्क में नहीं

प्रमोद जोशी


भारतीय संसदImage copyrightAP
संसद का शीत सत्र पूरी तरह नाकाम नहीं रहा. एक अर्थ में मॉनसून सत्र से बेहतर रहा पर उसे सफल कहना सही नहीं होगा. सरकार कुछ महत्वपूर्ण विधेयक पास नहीं करा पाई.
सवाल जीएसटी या ह्विसिल ब्लोवर जैसे क़ानूनों के पास न हो पाने का नहीं है. पूरे संसदीय विमर्श में गिरावट का भी है.
इस सत्र में दोनों सदनों ने संविधान पर पहले दो दिन की चर्चा को पर्याप्त समय दिया. यह चर्चा आदर्शों से भरी थी. उन्हें भुलाने में देर भी नहीं लगी.
संसदीय कर्म की गुणवत्ता केवल विधेयकों को पास करने तक सीमित नहीं होती. प्रश्नोत्तरों और महत्वपूर्ण विषयों पर भी निर्भर करती है.
देश में समस्याओं की कमी नहीं. संसद में उन्हें उठाने के अवसर भी होते हैं, पर राजनीतिक दलों की दिलचस्पी होमवर्क में नहीं है.
तमिलनाडु में भारी बारिश के कारण अचानक बाढ़ की स्थिति पैदा हो गई. उस पर दोनों सदनों में चर्चा हुई. सूखे पर भी हुई.
लोकसभा Image copyrightPTI
महंगाई को 23 मिनट का समय मिला. इन दिनों दिल्ली में प्रदूषण की चर्चा है, पर संसद में कोई खास बात नहीं हुई. विसंगति है कि विधायिका और कार्यपालिका को जो काम करने हैं, वे अदालतों के मार्फ़त हो रहे हैं.
जुवेनाइल जस्टिस विधेयक पास हो गया. इसमें 16 साल से ज़्यादा उम्र के किशोर अपराधी पर जघन्य अपराधों का मुक़दमा चलाने की व्यवस्था है. किशोर अपराध के तमाम सवालों पर बहस बाक़ी है.
कांग्रेस ने लोकसभा में इसका विरोध किया था. अनुमान था कि राज्यसभा उसे प्रवर समिति की सौंप देगी.
इसके पहले शुक्रवार को सर्वदलीय बैठक में जिन छह विधेयकों को पास करने पर सहमति बनी थी उनमें इसका नाम नहीं था, पर मंगलवार को राज्यसभा में इस पर चर्चा हुई और यह आसानी से पास हो गया. कांग्रेस का नज़रिया तेजी से बदल गया.
वजह थी निर्भया मामले से जुड़े किशोर अपराधी की रिहाई के ख़िलाफ़ आंदोलन. यह लोकलुभावन राजनीति है. विमर्श की प्रौढ़ता की निशानी नहीं.

Friday, December 4, 2015

पीएम मोदी की 'संत मुद्रा' के मायने क्या हैं?

प्रमोद जोशी

नरेंद्र मोदी

Image copyrightLOKSABHA TV

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसद के दोनों सदनों में दिए गए बयान उपदेशात्मक और आदर्शों से ओत-प्रोत हैं, पर उनसे वास्तविक सवालों के जवाब नहीं मिलते.
लगता नहीं कि विपक्ष इन सवालों को आसानी से भूलकर सरकार को बचकर निकलने का मौका देगा.
राज्यसभा में सीपीएम नेता सीताराम येचुरी के एक नोटिस को सभापति ने विचार के लिए स्वीकार कर लिया है.
येचुरी ने असहिष्णुता व सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के मुद्दे पर एक पंक्ति का यह प्रस्ताव दिया है.
देखना होगा कि कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल इस प्रस्ताव को पास कराने में मदद करेंगे या नहीं. और यह भी कि इस प्रस्ताव का इस्तेमाल सरकार की निंदा के रूप में होगा या नहीं.
दोनों सदनों में प्रधानमंत्री के बयान सकारात्मक जरूर हैं, पर वे विपक्ष के भावी प्रहारों की पेशबंदी जैसे लगते हैं. प्रधानमंत्री की यह संत-मुद्रा बताती है कि वे राजनीतिक दबाव में हैं.

नरेंद्र मोदीImage copyrightPTI

मोदी जी ने किसी भी सवाल का सीधे जवाब नहीं दिया है. जबकि देश उम्मीद रखता है कि वे उन सारे सवालों के जवाब दें जो इस बीच उठाए गए हैं.
गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने सम्मान वापस करने वाले लेखकों और कलाकारों से मिलने की इच्छा व्यक्त की है. गृह मंत्री के बजाय प्रधानमंत्री को ऐसा कदम उठाना चाहिए था.
दादरी में मोहम्मद अख़लाक की हत्या से देश में दहशत का माहौल बना था. उसके बाद कुछ मंत्रियों और सांसदों के बयानों से माहौल और बिगड़ा.
प्रोफेसर कलबुर्गी की हत्या को लेकर लेखकों, कलाकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपना आक्रोश व्यक्त किया तो बजाय हमदर्दी जताने के उनकी आलोचना हुई.
इसके बाद सम्मान वापसी को देशद्रोह साबित करने की कोशिश की गई. बात-बात पर लोगों को पाकिस्तान जाने की सलाह दी गई. इन बातों को बेहतर तरीके से सुलझाया जा सकता था. ऐसा हुआ नहीं.


Sunday, November 22, 2015

खांटी राजनेता बनकर उभरे केजरीवाल..?

प्रमोद जोशी



Image copyrightAFP GETTY

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के ट्विटर प्रोफाइल पर उनका सूत्र वाक्य लिखा है, ‘भारत जल्दी बदलेगा.’ आंदोलनकारी नेता से खांटी राजनेता के रूप में उनका तेज़ रूपांतरण उनके सूत्र वाक्य की पुष्टि करता है.
पिछले दो साल में केजरीवाल ने अपनी राजनीति और अपने सहयोगियों को जितनी तेज़ी से बदला है वह उनकी परिवर्तनशील-प्रतिभा का प्रतीक है.
मीडिया कवरेज के मुताबिक पटना में महागठबंधन सरकार के शपथ-समारोह में अरविंद केजरीवाल को बेमन से लालू यादव के गले लगना पड़ा.
व्यावहारिक बात यह है कि केजरीवाल लालू से गले मिले और यह जाहिर करने में कामयाब भी रहे कि चाहते नहीं थे... इस बीच सोशल मीडिया पर केजरीवाल के कुछ पुराने ट्वीट उछाले गए जिनमें उन्होंने लालू की आलोचना की थी. पर उससे फर्क क्या पड़ता है?

Image copyrightAP

मोदी-विरोधी राजनीति के साथ केजरीवाल ने अब राष्ट्रीय राजनीति की ओर कदम बढ़ाए हैं. बिहार में महागठबंधन की विजय इसका पहला पड़ाव है और पटना में केजरीवाल की उपस्थिति पहला प्रमाण.
केजरीवाल मोदी-विरोधी ताकतों के साथ आगे बढ़ना और शायद उसका नेतृत्व भी करना चाहते हैं. इसीलिए उन्होंने वाराणसी से मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ा था.
केन्द्र से टकराव का नया बिन्दु अब वे दिल्ली जन लोकायुक्त विधेयक को बनाएंगे. उनके कैबिनेट ने हाल में विधेयक के प्रारूप को स्वीकार किया है.
फरवरी 2014 में उनके कैबिनेट ने इसी तरह का विधेयक मंजूर किया था. उसे विधान सभा में रखे जाने के पहले ही उप राज्यपाल ने आपत्ति व्यक्त की थी कि उनसे स्वीकृति नहीं ली गई है. अब भाजपा के सूत्रों का कहना है कि सरकार ने उप राज्यपाल से मंजूरी नहीं ली है.

Image copyrightEPA. MANISH SHANDILYA

आम आदमी पार्टी के सूत्रों का कहना है कि यह विधेयक उत्तराखंड के 2011 के क़ानून जैसा है. उस बिल को तैयार करने में केजरीवाल का हाथ बताया गया था. यह बात केन्द्र सरकार को असमंजस में डालेगी. क्या भाजपा सरकार ऐसे कानून का विरोध करेगी?
उप राज्यपाल की अनुमति के संदर्भ में भी परिस्थितियाँ फरवरी 2014 जैसी हैं. फर्क केवल यह है कि विधानसभा में पार्टी का भारी बहुमत है. बिल पास होने के बाद उप राज्यपाल उसे स्वीकार करें या न करें, वह टकराव का बिन्दु बनेगा.
केजरीवाल की राजनीति भीतरी और बाहरी टकरावों की मदद से बढ़ रही है. कुछ महीने पहले पार्टी के भीतर पहला टकराव इस बात को लेकर हुआ था कि दिल्ली के बाहर दूसरे राज्यों में जाना चाहिए या नहीं.

Monday, August 31, 2015

क्यों नहीं टूटता राजनीतिक चंदे का मकड़जाल?

राजनीतिक दल आरटीआई से बच क्यों रहे हैं?

  • 27 अगस्त 2015

आरटीआई आंदोलन की शुरुआत राजस्थान के एक संगठन ने की थीImage copyrightABHA SHARMA
Image captionआरटीआई आंदोलन की शुरुआत राजस्थान के किसान शक्ति संगठन ने की थी

बात कितनी भी ख़राब लगे, पर इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय चुनाव दुनिया में काले पैसे से चलने वाली सबसे बड़ी गतिविधि है. यह बात हमारे लोकतंत्र की साख को बट्टा लगाती है.
अफ़सोस इस बात का है कि मुख्यधारा की राजनीति ने व्यवस्था को पारदर्शी बनाने के बजाय इन कोशिशों का ज़्यादातर विरोध किया है. ताज़ा उदाहरण है केंद्र सरकार का सुप्रीम कोर्ट में दाख़िल हलफ़नामा.
सरकार ने राजनीतिक पार्टियों को आरटीआई के दायरे में लाने का विरोध किया है. हलफ़नामे में कहा गया है कि पार्टियां पब्लिक अथॉरिटी नहीं हैं.

सूचना आयोग का फ़ैसला


आरटीआई का लोगोImage copyrightRTI.GOV.IN

सन 2013 में केंद्रीय सूचना आयोग ने इन दलों को आरटीआई के तहत लाने के आदेश जारी किए थे.
सरकार और पार्टियों ने आदेश का पालन नहीं किया. उसे निष्प्रभावी करने के लिए सरकार ने संसद में एक विधेयक भी पेश किया, पर जनमत के दबाव में उसे स्थायी समिति के हवाले कर दिया गया. यह मामला अभी तार्किक परिणति तक नहीं पहुँचा है.
उसी साल सुप्रीम कोर्ट ने दाग़ी सांसदों के बाबत फ़ैसला किया था. पार्टियों ने उसे भी नापसंद किया.
संसद के मॉनसून सत्र के पहले हुई सर्वदलीय बैठक में एक स्वर से पार्टियों ने अदालती आदेश को संसद की सर्वोच्चता के लिए चुनौती माना.
सरकार ने उस फ़ैसले को पलटने वाला विधेयक पेश करने की योजना भी बनाई, पर जनमत के दबाव में झुकना पड़ा.