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Monday, May 30, 2016

कश्मीर की इस तपिश के पीछे कोई योजना है

कश्मीर में कई साल बाद हिंसक गतिविधियाँ अचानक बढ़ीं हैं. सोपोर, हंडवारा, बारामूला, बांदीपुरा और पट्टन से असंतोष की खबरें मिल रहीं है. खबरें यह भी हैं कि नौजवान और किशोर अलगाववादी युनाइटेड जेहाद काउंसिल के नियंत्रण से बाहर हो रहे हैं. सुरक्षा दलों के साथ मुठभेड़ में मारे गए अलगाववादियों की लाशों के जुलूस निकालने का चलन बढ़ा है. इस बेचैनी को सोशल मीडिया में की जा रही टिप्पणियाँ और ज्यादा बढ़ाया है. नौजवानों को सड़कों पर उतारने के बाद सीमा पार से आए तत्व भीड़ के बीच घुसकर हिंसक गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं.

Sunday, April 10, 2016

भारतीय राष्ट्र-राज्य ‘फुटबॉल’ नहीं है

एनआईटी श्रीनगर की घटना सामान्य छात्र की समस्याओं से जुड़ा मामला नहीं है। जैसे जेएनयू, जादवपुर या हैदराबाद की घटनाएं राजनीति से जोड़ी जा सकती हैं, श्रीनगर की नहीं। देश के ज्यादातर दलों के छात्र संगठन भी हैं। जाहिर है कि युवा वर्ग को किसी उम्र में राजनीति के साथ जुड़ना ही होगा, पर किस तरीके से? हाल में केरल के पलक्कड़ के सरकारी कॉलेज के छात्रों ने अपनी प्रधानाचार्या की सेवानिवृत्ति पर उन्हें कब्र खोदकर प्रतीक रूप से उपहार में दी। संयोग से छात्र एक वामपंथी दल से जुड़े थे। सामाजिक जीवन से छात्रों को जोड़ने के सबसे बड़े हामी वामपंथी दल हैं, पर यह क्या है?

संकीर्ण राष्ट्रवाद को उन्मादी विचारधारा साबित किया जा सकता है। खासतौर से तब जब वह समाज के एक ही तबके का प्रतिनिधित्व करे। पर भारतीय राष्ट्र-राज्य राजनीतिक दलों का फुटबॉल नहीं है। वह तमाम विविधताओं के साथ देश का प्रतिनिधित्व करता है। आप कितने ही बड़े अंतरराष्ट्रीयवादी हों, राष्ट्र-राज्य के सवालों का सामना आपको करना होगा। सन 1947 के बाद भारत का गठन-पुनर्गठन सही हुआ या नहीं, इस सवाल बहस कीजिए। पर फैसले मत सुनाइए। जेएनयू प्रकरण में भारतीय राष्ट्र-राज्य पर हुए हमले को सावधानी के साथ दबा देने का दुष्परिणाम श्रीनगर की घटनाओं में सामने आया है। भारत के टुकड़े करने की मनोकामना का आप खुलेआम समर्थन करें और कोई जवाब भी न दे।

चुनावी राजनीति ने हमारे सामाजिक जीवन को पहले ही काफी हद तक तोड़ दिया है। हमारे साम्प्रदायिक, जातीय और क्षेत्रीय अंतर्विरोधों को खुलकर खोला गया है। पर अब भारत की अवधारणा पर हमले के खतरों को भी समझ लेना चाहिए। यह सिर्फ संयोग नहीं था कि जेएनयू का घटनाक्रम असम, बंगाल और केरल के चुनावों से जुड़ गया? और अब कश्मीर में महबूबा मुफ्ती सरकार की सुगबुगाहट के साथ ही एनआईटी श्रीनगर में आंदोलन खड़ा हो गया। संघ और भाजपा के एकांगी राष्ट्रवाद से असहमत होने का आपको अधिकार है, पर भारतीय राष्ट्र-राज्य किसी एक दल की बपौती नहीं है। वह हमारे सामूहिक सपनों का प्रतीक है। उसे राजनीति का खिलौना मत बनाइए।

Sunday, February 14, 2016

मुख्यधारा की राजनीति का थिएटर बना जेएनयू

दिल्ली में दो जगह भारत विरोधी नारे लगे। इसके पहले कश्मीर से अकसर खबरें आती थीं कि वहाँ भारत विरोधी नारे लगे या भारतीय ध्वज का अपमान किया गया। कश्मीर के साथ पूरे देश का अलगाव अच्छी तरह स्पष्ट है। इस अलगाव का विकास हुआ है। जो स्थितियाँ 1947 में थी वैसी ही आज नहीं हैं। इसमें नब्बे के दशक में चले हिंसक आंदोलन की भूमिका भी है, जो अफगानिस्तान के तालिबानी उभार की पृष्ठभूमि में चला था। पाकिस्तानी राजनीति के केन्द्र में कश्मीर है। भारतीय राजनीति के केन्द्र में भी कश्मीर को होना चाहिए था, क्योंकि भारतीय धर्मनिरपेक्षता की सफलता तभी है जब हमारे बीच मुस्लिम बहुमत वाला कश्मीर राज्य हो। परिस्थितियाँ ऐसी रहीं कि कश्मीर स्वतंत्र देश के रूप में खड़ा नहीं हो पाया। पर जेएनयू प्रकरण का कश्मीरी सवाल से वास्ता नहीं है। वहाँ कश्मीर समस्या को लेकर बहस नहीं है, बल्कि खुलकर मुख्य धारा की राजनीति हो रही है। ऐसा ही हैदराबाद में हुआ, जहाँ असली सवाल पीछे रह गया। 

Thursday, August 20, 2015

भारत-पाक वार्ता में अड़ंगे क्यों लगते हैं?

23 अगस्त को भारत के सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और पाकिस्तान के विदेशी मामलों के सलाहकार सरताज़ अजीज की बातचीत के ठीक पहले हुर्रियत के प्रतिनिधियों के साथ बातचीत रखकर पाकिस्तान ने क्या संदेश दिया है? एक, कश्मीर हमारी विदेश नीति का पहला मसला है, भारत गलतफहमी में न रहे। समझना यह है कि यह बात को बिगाड़ने की कोशिश है या सम्हालने की? भारत सरकार ने बावजूद इसके बातचीत पर कायम रहकर क्या संदेश दिया है?  इस बीच हुर्रियत के नेताओं को नजरबंद किए जाने की खबरें हैं, पर ऐसा लगता है कि हुर्रियत वाले भी चाहते हैं कि उनके चक्कर में बात होने से न रुके। कश्मीर का समाधान तभी सम्भव है जब सरहद के दोनों तरफ की आंतरिक राजनीति भी उसके लिए माहौल तैयार करे।

Saturday, October 18, 2014

संयुक्त राष्ट्र नहीं, महत्वपूर्ण है हमारी संसद का प्रस्ताव

जम्मू-कश्मीर के मामले में दो बातें समझ ली जानी चाहिए। पहली यह कि इस मामले को संयुक्त राष्ट्र में भारत लेकर गया था न कि पाकिस्तान। 1 जनवरी 1948 को भारत ने यह मामला उठाया और इसमें साफ तौर पर पाकिस्तान की ओर से कबायलियों और पाकिस्तानी सेना के जम्मू-कश्मीर में प्रवेश की शिकायत की गई थी। यह मसला अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत किसी फोरम पर कभी नहीं उठा। भारत की सदाशयता के कारण पारित सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव के एक अंश को पाकिस्तान आज तक रह-रहकर उठाता रहा है, पर पूरी स्थिति को कभी नहीं बताता। 13 अगस्त 1948 के प्रस्ताव को लागू कराने को लेकर पाकिस्तान संज़ीदा था तो उसी समय पाकिस्तानी सेना जम्मू-कश्मीर छोड़कर क्यों नहीं चली गई और उसने कश्मीर में घुस आए कबायलियों को वापस पाकिस्तान ले जाने की कोशिश क्यों नहीं कीप्रस्ताव के अनुसार पहला काम उसे यही करना था।

Sunday, August 24, 2014

कश्मीर में नई लक्ष्मण रेखा

पाकिस्तान के साथ 25 अगस्त को प्रस्तावित सचिव स्तर की बातचीत अचानक रद्द होने के बाद पहला सवाल पैदा होता है कि अपने शपथ ग्रहण समारोह में पूरे दक्षिण एशिया को निमंत्रित करने वाले नरेन्द्र मोदी बदले हैं या हालात में कोई बुनियादी बदलाव आ गया है? क्या पाकिस्तान सरकार दिखावा कर रही है? या कोई तीसरी ताकत नहीं चाहती कि दक्षिण एशिया में हालात सुधरें। बैठक रद्द होने का फैसला जितनी तेजी से हुआ उससे लगता है कि भारत ने जल्दबाज़ी की है। या फिर मोदी सरकार रिश्तों का कोई नया बेंचमार्क कायम करना चाहती है।

पहली नज़र में लगता है कि 18 अगस्त को पाकिस्तानी उच्चायुक्त के साथ शब्बीर शाह की बैठक के मामले को कांग्रेस ने उछाला। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इसे दिन भर दिखाया। सरकार घबरा गई। पाकिस्तानी राजनीति में चल रहे टकराव को लेकर वह पहले ही असमंजस में थी। पर क्या भारत सरकार ने बगैर सोचे यह फैसला किया होगा? भारत सरकार इसके पहले भी हुर्रियत नेताओं के साथ पाकिस्तानी नेतृत्व की मुलाकातों की आलोचना करती रही है। हर बार औपचारिक विरोध भी दर्ज कराती रही है, पर इस तरह पूर्व निर्धारित बैठकें रद्द नहीं हुईं।

अनायास नहीं है नियंत्रण रेखा पर घमासान

जम्मू-कश्मीर की नियंत्रण रेखा से जो खबरें आ रहीं है वे चिंता का विषय बनती जा रही हैं। शुक्र और शनिवार की आधी रात के बाद से अर्निया और रघुवीर सिंह पुरा सेक्टर में जबर्दस्त गोलाबारी चल रही है। इसमें कम से कम दो नागरिकों के मरने और छह लोगों के घायल होने की खबरें है। पाकिस्तानी सुरक्षा बलों ने भारत की 22 सीमा चौकियों और 13 गाँवों पर जबर्दस्त गोलाबारी की है। पुंछ जिले के हमीरपुर सब सेक्टर में भी गोलाबारी हुई है। उधर पाकिस्तानी मीडिया ने भी सियालकोट क्षेत्र में भारतीय सेनाओं की और से की गई गोलाबारी का जिक्र किया है और खबर दी है कि उनके दो नागरिक मारे गए हैं और छह घायल हुए हैं। मरने वालों में एक महिला भी है।
सन 2003 का समझौता होने के पहले नियंत्रण रेखा पर भारी तोपखाने से गोलाबारी होती रहती थी। इससे सीमा के दोनों और के गाँवों का जीवन नरक बन गया था। क्या कोई ताकत उस नरक की वापसी चाहती है? चाहती है तो क्यों? बताया जाता है कि सन 2003 के बाद से यह सबसे जबर्दस्त गोलाबारी है। भारतीय सुरक्षा बलों ने इस इलाके की बस्तियों से तकरीबन 3000 लोगों को हटाकर सुरक्षित स्थानों तक पहुँचा दिया है। अगस्त के महीने में नियंत्रण रेखा के उल्लंघन की बीस से ज्यादा वारदात हो चुकी हैं। अंदेशा इस बात का है कि यह गोलाबारी खतरनाक स्तर तक न पहुँच जाए।
सुरंग किसलिए?
भारतीय सुरक्षा बलों ने इस बीच एक सुरंग का पता लगाया है जो सीमा के उस पार से इस पार आई है। इसका मतलब यह है कि पाकिस्तान की और से घुसपैठ की कोशिशें खत्म नहीं हुईं हैं। आमतौर पर सर्दियों के पहले घुसपैठ कराई जाती है। बर्फबारी के बाद घुसपैठ कराना मुश्किल हो जता है। दो-एक मामले ऐसे भी होते हैं जिनमें कोई नागरिक रास्ता भटक जाए या कोई जानवर सीमा पार कर जाए, पर उतने पर भारी गोलाबारी नहीं होती। आमतौर पर फायरिंग कवर घुसपैठ करने वालों को दिया जाता है ताकि उसकी आड़ में वे सीमा पार कर जाएं। अंदेशा इस बात का है कि पाकिस्तान के भीतर एक तबका ऐसा है जो अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों की वापसी का इंतज़ार कर रहा है। पाकिस्तान, अफगानिस्तान, इराक और सीरिया में वहाबी ताकत पुनर्गठित हो रही है। कहीं यह उसकी आहट तो नहीं?

Saturday, August 23, 2014

कश्मीर को लेकर क्या कोई नई लकीर खींचना चाहते हैं मोदी?

पाकिस्तान के साथ 25 अगस्त को होने वाली सचिव स्तर की वार्ता अचानक रद्द होने के बाद दो तरह की बातें दिमाग में आती हैं। पहली यह कि भारत ने जल्दबाज़ी की है। या फिर मोदी सरकार इन रिश्तों का कोई नया बेंचमार्क कायम करना चाहती है। दिल्ली में पाकिस्तानी उच्चायुक्त के साथ शब्बीर शाह की बैठक के मामले को कांग्रेस ने उछाला। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इसे दिन भर दिखाया। सरकार इन बातों से घबरा गई। पाकिस्तानी राजनीति में चल रहे टकराव को लेकर वह पहले ही असमंजस में थी। पर क्या भारत सरकार ने बगैर सोचे जल्दबाज़ी में यह फैसला किया होगा? भारत सरकार हुर्रियत नेताओं के साथ पाकिस्तानी नेतृत्व की मुलाकातों की आलोचना करती रही है। औपचारिक विरोध दर्ज भी हुआ, पर बैठकें रद्द नहीं हुईं। जब हम दक्षिण एशिया में विकास और बदलाव की बात करते हैं तब कश्मीर जैसे मसलों को उनपर हावी नहीं होना चाहिए। भारत-पाकिस्तान रिश्तों को अब कश्मीर से हटकर भी देखा जाना चाहिए।

मार्च 1993 में हुर्रियत की स्थापना के बाद से पाकिस्तान सरकार और हुर्रियत के बीच लगातार संवाद चलता रहा है। मई 1995 में पाकिस्तानी राष्ट्रपति फारूक लेघारी जब दक्षेस बैठक के लिए दिल्ली आए तो इनसे मिले। सन 2001 में जब परवेज़ मुशर्रफ आगरा शिखर सम्मेलन के लिए आए तब मिले, अप्रैल 2005 में वे फिर मिले। अप्रैल 2007 में दिल्ली आए पाक प्रधानमंत्री शौकत अज़ीज इनसे मिले। कई मौकों पर इनकी पाकिस्तानी नेताओं से मुलाकात होती रहती है। हुर्रियत नेता 23 मार्च को होने वाले पाकिस्तान दिवस में शामिल होने के लिए दिल्ली आते हैं। 15 अप्रैल 2005 को भारतीय विदेश सचिव श्याम सरन से सवाल किया गया था कि दिल्ली में भारतीय प्रधानमंत्री से मिलने से पहले हुर्रियत नेताओं से राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ की मुलाक़ात पर भारत को क्या कोई समस्या है? उन्होंने कहाहम लोकतांत्रिक देश हैं। हमें इस तरह की मुलाक़ातों से कोई दिक़्क़त नहीं।”

सोमवार की सुबह विदेश सचिव सुजाता सिंह ने पाकिस्तान के उच्चायुक्त अब्दुल बासित को आगाह कर दिया था कि वे अलगाववादी नेताओं से न मिलें, वरना 25 अगस्त की बैठक रद्द कर दी जाएगी। इसके बावजूद उच्चायुक्त का अलगाववादियों से मिलना जितना विस्मयकारी है उतना ही विस्मयकारी है बैठक का रद्द होना। तब क्या माना जाए कि भारत सरकार ने जल्दबाज़ी में फैसला नहीं किया है, बल्कि मोदी सरकार पाकिस्तान के रिश्तों में कोई नई लक्ष्मण रेखा खींचना चाहती है।

अलगाववादियों के मुलाकात करने या न करने से इस मसले में कोई बुनियादी फर्क नहीं पड़ेगा। फर्क तब पड़ेगा जब हम अपने प्रकट सिद्धांत से हटें। भारत सरकार 1972 के शिमला समझौते की भावना के अनुरूप ही अब कश्मीर पर कोई समझौता करना चाहती है। सन 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की यात्रा के बाद जारी लाहौर घोषणापत्र में यह बात कही गई है। सन 2001 और 2005 में परवेज़ मुशर्रफ के साथ बातचीत के बाद दोनों देश इस दिशा में काफी आगे बढ़ गए थे। यूपीए सरकार ने पाकिस्तान के साथ कम्पोज़िट बातचीत की जो प्रक्रिया शुरू की है उसमें कश्मीर मसले को किनारे रखा गया है। उसमें व्यापारिक सम्पर्क, रेल और सड़क, नदियों के पानी से जुड़े विवाद, सांस्कृतिक, सामुदायिक और वैज्ञानिक-तकनीकी सहयोग तथा वीज़ा और पारगमन के मसले बातचीत में शामिल हैं। इस सारे मामलों में अब तक काफी प्रगति हो जाती, पर 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई में हुए हमले ने तमाम शांति प्रक्रियाओं पर विराम लगा दिया। इन रिश्तों की अब एक बड़ी शर्त यह है कि मुम्बई पर हमले के दोषियों को जल्द से जल्द सज़ा मिले।  

अपने शपथ ग्रहण समारोह को दक्षिण एशिया सम्मेलन में तबदील करके नरेन्द्र मोदी ने जो शुरुआत की थी उसकी तार्किक परिणति 25 अगस्त की बैठक थी, जो भावी बैठकों की तैयारी की योजना बनाने के लिए थी। यह बैठक भारत की पहल पर हो रही थी। सुजाता सिंह ने अपनी तरफ से बातचीत का कार्यक्रम बनाया था। नवाज शरीफ की यात्रा से बातचीत के दरवाज़े खुले थे। अब दरवाजे बंद होते नज़र आ रहे हैं। खासकर ऐसे समय में जब नवाज़ शरीफ़ आंतरिक राजनीति में घिरे हैं। बातचीत से पहले हुर्रियत नेताओं और पाकिस्तानी उच्चायुक्त की मुलाक़ात की परम्परा को वे तोड़ते तो देश की राजनीति में उनकी फज़ीहत होती। पाकिस्तान में कोई भी राजनीतिक नेता खुले आम यह कहने की हिम्मत नहीं रखता कि हुर्रियत नेताओं से संवाद नहीं करेंगे।

माना जा रहा है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सेनाओं की वापसी के बाद पाकिस्तानी जेहादी कश्मीर की ओर रुख करेंगे। दूसरी और देश आर्थिक संकटों से घिरा है। जेहादी संस्कृति उसके गले में हड्डी बन गई है। इससे निपटने की जिम्मेदारी पाकिस्तानी राजनीति की है। नवाज़ शरीफ मई में जब भारत आए तो उन्होंने न तो कश्मीर का मुद्दा उठाया था और न ही वे हुर्रियत नेताओं से मिले। पाकिस्तान में उनकी आलोचना भी हुई। हाफिज़ सईद ने खुले आम कहा कि नवाज शरीफ को भारत नहीं जाना चाहिए। कहा जाता है कि पाकिस्तान की सेना नागरिक सरकार पर हावी है। हमें उनके अंतर्विरोधों को समझना होगा।

दो साल पहले भारत सरकार ने पाकिस्तान के निवेशकों पर भारत में लगी रोक हटाई थी। अब पाकिस्तानी निवेशक रक्षा, परमाणु ऊर्जा और अंतरिक्ष कार्यक्रमों के अलावा अन्य कारोबारों में निवेश कर सकेंगे। यह आर्थिक निर्णय है, पर इसके राजनीतिक पहलू भी हैं। पाकिस्तान में तबका भारत से रिश्ते बनाने में अड़ंगे लगाता है। पर खेल, संगीत और कारोबारी रिश्ते दोनों देशों को जोड़ते भी हैं। पाकिस्तान में अराजक स्थितियों के कारण पूँजी का पलायन हो रहा है। अमेरिका, यूरोप और दुबई जाने के अलावा भारत आना बेहतर होगा। अनेक पाकिस्तानी उद्यमी परिवारों की पृष्ठभूमि स्वतंत्रता से पहले की है। जब तक हमारे आर्थिक हित नहीं मिलेंगे हम एक-दूसरे की स्थिरता के प्रति ज़िम्मेदार नहीं बनेंगे। दोनों देशों के बीच युद्ध की आशंकाओं को दूर करने के लिए आर्थिक पराश्रयता विकसित करनी होगी। दोनों को एक-दूसरे की ज़रूरत होनी चाहिए। सब ठीक रहा तो कभी भारत-पाकिस्तान की संयुक्त कम्पनियाँ बनेंगी।

पाकिस्तान-भारत नहीं दक्षिण एशिया के संदर्भ में सोचें। पिछले दिनों श्रीलंका में हुए सार्क चैम्बर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज़ की बैठक में कहा गया कि दक्षिण एशिया में कनेक्टिविटी न होने के कारण व्यापार सम्भावनाओं के 72 फीसदी मौके गँवा दिए जाते हैं। इस इलाके के देशों के बीच 65 से 100 अरब डॉलर तक का व्यापार हो सकता है। ये देश परम्परा से एक-दूसरे के साथ जुड़े रहे हैं। म्यांमार यानी बर्मा अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण आसियान में चला गया, अन्यथा यह पूरा क्षेत्र एक आर्थिक ज़ोन के रूप में काम कर सकता है। इसकी परम्परागत कनेक्टिविटी राजनीतिक कारणों से खत्म हो गई है। पाकिस्तान को बांग्लादेश, भूटान, नेपाल और श्रीलंका से जोड़ने में भारत की भूमिका हो सकती है। भारत को अफगानिस्तान से जोड़ने में पाकिस्तान की। पर उसके पहले अपने राजनीतिक अंतर्विरोधों को सुलझाना होगा। इसकी शुरुआत भारत और पाकिस्तान से ही होगी।
DIFFERENT ACTORS, SAME SCRIPT: (clockwise from top left) Pervez Musharraf and Atal Bihari Vajpayee in Agra in 2001; Nawaz Sharif and Narendra Modi in New Delhi in May; Nawaz Sharif and Manmohan Singh in New York in September 2013; and YHouzaf Raza Gilani and Manmohan Singh in Sharm El-Sheikh.
DIFFERENT ACTORS, SAME SCRIPT: (clockwise from top left) Pervez Musharraf and Atal Bihari Vajpayee in Agra in 2001; Nawaz Sharif and Narendra Modi in New Delhi in May; Nawaz Sharif and Manmohan Singh in New York in September 2013; and YHouzaf Raza Gilani and Manmohan Singh in Sharm El-Sheikh.

Tuesday, April 22, 2014

क्यों छेड़ा गिलानी ने दूतों का प्रसंग?

क्या नरेंद्र मोदी ने वास्तव में कश्मीर के अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी के पास अपने दूत भेजे थे? भाजपा ने इस बात का खंडन किया है. सम्भवतः लोजपा के प्रतिनिधि गिलानी से मिले थे. मिले या नहीं मिले से ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल है कि गिलानी ने इस बात को ज़ाहिर क्यों कियाकश्मीर के अलगाववादी हालांकि भारतीय संविधान के दायरे में बात नहीं करना चाहते, पर वे भारतीय राजनेताओं के निरंतर सम्पर्क में रहते हैं. उनके साथ खुली बात नहीं होती, पर भीतर-भीतर होती भी है. इसमें ऐसी क्या बात थी कि कांग्रेस ने उसे तूल दी और भाजपा ने कन्नी काटी?

अगस्त 2002 में हुर्रियत के नरमपंथी धड़ों के साथ अनौपचारिक वार्ता एक बार ऐसे स्तर तक पहुँच गई थी कि उस साल होने वाले विधानसभा चुनाव में हुर्रियत के हिस्सा लेने की सम्भावनाएं तक पैदा हो गईं. और उस पहल के बाद मीरवायज़ उमर फारूक और सैयद अली शाह गिलानी के बीच तभी मतभेद उभरे और हुर्रियत दो धड़ों में बँट गई. उस वक्त दिल्ली में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी और राम जेठमलानी के नेतृत्व में कश्मीर कमेटी ने इस दिशा में पहल की थी. कश्मीर कमेटी एक गैर-सरकारी समिति थी, पर माना जाता था कि उसे केंद्र सरकार का समर्थन प्राप्त था. सरकार हुर्रियत की काफी शर्तें मानने को तैयार थी, फिर भी समझौता नहीं हो पाया. पर इतना ज़ाहिर हुआ कि अलगाववादी खेमे के भीतर भी मतभेद हैं. गिलानी के बयान को इस रोशनी में भी देखा जाना चाहिए. गिलानी के इस वक्तव्य की मीर वायज़ वाले धड़े ने निंदा की है.

Friday, March 15, 2013

कश्मीर के बारे में भारतीय संसद का 22 फरवरी 1994 का प्रस्ताव


पाकिस्तानी राजनेताओं को या तो सम्प्रभुता और संसदीय गरिमा की समझ नहीं है  या उन्होंने किसी दीर्घकालीन रणनीति के तहत संसद के माध्यम से प्रस्ताव पास किया है।  उन दिनों जब पाकिस्तानी प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो बार-बार कह रहीं थीं कि कश्मीर का मसला विभाजन के बाद बचा अधूरा काम है। इस पर भारत के प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव ने कहा कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की भारत में वापसी ही अधूरा रह गया काम  है। वह समय था जब कश्मीर में हिंसा चरमोत्कर्ष पर थी। बढ़ती हुई आतंकवादी हिंसा के मद्देनज़र भारतीय संसद के दोनों सदनों ने 22 फरवरी 1994 को सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया और इस बात पर जोर दिया कि सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। इसलिए पाकिस्तान को अपने कब्जे वाले राज्य के हिस्सों को खाली करना होगा । संकल्प का पाठ इस प्रकार है।



"यह सदन"
पाकिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर में स्थित शिविरों में आतंकवादियों को प्रशिक्षण प्रदान करने, साथ ही हथियार और धन देकर जम्मू और कश्मीर में विदेशी भाड़े के सैनिकों सहित प्रशिक्षित उग्रवादियों की घुसपैठ में सहायता से सामाजिक सद्भाव को नष्ट करने और तोड़फोड़ के घोषित उद्देश्य की आपूर्ति में पाकिस्तान की भूमिका को लेकर गंभीर चिंता व्यक्त करता है |

सदन ने दोहराया कि पाकिस्तान में प्रशिक्षित उग्रवादी हत्या, लूट, लोगों को बंधक बनाने और आतंक का वातावरण निर्मित करने जैसे अन्य जघन्य अपराधों में लिप्त हैं;

भारतीय राज्य जम्मू और कश्मीर में विध्वंसक और आतंकवादी गतिविधियों के लिए पाकिस्तान द्वारा जारी समर्थन और प्रोत्साहन की सदन द्रढता से निंदा करता है |

पाकिस्तान अविलम्ब आतंकवादियों को सहयोग करना बंद करे, जोकि शिमला समझौते का उल्लंघन है तथा दोनों देशों के मध्य तनाव का मुख्य कारण तथा पारस्परिक संबंधों के अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत मानदंडों के विरुद्ध है| साथ ही सदन ने भारतीय राजनीतिक और लोकतांत्रिक ढांचे और अपने सभी नागरिकों के संविधान प्रदत्त अधिकारों व मानवाधिकारों के संरक्षण करने का विश्वास दिलाया और अपने समर्थन को दोहराया |

पाकिस्तान के भारत-विरोधी अभियान को अस्वीकार कर उसे दुखद रूप में झूठ बताते हुए उसकी निंदा की |
वातावरण दूषित करने और जनमत उत्तेजित करने बाले पाकिस्तान के बेहद उत्तेजक बयानों को गंभीर चिंता विषय मानते हुए उनसे बचने का आग्रह पाकिस्तान से किया |

पाकिस्तान के अवैध कब्जे बाले क्षेत्र में रहने वाले नागरिकों की दयनीय स्थिति तथा उनके लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित रहने पर चिंता व्यक्त की गई |
भारत के लोगों की ओर से,

मजबूती से कहते हैं कि-

(क) जम्मू और कश्मीर भारत का अभिन्न अंग रहा है, है और रहेगा तथा उसे देश के बाकी हिस्सों से अलग करने के किसी भी प्रयास का सभी आवश्यक साधन के द्वारा विरोध किया जाएगा;

(ख) भारत में अपनी एकता, संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के विरुद्ध होने वाले किसी भी आक्रमण का मजबूती से मुकाबला करने की इच्छाशक्ति व क्षमता है

और मांग है कि -

(सी) पाकिस्तान बल पूर्वक कब्जाए हुए भारतीय राज्य जम्मू और कश्मीर क्षेत्रों को खाली करे; और सदन पारित करता है कि -

(d) भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने के सभी प्रयासों से सख्ती से निबटा जाए."

प्रस्ताव सर्वसम्मति से अपनाया गया ।
अध्यक्ष महोदय: प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित कर दिया गया है।

Thursday, September 30, 2010

कश्मीर का ताज़ा हाल

पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर के जनमत संग्रह का मुद्दा उठाया है। इसपर भारत के विदेशमंत्री ने जवाब दिया है कि अब तक कई बार हो चुके चुनाव ही जनमत संग्रह की निशानी हैं। यह साफ है कि कश्मीर के मौजूदा माहौल को भड़काने में पाकिस्तान का हाथ है। करगिल की लड़ाई भड़काने वाले परवेज़ मुशर्रफ को बाद में समझ में आ गया था कि यह काम खतरनाक है। अब पाकिस्तानी सेना के जनरल कयानी इसे भड़काना चाहते हैं।

पाकिस्तान को यह भी समझ में आ रहा है कि उसे अमेरिका से वैसा सहयोग नहीं मिलेगा जैसा मिलता रहा है। इसलिए चीन का नया कार्ड खेला है। चीन को भी पाकिस्तान की उसी तरह ज़रूरत है जैसे अमेरिका को है। भारत को इन दोनों का सामना अपने राजनैतिक संकल्प से करना होगा। उसके पहले कश्मीर में हालात को सामान्य करना भी ज़रूरी है।


हिन्दुस्तान में प्रकाशित मेरा लेख पढ़ने के लिए कतरन को क्लिक करें

Thursday, September 23, 2010

कश्मीर पर नई पहल

संसदीय टीम कश्मीर से वापस आ गई है। भाजपा और दूसरी पार्टियों के बीच अलगाववादियों से मुलाकात को लेकर असहमति के स्वर सुनाई पड़े हैं। मोटे तौर पर इस टीम ने अपने दोनों काम बखूबी किए हैं। कश्मीरियों से संवाद और उनके विचार को दर्ज करने का काम ही यह टीम कर सकती थी।

इंडियन एक्सप्रेस ने एक नई जानकारी दी है कि समाजवादी पार्टी के मोहन सिंह ने सबसे पहले अलगाववादियों से मुलाकात का विरोध किया था. मोहन सिंह का कहना था कि हम राष्ट्र समर्थक तत्वों का मनोबल बढ़ाने आए हैं। हमारे इस काम से अलगाववादियों का मनोबल बढ़ता है।

एक रोचक जानकारी यह है कि संसदीय टीम की मुलाकात हाशिम कुरैशी से भी हुई। हाशिम कुरैशी 30 जनवरी 1971 को इंडियन एयरलाइंस के प्लेन को हाईजैक करके लाहौर ले गया था। वहाँ उसे 14 साल की कैद हुई। सन 2000 में वह कश्मीर वापस आ गया। आज उसके विचार चौंकाने वाले हैं। हालांकि वह कश्मीर में भारतीय हस्तक्षेप के खिलाफ है, पर उसकी राय में भारत और पाकिस्तान में से किसी को चुनना होगा तो मैं भारत के साथ जाऊँगा। उसका कहना है मैने पाक-गिरफ्त वाले कश्मीर में लोगों की बदहाली देख ली है।

मेरा लेख पढ़ने के लिए कतरन पर क्लिक करें

Friday, September 17, 2010

कश्मीर का क्या करें?

मेरे कई दोस्त व्यग्र हैं। वे समझना चाहते हैं कि कश्मीर का क्या हो रहा है। उसका अब क्या करें। हिन्दुस्तान में प्रकाशित अपने लेख पर मैने अपने फेस बुक मित्रों से राय माँगी तो ज्यादातर ने पोस्ट को पसंद किया, पर राय नहीं दी। विजय राणा जो लंदन में रहते हैं, पर भारतीय मामलों पर लगातार सोचते रहते हैं। उन्होंने जो राय दी वह मैं नीचे दे रहा हूँ।

Its' the problem of Islamic fundamentalism - something that we have been self-deludingly reluctant to acknowledge. Two nations theory did not end with the creation of Pakistan. How can a Muslim majority state live with Hindu India. That's how Huriyat thinks. The whole basis of Kashmiriat is Islam, it has no place for Kashmiri Pundits. There have been attempts for years to target Sikhs and now Christians in the Valley. Right from day one Huriyat leaders had a soft corner for Pakistan. Short of Azadi the Huriyat leadership will be quite happy to join Pakistan. Sadly this truth does not fit into our secularist aganda. Thats' why we have closed our eyes to it. Now economic integratioin is the key. Evey Indian state should give at least 1000 jobs to Kashmiri youth. You don't need law for this. Ask private sector to help. Just do special recuritment drive today and give them at least 30,000 jobs per year. Things will change.

विजय जी का यह विचार इस बात को बताता है कि कश्मीर का भारत में विलय हुआ है तो उसे भारत से जोड़ना भी चाहिए। कैसे जोड़ें? उनकी सलाह व्यावहारिक लगती है। तिब्बत में चीन ने पिछले साठ साल में सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव कर दिया है। तिब्बतियों और चीनियों के आपसी विवाह से नई पीढ़ी एकदम अलग ढंग से सोचती है। कश्मीर के नौजवानों को हमने पाक-परस्त लोगों के सामने खुला छोड़ दिया है। उन्हें ठीक से धर्म-निरपेक्ष शिक्षा नहीं मिली। पंडितों को निकालकर बाकायदा एकरंगा समाज बना लिया। नौजवानों के मन में ज़हर भर दिया। अब आज़ादी की बात हो रही है।

मेरे मित्र शरद पांडेय ने मेल भेजी है, ......AGAR AZADI HI.., TO ITANE SAALO MAI JITANA UNHE DIYA GAYA WOH KISI OR STATE KO NAHI,ABHI DO ROJ PAHLE HI, KI UNHE EK BARA PACKAGE AUR..,TO IN SAB BAATO KA KYA MATALB, KYA ISSE..मेरे एक पाठक मनीष चौहान ने मुझे मेल भेजी, ...क्या आप चाहते हैं कि कश्मीर से की तैनाती हटा ली जाये? क्या आप कश्मीर को उसके हाल पर छोड़ देना चाहते हैं? माफ़ कीजिये, कोई भी पार्टी या संगठन कुछ भी मांग करे, सामरिक दृष्टि से वहां स्वायत्तता देना एक नई मुसीबत को आमंत्रण देना होगा ऐसा मेरा मानना है... अच्छा होता, हर बार की तरह आप एक क्लियर स्टैंड रखते...

इस आशय की मेल और भी आई हैं। हमारा क्लियर स्टैंड क्या हो?  अब चूंकि पानी सिर के ऊपर जा रहा है इसलिए एक साफ दृष्टिकोण ज़रूरी है। बेहतर हो कि पूरा देश तय करे कि क्या किया जाय़। 

Thursday, September 16, 2010

कश्मीर पर पहल

कश्मीर पर केन्द्र सरकार की पहल हालांकि कोई नया संदेश नहीं देती, पर पहल है इसलिए उसका स्वागत करना चाहिए। कल रात 'टाइम्स नाव' पर अर्णब गोस्वामी ने सैयद अली शाह गिलानी को भी बिठा रखा था। उनका रुख सबको मालूम है, फिर भी उन्हें बुलाकर अर्णब ने क्या साबित किया? शायद उन्हें तैश भरी बहसें अच्छी लगती हैं। बात तब होती है, जब एक बोले तो दूसरा सुने। गिलानी साहब अपनी बात कहने के अलावा दूसरे की बात सुनना नहीं चाहते तो उनसे बात क्यों करें?

अब विचार करें कि हम कश्मीर के बारे में क्या कर सकते हैं?

1. सभी पक्षों से बात करने का आह्वान करें। कोई न आए तो बैठे रहें।
2. सर्वदलीय टीम को भेजने के बाद उम्मीद करें कि टीम कोई रपट दे। रपट कहे कि कश्मीरी जनता से बात करो। फिर जनता से कहें कि आओ बात करें। वह न आए तो बैठे रहें।
3. उमर अब्दुल्ला की सरकार की जगह पीडीपी की सरकार लाने की कोशिश करें। नई सरकार बन जाए तो इंतजार करें कि आंदोलन रुका या नहीं। न रुके तो बैठे रहें।
4.उम्मीद करें कि हमारे बैठे रहने से आंदोलनकारी खुद थक कर बैठ जाएं।

इस तरह के दो-चार सिनारियो और हो सकते हैं, पर लगता है अब कोई बड़ी बात होगी। 1947 के बाद पाकिस्तान ने कश्मीर पर कब्जे की सबसे बड़ी कोशिश 1965 में की थी। उसके बाद 1989 में आतंकवादियों को भेजा। फिर 1998 में करगिल हुआ। अब पत्थरमार है। फर्क यह है कि पहले कश्मीरी जनता का काफी बड़ा हिस्सा पाकिस्तानी कार्रवाई से असहमत होता था। अब काफी बड़ा तबका पाकिस्तान-परस्त है। गिलानी इस आंदोलन के आगे हैं तो उनके पीछे कोई समर्थन भी है। हम उन्हें निरर्थक मानते हैं तो उन्हें किनारे करें, फिर देखें कि कौन हमारे साथ है। उसके बाद पाकिस्तान के सामने स्पष्ट करें कि हम इस समस्या का पूरा समाधान चाहते हैं। यह समाधान लड़ाई से होना है तो उसके लिए तैयार हो जाएं। जिस तरीके से अंतरराष्ट्रीय समुदाय बैठा देख रहा है उससे नहीं लगता कि पाकिस्तान पर किसी का दबाव काम करता है।

एलओसी पर समाधान होना है तो देश में सर्वानुमति बनाएं। उस समाधान पर पक्की मुहर लगाएं। गिलानी साहब को पाकिस्तान पसंद है तो वे वहाँ जाकर रहें, हमारे कश्मीर से जाएं। अब आए दिन श्रीनगर के लालचौक के घंटाघर पर हरा झंडा लगने लगा है। यह शुभ लक्षण नहीं है।

इसके अलावा कोई समाधान किसी को समझ में आता है उसके सुझाव दें।

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Thursday, August 19, 2010

कश्मीर के बारे में हम कितना सोचते हैं

हमारा जितना अनुभव आज़ादी का है लगभग उतना लम्बा अनुभव कश्मीर को लेकर तल्खी का है। यह समस्या आज़ादी के पहले ही जन्म लेने लगी थी। चूंकि हमारा विभाजन धार्मिक आधार पर हो रहा था, इसलिए कश्मीर सबसे बड़ी कसौटी था। साबित यह होना था कि क्या कोई मुस्लिम बहुल इलाका धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र का हिस्सा हो सकता है। या  मुस्लिम जन-संख्या किसी न किसी रोज़ अपने लिए मुस्लिम राज्य को स्वीकार कर लेगी।

इस पोस्ट में मैं उस पृष्ठभूमि को नहीं दे पाऊँगा, जो कश्मीर समस्या से जुड़ी है। पर मेरे विचार से भारत और पाकिस्तान के बीच किसी रोज यह समस्या दोनों की रज़ामंदी से सुलझ गई तो इस उप महाद्वीप के अंतर्विरोध अच्छी तरह खुलेंगे। एक विचार यह है कि इस समस्या के समाधान के बाद पाकिस्तान का कट्टरपंथी समुदाय दूसरी समस्या उठाएगा। यदि वह समस्या नहीं उठाएगा तो उसका वज़ूद खतरे में होगा। क्योंकि पाकिस्तान के भीतर काफी बड़े इलाके के लोगों को लगता है कि पाकिस्तान बना ही क्यों।

हमारे लिए कश्मीर इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि हमें भी साबित करना है कि हमारी धर्म निरपेक्ष व्यवस्था में एक मुस्लिम बहुल प्रदेश भी सदस्य है। समूचा कश्मीर उसमें होता तो बात ही क्या थी। बहरहाल आज श्रीनगर घाटी में तीन चौथाई से ज्यादा लोग भारत को अपना नहीं मानते। इसमें किसका दोष है, इसका विश्लेषण मैं नहीं कर रहा। हाँ इतनी मेरी समझ है कि 1950 में जनमत संग्रह होता तो कश्मीरी लोग भारत में रहना पसंद करते। कम से कम घाटी के लोगों में नाराज़गी नहीं थी। थी भी तो पाकिस्तानी रज़ाकारों से थी, जिन्होंने कश्मीरियों को सताया था।

आज हालात फर्क हैं। पर जिनके मंसूबे कश्मीर को भारत से अलग करने के हैं उन्हें समझ लेना चाहिए कि वे कश्मीर को भारत से अलग नहीं करा पाएंगे। यह पूरे देश की अस्मिता का सवाल है। समूचा देश किसी भी हद तक जाकर लड़ने को तैयार हो जाएगा। समाधान देश के लोगों की मर्जी से होगा। बेहतर हो हम सब सोचें कि हम कैसा समाधान चाहेंगे।

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Friday, August 6, 2010

हमारे ग़म और हमारी खुशियाँ

आज तीन तरह की खबरों पर ध्यान जा रहा है। तीनों हमें कुछ न कुछ सोचने को मज़बूर करती हैं। इनमें हमारी कमज़ोरी ज़ाहिर होती है और ताकत भी।


कॉमनवैल्थ गेम्सः अपने देश में अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिता कराने के पीछे मोह इस बात का होता है कि हमारी प्रसिद्धि देश के बाहर हो। हम रोल मॉडल बनें। बाहरी देश के पर्यटक और दर्शक हमारे यहाँ आएं। साथ ही व्यापारी और उद्यमी आएं। यहाँ पैसा लगाएं। कारोबार करें। हमारा विकास हो उन्हें भी फायदा मिले। पर कॉमनवैल्थ गेम्स बाद में होंगे। उसके पहले कैसा बखेड़ा खड़ा हो गया है। तीन चीजें साफ नज़र आ रहीं हैं, जो हमारी इज्जत में बट्टा लगाएंगीः-


1. कोई भी काम समय से नहीं हुआ। पिछले रविवार को खेलमंत्री एम एस गिल ने भारतीय मीडिया से कहा, आप फॉज़ीटिव खबरें क्यों नहीं लिखते? इस बीच बीबीसी के किसी रिपोर्टर ने लंदन में 2012 में होने वाले ओलिम्पिक की तैयारी को अपने कैमरे में शूट करके दिखाया। सारे स्टेडियम तैयार हैं। हमारे यहाँ आधे से ज्यादा काम बाकी है। कहाँ है पॉज़ीटिव की गुंजाइश?
2.  काम की क्वालिटी बेहद खराब है। पानी बह रहा है। छतें चू रही हैं। रेलिंगें अभी से उखड़ रहीं हैं।
3. करीब-करीब सारे काम की लागत दस गुना तक बढ़ गई है। ऊपर से भ्रष्टाचार के आरोप। 


दिल्ली शहर ने पिछले दस साल में मेट्रो का निर्माण देखा। वह निर्माण कॉमनवैल्थ के निर्माण से कहीं ज्यादा था। एक-एक चीज़ समय से बनी। लोगों को पता भी नहीं लगा। हर चीज़ अपनी लागत पर बनी। आज दिल्ली में रिक्शे वाला भी कहता है, इससे बेहतर था श्रीधरन को यह काम दे देते। हम बेहतर काम कर सकते हैं, पर कर नहीं पाते।


सुना है इन खेलों में एआर रहमान और कैटरीना कैफ के कार्यक्रम पर 75 करोड़ रुपए का खर्च आएगा। हमने शायद अपनी पूरी टीम की तैयारी पर इसका चौथाई भी खर्च नहीं किया होगा। बहरहाल जो भी है हास्यास्पद है। 


कश्मीरः मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला कल श्रीनगर के शेरे कश्मीर अस्पताल में घायलों का हाल-चाल पता करने गए। दिल्ली के अखबारों में श्रीनगर का जो विवरण आ रहा है उसके अनुसार आंदोलन में महिलाएं आगे आ गईं हैं। इसका मतलब है कि आंदोलन बहुत दूर तक पहुँच गया है। 


टाइम्स ऑफ इंडिया में आरती जेरथ की रिपोर्ट के अनुसार अली शाह गीलानी चाहते हैं कि जनमत संग्रह हो जिसमें कश्मीर के नागरिक तय करें कि उन्हें पाकिस्तान और भारत में किसके साथ रहना है। लगता नहीं कि यह जनमत संग्रह करा पाना सम्भव है। गीलानी पाक-परस्त हैं। यह भी सच है कि इस वक्त घाटी में उनकी बात सुनी जा रही है, पर समूचा नेतृत्व एक नहीं है। सीमा के दोनों ओर कई तरह के सुर हैं। पाक अधिकृत कश्मीर के भीतर पाकिस्तान विरोधी लोग भी हैं।


भारतीय संसद समूचे कश्मीर को अपना मानते हुए प्रस्ताव पास कर चुकी है। यों आजतक जितने भी फॉर्मूले सामने आए हैं, उनमें से किसी को मानने की परिस्थिति नहीं है। 


रतन टाटाः टाटा उद्योग समूह के प्रमुख रतन टाटा ने काम से अवकाश लेने का फैसला किया है। अब उनके उत्तराधिकारी को चुना जाएगा। इसके लिए पाँच सदस्यों की एक कमेटी बनाई गई है। इस कमेटी में रतन टाटा खुद शामिल नहीं हैं। 


रतन टाटा के कार्यकाल में टाटा ने अंतरराष्ट्रीय उद्योग समूह के रूप में अपना स्थान बना लिया है। इस संस्था में अब खानदान नहीं काम महत्वपूर्ण है। इस संस्था की खासियत है कि इसके 66 फीसदी शेयर उन ट्रस्टों के पास हैं, जो सार्वजनिक हित में काम करते हैं। इन ट्रस्टों को यह रकम टाटा परिवार के लोगों ने ही दी थी। 


जैसे मैने शुरू में श्रीधरन का नाम लिया था वैसे ही टाटा समूह का नाम लिया जा सकता है। कर्तव्य परायणता, कुशलता और सुव्यवस्था के मानक भी हमारे पास अपने हैं। अकुशलता, बेईमानी और भ्रष्टाचार के तो हैं ही। इनमें हम किसे आगे बढ़ने देते हैं, यह इस देश लोगों के हाथ में हैं। 



Thursday, August 5, 2010

कश्मीर में संवाद

इसी बुधवार को हिन्दुस्तान में कश्मीर के बाबत मेरा लेख छपने के बाद एक पाठक ने मुझे ई-मेल पर अपनी प्रतिक्रिया भेजी जो इस प्रकार है : 


    Maine 4 august k paper me apka kashmir se related article padha... Main kuch share karna chahta hu apse...
Main facebook ka ek active member hu.. Yahi par meri dosti kuch kashmiri ladke ladkiyo se hui..
Unme kuch IUST SRINAGAR k student hain.. Muje unke vichaar sunke badi hairaani hui...itne educated hone k baad b wo log aise behave kar rahe the k kisi ki kathputli ho... Wo khud ko indian kehlane ki bajaye kashmiri kehlana pasand kartey hain... Wo indians ko bilkul pasand nhi kartey.. Kafi din tak unse baat krne k baad muje jo samajh me aaya... Unki maang hai k kashmir ko ek fully independent state banaya jaye..iske liye wo marne tak ko ready hain..  meri samajh me nhi aya k wo aisa kyu chahte hain... Kya aisa ho sakta hai k kashmir alag ho jaye?? Muje lagta hai isse waha k logo ko nuksaan jyada hoga... Jo wo soch rahe hain uska ulta hoga... IUST SRINAGAR k students ko iss baat ki bhi pareshani hai k unke examz 4 baar post poned ho chuke hain...
M worried abt ma frendz.. Wo bechare galat sochte hain..mushkil me par sakte hain... Kya koi awaaz p.m ya president tak nhi pohuch sakti?? Kashmir issue kya jaldi se jaldi nhi nibat sakta??

यह जागरूक पाठक इस बात को लेकर चिंतित है कि कश्मीर के नौजवानों का बड़ा हिस्सा खुद को भारत से जोड़ना नहीं चाहता। वे ऐसा क्यों सोचते हैं और इस मामले में हम क्या कर सकते हैं, यह दीगर बात है। मैं दो-एक बातों की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ। एक तो यह कि तकनीकी दृष्टि से हमें सिर्फ भारत अधिकृत कश्मीर के बारे में ही नहीं समूचे कश्मीर के बारे में सोचना चाहिए। दूसरे जिन नौजवानों की बात इस पाठक ने लिखी है, वे श्रीनगर घाटी के हैं। जम्मू और लद्दाख के नौजवान ऐसा नहीं सोचते। 

घाटी के नौजवानों का अलगाव दूर करने के लिए हमें उनसे और ज्यादा बात करनी चाहिए। इसमें घबराने और अतिशय भावुक होने की ज़रूरत नहीं है। यह समस्या इतिहास ने हमें दी है और इतिहास ही उनका समाधान करेगा।

दो-तीन दिन में स्थिति बदली है। दिल्ली से वापस लौटकर उमर अब्दुल्ला ने संवाद शुरू किया है। उधर सैयद अली शाह गीलानी ने नौजवानों से कहा है कि वे हिंसा का सहारा न लें। यह सकारात्मक संकेत है।

बातचीत शुरू होनी चाहिए। इसमें उन लोगों को भी आना चाहिए जो हम से सहमत नहीं हैं। इसके साथ हमें अपने भीतर भी बात करनी चाहिए। यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि समस्या क्या है। मैं अपने इस ब्लॉग में इसकी पृष्ठभूमि बताने का प्रयास करूँगा। जो भी फैसला होगा वह इस देश के लोग अपनी संसद के मार्फत करेंगे। पर उसके पहले खुल कर विचार ज़रूर करना चाहिए।  

Wednesday, August 4, 2010

कश्मीर में अधूरे मन से

ऐसा लगता है हमारी समूची राजनीति अपने अस्तित्व को लेकर फिक्रमंद नहीं है। कश्मीर-समस्या इस राजनीति की देन है। एक ज़माने तक केन्द्र सरकार वहाँ सरकार बनाने और गिराने के खेल खेलती रही। जब पाकिस्तान के समर्थन से हिंसक शक्तियों ने मोर्चा सम्हाल लिया तो उसे दुरुस्त करने की बड़ी कीमत हमें चुकानी पड़ी। फिर वहाँ हालात सुधरे और 2009 के चुनाव में बेहतर मतदान हुआ। उसके बाद आई नई सरकार ने चादर खींच कर लम्बी तान ली। अब हम किसी राजनैतिक पैकेज का इंतज़ार कर रहे हैं। इस पैकेज का अर्थ क्या है? एक अर्थ है सन 2000 का स्वायत्तता प्रस्ताव जिसे नेशनल कांफ्रेस भी भूल चुकी है। विडंबना देखिए कि हिंसक आतंकवादियों को परास्त करने के बाद हम ढेलेबाज़ी कर रहे किशोरों से हार रहे हैं। भीलन लूटीं गोपियाँ.....

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बलराज पुरी का लेख
हिन्दू में हैपीमन जैकब का लेख
हिन्दू में सम्पादकीय
कश्मीर का घटनाक्रम 2002 तक-इंडिया टुगैदर