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Friday, August 6, 2010

हमारे ग़म और हमारी खुशियाँ

आज तीन तरह की खबरों पर ध्यान जा रहा है। तीनों हमें कुछ न कुछ सोचने को मज़बूर करती हैं। इनमें हमारी कमज़ोरी ज़ाहिर होती है और ताकत भी।


कॉमनवैल्थ गेम्सः अपने देश में अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिता कराने के पीछे मोह इस बात का होता है कि हमारी प्रसिद्धि देश के बाहर हो। हम रोल मॉडल बनें। बाहरी देश के पर्यटक और दर्शक हमारे यहाँ आएं। साथ ही व्यापारी और उद्यमी आएं। यहाँ पैसा लगाएं। कारोबार करें। हमारा विकास हो उन्हें भी फायदा मिले। पर कॉमनवैल्थ गेम्स बाद में होंगे। उसके पहले कैसा बखेड़ा खड़ा हो गया है। तीन चीजें साफ नज़र आ रहीं हैं, जो हमारी इज्जत में बट्टा लगाएंगीः-


1. कोई भी काम समय से नहीं हुआ। पिछले रविवार को खेलमंत्री एम एस गिल ने भारतीय मीडिया से कहा, आप फॉज़ीटिव खबरें क्यों नहीं लिखते? इस बीच बीबीसी के किसी रिपोर्टर ने लंदन में 2012 में होने वाले ओलिम्पिक की तैयारी को अपने कैमरे में शूट करके दिखाया। सारे स्टेडियम तैयार हैं। हमारे यहाँ आधे से ज्यादा काम बाकी है। कहाँ है पॉज़ीटिव की गुंजाइश?
2.  काम की क्वालिटी बेहद खराब है। पानी बह रहा है। छतें चू रही हैं। रेलिंगें अभी से उखड़ रहीं हैं।
3. करीब-करीब सारे काम की लागत दस गुना तक बढ़ गई है। ऊपर से भ्रष्टाचार के आरोप। 


दिल्ली शहर ने पिछले दस साल में मेट्रो का निर्माण देखा। वह निर्माण कॉमनवैल्थ के निर्माण से कहीं ज्यादा था। एक-एक चीज़ समय से बनी। लोगों को पता भी नहीं लगा। हर चीज़ अपनी लागत पर बनी। आज दिल्ली में रिक्शे वाला भी कहता है, इससे बेहतर था श्रीधरन को यह काम दे देते। हम बेहतर काम कर सकते हैं, पर कर नहीं पाते।


सुना है इन खेलों में एआर रहमान और कैटरीना कैफ के कार्यक्रम पर 75 करोड़ रुपए का खर्च आएगा। हमने शायद अपनी पूरी टीम की तैयारी पर इसका चौथाई भी खर्च नहीं किया होगा। बहरहाल जो भी है हास्यास्पद है। 


कश्मीरः मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला कल श्रीनगर के शेरे कश्मीर अस्पताल में घायलों का हाल-चाल पता करने गए। दिल्ली के अखबारों में श्रीनगर का जो विवरण आ रहा है उसके अनुसार आंदोलन में महिलाएं आगे आ गईं हैं। इसका मतलब है कि आंदोलन बहुत दूर तक पहुँच गया है। 


टाइम्स ऑफ इंडिया में आरती जेरथ की रिपोर्ट के अनुसार अली शाह गीलानी चाहते हैं कि जनमत संग्रह हो जिसमें कश्मीर के नागरिक तय करें कि उन्हें पाकिस्तान और भारत में किसके साथ रहना है। लगता नहीं कि यह जनमत संग्रह करा पाना सम्भव है। गीलानी पाक-परस्त हैं। यह भी सच है कि इस वक्त घाटी में उनकी बात सुनी जा रही है, पर समूचा नेतृत्व एक नहीं है। सीमा के दोनों ओर कई तरह के सुर हैं। पाक अधिकृत कश्मीर के भीतर पाकिस्तान विरोधी लोग भी हैं।


भारतीय संसद समूचे कश्मीर को अपना मानते हुए प्रस्ताव पास कर चुकी है। यों आजतक जितने भी फॉर्मूले सामने आए हैं, उनमें से किसी को मानने की परिस्थिति नहीं है। 


रतन टाटाः टाटा उद्योग समूह के प्रमुख रतन टाटा ने काम से अवकाश लेने का फैसला किया है। अब उनके उत्तराधिकारी को चुना जाएगा। इसके लिए पाँच सदस्यों की एक कमेटी बनाई गई है। इस कमेटी में रतन टाटा खुद शामिल नहीं हैं। 


रतन टाटा के कार्यकाल में टाटा ने अंतरराष्ट्रीय उद्योग समूह के रूप में अपना स्थान बना लिया है। इस संस्था में अब खानदान नहीं काम महत्वपूर्ण है। इस संस्था की खासियत है कि इसके 66 फीसदी शेयर उन ट्रस्टों के पास हैं, जो सार्वजनिक हित में काम करते हैं। इन ट्रस्टों को यह रकम टाटा परिवार के लोगों ने ही दी थी। 


जैसे मैने शुरू में श्रीधरन का नाम लिया था वैसे ही टाटा समूह का नाम लिया जा सकता है। कर्तव्य परायणता, कुशलता और सुव्यवस्था के मानक भी हमारे पास अपने हैं। अकुशलता, बेईमानी और भ्रष्टाचार के तो हैं ही। इनमें हम किसे आगे बढ़ने देते हैं, यह इस देश लोगों के हाथ में हैं। 



Thursday, August 5, 2010

कश्मीर में संवाद

इसी बुधवार को हिन्दुस्तान में कश्मीर के बाबत मेरा लेख छपने के बाद एक पाठक ने मुझे ई-मेल पर अपनी प्रतिक्रिया भेजी जो इस प्रकार है : 


    Maine 4 august k paper me apka kashmir se related article padha... Main kuch share karna chahta hu apse...
Main facebook ka ek active member hu.. Yahi par meri dosti kuch kashmiri ladke ladkiyo se hui..
Unme kuch IUST SRINAGAR k student hain.. Muje unke vichaar sunke badi hairaani hui...itne educated hone k baad b wo log aise behave kar rahe the k kisi ki kathputli ho... Wo khud ko indian kehlane ki bajaye kashmiri kehlana pasand kartey hain... Wo indians ko bilkul pasand nhi kartey.. Kafi din tak unse baat krne k baad muje jo samajh me aaya... Unki maang hai k kashmir ko ek fully independent state banaya jaye..iske liye wo marne tak ko ready hain..  meri samajh me nhi aya k wo aisa kyu chahte hain... Kya aisa ho sakta hai k kashmir alag ho jaye?? Muje lagta hai isse waha k logo ko nuksaan jyada hoga... Jo wo soch rahe hain uska ulta hoga... IUST SRINAGAR k students ko iss baat ki bhi pareshani hai k unke examz 4 baar post poned ho chuke hain...
M worried abt ma frendz.. Wo bechare galat sochte hain..mushkil me par sakte hain... Kya koi awaaz p.m ya president tak nhi pohuch sakti?? Kashmir issue kya jaldi se jaldi nhi nibat sakta??

यह जागरूक पाठक इस बात को लेकर चिंतित है कि कश्मीर के नौजवानों का बड़ा हिस्सा खुद को भारत से जोड़ना नहीं चाहता। वे ऐसा क्यों सोचते हैं और इस मामले में हम क्या कर सकते हैं, यह दीगर बात है। मैं दो-एक बातों की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ। एक तो यह कि तकनीकी दृष्टि से हमें सिर्फ भारत अधिकृत कश्मीर के बारे में ही नहीं समूचे कश्मीर के बारे में सोचना चाहिए। दूसरे जिन नौजवानों की बात इस पाठक ने लिखी है, वे श्रीनगर घाटी के हैं। जम्मू और लद्दाख के नौजवान ऐसा नहीं सोचते। 

घाटी के नौजवानों का अलगाव दूर करने के लिए हमें उनसे और ज्यादा बात करनी चाहिए। इसमें घबराने और अतिशय भावुक होने की ज़रूरत नहीं है। यह समस्या इतिहास ने हमें दी है और इतिहास ही उनका समाधान करेगा।

दो-तीन दिन में स्थिति बदली है। दिल्ली से वापस लौटकर उमर अब्दुल्ला ने संवाद शुरू किया है। उधर सैयद अली शाह गीलानी ने नौजवानों से कहा है कि वे हिंसा का सहारा न लें। यह सकारात्मक संकेत है।

बातचीत शुरू होनी चाहिए। इसमें उन लोगों को भी आना चाहिए जो हम से सहमत नहीं हैं। इसके साथ हमें अपने भीतर भी बात करनी चाहिए। यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि समस्या क्या है। मैं अपने इस ब्लॉग में इसकी पृष्ठभूमि बताने का प्रयास करूँगा। जो भी फैसला होगा वह इस देश के लोग अपनी संसद के मार्फत करेंगे। पर उसके पहले खुल कर विचार ज़रूर करना चाहिए।  

Wednesday, August 4, 2010

कश्मीर में अधूरे मन से

ऐसा लगता है हमारी समूची राजनीति अपने अस्तित्व को लेकर फिक्रमंद नहीं है। कश्मीर-समस्या इस राजनीति की देन है। एक ज़माने तक केन्द्र सरकार वहाँ सरकार बनाने और गिराने के खेल खेलती रही। जब पाकिस्तान के समर्थन से हिंसक शक्तियों ने मोर्चा सम्हाल लिया तो उसे दुरुस्त करने की बड़ी कीमत हमें चुकानी पड़ी। फिर वहाँ हालात सुधरे और 2009 के चुनाव में बेहतर मतदान हुआ। उसके बाद आई नई सरकार ने चादर खींच कर लम्बी तान ली। अब हम किसी राजनैतिक पैकेज का इंतज़ार कर रहे हैं। इस पैकेज का अर्थ क्या है? एक अर्थ है सन 2000 का स्वायत्तता प्रस्ताव जिसे नेशनल कांफ्रेस भी भूल चुकी है। विडंबना देखिए कि हिंसक आतंकवादियों को परास्त करने के बाद हम ढेलेबाज़ी कर रहे किशोरों से हार रहे हैं। भीलन लूटीं गोपियाँ.....

हिन्दुस्तान में प्रकाशित मेरा लेख पढ़ने के लिए कतरन पर क्लिक करें


बलराज पुरी का लेख
हिन्दू में हैपीमन जैकब का लेख
हिन्दू में सम्पादकीय
कश्मीर का घटनाक्रम 2002 तक-इंडिया टुगैदर