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Sunday, April 30, 2017

'आप' पर संकट के बादल

अरविन्द केजरीवाल ने एक बार फिर से माफी माँगी है कि हमने जनता के मिज़ाज को ठीक से नहीं समझा। आम आदमी पार्टी जितनी तेजी से उभरी थी, उससे भी ज्यादा तेजी के साथ उसका ह्रास होने लगा है। पिछले डेढ़-दो महीनों में उसे जिस तरह से सिलसिलेवार हार का सामना करना पड़ रहा है, वह आश्चर्यजनक है। राजनीतिक दलों की चुनाव में हार कोई अनहोनी नहीं है। ऐसा होता रहता है, पर जिस पार्टी का आधार ही नहीं बन पाया हो, उसका तेज पराभव ध्यान खींचता है। सम्भव है पार्टी इस झटके को बर्दाश्त कर ले और फिर से मैदान में आ जाए। पर इस वक्त उसपर संकट भारी है। दो साल पहले दिल्ली के जिस मध्यवर्ग ने उसे अभूतपूर्व जनादेश दिया था, उसने हाथ खींच लिया और ऐसी पटखनी दी है कि उसे बिलबिलाने तक का मौका नहीं मिल रहा है।

Saturday, April 29, 2017

आम आदमी पार्टी को कौन लाएगा 'बंद कमरे' से बाहर?

युद्धों में पराजित होने के बाद वापिस लौटती सेना के सिपाही अक्सर आपस में लड़ते-मरते हैं. आम आदमी पार्टी के साथ भी ऐसा ही हो तो विस्मय नहीं होगा. एमसीडी चुनाव में मिली हार के बाद पार्टी के नेता-कवि कुमार विश्वास ने कहा है कि हमारे चुनाव हारने का कारण ईवीएम नहीं बल्कि, लोगों से संवाद की कमी है.

उन्होंने यह भी कहा है कि पार्टी में कई फैसले बंद कमरों में किए गए जिस वजह से एमसीडी चुनाव में सही प्रत्याशियों का चयन नहीं हो पाया. उन्होंने यह भी कहा कि सर्जिकल स्ट्राइक को लेकर पीएम नरेंद्र मोदी पर निशाना नहीं साधना चाहिए था.

अभी यह कहना मुश्किल है कि कुमार विश्वास की ये बातें पार्टी के भीतर की स्वस्थ बहस को व्यक्त करती हैं या व्यक्तिगत कड़वाहट को. अरविन्द केजरीवाल ने पार्टी के नए पार्षदों और विधायकों की बैठक में 'अंतर-मंथन' का इशारा भी किया है. उधर नेताओं की अंतर्विरोधी बातें सामने आ रहीं हैं और संशय भी. पार्टी तय नहीं कर पाई है कि क्या बातें कमरे के अंदर तय होनी चाहिए और क्या बाहर.

अचानक ईवीएम को लेकर पार्टी के रुख में बदलाव है. उसकी विचार-प्रक्रिया में यह अचानक-तत्व ही विस्मयकारी है. लगता है विचार सड़क पर होता है और फैसले कमरे के भीतर. महत्वपूर्ण है उसकी विचार-मंथन प्रक्रिया. पार्टी के इतिहास में विचार-मंथन के दो बड़े मौके इसके पहले आए हैं. एक, लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद और दूसरा 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में भारी विजय के बाद. पार्टी की पहली बड़ी टूट उस शानदार जीत के बाद ही हुई थी. और उसका कारण था विचार-मंथन का प्रक्रिया-दोष.

कुमार विश्वास ने माना कि ईवीएम की गड़बड़ी एक मुद्दा हो सकता है लेकिन इसे उठाने का सही मंच कोर्ट और चुनाव आयोग है, जहां जाकर हम अपनी आपत्ति दर्ज कराएं. सवाल है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में हार का सामना कर रही मायावती के बयान के फौरन बाद आम आदमी पार्टी ने भी अचानक इस मसले को क्यों उठाया? क्या इस बात पर विचार किया था कि देश के मध्यवर्ग की प्रतिक्रिया क्या है? और यह भी कि यह आरोप मोदी सरकार पर नहीं, चुनाव आयोग पर है, जिसकी छवि अच्छी है.

Thursday, April 27, 2017

भँवर में घिरी आम आदमी पार्टी

यह पहला मौका है, जब एमसीडी के चुनावों ने इतने बड़े स्तर पर देशभर का ध्यान अपनी ओर खींचा. वस्तुतः ये नगरपालिका चुनाव की तरह लड़े ही नहीं गए. इनका आयाम राष्ट्रीय था, प्रचार राष्ट्रीय और परिणामों की धमक भी राष्ट्रीय है. सहज रूप से नगर निगम के चुनाव में साज-सफाई और दूसरे नागरिक मसलों को हावी रहना चाहिए था. ऐसा होता तो बीजेपी के लिए जीतना मुश्किल होता, क्योंकि पिछले दस साल से उसका एमसीडी पर कब्जा होने के कारण जनता की नाराजगी स्वाभाविक थी. पर हुआ यह कि दस साल की एंटी इनकम्बैंसी के ताप से बीजेपी को ‘मोदी के जादू’ ने बचा लिया.
एमसीडी चुनाव की ज्यादा बड़ी खबर है आम आदमी पार्टी की पराजय. सन 2012 तक दिल्ली में बीजेपी और कांग्रेस ही दो प्रमुख दल थे. सन 2013 के अंतिम दिनों में हुए विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी एक तीसरी ताकत के रूप में उभरी. पर वह नम्बर एक ताकत नहीं थी. सन 2015 में फिर से हुए चुनाव में वह अभूतपूर्व बहुमत के साथ सामने आई. उस विशाल बहुमत ने ‘आप’ को बजाय ताकत देने के कमजोर कर दिया. एक तरफ जनता के मन में अपेक्षाएं बढ़ी, वहीं पार्टी कार्यकर्ता के मन में सत्ता की मलाई खाने की भूख. पार्टी ने अपने विधायकों को पद देने के लिए 21 संसदीय सचिवों की नियुक्ति की. इससे एक तरफ कानूनी दिक्कतें बढ़ीं, वहीं पंजाब में पार्टी के भीतर मारा-मारी बढ़ी, जहाँ सत्ता मिलने की सम्भावनाएं बन रहीं थीं.

Wednesday, April 26, 2017

वैकल्पिक राजनीति का पराभव

नज़रिया: 'नई राजनीति' पर भारी पड़ा 'मोदी का जादू'

मोदी और केजरीवाल
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एमसीडी के चुनाव परिणामों को दो तरीके से देख सकते हैं. यह मोदी की जीत है और दूसरे अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी की हार.
आंशिक रूप से दोनों बातें सही हैं. फिर भी देखना होगा कि दोनों में से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण क्या है.
कई विश्लेषक मानते हैं कि बीजेपी को काम की वजह से नहीं, 'मोदी के जादू' की वजह से जीत मिली.
पर इस जादू ने साल 2015 के विधानसभा चुनाव में काम नहीं किया, जबकि मोदी की अपील उस वक्त आज से कम नहीं थी.
उस वक्त अरविंद केजरीवाल की 'नई राजनीति' मोदी के जादू पर भारी पड़ी थी. आज मोदी का जादू भारी पड़ा है.
एमसीडी चुनावइमेज कॉपीरइटTWITTER @AAMAADMIPARTY

वोटर का मोहभंग

इसका मतलब है कि केजरीवाल का जादू दो साल में रफा-दफा हो गया और मोदी का जादू कायम है.
आज केजरीवाल की 'नई राजनीति' हारी हुई दिखाई पड़ रही है. साल 2015 में उसे सिर पर बिठाने वाली दिल्ली ने इस बार उसे धूल चटा दी.
जैसी ऐतिहासिक वो जीत थी वैसी ही ऐतिहासिक ये हार भी है. दरअसल 'आप' से वोटर का मोहभंग हुआ है.
'आप' इसके लिए ईवीएम को दोष दे रही है, पर यह बात गले नहीं उतरती. आखिर 2015 के चुनाव में भी तो ईवीएम मशीनें थीं.
लगता है कि पार्टी इसे मुद्दा बनाएगी. देखना होगा कि उसकी यह कोशिश उसे कहीं और ज्यादा अलोकप्रिय न बना दे.
एमसीडी चुनावइमेज कॉपीरइटAFP/GETTY IMAGES

'ईवीएम में गड़बड़ी'

मतदान के दो-तीन दिन पहले अखबारों में प्रकाशित इंटरव्यू में केजरीवाल ने कहा था, "ईवीएम में गड़बड़ी नहीं हुई तो हमें 272 में 200 से ज़्यादा सीटें मिलेंगी."
केजरीवाल की बातों में यकीन नहीं बोल रहा है. पंजाब और गोवा में मिली हार से उनका मनोबल पहले से ही टूटा हुआ है.
एमसीडी की हार अब पार्टी के भीतर की कसमसाहट को बढ़ाएगी.
परिणाम आने के एक दिन पहले सोशल मीडिया पर केजरीवाल का एक वीडियो वायरल हुआ था.
इसमें उन्होंने कहा, "अब अगर हम बुधवार को हारते हैं... नतीजे वैसे ही रहते हैं जैसे कि बीती रात बताए गए हैं, तो हम ईंट से ईंट बजा देंगे... आम आदमी पार्टी आंदोलन की उपज है, इसलिए पार्टी वापस अपनी जड़ों की ओर लौटने से हिचकिचाएगी नहीं."

Sunday, April 16, 2017

सावधान ‘आप’, आगे खतरा है

एक ट्रक के पीछे लिखा था, ‘कृपया आम आदमी पार्टी की स्पीड से न चलें...।’ आम आदमी पार्टी के लिए दिल्ली की राजौरी गार्डन विधानसभा सीट पर हुए उप चुनाव का परिणाम खतरनाक संदेश लेकर आया है। पार्टी इस हार पर ज्यादा चर्चा करने से घबरा रही है। उसे डर है कि अगले हफ्ते होने वाले एमसीडी के चुनावों के परिणाम भी ऐसे ही रहे तो लुटिया डूबना तय है। इसके बाद पार्टी का रथ अचानक ढलान पर उतर जाएगा। लगता है कि ‘नई राजनीति’ का यह प्रयोग बहुत जल्दी मिट्टी में मिलने वाला है।

हाल में केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने कहा है कि छह महीने में दिल्ली में एक बार फिर विधानसभा चुनाव होंगे। पता नहीं उन्होंने यह बात क्या सोचकर कही थी, पर यह सच भी हो सकती है। आम आदमी पार्टी का उदय जिस तेजी से हुआ था, वह तेजी उसकी दुश्मन साबित हो रही है। जनता ने उससे काफी बड़े मंसूबे बाँध लिए थे। पर पार्टी सामान्य दलों से भी खराब साबित हुई। उसमें वही लोग शामिल हुए जो मुख्यधारा की राजनीति में सफल नहीं हो पाए थे। हालांकि सन 2015 के चुनाव ने पार्टी को 70 में से 67 विधायक दिए थे, पर अब कितने उसके साथ हैं, कहना मुश्किल है।

Thursday, April 13, 2017

यह आम आदमी पार्टी की उलटी गिनती है

दिल्ली की राजौरी गार्डन विधानसभा सीट पर हुए उप चुनाव के परिणामों से आम आदमी पार्टी की उलटी गिनती शुरू हो गई है. एमसीडी के चुनाव में यही प्रवृत्ति जारी रही तो माना जाएगा कि ‘नई राजनीति’ का यह प्रयोग बहुत जल्दी मिट्टी में मिल गया.

उप-चुनावों के बाकी परिणाम एक तरफ और दिल्ली की राजौरी गार्डन सीट के परिणाम दूसरी तरफ हैं. जिस तरह से 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणाम नाटकीय थे, उतने ही विस्मयकारी परिणाम राजौरी गार्डन सीट के हैं.

आम आदमी पार्टी के नेता मनीष सिसौदिया मानते हैं कि यह हार इसलिए हुई, क्योंकि इस इलाके की जनता जरनैल सिंह के छोड़कर जाने से नाराज थी. यानी पार्टी कहना चाहती है कि यह पूरी दिल्ली का मूड नहीं है, केवल राजौरी गार्डन की जनता नाराज है.

Sunday, April 9, 2017

क्या ‘आप’ के अच्छे दिन गए?

पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस के बाद राष्ट्रीय स्तर पर जिस पार्टी के प्रदर्शन का इंतजार था वह है आम आदमी पार्टी। इंतजार इस बात का था कि पंजाब और गोवा में उसका प्रदर्शन कैसा रहेगा। सन 2015 में दिल्ली विधानसभा के चुनाव में उसकी अभूतपूर्व जीत के बाद सम्भावना इस बात की थी कि यह देश के दूसरे इलाकों में भी प्रवेश करेगी। हालांकि बिहार विधानसभा के चुनाव में उसने सीधे हिस्सा नहीं लिया, पर प्रकारांतर से महागठबंधन का साथ दिया। उत्तर प्रदेश में जाने की शुरूआती सम्भावनाएं बनी थीं, पर अंततः उसका इरादा त्याग दिया। इसकी एक वजह यह थी कि वह पंजाब और गोवा से अपनी नजरें हटाना नहीं चाहती थी।

सन 2014 के लोकसभा चुनाव में उसे पंजाब में अपेक्षाकृत सफलता मिली थी। यदि उस परिणाम को आधार बनाया जाए तो उसे 33 विधानसभा क्षेत्रों में पहला स्थान मिला था। इस दौरान उसने अपना आधार और बेहतर बनाया था। बहरहाल पिछले महीने आए परिणाम उसके लिए अच्छे साबित नहीं हुए। और अब इस महीने होने वाले दिल्ली नगर निगम चुनावों में इस बात की परीक्षा भी होगी कि सन 2015 की जीत का कितना असर अभी बाकी है। पंजाब में उसकी जीत हुई होती तो दिल्ली में उससे  उत्साह बढ़ता। ऐसा नहीं हुआ।

Sunday, December 20, 2015

इतनी तेजी में क्यों हैं केजरीवाल?

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने शुक्रवार को ट्वीट किया कि केंद्र सरकार उन सभी विरोधियों के खिलाफ सीबीआई का इस्तेमाल करने जा रही है जो बीजेपी की बात नहीं मानते। ट्वीट में केजरीवाल ने दावा किया कि यह बात उन्हें एक सीबीआई अधिकारी ने बताई है। प्रधानमंत्री कार्यालय के राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह ने इन आरोपों को नकारते हुए कहा, केजरीवाल को सीबीआई के अधिकारी का नाम बताना चाहिए और सबूत देने चाहिए, पर नाम कौन बताता है? यह बात सच हो तब भी यह राजनीतिक बयान है। इसका उद्देश्य मोदी विरोधी राजनीति और वोटों को अपनी तरफ खींचना है।

केजरीवाल धीरे-धीरे विपक्षी एकता की राजनीति की अगली कतार में आ गए हैं। इस प्रक्रिया में एक बात तो यह साफ हो रही है कि केजरीवाल ‘नई राजनीति’ की अपनी परिभाषाओं से बाहर आ चुके हैं। वे अपने अंतर्विरोधों को आने वाले समय में किस तरह सुलझाएंगे, इसे देखना होगा। फिलहाल उनकी अगली परीक्षा पंजाब में है। शायद वे असम की वोट-राजनीति में भी शामिल होने की कोशिश करेंगे।

Monday, September 7, 2015

पंजाब में 'आप' की जीत सम्भव बशर्ते...

पंजाब में जोखिम से जूझती 'आप'

  • 2 घंटे पहले

अरविंद केजरीवालImage copyrightAP

भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन के सहारे बनी आम आदमी पार्टी अपने गठन के समय से ही अंतर्विरोधों की शिकार है. वह सत्ता और आंदोलन की राजनीति में अंतर नहीं कर पा रही है.
पार्टी 'एक नेता' और 'आंतरिक लोकतंत्र के अंतर्विरोध' को सुलझा नहीं पा रही है. इसके कारण वह देश के दूसरे इलाक़ों में प्रवेश की रणनीति बना नहीं पा रही है.
पार्टी की पंजाब शाखा इसी उलझन में है, जहाँ हाल में उसके केंद्रीय नेतृत्व ने (दूसरे शब्दों में अरविंद केजरीवाल) दो सांसदों को निलंबित करके अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है.

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दिल्ली के बाद पंजाब में पार्टी का अच्छा प्रभाव है. संसद में उसकी उपस्थिति पंजाब के कारण ही है, जहाँ से लोक सभा में चार सदस्य हैं.
पंजाब में कांग्रेस, शिरोमणि अकाली दल और बीजेपी के नेता मानते हैं कि उन्हें सबसे बड़ा ख़तरा 'आप' से है.

'आप' का सेल्फ गोल

पंजाब की जनता को भी 'आप' में विकल्प नज़र आता है.
उम्मीद थी कि अकाली सरकार के ख़िलाफ़ 'एंटी इनकम्बैंसी' को देखते हुए वहाँ कांग्रेस पार्टी अपने प्रभाव का विस्तार करेगी, पर वह भी धड़ेबाज़ी की शिकार है.
ऐसे में 'आप' की संभावनाएं बेहतर हैं, पर लगता है कि यह पार्टी भी सेल्फ़ गोल में यक़ीन करती है.
पार्टी ने हाल में पटियाला के सासंद धर्मवीर गांधी और फ़तेहगढ़ साहिब से जीतकर आए हरिंदर सिंह ख़ालसा को अनुशासनहीनता के आरोप में निलंबित किया है. दोनों का मज़बूत जनाधार है.

मनमुटाव की शुरुआत


प्रशांत भूषणImage copyrightPTI

केजरीवाल और प्रशांत भूषण के टकराव के दौरान इस मनमुटाव की शुरुआत हुई थी. तब से धर्मवीर गांधी योगेंद्र यादव के साथ हैं. शुरू में हरिंदर सिंह खालसा का रुख़ साफ़ नहीं था, पर अंततः वे भी केंद्रीय नेतृत्व के ख़िलाफ़ हो गए.
इन दोनों नेताओं को समझ में आता है कि प्रदेश में लहर उनके पक्ष में है. दूसरी ओर पार्टी नेतृत्व को लगता है कि पार्टी से अलग होने के बाद किसी नेता की पहचान क़ायम नहीं रहती.

Wednesday, June 10, 2015

दिल्ली में सियासी नौटंकी

दिल्ली में केंद्र और राज्य सरकार के बीच टकराव मर्यादा की सीमाएं तोड़ रहा है. स्थिति हास्यास्पद हो चुकी है. सरकार का कानून मंत्री फर्जी डिग्री के आरोप में गिरफ्तार है. सवाल उठ रहे हैं कि गिरफ्तारी की इतनी जल्दी क्या थी? इस मामले में अदालती फैसले का इंतज़ार क्यों नहीं किया गया? मंत्री के खिलाफ एफआईआर करने वाली दिल्ली बार काउंसिल से भी सवाल किया जा रहा है कि उसके पंजीकरण की व्यवस्था कैसी है, जिसमें बगैर कागज़ों की पक्की पड़ताल के वकालत का लाइसेंस मिल गया? प्रदेश सरकार अपने ही उप-राज्यपाल के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की धमकी दे रही है. उप-राज्यपाल ने एंटी करप्शन ब्रांच के प्रमुख पद पर एक पुलिस अधिकारी की नियुक्ति कर दी. सरकार ने उस नियुक्ति को खारिज कर दिया, फिर भी उस अधिकारी ने नए पद पर काम शुरू करके अपने अधीनस्थों के साथ बैठक कर ली. कहाँ है दिल्ली की गवर्नेंस? यह सब कैसा नाटक है? आम आदमी पार्टी इसे केजरीवाल बनाम मोदी की लड़ाई के रूप में पेश कर रही है. क्या है इसके पीछे की सियासत?

Saturday, April 25, 2015

इतना शर्मिंदा क्यों होते हैं केजरीवाल?

केजरीवाल बार-बार माफ़ी पर क्यों आ जाते हैं?


केजरीवाल

किसान गजेंद्र सिंह की आत्महत्या पर मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपनी ग़लती को माना है.
उनका कहना है कि, "हमें उस दिन अपनी सभा ख़त्म कर देनी चाहिए थी." इस ग़लती का एहसास उन्हें बाद में हुआ.
ग़ालिब का शेर है, "की मेरे क़त्ल के बाद उसने जफ़ा से तौबा, हाय उस ज़ूद-पशेमां (गुनाहगार) का पशेमां (शर्मिंदा) होना."
केजरीवाल का ग़लती मान लेना मानवीय नज़रिए से सकारात्मक और ईमानदार फ़ैसला है. उनकी तारीफ़ होनी चाहिए.
पर पिछले दो साल में वे कई बार ग़लतियों पर शर्मिंदा हो चुके हैं.

क्या यह भी कोई प्रयोग था?


केजरीवाल की किसान रैली

सवाल है कि वे ठीक समय पर पश्चाताप क्यों नहीं करते? देर से क्यों पिघलते हैं? इसलिए शक़ पैदा होता है कि यह शर्मिंदगी ‘रियल’ है या ‘टैक्टिकल?’
क्या आम आदमी पार्टी प्रयोगशाला है? और क्यों जो हो रहा है वह प्रयोग है?
दिसम्बर 2013 में पहले दौर की सरकार बनाने और 49 दिन बाद इस्तीफ़ा देनेके ठोस कारण साफ़ नहीं हुए थे कि उन्होंने लोकसभा चुनाव में उतरने का फैसला कर लिया.
उसमें फ़ेल होने के बाद फिर से दिल्ली में सरकार बनाने की मुहिम छेड़ी.
इधर, इस साल जब से उन्हें विधानसभा चुनाव में जबर्दस्त सफलता मिली है, पार्टी को ‘अंदरूनी’ बीमारी लग गई है.

Wednesday, April 1, 2015

‘आप’ को 'आधा तीतर-आधा बटेर' मनोदशा से बाहर आना होगा

दिल्ली के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की जीत भारतीय राजनीति में नई सम्भावनाओं की शुरुआत थी. पर नेतृत्व की नासमझी ने उन सम्भावनाओं का अंत कर दिया. अभी यह कहना गलत होगा कि इस विचार का मृत्युलेख लिख दिया गया है. पर इसे जीवित मानना भी गलत होगा. इसकी वापसी के लिए अब हमें कुछ घटनाओं का इंतज़ार करना होगा. यह त्रासद कथा पहले भी कई बार दोहराई गई है. अब इसका भविष्य उन ताकतों पर निर्भर करेगा, जो इसकी रचना का कारण बनी थीं. भविष्य में उनकी भूमिका क्या होने वाली अभी कहना मुश्किल है. अंतिम रूप से सफलता या विफलता के तमाम टेस्ट अभी बाकी हैं. इतना साफ हो रहा है कि संकट के पीछे सैद्धांतिक मतभेद नहीं व्यक्तिगत राग-द्वेष हैं. यह बात इसके खिलाफ जाती है.

दिल्ली में 49 दिन बाद ही इस्तीफा देने के बाद पार्टी की साख कम हो गई थी. वोटर ने लोकसभा चुनाव में उसे जोरदार थप्पड़ लगाया. पर माफी माँगने के बाद पार्टी दुबारा मैदान में आई तो सफल बना दिया? दिल्ली में उसे मिली सफलता के दो कारण थे. एक तो जनता इस प्रयोग को तार्किक परिणति तक पहुँचाना चाहती थी. दूसरे भाजपा के विजय रथ को भी रोकना चाहती थी. पर जनता बार-बार उसकी नादानियों को सहन नहीं करेगी. खासतौर से तब जब एक के बजाय दो आप सामने होंगी? फिलहाल दोनों निष्प्राण हैं. और यह नहीं लगता कि दिल्ली की प्रयोगशाला से निकला जादू आसानी से देश के सिर पर चढ़कर बोलेगा.

Tuesday, March 17, 2015

'आप' पर छिटपुट विमर्श

आम आदमी पार्टी की रीति-नीति पर जब भी बात होती है ज्यादातर व्यक्तियों पर केंद्रित रहती है। या उसके आंतरिक लोकतंत्र या आंदोलनकारी भूमिका पर। टीवी पर बातचीत बिखरी रहती है और अखबारों, खासतौर से हिन्दी अखबारों की दिलचस्पी विमर्श पर बची नहीं। अलबत्ता पिछले हफ्ते 14 मार्च को प्रभात खबर ने अपने एक पेज इस मसले को दिया, जिसमें घटनाक्रम का क्रमबद्ध विवरण और कुछ दृष्टिकोण दिए गए हैं। इनमें सुहास पालशीकर का दृष्टिकोण ध्यान खींचता है। उन्हें लगता है कि यह भी दूसरे दलों की तरह सामान्य पार्टी बनकर रह गई है। अभी कहना मुश्किल है कि इसकी राह क्या होगी, पर यह पार्टी दूसरे दलों जैसी नहीं होगी, यह मानने का कारण भी सामने नहीं आ रहा है। खासतौर से आंतरिक लोकतंत्र को लेकर, क्योंकि यदि वैचारिक स्तर पर मतभेद होंगे तो उनका निपटारा भी लोकतांत्रिक तरीके से ही होगा। बहरहाल इस दौरान 'आप' से जुड़ी कुछ सामग्री आपके सामने पेश है, जिसमें क्रिस्टोफर जैफरलॉट का एक्सप्रेस में प्रकाशित लेख भी है। ईपीडब्ल्यू में आनन्द तेलतुम्बडे और एक्सप्रेस में प्रकाशित प्रताप भानु मेहता के आलेख भी पढ़ने योग्य हैं, जो दिल्ली विधानसबा चुनाव में 'आप' की विजय के संदर्भ में लिखे गए हैं।

A Victory of Possibilities
Pratap Bhanu Mehta

...The second challenge and opportunity is this: It was fashionable to portray the AAP as unleashing another populist class war, fiscally imprudent and insensitive to growth. This was a gross exaggeration unleashed by those who were engaging in class warfare anyway. But the central challenge facing India is how to create cultures of negotiation around important issues where we do not oscillate between cronyism and populism. All the important issues facing us — pricing water and electricity, managing land and environment, access to health and education — have been stymied by this oscillation. Even now, the fog of obfuscation and false choices in these areas is threatening our future. Creating credible and inclusive negotiation on these issues is the central task. In India, the rich have evaded accountability by raising the spectre of class warfare, and the poor have been cheated by populism. There has to be a liberal critique of oligarchy at the top, and a social democratic critique of populism at the bottom. We hope the AAP is the harbinger of this change.

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Something borrowed

Written by Christophe Jaffrelot | Published on:March 14, 2015 12:00 am

The current tensions in the AAP, particularly those which have led to Prashant Bhushan and Yogendra Yadav being voted out of its political affairs committee, may be better understood if one realises that the party lies at the intersection of traditions that have their own potential and contradictions. The AAP has inherited the legacy of two major political traditions in India, Gandhian and socialist. This is not the first time that a political movement has combined both. In the 1970s, Jayaprakash Narayan had tried to do the same. But the challenges that Arvind Kejriwal faces are of a different magnitude.

Sunday, March 15, 2015

‘आप’ का जादू भी हवा हो सकता है


आम आदमी पार्टी को लेकर फिलहाल सवाल यह नहीं है कि वह अपने नेताओं के मतभेदों को किस प्रकार सुलझाएगी। बल्कि यह है कि वह भविष्य में किस प्रकार की राजनीति करेगी। दिल्ली में उसकी सफलता का जो फॉर्मूला है क्या वही बाकी जगह लागू होगा? वह व्यक्ति आधारित पार्टी है या विचार आधारित राजनीति की प्रवर्तक? अरविन्द केजरीवाल व्यक्तिगत आचरण के कारण लोकप्रिय हुए हैं या उनके पास कोई राजनीतिक योजना है? बहरहाल देखना यह है कि पार्टी अपने वर्तमान संकट से किस प्रकार बाहर निकलेगी। सुनाई पड़ रहा है कि 28 मार्च को राष्ट्रीय परिषद की बैठक में ‘बागियों’ को पार्टी से निकाला जाएगा।

अभी तक पार्टी का विभाजन नहीं हुआ है। क्या विभाजन होगा? हुआ तो किस आधार पर? और टला तो उसका फॉर्मूला क्या होगा? और क्या भविष्य में फिर टकराव नहीं होगा? ‘आप’ के विफल होने पर बड़ा धक्का कई लोगों को लगेगा। उनको भी जिन्होंने उसमें नरेंद्र मोदी के उभार के खिलाफ वैकल्पिक राजनीति की आहट सुनी थी। दूसरे राज्यों में उसके विस्तार की सम्भावनाओं को भी ठेस लगेगी। थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं कि व्यावहारिक राजनीति के लिए ऐसे बहुत से काम करने पड़ते हैं, जो खुले में अटपटे लगते हैं। जैसे कि राष्ट्रपति शासन के दौरान दिल्ली में सरकार बनाने की कोशिश करना। या मुस्लिम सीटों के बारे में फैसले करना। आम आदमी पार्टी से लोग इन बातों की उम्मीद नहीं करते थे। इसलिए कि उसने अपनी बेहद पवित्र छवि बनाई थी। इन अंतर्विरोधों से पार्टी बाहर कैसे निकलेगी?

Thursday, March 12, 2015

क्या ‘स्वांग’ साबित होगी आम आदमी कथा?

भगवती चरण वर्मा की कहानी ‘दो बांके’ का अंत कुछ इस प्रकार होता है... इस पार वाला बांका अपने शागिर्दों से घिरा हुआ चल रहा था. शागिर्द कह रहे थे, ”उस्ताद इस वक्त बड़ी समझदारी से काम लिया, वरना आज लाशें गिर जातीं. उस्ताद हम सब के सब अपनी-अपनी जान दे देते...!”

इतने में किसी ने बांके से कहा, “मुला स्वांग खूब भरयो.” 


यह बात सामने खड़े एक देहाती ने मुस्कराते हुए कही थी. उस वक्त बांके खून का घूंट पीकर रह गए। उन्होंने सोचा-एक बांका दूसरे बांके से ही लड़ सकता है, देहातियों से उलझना उसे शोभा नहीं देता. और शागिर्द भी खून का घूंट पीकर रह गए. उन्होंने सोचा-भला उस्ताद की मौजूदगी में उन्हें हाथ उठाने का कोई हक भी है?

आम आदमी पार्टी की कथा भी क्या स्वांग साबित होने वाली है?


आप: 'एक अनूठे प्रयोग का हास्यास्पद हो जाना'




केजरीवाल, प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव

दिल्ली में सरकार बनाने के लिए कथित तौर पर विधायकों की खरीद-फ़रोख्त का आरोप लगने के बाद आम आदमी पार्टी की राजनीति पर कुछ दाग लगते नज़र आ रहे हैं. ख़ास बात ये है कि आम आदमी पार्टी पर ये दाग कांग्रेस या भारतीय जनता पार्टी ने नहीं बल्कि उसके पू्र्व सहयोगियों ने लगाए हैं.
ऐसे सहयोगी जो पहले दोस्त थे, उन्हें अब 'सहयोगी' कहना अनुचित होगा. आम आदमी पार्टी पर बीते कुछ दिनों में कई तरह की तोहमतें लगी हैं. उसी कड़ी मेें नई तोहमत ये है कि एक ऑडियो रिकॉर्डिंग सामने आई है जिसमें अरविंद केजरीवाल पर कांग्रेस विधायकों को अपने पाले में लाने की कोशिश का आरोप है.
ये तब की बात बताई जा रही है जब दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगा था और नए सिरे से विधानसभा के चुनाव नहीं हुए थे.

पढ़ें विस्तार से



आम आदमी पार्टी समर्थक

आम आदमी पार्टी की फ़ज़ीहत के लिए यह टेप ही काफी नहीं था. इसके बाद योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण ने चिट्ठी जारी की जिसमें सफाई कम आरोप ज़्यादा थे.
योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को पार्टी की राजनीतिक मामलों की समिति से जिस तरह निकाला गया और उसके बाद यह मसला खींचतान के साथ जिस मोड़ पर आ गया है, उससे नेताओं का जो भी बने, पार्टी समर्थकों का मोहभंग ज़रूर होगा. दोनों तरफ के आरोपों ने पार्टी की कलई उतार दी है.
इस घटनाक्रम ने भारतीय राजनीति के एक अभिनव प्रयोग को हास्यास्पद बनाकर रख दिया है. लोकतांत्रिक मूल्य-मर्यादाओं की स्थापना का दावा करने वाली पार्टी संकीर्ण मसलों में उलझ गई. उसके नेताओं का आपसी अविश्वास खुलकर सामने आ गया.

केजरीवाल का वर्चस्व



केजरीवाल, मयंक गांधी

'नई राजनीति' के 'प्रवर्तक' अरविंद केजरीवाल पर उनके ही 'साथियों' ने विधायकों की ख़रीद-फ़रोख्त का आरोप लगाया है.
योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण ने पार्टी की रीति-नीति को निशाना बनाया है पर मामला इतना ही नहीं लगता. इसमें कहीं न कहीं व्यक्तिगत स्वार्थ और अहम का टकराव भी है.
यह स्वस्थ आत्ममंथन तो नहीं है. इस झगड़े के बाद पार्टी में अरविंद केजरीवाल का वर्चस्व ज़रूर कायम हो जाएगा, पर गुणात्मक रूप से पार्टी को ठेस लग चुकी है.

Friday, January 3, 2014

दिल्ली विधानसभा में अरविंद केजरीवाल का भाषण

विश्वास मत  पर दिल्ली विधानसभा में हुई चर्चा  का जवाब देते हुए अरविंद केजरीवाल ने जो बातें कहीं उन्हें विस्तार से आज दैनिक भास्कर ने इस रूप में प्रकाशित किया हैः-
दैनिक भास्कर में प्रकाशित

कांग्रेस और भाजपा ने 'आप' से क्या सीखा?


हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून
गुरुवार को जिस वक्त दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की सरकार के विश्वासमत पर चर्चा चल रही थी, टीवी पर ब्रेकिंग न्यूज़ आई कि महाराष्ट्र सरकार ने आदर्श मामले पर गठित आयोग की रपट को आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया है। इस खबर से दो बातें ज़ाहिर हुईं। एक 'आप' परिघटना ने कांग्रेस को भीतर तक हिला दिया है। साथ में दूसरी बात यह भी साबित हुई कि कांग्रेस के नेता इस बात से कोई सबक सीखना नहीं चाहते। महाराष्ट्र सरकार ने आंशिक रूप से रपट स्वीकार करके जनता की आँखों में धूल झोंकने की कोशिश की है। उसने अब अफसरों को नापने और राजनेताओं को बचाने का काम शुरू किया है। नीचे पढ़ें आज के हिंदू में प्रकाशित रपट का एक अंश

Five days after Congress vice-president Rahul Gandhi criticised the Maharashtra government’s rejection of the Adarsh Commission of Inquiry report, the State Cabinet revised its stand and accepted the report on Thursday.

However, the Action Taken Report (ATR), issued upon acceptance of the report recommends no action against the six politicians indicted by the Commission for extending “political patronage” to the controversial building project on the grounds that there were “no allegations of criminality” against them.

The 12 IAS officers named for violating All India Service Conduct Rules will be proceeded against. The Commission’s report indicted four former Congress Chief Ministers, including Sushilkumar Shinde, now Union Home Minister, Vilasrao Deshmukh, Ashok Chavan and Shivajirao Nilangekar Patil.

It had also indicted two NCP Ministers of State, Sunil Tatkare and Rajesh Tope. In the case of the latter two, the ATR goes a step further and says they had not dealt with any files related to the building. The Bharatiya Janata Party was quick to denounce this.

अरुण जेटली का लेख 

कांग्रेस के साथ-साथ भारतीय जनता पार्टी ने भी 'आप' परिघटना से कुछ सीखने का निश्चय किया है। भारतीय जनता पार्टी की वैबसाइट पर अरुण जेटली का लेख गुरुवार को प्रकाशित हुआ है जिसमें उन्होंने लिखा है कि हाल के चुनाव परिणामों का संदेश साफ है कि भारत में वोटर की अपेक्षाएं बढ़ रहीं हैं। हमें इन परिणामों से सबक सीखने चाहिए। इस लेख के अंशः-

Is 2014 going to be substantially different in terms of India’s polity and governance? The bar of expectation of Indian people has been raised high. It is not merely the Indian middle class which is the strong opinion maker. There is additionally a substantial aspirational class in India whose level of expectations is entirely different. They are going to judge Indian politics, persons in public life and the quality of governance harshly. They will vote in governments and vote out governments if they found them not meeting popular aspirations. पूरा लेख यहाँ पढ़ें

Thursday, December 19, 2013

'आप' के सामने जोखिम अनेक हैं, पर सफल हुई तो भारत बदल जाएगा

 गुरुवार, 19 दिसंबर, 2013 को 11:27 IST तक के समाचार
आम आदमी पार्टी रविवार तक जनता के बीच जाकर उससे पूछेगी कि पार्टी को दिल्ली में सरकार बनानी चाहिए या नहीं. इसके बाद सोमवार को पता लगेगा कि पार्टी सरकार बनाने के लिए तैयार है या नहीं. भारत में यह जनमत संग्रह अभूतपूर्व घटना है. यूनानी नगर राज्यों के प्रत्यक्ष लोकतंत्र की तरह.
‘आप’ की पेचदार निर्णय प्रक्रिया जनता को पसंद आएगी या नहीं, लेकिन पार्टी जोखिम की राह पर बढ़ रही है. पार्टी को दुबारा चुनाव में ही जाना था, तो इस सब की ज़रूरत नहीं थी. इस प्रक्रिया का हर नतीजा जोखिम भरा है. पार्टी का कहना है कि हमने किसी से समर्थन नहीं माँगा था, पर उसने सरकार बनाने के लिए ही तो चुनाव लड़ा था.
‘आप’ अब तलवार की धार पर है. सत्ता की राजनीति के भंवर ने उसे घेर लिया है. इस समय वह जनाकांक्षाओं के ज्वार पर है. यदि पार्टी इसे तार्किक परिणति तक पहुँचाने में कामयाब हुई तो यह बात देश के लोकतांत्रिक इतिहास में युगांतरकारी होगी.
एक सवाल यह है कि इस जनमत संग्रह की पद्धति क्या होगी? पार्टी का कहना है कि 70 विधानसभा क्षेत्रों में जनसभाएं की जाएंगी, 25 लाख पर्चे छापे जाएंगे. फेसबुक, ट्विटर और एसएमएस की मदद भी ली जाएगी.