Saturday, September 5, 2015

भाजपा ने डाली महागठबंधन के दुर्ग में दरार



 समाजवादी पार्टी ने बिहार विधानसभा चुनाव अकेले लड़ने की घोषणा करने के बाद राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा विरोधी मोर्चा बनने की सम्भावनाओं को गहरा धक्का लगा है। बावजूद इसके नीतीश और लालू की एकता और सोनिया गांधी के समर्थन के कारण महागठबंधन कायम रहेगा। पर बीजेपी की कोशिश इसकी जड़ों को काटने की होगी। यह बात पिछले हफ्ते की गतिविधियों से साफ है। पिछली 27 अगस्त को मुलायम सिंह यादव और रामगोपाल यादव की नरेंद्र मोदी से मुलाकात हुई थी। उसके फौरन बाद मुलायम सिंह यादव ने कहा था कि मैं महागठबंधन की 30 अगस्त को होने वाली स्वाभिमान रैली में शामिल नहीं हो पाऊँगा। इस पर लालू यादव ने कहा था कि इसमें परेशानी की कोई बात नहीं है। उन्होंने अगली रात बिहार में सपा के बिहार इंचार्ज किरण्मय नंदा से मुलाकात भी की। साथ ही सपा को पाँच सीटें देने की घोषणा भी की। इन पाँच में अपने कोटे की 100 में से दो और एनसीपी को आबंटित तीन सीटें देने की घोषणा 29 अगस्त को की।

मुलायम 30 अगस्त की रैली में नहीं गए, पर लालू यादव उनके भाई शिवपाल यादव को रैली में लाने में कामयाब हुए। इसके बाद 31 अगस्त को भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने रामगोपाल यादव के साथ बैठक की। उसी रोज अमित शाह की लोक जनशक्ति पार्टी, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी और हिन्दुस्तान अवाम मोर्चा (सेक्युलर) के नेताओं से भी मुलाकात हुई। ये सारी बातें बीजेपी की रणनीति को स्पष्ट करती हैं। जनता परिवार जिस तरह जातीय ध्रुवीकरण पर भरोसा कर रहा है उसके विपरीत बीजेपी इसमें जातीय विग्रह के बीज डाल रही है। सफल कौन होगा यह चुनाव परिणामों से पता लगेगा।
पिछले हफ्ते गुरुवार को लखनऊ में सपा के संसदीय दल की बैठक के बाद पार्टी के महासचिव राम गोपाल यादव ने बिहार में अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा की थी। कोई पूछ सकता है कि वे इस गठबंधन में थे ही कब? सवाल है कि महागठबंधन बिहार विधानसभा चुनाव के लिए बना है इससे उत्तर प्रदेश का क्या लेना-देना? मुलायम सिंह को अपने प्रदेश की फिक्र भी है। वहाँ लालू-नीतीश क्या मददगार होंगे? क्या कांग्रेस वहां सपा के साथ खड़ी होगी? पिछले कुछ महीनों से कांग्रेस पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा विरोधी मोर्चा बनाने की दिशा में प्रयत्नशील है। पर कैसे? मुलायम सिंह के फैसले के बाद भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन ने कहा, बिहार विधानसभा चुनाव तक लालू और नीतीश भी साथ-साथ रहेंगे या नहीं। यह बात काफी पहले से हवा में है कि नीतीश और लालू दोस्ती लम्बे समय तक नहीं चलेगी।
बिहार में जनता दल (यूनाइटेड) के प्रवक्ता अजय आलोक का कहना है कि राजनीति में बड़े परिदृश्य को ध्यान में रखकर हमने गठबंधन बनाया गया था। हमारे नेता सपा सुप्रीमो का फैसला बदलवाने की कोशिश कर रहे हैं। इससे पहले सोमवार को पार्टी के महासचिव राम गोपाल यादव की भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से मुलाकात हुई थी। तब लगा था कि मुलायम करीब 50 सीटों पर डमी कैंडिडेट खड़े करेंगे। इससे भले ही उन्हें कुछ न मिले, पर भाजपा को बहुत फायदा होगा। महागठबंधन की ओर से रविवार को पटना के गांधी मैदान में हुई स्वाभिमान रैली में मुलायम सिंह यादव का नहीं पहुंचना चर्चा का विषय था।

ये पहली बार नहीं जब सपा के बिहार चुनाव में भागीदारी से भाजपा को फायदा हुआ हो। इससे पिछले चुनाव में सपा 240 सीटों में से 146 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। चुनाव में भले ही एक भी सीट पर उसको सफलता न मिली हो लेकिन यादव वोट काटने की वजह से इन सीटों पर भाजपा को जरूर फायदा हुआ था। इसी तरह सपा महाराष्ट्र में 22 सीटों पर, गुजरात में 67 सीटों पर और मध्य प्रदेश में 164 सीटों पर चुनाव लड़ चुकी है।

कुछ लोगों को इस बात पर हैरत इसलिए है कि मुलायम सिंह यादव के लालू यादव से पारिवारिक रिश्ते हैं। लालू यादव महागठबंधन को कामयाब बनाना चाहते हैं। पर पार्टी की राजनीति व्यक्तिगत रिश्तों से तय नहीं होती। कांग्रेस और सोनिया गांधी के पक्ष में मुलायम सिंह यादव का रुख कभी नरम नहीं हुआ। यह रंजिश तकरीबन दो दशक पुरानी है। 30 अगस्त को बिहार की राजधानी पटना में हुई स्वाभिमान रैली में सोनिया गांधी को चेहरा बनाया गया था। जबकि समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव इसके खिलाफ थे। वे सोनिया गांधी को इस मुहिम का नेता नहीं बनाना चाहते।

पार्टी नेता राम गोपाल यादव ने लखनऊ में प्रेस कांफ्रेस में यह भी कहा, "जनता परिवार कब एक हो पाया है।" उन्होंने कहा कि सीटों के बंटवारे पर उनकी पार्टी से सलाह मशविरा नहीं किया गया, जिससे हम 'अपमानित' महसूस करते हैं। पत्रकारों ने जब उनसे कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से मुलाक़ात के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री से मिलना कोई पाप तो नहीं है। हालांकि पार्टी ने प्रकट रूप में इस बात को मुख्य कारण बनाया है कि पार्टी के केवल पाँच सीटें ही दी गईं थी, पर बिहार में उसकी उपस्थिति को देखते हुए यह कोई बड़ा कारण नहीं लगता। ऐसा लगता है कि बीजेपी बिहार के महत्वपूर्ण जातीय वोट महागठबंधन की तरफ जाने से रोकना चाहती है। सन 2010 के विधानसभा चुनाव में सपा ने 146 सीटों पर चुनाव लड़ा था। सभी सीटों पर उसकी जमानत जब्त हुई थी। उसे कुल वोटों का 0.55 फीसदी वोट ही मिला था।

इस दौरान सपा के रुख में बदलाव दिखाई पड़ने लगा। 2 सितम्बर को सपा के भीतर असंतोष की खबरें आने लगीं। यह कहा जाने लगा कि बहुत कम संख्या में सीटें दी गईं हैं। इस बीच पार्टी के संसदीय बोर्ड की बैठक गुरुवार तक के लिए टाल दी गई। फिर गुरुवार को फैसला कर लिया गया कि पार्टी महागठबंधन में शामिल नहीं होगी। मसला यह नहीं है कि सपा की बिहार में ताकत क्या है, बल्कि वह छोटे स्तर पर ही सही महागठबंधन का गणित बिगाड़ेगी। यह बात भाजपा के हित में जाएगी। भाजपा की रणनीति में महागठबंधन का खेल बिगाड़ने के लिए असदुद्दीन ओवेसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन तथा पप्पू यादव का जन अधिकार मोर्चा भी है।

सवाल है कि क्या मुलायम सिंह भाजपा के करीब आ रहे हैं? और आ रहे हैं तो क्यों? जेडीयू के शरद यादव और राजद के लालू यादव का कहना है कि नहीं हम उन्हें वापस बुला लाएंगे, पर लगता नहीं कि मुलायम का फैसला बदलेगा। संसद के पिछले मॉनसून सत्र के खत्म होने के तीन दिन पहले मुलायम सिंह यादव ने कांग्रेस के लगातार चलते गतिरोध के खिलाफ बोलकर यह स्पष्ट कर दिया था कि वे ज्यादा लम्बे समय तक भाजपा के विरोध में नहीं जाएंगे। साथ ही यह भी स्पष्ट था कि वे कांग्रेस के गठबंधन को भी स्वीकार करने को तैयार नहीं है। सवाल है कि मुलायम सिंह यादव भाजपा विरोधी गठबंधन में शामिल क्यों नहीं होना चाहते हैं जबकि आने वाले समय में उत्तर प्रदेश में उन्हें भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ना है?

देखना यह होगा कि बिहारी ‘महागठबंधन’ में दरार पड़ने से उत्तर प्रदेश पर क्या असर पड़ेगा। यह गठबंधन कांग्रेस की व्यापक रणनीति का हिस्सा भी था। अब लगता है कि उत्तर प्रदेश के 2017 के चुनाव में तीन या चार कोणीय चुनाव होगा। सपा, बसपा, भाजपा और कांग्रेस। बिहार में कांग्रेस को कुछ खास मिलेगा नहीं, पर उसकी दिलचस्पी नरेंद्र मोदी और बीजेपी के पराभव में है। मुलायम सिंह यादव केवल इतनी बात से खुश नहीं होंगे कि बिहार में गाड़ी का पहिया उल्टा घूमने लगा है। यह कांग्रेसी खुशी है। कांग्रेस को संतोष होगा कि बीजेपी कमजोर हो रही है। पर मुलायम सिंह को क्या मिलेगा? बिहार में बोए बीज उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की फसल लहलहाने में मददगार नहीं होते। इस बात की सम्भावना भी नहीं थी कि उत्तर प्रदेश में सपा और कांग्रेस का गठबंधन होता।

जनता-परिवार और कांग्रेस की इस मिली-जुली परियोजना में अंदरूनी पेच भी हैं। कोई नहीं कह सकता कि उत्तर प्रदेश के चुनाव आने तक बिहार का गठबंधन कायम रहेगा। या नीतीश कुमार उसके नेता बने रहेंगे। यह भी स्पष्ट नहीं है कि वहाँ सरकार बनी तो लालू यादव की प्रत्यक्ष या परोक्ष भूमिका क्या होगी। और यह भी कि गठबंधन बनने या विलय के बाद पार्टियों और समूहों की अलग-अलग पहचान खत्म होगी या नहीं। पहचान कायम रही तो ज्यादा बड़ी संख्या में विधायक किसके साथ होंगे? जनता-परिवार का इतिहास क्या कहता है? लालू, मुलायम, नीतीश की त्रिमूर्ति क्या क्षेत्रीय राजनीति को कोई नया रूप  दे सकती थी? और इसमें कांग्रेस की भूमिका क्या होती?

जनता परिवार के एक होने की कोशिशों के पीछे सबसे बड़ी वजह नरेंद्र मोदी हैं। समझना यह भी चाहिए कि यह व्यक्तिगत रूप से मोदी के कारण है या व्यापक स्तर पर गैर-साम्प्रदायिक राजनीति के कारण। बीजेपी के बढ़ते असर को रोकने के लिए एक छतरी की जरूरत किसे है? इस छतरी की परिकल्पना बिहार में अगस्त 2014 में हुए उप-चुनाव में सफल हुई थी, जब मोदी लहर के उस दौर में बीजेपी-विरोधी गठबंधन 10 में से 6 सीटें निकाल ले गया। इसके बाद सितम्बर 2014 में उत्तर प्रदेश में 11 सीटों पर उपचुनाव हुए, जिनमें भाजपा को केवल तीन सीटें मिलीं। समाजवादी पार्टी के खाते में आठ सीटें गईं। इसके पहले ये सभी 11 सीटें भाजपा की थीं।

सपा की वह सफलता चुनावी गणित की देन थी। पार्टी इस चुनाव में भाजपा-विरोधी वोटों को बिखरने से रोकने में कामयाब हुई। लोकसभा चुनाव में भारी हार से पार्टी ने सबक लिया और मुलायम सिंह यादव ख़ुद आम चुनाव की तरह सक्रिय रहे। एक-एक सीट की रणनीति उन्होंने खुद बनाई। पर उत्तर प्रदेश और बिहार में फर्क था। बिहार की तरह उत्तर प्रदेश में भाजपा-विरोधी मोर्चा नहीं था। अलबत्ता बहुजन समाज पार्टी ने चुनाव में अपने प्रत्याशी नहीं उतारे। सपा को इसका फायदा मिला। सपा की जीत का सबसे बड़ा कारण बसपा की अनुपस्थिति थी। पर 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा उसके सामने सबसे बड़ी प्रतिस्पर्धी होगी।

नीतीश कुमार और कांग्रेस की पहल पर बिहार में खुली यह धर्म-निरपेक्ष छतरी सार्वदेशिक नहीं है। पिछले साल नवम्बर में जवाहर लाल नेहरू की 125वीं जयंती के सहारे कांग्रेस ने धर्म निरपेक्ष छतरी के रूप में अपना बैनर ऊँचा किया था। अलबत्ता सीपीएम में प्रकाश करत की जगह आए सीताराम येचुरी इसे लेकर उत्साहित हैं। पर सीपीएम का उत्तर भारत की राजनीति से क्या लेना-देना? क्या देश के सारे गैर-भाजपा दल कांग्रेस को धर्म निरपेक्षता की ध्वजवाहक मानेंगे? इतना ही नहीं ये दल द्रविड़ प्राणायाम भी कर रहे हैं। जनता परिवार के नेता कहते हैं कि इस मुहिम का मोदी और भाजपा से कुछ भी लेना-देना नहीं है। हम तो नई राजनीति की शुरूआत करना चाहते हैं। सवाल है कि इस नई राजनीति में नया क्या है?

इस राजनीति का एक बड़ा अंतर्विरोध यह है कि कांग्रेस की कोशिश गैर-भाजपा दलों के केंद्र के रूप में खड़ा होने की है। नेहरू को लेकर दिल्ली में पिछले साल 17, 18 नवंबर के अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन में गैर राजग दलों को बुलाकर कांग्रेस ने अपनी इच्छा को प्रकट कर दिया। क्या जनता कुनबा नेहरू के झंडे तले आने को तैयार है? बिहार में कांग्रेस ने लालू और नीतीश का भरत-मिलाप करा दिया। पर क्या वह पूरे देश में ऐसा कर पाएगी?

एक क्रिया की प्रतिक्रिया भी होगी। बिहार में जातीय-साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ तो उत्तर प्रदेश में पलट-वार होगा। 2014 के लोकसभा चुनाव में वह भी हुआ था। उत्तर प्रदेश पूरी तरह बिहार नहीं है। यहाँ की सामाजिक ज़मीन दो नहीं साढ़े तीन खेमों में बँटी है। यों भी देश में भविष्य की राजनीति अनिवार्य रूप से जाति केंद्रित नहीं है। राजनीतिक संरचनाएं जातीय क्षत्रपों के इर्द-गिर्द स्थापित हुईं हैं और उनके पाला बदलते ही स्थितियाँ और सिद्धांत बदल जाते हैं। कैसे मान लें कि भविष्य में पाले बदले नहीं जाएंगे? ये चुनाव-केंद्रित पार्टियाँ हैं और सत्ता के शेयर पर जीवित रहती हैं। पहले बिहार में जीतने तो दीजिए। 


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